याद आता है गुजरा जमाना 57
मदनमोहन तरुण
राम और छोटानागपुर के आदिवासी
डॉ. कामिल बुल्के रामायण की कथा के उत्तर पक्ष को वैदिक कथा-प्रतीकों तक खींच ले जाने की आवश्यकता नहीं समझते। आदिवासी जातियों में आज भी कई ऐसी परम्पराएँ सुरक्षित हैं जो इस पक्ष को पूर्णतः लौकिक एवं स्वाभाविक कथा सिद्ध करने में समर्थ है। ’’सबसे स्वाभाविक अनुमान यह है कि आजकल के आदिवासियों के समान उन जातियों के विभिन्न कुल विभिन्न पशुओं और वनस्पतियों की पूजा करते थे। जिस कुल में लोग जिस पशु या वनस्पति की पूजा करते थे, वे उसी के नाम से पुकारे जाते थे।’’-118 वे अपनी बात आगे बढ़ाते हुए लिखते हैं- ’’छोटानागपुर में रहने वाली उरॉंव तथा मुण्डा जातियों में तिग्गा, हलमान, वजरंग और गड़ी नामक गोड मिलते हैं। इन सब का अर्थ बन्दर ही है। सिंह भूमि की भुइयाँ जाति हनुमान के वंशज होने का दावा करते है। वे अपने को पवन-वंश कह कर पुकारते हैं।- 118 इसी प्रकार मैना, उरॉंव और विर्होर जातियों में गिद्ध या गिधि गोत्र होते हैं। ’’हाल ही में मुझे पता चला कि रॉंची जिले के रयडीह थाने के कटकयॉं गॉंव में एक ’रावना’ नामका परिवार अब तक विद्यमान है।’’-119 इन आधारों पर वे अपना मत स्थापित करते हुए लिखते हैं- ’’इन सब बातों को ध्यान में रख कर यह स्पष्ट है कि आदिवासियों का रामकथा के साथ संबंध अवश्य है। ग्ग्ग् तथा यही अधिक संभव है कि रामायण के वानर, ऋक्ष, गीध वास्तव में वानर, ऋक्ष, गीध गोत्रीय आदिवासी थे।’’ 119 वे कुम्भकर्ण, मेघनाद, दशग्रीव, विभीषण, प्रहस्त (लम्बे हाथोंवाला को वर्णनात्मक नाम मानते हैं।)
वाल्मीकीय रामायण के राम में देवत्व से अधिक उनकी मानवीय विशेषताओं पर बल है। उसमें अतिशयोक्ति का प्रयोग कथा के कलात्मक सौकर्य एवं उसकी प्रभाववृद्धि मात्र के लिए कुछेक स्थलों पर अवश्य है, जो राम के व्यक्तित्व को कहीं भी इतना अस्वाभाविक नहीं बनाता कि वे अपरिचित से लगें। वे कर्तव्य प्रेरित निष्ठा से अपने आचरण के हर पक्ष में उदाहरणीय लगते हैं, परन्तु उनमें अपार मानवीय संवेदना है। वे सबल हैं, तो दुर्बल भी। सुदृढ़ हैं, तो समय-समय पर व्यग्र और व्यथित भी। वे भी साधारण आदमी की तरह रो पड़ते हैं। पराजय और खोने की व्यथा उन्हें भी हिला देती है। परन्तु, अपने परवर्ती विकास काल में रामकथा में अलौकिक तत्वों का प्राधान्य होता गया है। अवतारवाद के विकास के साथ-साथ राम विष्णु के बौद्धों में बेधिसत्व तथा जैनों में आठवें बलदेव के रूप में चित्रिात होते-होते नर से नारायण हो गये हैं। डॉ. बुल्के के मतानुसार- ’संस्कृत धार्मिक साहित्य में राम का स्थान अपेक्षाकृत कम व्यापक है। कारण यह है कि एक तो वैदिक साहित्य के निर्माण काल में रामकथा प्रचलित नहीं थी। दूसरे, रामभक्ति की उत्पत्ति के पूर्व जनसाधारण के धार्मिक जीवन में रामकथा के लिए विशेष स्थान नहीं था। वैदिक साहित्य में रामकथा का नितान्त अभाव है।’’ 