याद आता है गुजरा जमाना 66
मदनमोहन तरुण
इस हाथ से किसी को प्रणाम नहीं करूँगा
वह हिन्दी साहित्य का हर दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण समय था। ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में बॉकेबिहारी भटनागर जी की सम्पादकीय टिप्पणियॉ पठनीय होती थी । उसके मुखपृष्ठ पर निराला जी के गीत प्रकाशित होते थे।हम निराला जी के दीवानों में थे और उनको देवतुल्य मानते थे।मेरे मित्र शिवशंकर जी जब से निराला जी से मिल कर आए थे तब से वे लोगों को केवल अपने बाएँ हाथ से ही प्रणाम करते थे ।उनका कहना था कि दाहिने हाथ से मैं निराला जी के चरण स्पर्श कर चुका हूँ ,अब मैं इस हाथ से किसी अन्य को सम्मान नहीं दे सकता।
भाई शिवशंकर जी दफ्तर से लौट कर सीधे मेरे यहाँ पहुँचते थे।तब हमारी साहित्यिक बहस शुरु होती। कभी - कभी यह बहस इतनी उत्तेजनापूर्ण हो जाती कि हम ताड॰ के पंखे से एक - दूसरे पर आक्रमण कर डालते। मगर दूसरे दिन एक - दूसरे से क्षमा माँगकर हम फिर बहस में लग जाते।यह सिलसिला कभी - कभी आधी रात के बाद तक भी चलता रहता। मेरे मित्र बहुत चिन्तित थे।उन्हें लगा कि मैं पढा॰ई में ध्यान न देकर अपने केरियर से खिलवाड॰ कर रहा हूँ। उन्होंने शिवशंकर जी को आने से कई बार मना किया , परन्तु वे नहीं रुके। बाद में उनका उस लड॰की से प्रेम होगया जिसे वे पढा॰या करते थे। तब मिलने का सिलसिल कुछ कम हो गया और विषय भी बदल गया। इन चर्चाओं में कभी - कभी विद्याभूषण जी भी भाग लिया करते थे , परन्तु वे ठीक समय पर लौट जाते थे। उनदिनों वे प्रतिमान प्रकाशन आरम्भ करने की बात सोच रहे थे।युवा लेखकों में अशोक प्रियदर्शी की कहानी ‘बौड़म’ उन्हीं दिनों 'धर्मयुग' में छपी थी। राय कमल राय एक भिन्न प्रकार के छन्द पर काम कर रहे थे।
किसी नगर का निर्माण जानी – अनजानी हर डगर पर होता चलता है। कभी खुलकर , कभी चुपचाप !
हम कल्पना , ज्ञानोदय आलोचना और लहर और धर्मयुग के अंकों की बेसब्री से प्रतीक्षा करते रहते।उन्हीं दिनों अज्ञेय के सम्पादन में ‘दिनमान’ का प्रकाशन शुरू हुआ था जो हिन्दी पाठकों के लिए नया अनुभव था । ‘माध्यम’ का 'विवेचना' स्तंभ हिन्दी की श्रेण्य पुस्तकों पर सुगंभीर परिचर्चा का अपरिहार्य अंग था जिसे हम कभी चूकते नहीं थे।।उन्हीं दिनों 'कल्पना' में मेरी कुछ तीखी टिप्पणियॉ छपी थी जिसे कुछ लोगों ने सराहा था और कुछ बहुत नाराज हुए थे।डॉ इन्द्रनाथ मदान के एक लेख में यशपाल के साहित्य का विवेचन अजीबोगरीब भाषा में किया गया था ।उस पर मेरी तीखी टिप्पणी का प्रत्युत्तर मदान जी ने बड़े गुस्से में दिया था।मै आज भी कभी – कभी उसका आनन्द उठाता हूँ।
उन दिनों शशिकर जी चक्रधरपुर से एक छोटी पत्रिका 'शबरी' का प्रकाशन कर रहे थे। वे समय - समय पर मुझसे मिलने मेरे होस्टल में आया करते थे। उनकी प्रबल इच्छा थी कि मैं 'शबरी' का सम्पादन करूँ। मैं इसके लिए पढा॰ई छोड॰ने के लिए भी तैयार होगया था, परन्तु मेरी श्रीमती जी ने इसका घोर विरोध किया। उनका कहना था कि मैं पहले अपनी पढा॰ई पूरी करूँ उसके बाद चाहे जो करूँ , उन्हें कोई शिकायत नहीं होगी। मुझे अपना निर्णय बदलना पडा॰। इससे मेरे मित्रों को भी राहत मिली।परन्तु मैं चक्रधर जी का बहुत प्रशंसक हूँ। वे वर्षों 'शबरी' का प्रकाशन पूरी निष्ठा के साथ करते रहे और कई कविताओं एवं कहानी संग्रहों का भी प्रकाशन किया।
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