याद आता है गुजरा जमाना 55
मदनमोहन तरुण
'पंतजी संस्कृत नहीं जानते'
डॉ. बुल्के अपनी मान्यताओं एवं सिद्धान्तों के प्रति बहुत खरे थे। वे महाकवि तुलसीदास के असाधारण अध्येता एवं प्रशंसक थे, परन्तु समय-समय पर उनका कबीर जाग्रत हो उठता था। उनके व्यक्तित्व के इस पक्ष से सम्बद्ध एक घटना मैं कभी भुला नहीं सकता।
कलकत्ता से मेरे एक प्रकाशक मित्र मुझसे मिलने आए। उन्होंने संस्कृत में एक इतिहास-पुस्तक का प्रकाशन किया था। उस पुस्तक के प्रच्छद पर बड़े-बड़े विद्वानों की प्रशंसात्मक टिप्पणियां जड़ी थीं, जिनमें एक सम्मति महाकवि सुमित्रानन्दन पंत जी की भी थी। मेरे मित्र ने मुझसे अनुरोध किया कि मैं उन्हें डाक्टर बुल्के से अभी मिलवाऊँ। वे खास कर उन्हें यह पुस्तक भेंट में देने आये हैं। उन्हें आज ही बनारस लौट जाना है। उस समय रात के आठ बज रहे थे। जाड़े की रात थी और थोड़ी-थोड़ी वर्षा भी हो रही थी। उन दिनों डॉ. बुल्के अपने सुप्रसिद्ध 'अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश' को पूरा करने में लगे थे। ऐसी स्थिति में मैं अपने मित्र का अनुरोध पूरा करने में काफी असमंजस का अनुभव कर रहा था। फिर भी उनके अतिशय आग्रह करने पर मैं उनके साथ चलने को तैयार हो गया, किन्तु मैंने उन्हें कुछ हिदायतें भी दीं-
(क) डॉ. बुल्के का अभिवादन अंग्रेजी में न करें।
(ख) वे तनिक ऊँचा सुनते हैं, अतः कुछ जोर से बोलें।
(ग) आवश्यकता से अधिक न बोलें।
जब हम लोग मनरेसा हाउस पहुँचे तो उस समय रात के नौ बज रहे थे। चारों ओर अंधेरा और सन्नाटा था। रात में झाड़ियों से उलझते-पुलझते हम उनके पुस्तकालय कक्ष के द्वार के पास पहुँचे। दरवाजा भीतर से बन्द था। उसके शीशे से भीतर की रोशनी छन-छन कर बाहर आ रही थी और उससे भीतर का दृश्य भी साफ-साफ दिखाई दे रहा था।
एक विशाल टेबुल पर ढेरों पुस्तकें पड़ी थीं और पास ही कुर्सी पर गहन-गंभीर मुद्रा में बैठे डाक्टर बुल्के पुस्तकों के पृष्ठ उलट कर कुछ नोट करते, फिर रुक कर कुछ सोचते और पुनः कुछ लिखने में दत्तचित्त थे। पूरे वातावरण में तपस्या की तन्मयता थी। ऐसे में दरवाजे पर दस्तक क्या तनिक आवाज पैदा करना भी अनुचित था। मैंने अपने मित्र को वहाँ से लौट चलने की सलाह दी। परन्तु वे नहीं रुके। उन्हें अपना गन्तव्य प्राप्त हो चुका था। उन्होंने दरवाजे पर जाकर दस्तक दी। बुल्के साहब ने देखा भी नहीं। दूसरी दस्तक तनिक जोर से। परन्तु भीतर बुल्के साहब शांतचित्त बैठे रहे। कार्यरत। पुनः दस्तक। अब तनिक खीझते हुए उठकर उन्होंने दरवाजा खोला। मित्र के अभिवादन का प्रत्युत्तर देते हुए उन्होंने मुझे भी देखा। मेरे हाथ जुड़ गये। बोले- ’अच्छा, आप, आइए-आइए।’ मैंने असमय में कष्ट देने के लिए उनसे क्षमा-प्रार्थना की। परन्तु मेरे मित्र को धैर्य कहाँ। उन्होंने पुस्तक सम्मानपूर्वक उन्हें देते हुए बताया कि विद्वानों ने उसकी कितनी प्रशंसा की है, साथ ही यह भी अनुरोध कर डाला कि वे इस पुस्तक को अपने विश्वविद्यालय में सन्दर्भ ग्रंथ के रूप में रखवाने की कृपा करें। इस बीच डाक्टर बुल्के पुस्तक के पृष्ठ उलटते रहे और यत्र-तत्र कुछ पढ़ते भी रहे। उन्होंने इस बात के प्रति प्रसन्नता व्यक्त की कि पुस्तक संस्कृत में होने के बावजूद मुद्रण-दोष से सर्वथा मुक्त है। इस प्रशंसा से मेरे मित्रा का उत्साह द्विगुणित हो गया और उन्होंने एक रहस्य खोलते हुए कहा कि पुस्तक में ’रत्न’ शब्द का प्रयोग द्विअर्थक है। एक ओर जहाँ वह भारत की अन्य महान विभूतियों के अर्थ में प्रयुक्त है वहीं नेहरू जी के पारिवारिक त्याग को भी परिलक्षित करता है। पुस्तक पंडित जी को समर्पित है।’ इन शब्दों के साथ ही पासा पलट गया। डॉ. बुल्के के हाथ जो पुस्तक के पृष्ठों से होकर गुजर रहे थे, वे रुक गये। पुस्तक उन्होंने प्रकाशक महोदय को लौटाते हुए असाधारण गंभीरता से कहा- ’मैं छात्रों को इस देश का सही इतिहास पढ़ाने के पक्ष में हूं- किसी की कुल-गाथा नहीं।’ फिर तनिक रुक कर उन्होंने मित्र से कहा- ’मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि जब तक मैं यहां रहूँगा तब तक इस पुस्तक को रांची विश्वविद्यालय में प्रवेश करने नहीं दूँगा।’ इन शब्दों के साथ ही उन्होंने हाथ जोड़ते हुए पूरी गरिमा से कहा- ’नमस्कार’ और अपने कार्य में जुट गये।
ये दोनों प्रसंग डॉ. बुल्के की जीवन-दृष्टि को समझने में सहायक हैं। वे स्वयम् फ्रेंच, जर्मन, अंग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत आदि भाषाओं के ज्ञाता एवं अध्येता थे, परन्तु वे मानते थे कि जो अपने स्रोत एवं अपनी भाषा के प्रति निष्ठा नहीं रखता, वह न तो स्वयम् को समझ सकता है, न दूसरों को। अपनी भाषा फ्लेमिश के प्रति उनकी श्रद्धा अगाध थी एवं अपने छात्र जीवन में फ्रेंच के बढ़ते प्रभाव एवं फ्लेमिश की उपेक्षा के विरुद्ध उन्होंने आन्दोलन आयोजित किए थे। वे अपनी भाषा की उपेक्षा की व्यथा से परिचित थे, अतः भारतीयों को अनावश्यक रूप से अंग्रेजी का प्रयोग करते देखकर उन्हें व्यथा होती थी।
वे शोध एवं इतिहास को किसी विषय के स्रोत तक पहुंचने का महत्वपूर्ण साधन मानते थे, अतः इस क्षेत्र में लाग-लपेट, आग्रह-दुराग्रह एवं हल्केपन से काम करने वालों के प्रति वे करीब-करीब निष्ठुर थे। मुझे याद है उपर्युक्त पुस्तक पर कविवर सुमित्रानन्दन पंत जी की टिप्पणी- ’आशा है यह पुस्तक सर्वजन सुलभ होगी’- पढ़कर उन्होंने तुरत अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था- ’पंत जी मेरे अच्छे मित्र हैं, परन्तु जहाँ तक मैं जानता हूं उन्हें इतनी संस्कृत नहीं आती कि वे किसी पुस्तक पर ऐसी टिप्पणी दें। फिर, भारत में ऐसे लोग हैं ही कितने जो संस्कृत ठीक से समझते हों। ऐसी स्थिति में ’सर्वजन सुलभ’ शब्द का प्रयोग अनुचित है।’
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