721.22 रामभक्ति के विकास के साथ-साथ साम्द्रायिक रामायण तथा संहिताओं का प्रचलन हुआ, जिनमें अध्यात्म रामायण, अद्भुत रामायण, आनन्द रामायण, तत्वसंग्रह रामायण आदि उल्लेखनीय हैं। संस्कृत ललित साहित्य के स्वर्णकाल के विशिष्ट कवियों ने रघुवंश, उत्तररामचरित जैसी कालजयी कृतियाँ अवश्य प्रस्तुत थी। आधुनिक भारतीय भाषाओं में कंवनकृत तमिल रामायण, तेलुगु द्विपद रामायण, मलयालम रामचरितम, असमिया माधवकंदली रामायण, बंगाली कृत्तिवास, हिन्दी रामचरित मानस, उड़िया बलरामदास रामायण तथा मराठी में भावार्थ रामायण, कश्मीरी रामायण रामकथा के विकास की महत्वपूर्ण कड़ियाँ हैं, जिन्होंने लोक जीवन को प्रभावित किया।
डॉ. बुल्के के मतानुसार ’’वासुदेव कृष्ण सम्भवतः तीसरी शताब्दी पूर्व से विष्णु के अवतार माने जाने लगे थे, जिससे अवतारवाद की भावना को बहुत प्रोत्साहन मिला था। दूसरी ओर रामायण की लोकप्रियता के साथ-साथ राम का महत्व भी बढ़ने लगा था, उनकी वीरता के वर्णन में अलौकिकता भी आ गयी थी। इस प्रवृत्ति की स्वाभाविक परिणति यह हुई कि कृष्ण की भांति राम भी सम्भवतः पहली शताब्दी ई.पू. के अवतार के रूप में स्वीकृत होने लगे थे।’’-738 परवर्ती रामकथा में कृष्णकथा के कई प्रसंग नाम एवं प्रसंग भेद से सम्मिलित किये गये। कृष्णकथा के रसमय प्रसंगों की चासनी रामकथा में डाली गयी है। यह वही श्रृंखला है जिसमें परवर्ती संस्कृत साहित्य परिबद्ध होकर संकुचित हौर संकीर्ण होता हुआ अपनी मूल गरिमा और विराटता खोकर अपने स्थान से वंचित होता चला गया। राम अपने वनवास के दौरान दण्डकारण्य के कामातुर ऋषियों को यह आश्वासन देने लगे कि वे कृष्णावतार में गोपियों के रूप में आकर उनकी तृप्ति की व्यवस्था करेंगे। (पद्मपुराण, उत्तरखण्ड 272.166.167) बलरामदास रामायण, गर्ग संहिता (गोलोक खंड, अध्याय-4 और माधुर्यखण्ड अध्याय-2, कृष्णोपनिषद् (रामचन्द्रस्य कृष्णावतार प्रतिज्ञा आदि।) इस प्रकार क्षात्र धर्म के कर्तव्यों के प्रति मूलतः समर्पित राम को लीला पुरुष बना दिया गया। डॉ. बुल्के ने रामकथा में कृष्णचरित के परवर्ती विकास को पात्र-साम्य की दृष्टि से इन शब्दों में रखा है- ’’रामकथा के बहुत से पात्रों का संबंध कृष्णचरित के पात्रों से स्थापित किया गया है। राम तथा कृष्ण के अतिरिक्त सीता-सुभद्रा तथा लक्ष्मण-बलभद्र की अभिन्नता का भी प्रतिपादन किया गया है। सीता के विषय में माना गया है कि वह कृष्णावतार में कृष्ण की पत्नी (रुक्मिणी) बन कर दस पुत्री तथा एक पुत्री उत्पन्न करेंगी (आनन्द रामायण 7ए 19ए 138)। