याद आता है गुजारा जमाना 50
मदनमोहन तरुण
राँची ,अरी ओ राँची !
बन्ध तोड़ो प्राण की सूखी धरा पर
ज्योति की गंगा उतरना चाहती है ।
वृत्त की आवृत्ति पुनरावृत्ति कोल्हू के वृषभ सा
कर्म करना, उदर भरना, मृत्यु वरना है न जीवन ।
खोज है जीवन गगन विस्तार सागर की गहनता
और उद्घाटन घनों में बद्ध दिनकर की प्रखरता ,
नयन खोलो गगन घन अंचल हटा कर
विद्यु की वनिता विहँसना चाहती है ।
मृत्यु की आराधना में भूल कोई रह गई है
इसलिए तुम अमरता से रिक्त हो कर रह गए हो
चले थे तुम संग अपने सूर्य लेकर , चंन्द्र लेकर
किन्तु वे तम के सदन की अर्गला में बँध गए हैं ,
खोल दो सब द्वार दुग्धिल चंन्द्रिका से ,
आज सरसा सिक्त होना चाहती है ।
- ज्योति गंगा, मदनमोहन तरूण
आज से करीब पचास साल पहले की बात है।
हमारा होस्टल ( नम्बर 5 ) राँची हिल के पास ,हरमू रोड पर अवस्थित था। आसपास बहुत हल्की - फुल्की आबादी थी। हरमू पथ पर, कुछ ही दूर आगे श्मशान था । उस श्मशान के पास से हरमू नदी बहती थी, जिसके पुल से लोगों का आना- जाना होता था।श्मशान के पास कुछ भयानक से चेहरेवाले दाढी॰धारी रहते थे।उन्हें देख कर डर - सा लगता था।लोगों का कहना था कि वे अघोरी तांत्रिक सन्यासी हैं। उनका कोई लोक - सम्पर्क नहीं था।शाम को आदिवासी स्त्री - पुरुषों का दल , दिन भर की मजदूरी के बाद हडि॰या ( देसी शराब) पीकर मस्त, किसी लोकधुन को हवा मे तरंगित करता ,इस सड॰क से हररोज अपने गाँव की ओर जाता था।शाम होते ही यहाँ चारों ओर निविड॰ सन्नाटा पसर जाता था। सिर्फ हम होस्टल के कुछ दीवाने किस्म के लोग पास ही की एक बडी॰ झील के पास , विशेष कर चाँदनी रात में देर तक बैठते थे। यह झील पानी से भरी रहती। इसके किनारों पर कमल के फूल उगे रहते थे।इसमें एक नाव थी जो दिन में मछली पकड॰ने के काम आती थी। और रात में कभी - कभी हम इसें बैठकर चुपके से नौका - विहार कर लेते थे।झील के चारों ओर का परिवेश हरियाली भरे , दूर तक फैले पहाडी॰ खेतों का परिवेश था जो इस झील को और भी खूबसूरत बना देता था।चाँदनी रातों को , विशेषकर पूर्णिमा की रातों में जब गोलाकार विशाल चन्द्रमा निरभ्र आकाश से इस झील के दर्पण में अपना चेहरा देखने के लिए ठीक इसके ऊपर कुछ देर के लिए रुक जाता ,तो वह दीवनगीभरा मोहक दृश्य हमें मानो किसी परीलोक में पहुँचा देता था। यह दृश्य हमारे अन्तस का मधुर विस्तार करदेता और हम देर तक विमुग्ध कभी आँखें बन्दकर और कभी खुली सपनीली आँखों से इस पूरे जदूई वातावरण का आनन्द लेते। मेरे सृजनात्मक व्यक्तित्व के निर्माण में इस झील का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।
हमारे होस्टल के पास ही राँची हिल थी , जहाँ हम संध्या समय प्रतिदिन जाते थे। इस पहाडी॰ के शिखर पर देवी की एक छोटी , किन्तु मोहक मूर्ति थी । कुछ दिनों बाद , एकदिन मैंने गौरकिया कि देवी की एक आँख बडी॰ और एक छोटी है। इसे मैं गौर न करता तो ज्यादा अच्छा होता क्योंकि उसके बाद मुझे देवी की सुन्दरता से अधिक उनकी उस आँख की कमी पहले नजर आती थी। जोभी हो देवी को देखते रहने में मुझे बहुत आनन्द आता था। राँची की इस पहाडी॰ की ऊँचाई से उसके चारोंओर का दूर - दूर का हरियाली भरा इलाका दिखाई देता था। यह दृश्य मन को एक विस्तार प्रदान करता था।
दूसरे ही दिन कई अन्य छात्रों से मित्रता हो गयी।
यह एक सर्वथा नई दुनिया थी। यहाँ आना एक अभूतपूर्व अनुभव था इस छात्रावास में भारत के विभिन्न प्रदेशों के छात्र थे। उनकी अपनी अलग - अलग भाषाएँ थीं। आपसी सम्प्रेषण की सामान्य भाषा हिन्दी थी ।जो लोग हिन्दी नहीं जानते थे वे अँग्रेजी में काम चलाते थे , परन्तु कुछ ही दिनों में करीब - करीब सबने कामचलाऊ हिन्दी सीख ली।
