याद आता है गुजरा जमाना 59
मदनमोहन तरुण
दिनेशवर बाबू
रॉची हिल की गली में ही हमारे गुरुदेव दिनेश्वर बाबू रहते थे।सज्जनता और पाण्डित्य के अद्भुत संयोजन थे -दिनेश्वर बाबू।हम क्लास में विषय की अद्यतन सामग्री से सज्जित होकर जाते और चेष्टा करते कि हम इस विषय पर हपनी नवीनतम जानकारी से उन्हें चकित कर देंगे, परन्तु ऐसा अवसर कभी नहीं आया। प्रश्न पूछते ही वे अविलम्ब उस स्रोत पुस्तक या पत्रिका की स्वयं ही चर्चा करने लगते जिससे हमने वह नवीनतम सामग्री ली होती।वे प्रचीन और अद्यतन दोनों साहित्य समान अधिकार से पढ़ाते थे। चुस्त भाषा और संतुलित अभिव्यक्ति उनकी विशेषता थी।वे हमारे विभाग के सर्व समादृत विद्वान थे।वे सुगंभीर , सरल तथा जीवन और व्यवहार में सर्वथा निश्छल थे। वे पुस्तकों साहित्यिक विषयों के अलावा किसी अन्य विषय पर बातें करना नापसन्द करते थे। उनका मुझ पर आसीम स्नेह था।अपनी समस्त सरलताओं के बावजूद इस विषय में वे 'No nonsense' टाइप के व्यक्ति थे।डाँ कामिल बुल्के ने अपने सुप्रसिद्ध हिन्दी - अँग्रेजी कोश के निर्माण में सहयोग के लिए उनकी प्रशंसा की है। उनका मुझपर अपार स्नेह था। दिनेश्वर बाबू से मेरा अभी तक बना हुआ है। अभी हाल ही में उन्होंने मेरी कविता पुस्तक 'मैं जगत की नवल गीता - दृष्टि' की राँची आकाशवाणी से समीक्षा की है।
दिनेश्वर बाबू अपने अधययन - मनन और अध्यापन में इतने रत रहे कि वे कोई स्वतंत्र पुस्तक नहीं लिख पाए।हिन्दी साहित्य अवश्य ही उनके अवदान से वंचित रह गया ,परन्तु वे एक महान शिक्षक रहे। उनके विद्यार्थी जहाँ भी हैं ,वे उन्हें सम्मानपूर्वक याद करते हैं।
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