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित पात्रों की अभिन्नता का उल्लेख मिलता है- मन्थरा-पूतना, शूर्पणखा और कुब्जा, वालि और भील, अयोध्या का धोबी और कंस का धोबी, जाम्बान और जाम्वती का पिता (तत्वसंग्रह रामायण 7ए 15 तथा बलरामदास रामायण) वानर और गोप (आनन्द रामायण 9ए5ए45द्धष्.135 इसके साथ ही रासलीला आदि के अनेकानेक प्रसंग रामकथा से जुड़ते चले गये। दूसरी ओर विकास क्रम में जैसे-जैसे विष्णु ने इन्द्र का, शिव ने ब्रह्मा का स्थानान्तरण किया वैसे-वैसे रामकथा के विविध प्रसंगों में भी ऐसे परिवर्तन आते चले गये। राम ने किसी रामायण में एक ही प्रसंग पर ब्रह्मा की आराधना की, तो किसी अन्य रामायण के उसी प्रसंग में शिव या शक्ति की। भारतीय संस्कृति के विकास की यह एक अलग गाथा है। डॉ. बुल्के ने अपने इस प्रबंध में समय के इन यात्री-पदचिह्नों को बड़ी सावधानी एवं विस्तार के साथ अंकित किया है।
रावण-वध के पश्चात् गर्भवती सीता का राम द्वारा निष्कासन रामकथा के अत्यंत मार्मिक प्रसंगों में है, जो लोक-मानस को उद्वेलित करता रहा है और राम के व्यक्तित्व पर भी अपनी काली छाया डालता रहा है। अनेक कवियों ने समय-क्रम में इसे भिन्न-भिन्न रूपों में प्रस्तुत किया है। अपने अध्ययन में डॉ. बुल्के ने सीता की अग्नि-परीक्षा एवं निष्कासन के प्रसंग में अधिक रुचि ली है, तथा इनसे सम्बद्ध अपने अध्ययन से प्राप्त विविध सामग्री अध्येताओं के लिए प्रस्तुत की है। धोबी का अपनी पत्नी को पीटते हुए सीता पर आरोप लगाने के प्रसंग के साथ-ही-साथ सपत्नियों की प्रेरणा से गर्भवती सीता द्वारा रावण के चरणों का चित्र बनाना एवं बाद में ईर्ष्यालु सपत्नियों द्वारा इसे विज्ञापित कर राम को भड़काना, स्वयम् कैकेयी द्वारा पंखे पर रावण का चित्र बनाकर प्रसुप्ता सीता के वक्ष पर उसे रख देना, सीता का राम समझ कर उसे चूमना, राम का देखना और क्रुद्ध होना, लंका की राक्षसी द्वारा सीता की सहेली बनकर सीता को रावण का चित्र बनाने को प्रेरित करना, आदि के साथ अनेकों ऐसे प्रसंग रखे गये हैं जो लोक-सहानुभूति से निष्पन्न हैं।
रामकथा ने इतिहास और भूगोल की इनकी लम्बी यात्रा की है, नर से नारायण काव्य बनने तक इतने धर्मों, संस्कृतियों, विश्वासों, आस्थाओं से युग-युग में उसका सामना हुआ है कि उसकी कथा में अन्तर-परिवर्तन अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। इस परिवर्तन पर ’आनन्द रामायण’ के पूर्णकाण्ड, सर्ग सात में बहुत ही सटीक टिप्पणी दी गयी है-
पुनः-पुनः कल्पभेदाज्जाताः श्री राघवस्य च।
अवताराः कोटिशोऽत्रा तेषु भेदः क्वचित्क्वचित।
भिन्न-भिन्न कालों में राम के कोटि-कोटि अवतार हुए हैं अतः इन असंख्य अवतारों के कारण कथा कुछ-कुछ अन्तर-प्रत्यन्तर अस्वाभाविक नहीं।
पहले-पहल बौद्धों ने इस कथा का विदेशों में प्रचार-प्रसार किया। क्रमशः तीसरी और पाँचवी शताब्दी में ’दशरथ-जातक’ का चीनी भाषा में अनुवाद हुआ। तत्पश्चात् नवीं श.