याद आता है गुजरा जमाना 73
मदनमोहन तरुण
'ब्रह्मचर्य ही जीवन है'
अगले दिन सवेरे भी मेरी नींद देर से खुली। बात यह है कि हमदोनों रातभर एक पल के लिए भी सो नहीं पाते थे।हम एक अकथनीय सम्मोहन में बँधे थे।बातें करते तो करते ही चले जाते, किस विषय पर , कहना असम्भव है। बातों के क्रम में ही शरीर संगीत का तरल प्रवाह बनकर बह निकलता। दो शरीरों के घुल कर एकाकार होने का यह अनुभव अकथनीय है। आनन्द की ऐसी चरम अनुभूति की तो कभी कल्पना भी नहीं की थी। इसी स्थिति में जागृति कब सपने में ढल जाती और सपना कब नींद बन जाता कहना कठिन था।
जब मैं जागता तबतक मेरी श्रीमती जी बाहर जा चुकी होतीं। मैं सोचकर दंग रह जाता कि यह कैसे सम्भव है । आखिर वे भी तो मेरे साथ ही जागती रहती हैं ? इतना ही नहीं मेरे जागने तक वे स्नानादि से निवृत्त हो जातीं , वह भी ठंढे पानी से। मेरे लिए तो यह सोच पाना भी कठिन था। मेरी जिन्दगी बदल चुकी थी। मैं एक रहस्यलोक का प्राणी बन चुका था जिसे दिन की रोशनी बुरी लगने लगी थी। दिन होते ही मैं यह सोचने लगता कि रात कब होगी। मेरा मन कहीं नहीं लगता था।
जागने के बाद जब मैं बाहर निकला तो देखा पिताजी सामने खडे॰ हैं। उन्होंने तनिक व्यंग्य से मेरी ओर देखते हुए कहा - 'तो आप जग गये ?' मैं चुप रहा । तनिक रुक कर उन्होंने कहा- 'आपको आज ही राँची जाना होगा। पढा॰ई में बहुत बाधा हो रही है।' उनकी बात सुनकर मैं स्तंभित रह गया। मैं अबतक यह भूल चुका था कि राँची भी कोई जगह है जहाँ मुझे जाना होगा और यह भी कि मैं अभी विद्यार्थी हूँ।' उनकी बातों के झटके से मैं सिर से पाँव तक काँप गया।
बाबूजी अपना आदेश सुना कर चले गये। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ? खास कर मैं पत्नी के लिए चिन्तित था कि वे अकेले कैसे रहेंगी। मेरे राँची जाने का तात्पर्य था करीब छह महीने तक घर से बाहर , एक - दूसरे से दूर रहना। मैं स्वयं को सम्हाल नहीं पा रहा था। मैं तुरत माँ के पास चला गया और कहा -' मेरे राँची जाने की तैयारी करो। बाबूजी ने कहा है मुझे वहाँ आज ही जाना होगा।' मेरी बात सुनकर माँ चकित रह गयी। उसने तुरत बाबूजी को घर के भीतर बुलवाया और कहा - ' अभी इसके विवाह के कुल दो दिन गुजरे हैं और आप इसे राँची जाने को कह रहे हैं? आपने यह क्यों नहीं सोचा कि इन दोनों के मन पर इसका कैसा प्रभाव पडे॰गा ?' माँ ने घोषणा की कि ' आगामी पन्द्रह दिनों तक यह कहीं भी नहीं जाएगा।' बाबूजी पन्द्रह दिनों के लिए नहीं माने ।उन्होंने अपना आदेश दस दिनों के लिए स्थगित कर दिया। इससे मुझे राहत मिली।
बाबूजी जहानाबाद चले गये। रात में वहाँ से लौटने के बाद उन्होंने मुझे बुलाया। मैं डरता - डरता उनके पास गया। मैं यही सोच रहा था कि पता नहीं इस समय वे कौन - सा नया आदेश देते हैं। उन्होंने मुझे एक पीले कवर की पुस्तक दी और कहा इसे आज पढ॰ जाना और इस पर अमल करना। उस समय हमारे आसपास कई लोग आचुके थे। जब मैं वहाँ से चलने लगा तब बाबूजी ने मुझे रोक कर कहा - 'सद्यः बल हरा नारी।' फिर उसका हिन्दी में अनुवाद करते हुए कहा - 'स्त्री तुरत ही पुरुष के बल का हरण कर लेती है।' इसे सुनते ही आसपास खडे॰लोग ठहाका मारकर हँस पडे॰। मुझे बहुत बुरा लगा। मैं वहाँ से तुरत ही चला आया। मैं जनता था कि बाबूजी मेरे अपमान का कोई भी अवसर कभी चूकते नहीं थे।
कमरे में जाकर मैंने उस पुस्तक का शीर्षक पढा॰ - 'ब्रह्मचर्य ही जीवन है और वीर्यनाश ही मृत्यु है'। पुस्तक का शीर्षक पढ॰ते ही मैं चिढ॰ गया। मेरे भीर एक तीखी प्रतिक्रिया हुई और सवाल उठा - अगर ब्रह्मचर्य ही जीवन है तो मेरा जन्म कैसे हुआ ? स्वयं लेखक की पैदाइस कैसे हुई? और यदि वीर्यनाश ही मृत्यु है तो दुनिया भर के विवाहित लोग जीवित कैसे हैं ?
पुस्तक के करीब हर पृष्ठ में स्त्री को दुर्गुणों के भंडार के रूप मे बताया गया था। लेखक का कहना था कि औरत आगर किसी पुरुष को देख भी ले तो उसका ईमान- धर्म सब चला जाता है। पुरुष पशु की तरह उसके पीछे लग जाता है। जैसे स्त्री सेक्स की मशीन हो और इसके अलावा उसकी और कोई सत्ता नहीं हो। वीर्यनाश के बारे में भी लेखक के विचार आत्यंतिक थे। उसकी मान्यता थी की वीर्य की एक बूंद का भी नष्ट होना आयु क्षीणता का और अनेक रोगों का कारण बन सकता है।
वह पुस्तक मुझे डरा नहीं सकी। पुस्तकों के मामले में मुझमें पूरी परिपक्वता थी। अच्छी और घटिया पुस्तक का अंतर करना मेरे लिए कठिन नहीं था। मुझे लगा यह किसी नपुंसक लेखक की रचना है जो अपनी पत्नी से अपना भेद छुपाता भागता फिर रहा है। मैंने उस पुस्तक को बिछावन के नीचे छुपा कर रख दिया और उसकी ओर दोबारा कभी देखा नहीं।
Copyright reserved by MadanMohan Tarun
No comments:
Post a Comment