याद आता है गुजरा जमाना 44
मदनमोहन तरुण
पंडित जवाहरलाल नेहरू 2
इस बार मैंने पंडित जी को एकदम भिन्न रूप में देखा , जिसकी मेरे हृदय पर अमिट छाप पड़ी। ईस्वी सन ठीक से याद नहीं। पटना के गॉधी मैदान में कॉंग्रेस का सम्भवतः कोई अधिवेशन आयोजित था। एक विशाल पंडाल में ऊचा मंच बनाया गया था। पंडित जी उस अधिवेशन को संबोधित करने वाले थे।खूब भीड़ जमा थी।दर्शकों की भीड़ में वहॉ मैं भी खड़ा था।मंच पर देश –प्रदेश के गण्य – मान्य नेता उपस्थित थे।पंडित जी आते ही सीधे मंच पर चले गये । सभी नेताओं ने उठ कर उनका स्वागत किया। मंच पर नेतादि मसनदों के सहारे बैठे थे। बीच में पंडित जी बैठे।इधर नीचे की भीड़ में मंच के निकट – से – निकटतर जाने के लिए जैसे लोगों में होड़ - सी लग गयी। पीछे के लोग आगे के लोगों को धकेलते हुए मंच की ओर बढ़ने लगे।तभी पंडित जी की दृष्टि एक छोटी बच्ची पर पड़ी , जो भीड़ में लोगों के बीच फॅस गयी थी ।उसके दबने का खतरा था। पंडित जी उठ कर खड़े हो गये और उन्होंने भीड़ को डॉटते हुए उस बच्ची को बचाने के लिए कहा। परन्तु, वहॉ सुनने की फुर्सत किसे थी ! बच्ची को संकट में देख कर पंडित जी मंच से कूदने को आगे बढ़े , तभी उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए एक नेता ने पीछे से उनके कुर्ते का एक छोर पकड़ लिया । पंडित जी ने अपना कुर्ता छुड़ाते हुए क्रोध में भर कर पास से मसनद उठा कर उस नेता की ओर फेंका और तेजी से सींढ़ियों से उतरते हुए लोगों के देखते – देखते मंच के नीचे से उस बच्ची को अपनी गोद में उठा लिया और उसी तेजी से मंच पर वापस पहुँच गये।अब मंचस्थ नेताओं एवं सुरक्षा अधिकारियों ने राहत की सॉस ली।
हमारा राष्ट्रनायक इस समय एक सच्चे अभिभावक की भूमिका में था।उस छोटी बालिका को संकट में देख कर उसने अपने पद और मर्यादा की कोई चिन्ता न की, न वह सुरक्षा कर्मियों के लिए ही प्रतीक्षा कर सका।
अपने महान राष्ट्रनायक की इस भावुकता से मेरी ऑंखें नम हो गयीं।
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