याद आता है गुजरा जमाना 75
मदनमोहन तरुण
यात्रा भविष्य की ओर
बाबाधाम से वापस लौटने पर रात्रि में श्रीमती से पुनः मुलाकात हई , परन्तु इसबार हमारी बातचीत का विषय भिन्न था। श्रीमती ने कहा कि मुझे राँची जाने की तैयारी करनी चाहिए। आगे की पढा॰ई जारी रखना और उसमें पहले से कहीं अच्छा करना अब चुनौती और प्रतिष्ठा का विषय बन गया है।सुनकर मैं चकित उनकी ओर देखता रहा। मैंने इस प्रकार की सलाह की आशा नहीं की थी।परन्तु सुनकर मुझे राहत मिली और लगा कि यह विवाह आगे चलकर मेरी जिन्दगी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहा है।
मैं इस बात के प्रति पूरी तरह आश्वस्त था कि घर मैं मेरे बिना भी उन्हें किसी प्रकार की कमी नहीं होने जा रही है। मेरे घर में पारिवारिक जीवन की सर्वथा उदार परम्परा थी।कोई
किसी के जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता था। मेरी दादी ने उदारतापूर्ण अपना जीवन जिआ और मेरी मां को भी वही खुला संसार मिला। हमारे घर में परम्परागत सास - बहू की अवधारणा नहीं थी। घर में सभी लोग एक संयमित जीवन जीने के अभ्यासी थे और एक -दूसरे की भावनाओं का पूरा खयाल रखते थे।
अंततः मेरे राँची जानेका दिन आगया। परन्तु इस बार मैं यह यात्रा एक नई प्रेरणा के अन्तर्गत सम्पन्न करने जा रहा था। यह मेरे और मेरी पत्नी के सम्मान की रक्षा की यात्रा थी। हमें हर प्रकार से यह सिद्ध करना था कि विवाह हमारी प्रगति के रास्ते में किसी भी प्रकार से बाधक बनने नहीं जा रहा है। मुझे बाबूजी की शंकाओं को अपने आचरण से निर्मूल करना था।
राँची हर प्रकार से मेरे भविष्य की साधनाभूमि थी। वहाँ पहुँच कर मैंने इस भूमि को झुक कर प्रणाम किया। ऐसा मैंने शायद ही पहले किया हो। मैं स्वयं अपने आचरण के कुछ अवयवों को चकितभाव से देख रहा था।यह यात्रा एक नये यात्री की यात्रा थी जिसके संकल्प में सही अर्थों में चुनौती का नया एहसास था।
अध्ययन के प्रति मेरी गहरी आसक्ति थी।मैं योजनाबद्ध रूप से अध्ययन का आदी था। जैसे छह महीनों के लिए यह तय करलेता कि मैं दुनिया के अधिकतम महाकाव्यों का अध्ययन करूँगा ,तो उस संकल्प का मैं पूरी निष्ठा के साथ पालन करता था। आज भी मेरी वही आदत बरकरार है।मेरे मित्रोंको लगता था कि मैं ऐसा करके अपने कोर्स की तैयारी के साथ अन्याय कर रहा हूँ ,परन्तु मैं इस दिशा में पूरी तरह स्पष्ट था। मैं साहित्य का विद्यार्थी था । मेरा भविष्य एक समर्पित अध्येता और लेखक का भविष्य था। मेरी तैयारी बडे॰ पैमाने पर चल रही थी। इस दिशा में मुझे कभी अपने सामने लज्जित होना नहीं पडा॰।
यदि मैं योद्धा था ,तो पूरी तरह शस्त्र-सज्जित था; यदि साधक था तो मेरे भीतर ओंकार का निनाद गूंज रहा था।
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