याद आता है गुजरा जमाना 41
सगुनिया पेड॰
मदनमोहन तरुण
पेड॰ सगुनिया !
ठठा हँस पडूँ सुनकर अपना नाम
यही इच्छा होती है।
मुझे याद है
जब फूजा था मैं धरती पर
उस खंडहर में,
कोई सलिल नहीं देने आया था मुझको ,
मेघ ऊमड॰ते आकर बरस चले जाते थे
बागीचों में,
मैं प्यासा देखा करता था सबके चेहरे।
मै थोडा॰ - सा बढा॰
और हरियाए पत्ते लाल,
तभी हँसकर गढ॰ डाला चरवाहे ने
ग्रास बना डाला बकरे का।
फिर फूजा , फिर बढा॰
शुष्कता के विधान को तोड॰,
तभी कुछ बच्चे आए
वे मरोर ले गये हमारे पत्ते सारे ।
किन्तु ,
चाह मन की दृढ॰ होती ही जाती थी।
फिर फूजा मैं,
पत्र - पत्र की कोमलता में
अब काँटे थे,
तना कडा॰ था ।
फिर भी,
एक हठी ने मुझको
कुचल दिया जूते से कहकर
'कितना तुच्छ कुरूप वृक्ष उपजा है भू पर !'
बहुत दिनों तक मैं धरती में गडा॰ रह गया।
टूट गयी थी देह ग्लानि से गडा॰ रह गया।
किन्तु, एक दिन,
किया दमन ने द्रोह
और फिर फूज उठा मैं ,
मैने देखा नभ को
घटा चली जाती थी,
मैंने देखा, सरिता
उमड॰ बही जाती थी,
हवा वसंती फूलों का मुख चूम - चूम कर,
घूम - घूम बँसवाडी॰ के निर्जन कानन में,
मोहक वंशी बजा रही थी।
चिडि॰यों ने फुद - फुद कर अपना
प्रगट किया वासंती हर्षण,
मुझे देख सब हँसे और
मुँह फेर हट गये।
इसी तरह
हर भोर
शुरू होती थी गरलिक अपमानों से,
चुभता था हर क्षण
अंतर में,
रोम - रोम चीखा करता था।
मृत्यु - चिता पर मैं जीवन को
हँस - हँस कर गढ॰ता जाता था।
आघातों ने धूल भरे
मुख पर से दैन्य मिटा डाले थे ,
तरुण हुआ मैं,
मुख पर द्रोही पौरुष प्रबल प्रचणड हो गया,
निज अंतर से ले जीवनरस,
मै असमय ही प्रौढ॰ हो गया।
छाया बढ॰ने लगी,
सिमटने लगी धरा मेरी बाहों में,
दूर - दूर के खग ने की याचना
सुनाए गीत ,
बनाए गुल्म,
हमारे पौरुष की विस्तृत हथेलियों पर
गा - गा कर।
कभी जिन्होंने मुझे चरा था
आज वही होते मेरी छाया में
पशु विश्रब्ध,
घसगढा॰ करता है याचना,
'एक पत्ती दे देना , बडी॰ धूप है।'
एक दिवस आया जब ग्रामप्रमुख ने मेरी
सघन गहन व्यापक छाया में,
देव - स्वप्न - प्रेरित इस मंदिर को बनबाया
शंख बजे,
घंटे घडि॰यालों से
आकाश निनादित - सा हो उठा,
नाचे नर्तक,
कवियों ने पत्ती - पत्ती पर
रचे काव्य शब्दों से झंकृत।
ग्रामबधुओं ने छू मेरी शाखाएँ
माँगे जब वरदान,
'सुहागिन करो, हरो दुख त्रास,
खाली भरो गोद, सूखी काया को सींचो,
जीवन की अमृतधारा से।
अवमानित को वरो आज सम्मान देवता !
हमसब तेरी प्रजा ,
तुम्हीं वटराज हमारे ।
मुझे याद आगये पुराने दिन वे सारे
बच्चे मुझे नोच जब लेते थे हँस - हँस कर
कुचल पाँव के नीचे,
विहँस चले जाते थे।
आज सगुनिया सिद्ध पेड॰ मैं
अमित ग्रंथ का आलंबन हूँ।
मुझे भाग्य ने काटा कितनी बार,
कर्म ने गढा॰ बराबर ।
अपना पथ मैं स्वयम बनाता रहा
गगन तक।
भूमि और आकाश बीच मैं
अपनी रचना।
बादल अब आ - आ कर कहते
'बोलो जल कितना बरसाऊँ,
तेरे चरण पखार धन्य जीवन कर जाऊँ।'
मुझे हँसी आजाती
ये बातें सुन - सुन कर ।
बूँद बूँद पी हालाहल जो
पोर - पोर चीत्कारों पर पलता आया है,
जो आपना अस्तित्व सदा
ज्वालाओं पर गढ॰ता आया है,
उसे सावनी बूँद
तृप्त क्या कर पाएगी ?
बाघों का गर्जन क्या कोयल गा पाएगी ?
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