याद आता है गुजरा जमाना 69
मदनमोहन तरुण
वह कौन थी ?
बाबूजी ने मुझे राँची से जहानाबाद बुला भेजा। कारण कुछ भी नहीं बताया गया था।मैं इस तात्कालिकता का मतलब समझ नहीं पया। अब तक मैं कभी इस तरह पढा॰ई के बीच में घर नहीं गया था। वहाँ मैं केवल छुट्टियों में ही जाता था। मुझे चिन्ता हुई। न जाने घर में क्या हुआ ! मैं सूचना मिलते ही घर के लिए चल पडा॰। घर पहुँचा तो यहाँ का तो नजारा ही बदला हुआ था। कुल-कुटुम्ब के लोग आचुके थे। फुफेरे भइयों की पत्नियाँ , जो सब मेरी बडी॰ भाभियाँ थीं ,आ चुकी थीं। वे मुझसे बहुत छेड॰-छाड॰ करती थी। मैं उनसे भागा फिरता था।परन्तु इस बार तो अवसर ही नया था। आते ही सबने मुझे घेर लिआ। हँसी - मजाक शुरू हो गया।
मैं कुछ समझने की चेष्टा ही कर रहा था कि माँ ने कहा कि तुम्हारी शादी होनेवाली है। मुझे आश्चर्य हुआ। 'शादी? और मुझसे जरा पूछा भी नहीं कि मुझे शादी करनी है या नहीं? और अगर करनी है तो लड॰की कैसी चाहिए।' माँ ने मेरी चिन्ता भाँपते हुए कहा - ' तुम चिन्ता मत करो। मैंने पता लगा लिआ है ।लड॰की अच्छी है।' मैं क्या कहता? मेरे पास कहने के लिए कुछ रह ही क्या गया था।
दूसरे दिन से मुझे सरसों के तेल मे ढेर सारा हल्दी घोल कर अवटन लगाया जाने लगा।यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा । तरह - तरह के विधि -व्यवहार होने लगे। इसके साथ ही मेरी जिज्ञासा बढ॰ने लगी। मैं सोचने लगा कैसी होगी मेरी पत्नी! अब रात - दिन भिन्न - भिन्न रूपों में मुझे वही दिखाई देने लगी। पूरे शरीर में एक अजीब सी सुरसुराहट फैलती।
मैं अब वह नहीं रहा , जो था। मैं खुद ही समझ नहीं पा रहा था कि यह मुझमें क्या होरहा था। बस एक ही इच्छा शेष रह गयी थी कि मेरा विवाह अब शीघ्र हो जाए।
आखिर वह दिन भी आ ही गया।बारात की तैयारी होगयी जिसमें हमारे परिवार के एवं पिताजी के मित्र - परिचित मिला कर करीब पचास लोग ट्रेन से अगले दिन मेरे होनेवाले श्वसुराल में पहुँचे। वहाँ हमलोगों का भव्य स्वागत हुआ।साथ ही विवाह की तैयारी होने लगी।
मुझे उनके घर के आँगन में ले जाया गया, जहाँ मंडप सजा था। चारों ओर उनके परिवार के लोग बैठे थे। मंडप के बीच में दो आसन लगे थे और सामने पंडित जी विवाह कराने की तैयारी में थे। एक आसन पर मुझे बिठाया गया , मंत्रोच्चार से विवाह की शुरूआत हुई। थोडी॰ देर के बाद एक लाल कपडे॰ में पूरी तरह लपेटी किसी चीज को परिवार के दो लोग उठाए लिए आए और उन्होंने उसे मेरे बगलवाले आसन पर लाकर रख दिआ। पहले मैं समझ नहीं पाया , यह क्या है , परन्तु थोडी॰देर बाद उसमें होनेवाली हरकत से लगा कि यह मानव शरीर ही है। मैंने अन्दाज लगा लिआ कि यही मेरी होनेवाली पत्नी है। उसने अपने हाथ तक कपडे॰ से लपेट रखे थे।पंडित जी के आदेशों का पालन भी उसने पूरीतरह ढँके हाथों से किआ। कुछ देर बाद मेरा आसन बदल दिया गया। दाहिनी ओर मुझे बिठाया और बाई ओर मेरी पत्नीनुमा चीज को। इससे मैंने अन्दाज लगा लिआ कि मेरा विवाह हो चुकाहै। बाद मे मैंने उस पूरी तरह ढँकी काया के साथ गाँठ बाँध कर सात फेरे लिए। पंडित जी ने घोषणा करते हुए कहा कि अब आपलोग पति - पत्नी हुए। इस घोषणा के साथ ही मेरे परिवार के सारे लोगों को भीतर बुला लिआ गया।अब मुँह दिखाई कि रस्म शुरू हुई। सबने मुँह देखा , परन्तु ,मैंने नहीं।
रस्मों की समाप्ति के बाद रात हुई।यह सुहाग रात थी।इसके बारे में मेरी भाभिओं ने मुझे बहुतकुछ बता रखा था। मैं इस पल की प्रतीक्षा कर रहा था। कम- से -कम मुझे अपनी पत्नी को देखने का अवसर तो मिलेगा।किसी स्त्री को अबतक अकेले में मैंने न तो देखा था , न किसी को छुआ ही थी। मेरे लिए आज सबकुछ नया होने वाला था। मेरे भीतर कहीं बहुत घबराहट भी थी। कमरे की खाट पर पडा॰ मैं किसी नयी आहट की प्रतीक्षा करने लगा, परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वहाँ कोई नहीं आया। कौए बोलने लगे। इससे लगा सबेरा होगया। मुझे बहुत निराशा हुई , साथ ही मन में शंका भी हुई कि लड॰की के हाथ- पाँव मे कोई दाग तो नहीं !मंडप में भी वह पूरा शरीर ढाँके रही।रात में मिलने के लिए भी उसे भेजा नहीं गया!खैर , अब हो क्या सकता था। अब आशा थी कि आज उसकी विदाई होगी। वह हमोगों के साथ हमारे घर चलेगी। यहाँ नहीं देखा तो कम -से - कम उसे अपने घर तो देख सकूँगा! परन्तु यह भी नहीं हुआ। सबेरे उसके पिताजी ने बताया कि विवाह के बाद तीन वर्षो तक लड॰की की विदाई का उनके यहाँ रिवाज नहीं है। मुझे गहरी निराशा हुई। हमसब लोग लौट कर वापस आगये। मुझे यह अनुभव ही नहीं हुआ कि मेरा विवाह भी हुआ है। मेरी माँ इससे बहुत नाराज हुई। वह अपनी पहली बहू के स्वागत की पूरी तैयारी कर चुकी थी। खैर , मैं वहाँ से पुनः राँची लौट गया। मुझे यह अनुभव ही नहीं हुआ कि मेरा विवाह भी हुआ है।मेरे मित्रों को भी बहुत निराशा हुई।मैंने बडी॰ मुश्किल से स्वयं को सम्हाला और अपनी पढा॰ई में लग गया।
Copyright reserved by MadanMohan Tarun
No comments:
Post a Comment