याद आता है गुजरा जमाना 51
मदनमोहन तरुण
मेरा काँलेज
राँची काँलेज एक विशाल काँलेज था जहाँ हजारों छात्र विभिन्न विषयों का अध्ययन करते थे। यह जहानाबाद के अति सीमित संसार से सर्वथा भिन्न संसार था।यह दुनिया चारों ओर से खुली हुई थी। छात्रों के अलावा यहाँ करीब बीस प्रतिशत छात्राएँ भी अध्ययन करती थीं, जो केवल लड॰किओं के बीच ही सिमट कर नहीं रहती थीं। उनका सबसे विचारों का आदान- प्रदान होता था।कुछ छात्र संघ के जिम्मेदार पदों पर भी थीं।
यहाँ एक नयी दुनिया अपने आनेवाले कल की खुल कर तैयारी कर रही थी। इसे बनते हुए देखना और उसमें अपनी भागीदारी तय करना एक रोमांचक अनुभव था।
काँलेज के हर विषय में कई युवक और बुजुर्ग अध्यापक थे जो अपने विषय में निष्णात थे।उनमें कई अपने क्षेत्र के सुप्रसिद्ध और सुप्रतिष्ठत व्यक्ति थे। कई अपने विचार , व्यवहार और आचरण की विचित्रताओं के लिए छात्रों के बीच विख्यात थे।कई की पढा॰ते समय दीवानगी देखने लायक थी।
हिन्दी में कविता लिखने के कारण बी. ए. में मैंने हिन्दी - साहित्य को अपने अध्ययन के मुख्य विषय( आनर्स) के रूप में चुना। इसके अन्तर्गत तीन सामान्य पेपर्स के साथ इस विषय के अन्य छात्रों की तुलना में तीन अतिरिक्त पेपर्स का अध्ययन करना पड॰ता था। मेरे मित्रों को जब यह मालूम हुआ कि मैं हिन्दी - साहित्य को अपने अध्ययन का विषय बनाने जा रहा हूँ तो उन्हें बहुत निराशा हई। वे मेरे पास आए और मुझे हर प्रकार से समझाने की चेष्टा की कि हिन्दी में कविता लिखना अलग बात है और अध्ययन - विषय का चयन करना अलग बात है। उन्होंने कहा कि पढा॰ई का उद्देश्य है सम्मानपूर्वक रोजी - रोटी कमाना। हिन्दी इसके लिए सक्षम नहीं है। आज अँग्रेजी का बोलवाला है और भविष्य में इस भाषा की माँग बढ॰ती ही जाएगी।इसके विपरीत हिन्दी का कोई भविष्य नहीं है।' उनके विचारों का सम्मान करते हुए भी मैंने अपना निर्णय नहीं बदला। मेरा विचार यह था कि यदि किसी भाषा में लेखनकार्य करना हो, उस पर पूरा अधिकार और उसकी पूरी तैयारी बहुत आवश्यक है।
यह वह समय था जब लोग गॉधी, नेहरू के साथ – साथ प्रेमचन्द , मैथिलीशरण गुप्त , निराला और दिनकर के नाम भी याद रखते थे।अपने शहर के लेखकों एवं विद्वानों की चर्चा से उनकी ऑखों में चमक आजाती थी।साहित्यिक , सांस्कृतिक समारोहों एवं कवि सम्मेलनों में लोगों की अच्छी भीड़ उमड़ आती थी और जनजीवन उससे नयी ताजगी और अपनी जाग्रत परम्पराओं की ऊर्जा लेकर आगे चल पड़ता था।
नकेन के प्रवर्तकों में एक श्री केसरी कुमार जी रॉंची काँलेज के व्याख्याता थे । वे हिन्दी कम्पोजीशन पढ़ाते थे। उन दिनों इन कक्षाओं में तीन सौ के करीब छात्र हुआ करते थे। उन पर मात्र विद्वत्ता के बल पर नियंत्रण रखना सरल न था।केसरी कुमार जी को यह कार्य जानबूझ कर दिया गया था क्योंकि वे विद्वान के साथ दवंग भी थे। वे उन व्याख्याताओं में भी नहीं थे कि 'सुनो या न सुनो मैं तो पढाऊँगा' के दर्शन में विश्वास रखते थे। केसरी कुमार जी के क्लास की एक अलिखित मर्यादा थी।वे पूरी तल्लीनता से पढ़ाते और यदि किसी ने बीच में जरा भी चूँ - चपड़ की तो वे मंच से ही चिल्ला पड़ते और फिर बड़ी तेजी से उस छात्र की बेंच के पास आकर बड़े जोरों से ताली बजा कर भाषण के मंच पर लौट आते और उसी प्रवाह और तल्लीनता में बोलने लगते जहॉ पर वे रुके थे। उस समय लगता ही नहीं था कि अभी कुछ हुआ था।इस प्रकार ताली बजाने की जरूरत उन्हें सत्र में एक – दो बार से ज्यादा नहीं होती थी। वे एम. ए . में श्यामसुन्दर दास का ‘साहित्यालोचन’ पढ़ाते थे।’साहित्यालोचन’ की उनकी प्रति सामान्य प्रतियों से दुगनी मोटी हुआ करती। इस रहस्य को जानने का अवसर मुझे उनके आवासस्थान पर मिला।पूरी पुस्तक की जिल्दबन्दी उनकी टिप्पणियों तथा सम्बध्द सामग्री के साथ की गयी थी।केसरी कुमार जी के सेवानिवृत्त होने का महीना था।राधाकृष्ण जी ने निराला जयंती का आयोजन किया था और नगर की ओर से केसरी कुमार जी की विदाई का समारोह भी उसी के साथ जोड़ दिया गया था।इस समारोह में पटना से नलिनविलोचन शर्मा जी एवं बनारस से त्रिलोचन शास्त्री जी आमंत्रित थे।त्रिलोचन जी पंडित भवभूति मिश्र जी के यहॉं रुके थे।शास्त्री जी के पास एक ही कुर्ता - पाजामा था जिसे वे रात में अँगोछी पहन कर धो लिया करते और सवेरे लोटे में आग डाल कर स्त्री कर लेते थे।
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