Total Pageviews

Tuesday, August 9, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 38

याद आता है गुजरा जमाना - 38

मदनमोहन तरुण

ये तो कवि बनेंगे !

जहानाबाद में मकान बन जाने पर हमलोग किराए के मकान से अपने मकान में चले गये।मैं स्कूल जाने लगा था। तब मैं सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था। मेरे पडो॰स में एक परिवार रहता था , जिसकी बेटी असाधारण झगडा॰लू थी। वह अपनी माँ से प्रतिदिन घंटों झगडा॰॰ करती, यहाँ तक की जब बोलते - बोलते थक जाती तो लोटाभर पानी पीती और उसके बाद झगडा॰ फिर शुरू कर देती। मैंने उसी पर एक व्यंग्यात्मक लेख लिखा था। कह सकते हैं कि यह मेरा पहला साहित्यिक प्रयास था। लिखने के बाद सबसे पहले मैंने यह लेख अपनी माँ को सुनाया। सुनकर वह खुश ही नहीं हुई, बहुत देर तक हँसती रही। बाद में उसने कई बार कहा - ' बड॰का ! वह लेख जरा फिर से पढो॰ तो।' माँ के इस प्रोत्साहन से मुझे बहुत बल मिला। और , जब भी अवसर मिलता मैं किसी विषय पर लिख जाता। यहाँ बता दूँ कि लिखने की प्रेरणा मुझे अपनी माँ से ही मिली थी।वह भी जब किसी में कोई विचित्रता देखती तो व्यंग्यात्मक कविता लिख जाती और केवल मुझे ही सुनाती थी। माँ ने मुझसे कहा कि मैं बाबूजी को अपना लेख सुनाऊँ। बाबूजी के प्रति मैं बहुत सहज नहीं था। उनसे मेरी कम ही बातचीत होती थी। मैं नहीं जानता था कि उनपर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी। माँ ने खुद बाबूजी को बताया कि 'बड॰का ने एक लेख लिखा है। बाबूजी ने सुनते ही उत्साहपूर्वक कहा - सुनाओ तो !' लेख सुनकर उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त की , परन्तु उसके साथ यह भी जोड॰ दिया ' हाँ , ठीक है , परन्तु पढ॰ने में अधिक मन लगाना चाहिए।' मुझे सुनकर बहुत अच्छा नहीं लगा। कोर्स की पुस्तकों को छोड॰कर बाहरी कितावें पढ॰ने में मेरी दिलचस्पी बढ॰ गयी थी। यह माँ के उस बक्से का प्रभाव था जिसमें तरह - तरह की पुस्तकें भरी रहती थीं। और माँ उसे पढ॰ती रहती। पुस्तकों की रहस्यमय दुनिया में सैर का चस्का मुझे वहीं से लगा था जो आज भी कम नहीं हुआ है। नवीं कक्षा तक जाते - जाते मैं जहानाबाद के त्रिभुवन पुस्तकालय की अधिकतम पुस्तकें पढ॰ गया था।वहाँ ज्यादातर बंगला के लेखकों में शरत बाबू, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय आदि की कितावों के हिन्दी अनुवाद होते थे।प्रेमचन्द का भी साहित्य वहाँ उपलब्ध था , शेष आर्य समाज के दयानन्द सरस्वती की कितावें और पौराणिक साहित्य की प्रधानता थी।

न जाने कब से मैं कविताएँ लिखने लगा। माँ ने अपनी प्रशंसाओं से मुझे प्रोत्साहित किया । बाबूजी ने भी पहले मेरी तरीफ की , अपने मित्रों के सामने बुला कर कविताएँ सुनवाईं, परन्तु बाद में न जाने क्यों उनमें एक परिवर्तन आ गया। अब वे समय - समय पर अपने मित्रों के सामने मेरा मजाक उडा॰ने लगे - ' देखिए , देखिए , ये जनाब कवि बनेंगे।' बाबूजी की हाँ -में- हाँ मिलाते हुए उनके कुछ मित्र भी इसमें शामिल हो गये। उनके इस व्यवहार से मेरे दिल को बहुत ठेस पहुँचती थी। मेरी माँ ,मेरी इस पीडा॰ को समझती थी।

Copyright Reserved By MadanMohan Tarun

1 comment:

  1. bachpan ki yadon ko aapne bahut hi utkrisht tareeke se sanjo rakha hai.

    ReplyDelete