याद आता है गुजरा जमाना 53
मदनमोहन तरुण
यहॉ एक नई संस्कृति जन्म ले रही है
एक दिन जब मैं राधाकृष्ण जी के यहॉं पहुँचा तो उन्होंने बड़े उत्साह से मेरा स्वागत करते हुए कहा – ‘ आइए , आइए ! आज मैं आपकी मुलाकात बौध्द साहित्य और संस्कृत के महान विद्वान एवं हिन्दी के विख्यात कवि नागार्जुन जी से कराता हूँ। मैं भी चहक उठा। उनकी 'अकाल' कविता खास तौर से याद आगयी।मिलने को मन बेचैन हो उठा। मैं पास ही कुर्सी पर बैठ गया। वहीं पर खिचड़ी बालों वाले एक बुजुर्ग सज्जन एक पुराने से कम्बल में खुद को लपेटे करीब –करीब गठरी की तरह लुढ़के हुए थे। सोचा राधाकृष्ण जी के गॉव के कोई रिश्तेदार होंगे। मैंने ध्यान नहीं दिया । मैं तो नागार्जुन जी की प्रतीक्षा कर रहा था। तभी उस गठरीनुमा सज्जन ने हल्के से आवाज दी – ‘कैसे हो ?’ ‘मैंने वैसे ही जवाब दे दिया ‘ठीक हूँ’।फिर इंसानियत के नाते पूछ दिया – ‘इलाज के लिए आए हैं क्या ?’ वे कुछ बोलते इसके पहले ही राधाकृष्ण जी भीतर से बाहर आगये। पूछा – ‘मिले नहीं ?’ मैने कहा – ‘अभी आए कहॉं हैं?’ वे बोले – ‘ओहोह ! आप भी धोखा खा ही गये ?’ उसके बाद तो जैसे जादू का खेल शुरू होगया और कम्बल के गट्ठर से एक काले ओवरकोट वाले सज्जन निकल आए।मेरी ओर देख कर एक शरारती बच्चे की तरह हॅसे ।आगे के दॉत बिकलकुल गायब ! मैं भी उछल पड़ा – कौए ने खुजलाई पॉखें बहुत दिनों के बाद ! फिर कभी लगा ही नहीं कि इतने बड़े लेखक से मिल रहा हूँ। और पहली बार मिल रहा हूँ। वे जर्मनी से लौटे थे। उन्हीं दिनों मुक्तिबोध जी का निधन हुआ था । वे आहत थे। उन्होंने उनपर एक कविता सुनाई थी, जिसकी बस एक ही पंक्ति याद है – ‘आओ मुक्तिबोध बीड़ी पीएँ।’ फिर मैं उन्हें बाबा कह कर बुलाने लागा । वे पूरे हिन्दी साहित्य के बाबा थे। वे रॉची में करीब सप्ताह भर रुके और मेरी उनसे देर – देर तक बातें होती रहीं।डॉ रणधीर सिनहा के बड़े भाई हटिया में रहते थे। उन्होंने अभी – अभी शादी की थी। बाबा को उन्होंने वधू को आशीर्वाद देने के लिए बुलाया। हटिया पहुँचकर आशीर्वादादि सम्पन्न कर जब वे बाहर आए और हटिया पर एक दृष्टि डाली तो चहक पड़े। ‘यहॉ एक नयी संस्कृति पनप रही है।पूरा विश्व एक परिवार के रूप में ढल रहा है।यह रूस और भारत के मिलन का असाधारण बिन्दु है।उभरते लेखकों के लिए तो यह जीवन की ऐसी प्रयोगशाला है , जहॉ दो महान संस्कृतियों के रसायन मिश्रण और उसके परिणाम को खुली ऑखों से देखा जा सकता है, ’ फिर तनिक रुक कर उत्तेजना पूर्वक बोले ‘जो साला, रॉंची में रहते हुए भी यहॉ सप्ताह में कम –से – कम दो बार नहीं आता , वह लेखक नहीं है ।’
एक दिन मैं उन्हें शहर घुमाने ले गया।उन्हें दमे का दौरा था।सोचा रिक्शे से ही इन्हें मेन रोड घुमा दूँ , परन्तु फिराया लाल के विक्रय केन्द्र के पास उन्होंने रिक्सा छोड़ दिया और बोले घूमने का मजा पैदल – पैदल ही है।
वे चलते – चलते किसी विषय पर खूब जोर – जोर से बीच सड़क पर खड़े होकर बोलने लगते ,जिससे आगे – पीछे से गाड़ियॉ रुक जातीं ,परन्तु क्षण भर में ही लोग सदाशयता से अपनी गाड़ियॉ टेढ़ी – मेढ़ी कर आगे निकल जाते।तब उस सड़क पर ट्रैफिक की उतनी भीड़ भी नहीं होती थी और लोगों में एक – दूसरे के प्रति सहिष्णुता थी।उस दिन की यात्रा बड़ी नाटकीय रही।रास्ते में युवा पीढ़ी के कई लेखक बाबा से मिले ।सब को उन्होंने उसी आत्मीयता से अपनाया।मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि हिन्दी मे शायद ही कोई लेखक हो जो नयी पीढ़ी के लेखकों के प्रति इतना सहज हो।वे आत्मा की ऊर्जा से इतने सम्पन्न थे कि रोग , उम्र और शरीर सब की सत्ता नकार कर जीते थे।
जब बाबा लौटने लगे तो लगा घर का कोई सदस्य जा रहा हो। मन भारी - भारी - सा हो गया।उसके बाद उनसे मेरी मुलाकात दो – तीन बार और हुई।हर मुलाकात अनूठी ! अविस्मरणीय !
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