मेरे मित्रों में कुछ अपने स्वास्थ के प्रति बहुत सजग थे।मैं दुबला - पतला था ,यद्यपि बचपन से ही मेरी नियमित रूप से व्यायाम करने की आदत थी। स्वास्थ के इस नये अभियान के साथ मैं भी जुड॰ गया।हम चार बजे भोर में ही उठकर दण्ड - बैठक लगाते।कुछ इसमें काफी समय लगाते थे लेकिन मैं उतना ही व्यायाम करता था जितना शरीर सहज रूप से स्वीकार करता था। होस्टल से कुछ ही दूरी पर मारवाडी॰ गोशाला थी। व्यायाम समाप्त करने के बाद हमलोग एक- एक ग्लास लेकर वहाँ पहुँच जाते और गाय का अपने सामने दूहा हुआ दूध पीते।दूध पीना मुझे कभी पसन्द नहीं था ।इस बात पर माँ से मेरा झगडा॰ होजाता था,परन्तु यहाँ की बात निराली थी।यहाँ दूध पिए बिना परीशानी होती थी।
केवल दूध पीना मेरे लिए पर्याप्त नहीं था । मेरी आदत चटपटी चीजें खाने की थी।होस्टल के बाहर ही एक होटल था जिसमें सबेरे - सबेरे गर्मागरम और कुरकुरी जलेबियाँ तली जाती थी।मैं सबेरे यही नाश्ता करता था। गर्म जलेबी हाथ से मुँह तक पहुँचती, जीभ उसे गोल - गोल घुमाकर दाँतों के हवाले कर देती और दाँत उसे धीरे-धीरे चबाना शुरू करदेते और अब जिलेबी का रस जिह्वा को तृप्त करता गले में मिठास की सुरसुरी घोलता नीचे उतरने लगता। ओह! यह एकअद्भुत सुख था। इसके बाद दिन की सुखद शुरुआत होती थी।
यहाँ मैं अपनी मर्जी का वादशाह था। जो मन में आता करने के लिए स्वतंत्र था।यहाँ मुझे बार - बार कोई सलाह देनेवाला या मुझपर अनावश्यक रूप से नियंत्रण रखनेवाला नहीं था। सबकुछ मुझे ही करना था।इस स्थिति से मुझे दो मुख्य लाभ हुए।एक अपने पैसे पर इस प्रकार नियंत्रण रखना कि वह बीच में कम न हो जाएऔर दूसरा यह कि जिस कार्य के लिए मैं यहाँ आया था,उसमें किसी प्रकार का विघ्न पडे॰। बडी॰ मुस्तैदी से मैंने इन दिशाओं में स्वयं पर नियंत्रण रखा और इस दिशा में मुझे कभी कोई कठिनाई नहीं हुई।सौभाग्य से मुझे मित्र भी अच्छे मिले।
उनदिनों राँची में दो सिनेमा हाँल थे।प्लाजा, जिसमें तीन से छह बजे तक बँगला फिल्म दिखाई जाती थी तथा रात के तीन शो अँगरेजी फिल्मों के।रतन टाकिज में केवल हिन्दी फिल्में दिखाई जाती थी। यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे यहाँ हिन्दी फिल्मों के अलावा बँगला की कुछ महान फिल्में देखने का अवसर मिला। अँगरेजी फिल्में तो और भी कई जगह देखने को मिल जाती थीं , परन्तु प्रतिदिन एक बँगला फिल्म दिखाने वाले हाँल उस समय आसपास में नहीं के बराबर थे। विभूति बाबू का उपन्यास 'पथेर पांचाली' मैं पहले ही पढ॰ चुका था , और अभिभूत था , परन्तु इस उपन्यास पर सत्यजित रे की महान फिल्म देखने का मौका मुझे अभी तक नहीं मिला था। आकिर एकदिन वह अवसर मिल ही गया। प्लाजा में यह फिल्म लगी। इसे देखने के लिए मैं अपने कई बंगाली मित्रों के साथ प्लाजा पहुँचकर टिकट कटा लिया।इसे देखना एक असाधारण अनुभव था।इसमें विभूति बाबू का उपन्यास जीवंत हो उठा था।बल्कि कहें तो इसके कई अंश अपने - आप में नई सृष्टि की तरह थे। मुझे इसका एक अनूठा दृश्य अब भी याद है।यह करिश्मा सत्यजित राय ही कर सकते थे क्योंकि इस दृश्यांकन के लिए जो गहरी दृष्टि और गहन संवेदन की आवश्यकता होती है वह हर जगह नहीं मिल सकती। वर्षा के तुरत बाद कादृश्य था। पार्वती भागती चली जारही हे। तभी एक छोटे से पानी भरे गड्ढे में एक छोटे से कीडे॰ को तैरता हुआ देखती है। लगता था कीडा॰ खुशी से नाच रहा है। इस दृश्य पर कैमरा देर तक ठहरता है फिर भी कुछलोग इस महान दृश्य को मिस कर जाते हैं।फिर मैंने इस उपन्यास से सम्बन्धित तीनों फिल्में देखीं। फिर मैं इस हाँल का करीब - करीब नियमित दर्शक बन गया । बँगला और अँगरेजी की कई महान फिल्में मैंने यहीं देखीं। इसे मैं अपनी उपलब्धियों में एक मानता हूँ।
राँची का मौसम बहुत ही लुभावना था।पहाडि॰यों और हरियाली के बीच बसी इस नगरी को बादल अपनी फुहारों से हर शाम नहला देते थे।फुहारों से भींगा - भींगा इसका परिवेश बहुत ही ताजगी भरा लगता था। वर्षा में भीगे वृक्षों की पत्तियाँ जब सूरज की रोशनी से चमकती हुई हवा के रोमानी स्पर्श से थिरकने लगतीं तो उसका नजारा किसी मोहक स्वप्निल वातावरण से कम नहीं होता।
राँची मेरे लिए कोई साधारण जगह नहीं थी। यह मेरे जीवन की निर्माणशाला थी।इस स्थान का मुझपर सबसे गहरा प्रभाव पडा॰।
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