याद आता है गुजरा जमाना 65
मदनमोहन तरुण
एई खाने एकटा बाड़ी कोरबो
अभिज्ञान प्रकाशन से योगेन्द्रनाथ सिनहा की पुस्तक ‘पथेर पॉंचाली के विभूति बाबू’ का प्रकाशन हुआ था जो विभूति भूषण वांद्योपाध्याय के अंतरंग जीवन का निकटस्थ साक्षात्कार है। अफसोस है कि इस पुस्तक का व्यापक प्रचार – प्रसार नहीं हो सका अन्यथा सरल भाषा और सहज संस्मरणात्मक शैली में लिखित यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है जो विभूति बाबू के सरल समर्पित एवं अकृत्रिम जीवन का परिचय देती है।विभूति बाबू को रॉची का परिवेश बहुत पसन्द था और वे भावुकतावश कहा करते थे ‘की सुन्दर जायगाय ! एई खाने एकटा बाड़ी कोरबो।’ इस पुस्तक से मैं दो उध्दरण देना चाहूँगा जो विभूति बाबू के व्यक्तित्व के दो ऐसे पक्षों को उद्घाटित करने में समर्थ है जिससे ‘आरण्यक’ और ‘पथेर पांचाली’ के सर्जक के अंतरंग का साक्षत्कार होता है।विभूति बाबू की दृष्टि सामान्य से सामान्य स्थलों और चेहरों में भी उसके सौन्दर्य का उत्कर्ष देख लेती थी।इन प्रसंगों को पढ़ते हुए लगता है हमने अपने जीवन को कैसे – कैसे उपकरणों की साज – सज्जा से बोझिल बना लिया है। ‘आरण्यक’ के लेखक के चित्त की बनावट के साक्षात्कार के लिए यह प्रसंग देखिए –
‘ जितने दिन विभूति बाबू घाटशिला रहते वे अधिक समय आसपास के जंगलों में बिताया करते।अगर कोई साथी मिल गया तो उसके साथ बरना अकेले।एक दिन वे सुबह – सुबह निकल गये कि खाने के समय तक लौट आएँगे।लेकिन खाने का समय पार हो गया ,संध्या बीती,रात भी काफी चढ़ गयी ,और विभूति बाबू का पता नहीं।घर – पड़ोस के लोग बड़े चिन्तित हुए , खोज – पड़ताल सुरू हुई।अन्त में वे करीब ग्यारह बजे रात सम्पूर्ण शांत भाव से घर में दाखिल हुए , धोती में जंगली हाथी की लीद का विशाल गोला बॉथे हुए।गोले को बहुत कष्ट – अर्जित सम्पत्ति की तरह जमीन पर रख कर उसे चकित समुदाय को दिखाते हुए बोले – ‘की अद्भूत !'
‘पथेर पॉचाली’ की दुर्गा एक अमर चरित्र - रचना है।वह विभूति बाबू के पथेर पॉंचाली के संसार में किस प्रकार प्रविष्ट हुई वह उन्हीं के शब्दों में द्रष्टव्य है – ‘ पथेर पॉंचाली तैयार हो चुकी थी।छपवाने के पहले पाण्डुलिपि लेकर रवि ठाकुर से इस पर आशीर्वाद लेने जा रहा था।रास्ते में भागलपुर में एक दिन रुकना पड़ा।शाम को मैं एक दिन एक जन – विरल सड़क पर अकेले टहल रहा था ।देखा उस सुनसान रास्ते पर एक किनारे आठ – दस वर्ष की एक लड़की चुपचाप खड़ी है।उसके बाल बिखरे हुए थे , सूरत पर कुछ उदासी थी , कुछ शरारत भी।लगता था जैसे स्कूल से भागी हो या घर से पिट कर भगायी गयी हो और नये षडयंत्र की सोच रही हो।उसकी ऑखों में एक अवर्णनीय सन्देश था ,एक अजीब पुकार थी , मीठे – मीठे दर्द की एक अनदेखी दुनिया थी।मैं देखता रह गया।मन में आया , जबतक यह लड़की मेरी किताब में नहीं आती तबतक मेरी रचना व्यर्थ है , निर्जीव है।मैं रवि ठाकुर के यहॉं न जाकर अपने जंगल के डेरे पर लौट आया।लौट कर पाण्डुलिपि पूरी की पूरी फाड़ डाली और उसी लड़की को आधार बनाकर फिर से लिखने लगा।यही लड़की ‘पथेर पॉंचाली’ की दुर्गा है।’92
इस पुस्तक के लेखक योगेन्द्रनाथ सिनहा वन सेवा के वरिष्ठ सेवा निवृत्त अधिकारी थे। उन्हें इस बात की गहरी व्यथा थी कि 'पथेर पॉचाली' पर बनी फिल्म को सत्यजित रे की 'पथेर पॉचाली' के रूप में विज्ञापित किया जा रहा है।उन्होंने इस सम्बन्ध में अपने घर पर एक गोष्ठी भी आयोजित की थी।किन्तु वह गोष्ठी गर्मागर्म बहस तक ही सीमित रह गयी।
रॉची के तत्कालीन प्रकाशनों में ‘अभिज्ञान प्रकाशन’ का नाम उल्लेखनीय है।काशीनाथ पाण्डे इसके प्रबन्धक थे ।उत्साह ,व्यावहारिक कुशलता और अच्छे साहित्य की समझ उनकी विशेषता थी।चुक्कड़ में चाय के सोंधेपन के साथ साहित्य चर्चा में वहॉं सुख मिलता था।
उन दिनों की एक घटना उल्लेखनीय है।आचार्य शिवपूजन सहाय जी ने अपना एक लेख ‘धर्मयुग’ में प्रकाशनार्थ भेजा।उस समय कन्हैयालाल नन्दन ‘धर्मयुग’ के सहायक सम्पादक थे। उन्होंने उस लेख को स्थान – स्थान से बुरी तरह एडिट करके छापा था।इतने वरिष्ठ लेखक के लेख पर एक युवा सम्पादक का कलम चलाना उनके अपमान से कम न था।लोग विक्षुब्ध थे।श्री शिवचन्द्र शर्मा ने अपने व्दारा सम्पादित ‘दृष्टिकोण’ पत्रिका में उन संशोधनों का ब्लॉक बनवा कर हू – ब – हू छापा था जिससे लोगों को तनिक राहत मिली थी। खेद है कि मेरे पिछले दो – चार स्थानान्तरणों में ‘दृष्टिकोण’ की वह प्रति कहीं दब गयी है, अन्यथा मैं उसकी कुछ टिप्पणियॉ यहॉ उद्धृत करना आवश्यक समझता था।'दृष्टिकोण' का वह अंक 'अभिज्ञान प्रकाशन' से ही प्रकाशित हुआ था।
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