याद आता है गुजरा जमाना 52
मदनमोहन तरुण
राँची के साहित्यकार (1) 52
धुआँपाखी
उन दिनों राँची में हिन्दी के कई वरिष्ठ साहित्यकार रहते थे। मेरे मन में उनसे मिलने की प्रबल इच्छा थी।
प्रेमचन्द की परम्परा के वरिष्ठ लेखक राधाकृष्ण जी रॉची में ही निवास करते थे।एकदिन मैं उनसे मिलने के लिए अचानक ही ,सबेरे - सबेरे पहुँच गया। उ्होंने बडी॰ आत्मीयता के साथ मेरा स्वागत किया।
वे समग्रतः एक कुशल किस्सागो थे।उनके पास रोचक संस्मरणों का आगार था। कुछ ही दिनों में मेरी उनसे अगाध आत्मीयता होगयी और मैं उनका नियमित श्रोता बन गया। प्रातःकाल अपने होस्टल में व्यायाम करने के पश्चात मै धारोष्ण दूध पीने पास ही के मारवाड़ी गोशाला में जाता था।वहॉ से दूध पीकर ग्लास लिए ही मैं लाल बाबू ( रॉची में राधाकृष्ण जी लाल बाबू के नाम से विख्यात थे ) के घर पहुँच जाता था। वे मानो मेरी प्रतीक्षा ही करते रहते। तुरत भीतर से लुंगी और गंजी पहने तथा हाथ में बीड़ी का बंडल लिए बैठक में आजाते और शुरू होती उनकी द्रौपदी के चीर सी लम्बी वार्ता।उनकी स्मृतियॉ समय और दूरी को छलॉंगती – फलॉंगती न जाने कहॉं – कहॉं की यात्रा पर निकल पड़ती और उनकी बीड़ी का धुऑ कभी गाढ़ा , कभी हल्का होता उन स्मृतियों का पीछा करता रहता। राधाकृष्ण जी की अमर कहानी ‘वरदान का फेर’ मैं रॉची आने के पहले ही पढ़ चुका था। उस समय मेरे मन में बार – बार यह प्रश्न उठता ‘ कैसा होगा इस कहानी का लेखक ? सो , वही राधाकृष्ण जी बनाम हिन्दी के स्वनामधन्य ‘घोस, बोस ,बनर्जी, चटर्जी' मेरे सामने थे।सीधे , सरल ,सच्चे।जब वे बातें करते तो जैसे वे अपनी दैहिक सत्ता से बाहर चले जाते और कहानियों का अनवरत प्रवाह बन जाते।उनकी कहानियों का खजाना उससे कहीं ज्यादा था जितना उन्होंने लिखा।
मेरी भाषा सुनकर राधाकृष्ण जी को आश्चर्य होता और वे कहते ‘आपकी भाषा में तो बिहारीपन है ही नहीं, लेकिन कभी पकड़ लूँगा।’ इसी पर उन्होंने एक संस्मरण सुनाया –‘ एक बार मैं राजेन्द्र बाबू का भाषण सुन रहा था।उनकी भाषा में बिहारीपन का स्पर्श तक नहीं था। मैंने सोचा ऐसा हो कैसे सकता है कि एक बिहारी बोले और उसकी भाषा में बिहारीपन का स्पर्श न हो।मैं सोच ही रहा था कि राजेन्द्र बाबू बोले …और ठोप – ठोप पानी चू रहा था।’ कह कर लाल बाबू ठठा कर हॅस पड़े और अपनी इस सफलता को बीड़ी का एक मधुर कश देकर पुरस्कृत किया।
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