याद आता है गुजरा जमाना 54
मदनमोहन तरुण
'अँग्रेजी नहीं, हिन्दी बोलिए'
’रामकथाः उत्पत्ति एवं विकास’ जैसे असाधारण ग्रंथ के प्रणेता एवं हिन्दी की सेवा के प्रति सर्वतोभावेन समर्पित विद्वान डॉ. कामिल बुल्के के दर्शन की प्रबल इच्छा तो बहुत पहले से ही थी, परन्तु संयोग नहीं बन पा रहा था।
एक दिन मैं राधाकृष्ण जी (वे राँची में लाल बाबू के नाम से विख्यात थे) के पास बैठा था। निराला जयंती के वृहद् आयोजन पर बातचीत चल रही थी, तभी उसी प्रसंग में डॉ. बुल्के की चर्चा चलते ही उन्होंने पूछ दिया- ’बुल्के जी से तो मिल ही चुके होंगे!’ बस उनके इस प्रश्न के साथ ही बहुत पहले से मन में सँजोयी हुई इच्छाएँ जाग उठी और मैंने उनसे शीघ्रातिशीघ्र मिलने का निर्णय ले लिया।
उन दिनों वे सेन्ट जेवियर्स कॉलेज के हिन्दी तथा संस्कृत विभागों के अध्यक्ष थे तथा आवास स्थान पर उनसे मिलने का समय निश्चित था। राधाकृष्ण जी से उनके आवास स्थान की पूरी जानकारी लेकर एक दिन प्रातःकाल मैं दर्शनार्थ उनके मनरेसा हाउस में पहुँच गया। वे बाहर ही टहल रहे थे। उन्हें देखते ही मेरे पांवों में मानो पूर्ण विराम लग गया और मैं ठिठक कर खड़ा उनकी ओर देखता रह गया- सीधा लम्बा, स्वस्थ संकल्पित शरीर जिस पर पादरियों का सफेद लम्बा चोंगा, अपेक्षया लम्बे से चेहरे पर सीधी तनी नाक, उसके दोनों ओर झील सी पारदर्शी आंखें, पतले होंठ, प्रशस्त ललाट, लाली लिए चिट्टा गोरा रंग जो अपनी समग्रता में संकल्प, एकाग्रता एवं उदारता को आयत्त करता हुआ एक विलक्षण प्रभाव छोड़ रहा था। मुझे पास आता देखकर वे भी आत्मीयतापूर्वक मुस्कुराए। मैं अभिभूत हो उठा और हाथ जोड़ते हुए मैंने अशेष श्रद्धा के साथ उनका अभिवादन करते हुए कहा- ’गुडमार्निंग फादर’! किन्तु यह क्या, इन शब्दों को सुनते ही उनके चेहरे से आत्मीयता की सारी दीप्ति हठात गायब हो गयी। उनका चेहरा तमतमा गया, लगा किसी ने उनका अपमान कर दिया। वे बिना मुझसे बातें किए ही सीधे पीछे मुड़ कर अपने कक्ष की ओर चले गये। मैं उनकी प्रतीक्षा करता रहा, परन्तु वे लौट कर नहीं आए। मैं स्तम्भित, अपमानित-सा खड़ा रह गया। बहुत प्रयास करने पर भी मैं समझ नहीं पाया कि उनके रुख में आकस्मिक परिवर्तन का आखिर कारण क्या है। मैं लौट आया और मन ही मन यह निर्णय ले लिया कि अब इस जन्म में मैं इस आदमी से कभी भी नहीं मिलूँगा।
मैंने राधाकृष्ण जी से भी इसकी चर्चा नहीं की। आखिर इस प्रसंग में ऐसा था ही क्या जिसकी चर्चा की जा सकती थी, किन्तु मैं भीतर से बहुत व्यथित था। उनकी उदारता और महानता के बारे में जो कुछ भी सुना था सब कुछ मानो अपने ही पर मुँह बिरा रहा था। उँह! इतना गरूर!
कई दिनों बाद राधाकृष्ण जी ने बातों-ही-बातों में पूछ दिया- ’बुल्के साहब से मिले कि नहीं!’ बस मेरे भीतर का दबा गुबार फट पड़ा। सारा प्रसंग सुनकर राधाकृष्ण जी ने पूछा- ’कहीं आपने उनका अभिवादन अंग्रेजी में तो नहीं किया था!’ मैंने कहा- हाँ किया तो था!’ राधाकृष्ण जी ने मुस्कुराते हुए कहा- ’यहीं भूल हो गयी आपसे। मैं शुरू में आपको यह बतलाना भूल गया था। बुल्के साहब आचार-व्यवहार में अंग्रेजी भाषा के कट्टर विरोधी हैं। वे इसे अपना व्यक्तिगत अपमान समझते हैं।’ अब राघाकृष्ण जी थोड़ी देर के लिए रूके और बीड़ी सुलगा कर उसके लम्बे केश का आनन्द लेने के बाद उन्होंने कहा- ’बुल्के साहब का जन्म बेल्जियम के पश्चिमी फ्लैण्डर्स प्रांत के रम्सकपैले गांव में हुआ था। उन दिनों बेल्जियम में फ्रेंच भाषा का वर्चस्व होने के कारण उनकी अपनी भाषा फ्लेमिश उपेक्षित थी। लोग ऐसे लोगों को नीची निगाह से देखते थे जो फ्रेंच की जगह फ्लेमिश बोलते थे। डॉ. बुल्के के भीतर अपनी भाषा की उपेक्षा की यह व्यथा बहुत ही गहरी है। यही कारण है कि जब भी कोई भारतीय अपनी भाषा की जगह अंग्रेजी में उनका अभिवादन करता है तो उनकी व्यथा और भी गहरा जाती है।’
अब तो जैसे मेरी आँखें खुल गयीं। अभिवादन के पश्चात् मेरे चेहरे पर क्षण भर को टिकी उनकी आँखें, उनका विक्षोभ और व्यथा से गहराता चेहरा, फिर उनका उलटे पाँव लौट जाना, सब कुछ याद आ गया। और मेरा अभिभूत मन उनके प्रति श्रद्धा से भर उठा।
राधाकृष्ण जी आदत के मुताबिक दो-तीन कश लगाकर शेष बीड़ी अब तक फेंक चुके थे। अधिक ताजे और संतुष्ट लग रहे थे। उन्होंने कहा- ’मैं खुद अब आपको उनके पास ले चलूँगा।’
दूसरे दिन राधाकृष्ण जी के साथ उनसे मिलने पहुँचा तो मैंने कोई भूल नहीं की। मैंने हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए उनका अभिवादन किया- इसके प्रत्युत्तर में उन्होंने जिस प्रकार ’नमस्कार’ शब्द का उच्चारण किया वह अपने-आप में मेरे लिए एक अभूतपूर्व अनुभव था। उसके पश्चात् बुल्के साहब से मुझे बहुत निकटता प्राप्त हुई। मुझ पर उनका अशेष स्नेह था। सार्थक विद्या के प्रति निरन्तर जिज्ञासा और विषय की तह तक पहुँच जाने का अथक प्रयास उनकी विशेषता थी। उनके विशाल व्यक्तिगत पुस्तकालय की पुस्तकें अपने अध्येता के स्पर्श के स्पन्दन से पूर्णतः परिचित थीं।
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