ई. में तिव्बती तथा खेतानी रामायणों से उसे उत्तर में फैलने का अवसर मिला। हिन्देशिया तथा हिन्दचीन में वाल्मीकीय रामायण प्राचीन काल से ही ज्ञात है। जावा, कम्बोदिया, स्याम में राम-नाटक आज भी लोकप्रिय हैं। इसके अलावा भारतीय भाषाओं में तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, बंगला, असमी, मराठी, उड़िया, गुजराती, उर्दू-फारसी एवं विदेशी भाषाओं में डच, स्पैनिस, फ्रेंच, जर्मन, पुर्तगाली आदि भाषाओं में उपलब्ध अनेकानेक रामकथाओं का अध्ययन-विवेचन प्रस्तुत किया है। इसके अलावा रामकथा की प्रक्षिप्त सामग्री पर विचार करते हुए उन्होंने हिन्दू, बौद्ध, जैन धर्म तथा अवतारवाद एवं उसके प्रभावों की गहराई से छान-बीन की है, तथा उसके पात्रों एवं कथानक के विविध अंगों पर विपुल सामग्री प्रस्तुत कर उनका विश्लेषण किया है।
इस प्रबंध की अनन्यता का दूसरा क्षेत्र है, रामकथा के प्रमुख एवं गौण पात्रों पर देश-विदेश में प्राप्त सामग्री का विशद संकलन एवं विवेचन। लेखक ने रावण, हनुमान व सीता के साथ परशुराम, शबरी, त्रिजटा, मंदोदरी, विभीषण इन्द्रजित, शत्रुघ्न आदि पात्रों पर भी प्रभूत सामग्री प्रस्तुत की है तथा रावणवध के पश्चात् गर्भवती सीता के वनवास पर तो उसने विविध कथाओं का एक अलग संसार ही खड़ा कर दिया है।
इस प्रबंध की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पाठक को देश-विदेश, विभिन्न भाषाओं में लिखित-अलिखित रूप से व्याप्त रामकथाओं के विराट धतराल पर ला खड़ा करता है, जहाँ उसे इस कथा के अनेकों क्षितिजों का एक साथ साक्षात्कार होता है।
’अंग्रेजी-हिन्दी कोश’ हिन्दी भाषा को डॉ. बुल्के का दूसरा महत्वपूर्ण अवदान है। प्राक्कथन में स्वयम् उनका वक्तव्य इस कोश की विशेषताओं को स्पष्ट करता है- ’’बारह वर्ष पूर्व (इस कोश का प्रथम संस्करण 1968 में प्रकाशित हुआ था।) मैंने A Technical Hindi –English Glossary प्रकाशित की थी। उस छोटे से कोश का इतना स्वागत हुआ कि मैंने एक सम्पूर्ण अंगरेजी-हिन्दी कोश तैयार करने का संकल्प लिया। यह कोश प्रमुख रूप से हिन्दी सीखने वालों की समस्याएँ दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है फिर भी मुझे आशा है कि यह हिन्दी भाषियों के लिए समान रूप से उपादेय होगा। अनुवादक निश्चय ही इससे लाभान्वित होंगे। इसमें अंगे्रजी के विद्यार्थियों का भी ध्यान रखा गया है। उनकी सुविधा के लिए अंगरेजी शब्दों का उच्चारण हिन्दी में दिया गया है।’’ इन विशेषताओं के साथ ही शब्दों की व्याकरणिक कोटियों का निर्देश किया गया है। हिन्दी सीखने वाले इतर भाषियों को लिंग की समस्या बहुत परेशान करती है। यहां लेखक ने स्त्रीलिंग शब्दों को एक तारक चिह्न एवं उभय लिंगी शब्दों को दो तारक चिह्नों से रेखांकित कर हिन्दी सीखने वालों की बहुत सी समस्याओं के समाधान का प्रयास किया है। यह अंग्रेजी शब्दों का निठाह हिन्दी अनुवाद नहीं है, पर एक व्यावहारिक कोश है जिसमें हिन्दी के सहज स्वाभाविक पर्यायों पर ध्यान दिया गया है।
1 सितम्बर 1909 को वेल्जियम में उत्पन्न पद्मभूषण डॉ. कामिल बुल्के, 17 अगस्त 1982 को अपनी कर्मभूमि भारत में सदा के लिए अमर हो गये ।
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