याद आता है गुजरा जमाना 60
मदनमोहन तरुण
डॉ रामखेलावन पाण्डे और हिन्दी विभाग
हमारे विभागाध्यक्ष हिन्दी के प्रसिध्द विद्वान डॉ रामखेलावन पाण्डे थे।उनकी जीवन – पध्दति बड़ी नफासताना थी।वे हमेशा बहुत कीमती शू और टाई में रहते थे। उनका जूता चमकता रहता था।वे हिन्दी साहित्य का इतिहास पढ़ाते थे , वह भी पान खाकर।वे अपना मुँह ऊँचा कर बड़ी कुशलता से पान की लजीज गिलोरी की रक्षा करते हुए अपना भाषण जारी रखते थे। ।नेहरू जी की नीतियॉ उन्हें रास नहीं आती थीं। पढ़ाते – पढ़ाते जैसे ही उन्हें मौका मिलता वे रामचन्द्र शुक्ल को छोड़ कर नेहरू जी से भिड़ जाते । उनकी कक्षा में समय की कोई सीमा नहीं होती थी। वे कभी - कभी तीन - तीन घंटे तक पढा॰ते रहते थे,परन्तु कक्षा के पश्चात यह समझना कठिन होता कि उन्होंने क्या पढा॰या। रामचन्द्र शुक्ल और पंडित नेहरू उनके भाषण में इतने गड्डमड्ड हो जाते कि कि उनमें एक - दूसरे को अलग करना कठिन हो जाता था।किन्तु उनके अध्यापन में रोचकता और विद्वत्ता का मिश्रण रहता था।
डाँ पाण्डे को विद्यार्थियों द्वारा प्रश्न पूछा जाना नापसन्द था। मैं इसका कुपरिणाम भोगते - भोगते बच गया। मेरे शिक्षकों ने मुझे इस बात के लिए सावधान किया था कि मैं उनसे प्रश्न न पूछूँ, परन्तु जिस विषय पर मेरा मतभेद हो उस विषय पर चुप रहना मुझे बौद्धिक ईमानदारी के खिलाफ लगता था।
इतिहास के पेपर में डाँ पाण्डे ने मुझे बहुत ही कम अंक दिए , जबकि इतिहास का मेरा पर्चा अच्छा गया था और इस विषय में मेरी गहरी दिलचस्पी थी। किन्तु , जब परीक्षाफल प्रकाशित हुआ तो मुझे सबके बावजूद फर्स्ट क्लास मिला। शायद इससे सबसे अधिक राहत डाँ॰ पाण्डे को ही मिली होगी।
डॉ पाण्डे ने बहुत कम लिखा।यदि वे इसके लिए अपना थोड़ा और समय दे पाते तो हिन्दी समालोचना की श्रीवृध्दि में उनका महत्वपूर्ण योगदान होता।
डाँ पाण्डे के अलावा बी हिन्दी - विभाग में कई शिक्षक थे जिनकी अपनी - अपनी विशेषता थी। प्रोफेसर चौधरी हमें संस्कृत साहित्य पढा॰ते थे। वे एक सहृदय अध्यापक थे। कालिदास का 'मेघदूत' पढा८ते - पढा॰ते वे भावुक हो जाते ।जयनारायण मंडल जी समालोचना पढा॰ते थे।
विभाग के अध्यापकों में नागेश्वर बाबू अपने प्रखर विश्लेषण के लिए चर्चित थे ।उनदिनों पत्र - पत्रिकाऔं में उनकी उल्लेखनीय टिप्पणियॉ छपी थीं। उनकी अध्यापन शैली चामत्कारिक और भाषा जडा॰ऊ थी।
रेडियो नाटक के विशेषज्ञ डॉ सिध्दनाथ कुमार अपनी एक कविता में ‘ बिजली का बल्ब रात में ही नहीं , दिन में भी जलता है’ की चर्चा कर कारपोरेशन वालों के सरदर्द में वृध्दि करते रहते थे।वे ख्यातिप्राप्त समीक्षक थे , परन्तु उनकी अध्यापन शैली प्रभावहीन थी ,ठीक उसी प्रकार जैसी उनकी नपी- तुली समीक्षाएँ ।
डाँ रणधीर सिन्हा भी बाद में हिन्दी विभाग में सम्मिलित हो गये थे। साहित्यिक गति - विधियों में उनकी रुचि ज्यादा थी। वे किसी भी दृष्टि से अच्छे शिक्षक नहीं थे। उनसे मेरा अच्छा सम्बन्ध था। वे एक भावुक और नेक इंसान थे ,परन्तु किसी गहरे फ्रशट्रेशन के शिकार थे।'कल्पना' में उनकी एक लम्बी और अच्छी कहानी छपी थी।वे नई कविता की एक पत्रिका का सम्पादन भी कर रहे थे।
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