याद आता है गुजरा जमाना 40
मदनमोहन तरुण
अपनी राह
चुनौतियाँ कई बार हमारे व्यक्तित्व के उन नये आयामों का उद्घाटन करती हैं , जिनसे हम इसके पूर्व परिचित नहीं थे।
बाबूजी ने जिनदिनों मेरे सृजनात्मक व्यक्तित्व पर अपनी घातक नकारात्मक टिप्पणियाँ की थीं, उनदिनों मैं उस दौर में था जब भींगती मसें ( नई - नई उगती मूँछें ) आदमी की जिन्दगी को नये पानी से सींचना शुरू कर देती हैं। यह उम्र का वह नाजुक दौर था जिसमें आदमी अगर कहीं भीतर से टूट जाए तो उसके लिए सँवरना बहुत कठिन हो जाता है।परन्तु ,मेरी रीढ॰ केवल हड्डियों और मांस- मज्जामात्र से ही नहीं बनी थी, वह बाबा की गोद में बैठकर बचपन में उनके तेजस्वी व्यक्तित्व और उनकी भाव -संकुल वाणी में वर्णित महाभारत , अन्य पुराणों , हितोपदेश और पंचतंत्र की सुनी कथाओं से निर्मित थी। बाबूजी की समय - असमय मुझ पर की गयी नकारात्मक टिप्पणियों ने मुझे कष्ट तो बहुत दिआ , परन्तु मेरी धमनियों मे बहती आदमी की गौरवगाथाओं ने उन्हें मेरे अन्तस्थ तक पहुंचने नहीं दिया। इसके लिए अपने बाबा का बहुत आभारी हूँ और अपनी माँ के कोमल , ममत्वमय किन्तु अटूट और तेजस्वी व्यक्तित्व का भी।,विवाह के बाद मेरी पत्नी मेरे संकल्पों के पीछे अटूट शक्ति बनकर खडी॰ रहीं। इससे कष्ट भी कम नहीं हुआ ,परन्तु जीवन के ऐसे पलों का स्वाद सचमुच बहुत अनूठा था।
मेरी जिन्दगी में ऐसे पल अनेकों बार आए जब मैं कभी - कभी पूरी तरह जैसे धूलिसात हो गया , परन्तु अपनी ही राख से मैं फिर - फिर फूट उठा , पहले से कहीं अधिक मजबूत होकर।
इन सबके बावजूद मैं अपने बाबूजी का बहुत सम्मान करता था।अकारण नहीं। वे एक समर्पित चिकित्सक थे।अपने विषय के वे गहन ज्ञाता थे।लालची जरा भी नहीं थे।उनके पास चिकित्सा के लिए ऐसे मरीज भी आते थे , जिनके पास नतो रहने की जगह होती , न खाने को पैसे, वे ऐसे मरीजों की सारी व्वस्था स्वयं करते थे। उन्हें औषधि भी मुफ्त में देते थे। समान्यतः वे रात में घर काफी देर से लौटते थे , परन्तु उनका स्पष्टतः निर्देश था कि यदि कोई मरीज उनके सोने के तुरत बाद भी आया हो तो उन्हें अवश्य जगा दिया जाए। माँ उनके आराम का खयाल रखती हुई इस कार्य में कभी कोताही करती थी, जिसके कारण उसे डाँट भी पड॰ जाती, परन्तु ऐसे अवसर कभी - कभी ही आते थे, समान्यतः तो पुकारनेवाले की आवाज सुनते ही बाबूजी खुद जाग जाते थे।उन्हें चुनौतीपूर्ण और दुरूह रोगियों का इलाज बहुत प्रिय था , खासकर वे, जो हर जगह से हार कर आते थे।जब ऐसे मरीज ठीक होकर जाने लगते तो उनकी आँखों की चमक देखने लायक होती थी। वे वंध्या स्त्रियओं की चिकित्सा के लिए वे बहुत प्रसिद्ध थे।ऐसी संतानवती स्त्रियों की विशाल संख्या थी, जो उन्हें देवता की तरह पूजती थी।
उनके आसपास ऐसे सम्बन्धियों की भीड॰ रहती थी , जो अपने आर्थिक अभावों का रोना रोकर उनका शोषण करते थे। बाबूजी को यह बात मालूम थी , परन्तु उन्हें अपने सामने गिड॰गिडा॰ने वाले लोग पसन्द थे और वे उन्हें देते भी थे। उनके अपनों और परायों में ऐसे कई थे जिन्होंने इसका खूब लाभ उठाया। वे अपने बच्चों से भी ऐसी ही आशा रखते थे ,जिसने उ नके सामने गिड॰गिडा॰ दिआ , उसे सबकुछ मिल गया और जिसने ऐसा नहीं किया ,उसे उन्होंने उसके सहज अधिकारों से भी वंचित कर दिआ।
बाबा द्वारा प्रदत्त सकारात्मक दृष्टि ने मुझे अपनी जडों॰ को पृथ्वी की गहराइयों में ले जाने की क्षमता दी और तूफानी हवाओं में ऊपर आकाश की ओर झूमने की।
मेरे बाबा के भीतर भी यह ऊर्जा कहीं ऐसे ही कारणों से आई थी।बाबूजी अपने छह भाइयों की मृत्यु के बाद पैदा हुए थे।उन्हें बचाने के लिए बाबा के छोटे भाई, अर्थात हमारे मँझिला बाबा ने सगुन के रूप में उन्हें गोद ले लिया था और यह सगुन काम भी कर गया।बाबूजी जीवित बच गये।मँझिला बाबा ने बडी॰ निष्ठा के साथ उनका पालन - पोषण किआ। उन्हें पढा॰या - लिखाया और अपने पाँवों पर खडा॰ किआ। इसलिए बाबूजी उन्हें ही अपना पिता मानते रहे। मेरे बाबा को अपने पिता होने का सम्मान नहीं मिला। इसकी कसक कहीं - न - कहीं उनके भीतर जरूर थी।परन्तु, वे जीवन को बहुत खुली दृष्टि से ग्रहण करते थे, इसलिए उनकी जीवंतता सदा अक्षत बनी रही और उनसे अधिक निकटता के कारण ये संस्कार मुझे भी प्राप्त हुए।
परन्तु, यह मैं आजतक नहीं समझ पाया कि बाबूजी मेरी उपलब्धियों के प्रति सदा ही , नकारात्मक क्यों बने रहे ?
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