याद आता है गुजरा जमाना 46
मदनमोहन तरुण
मैं लहर से ज्वार बनना चाहती हूँ
तब नदी से
लहर बोली-
ऐ नदी !
में उदरजा तेरी,
तुम्हारी संगिनी हूँ।
किन्तु ,तुमसे एक मेरी प्रार्थना है-
मुझे पुलिनों से न बाँधो,
मैं लहर से ज्वार बनना चाहती हूँ,
मैं गगन तक आज उड॰ना चाहती हूँ।
अब मेरे भीतर छोटी - छोटी सीमाओं से बाहर जाने की बेचैनी बढ॰ती जा रही थी। मैं लहर की तरह नदी के प्रवाह में अपनी सत्ता को विलीन करना नहीं चाहता था।बाबूजी में और मुझमें अन्तर था। मैं आकाशजीवी था और वे धरती के निवासी थे।कल्पना मेरे लिए यथार्थ से कहीं बडी॰ चीज थी और उनके लिए कल्पना बेकार और वकवास थी।आलसिओं का आश्रयस्थल मात्र थी।मैं अपने आप को अपनी कविताओं के माध्यम से पाना चाह रहा था ,क्योंकि वह मेरे अन्तरतम से आरही थी और वहाँ तक पहुँचने का सबसे विश्वसनीय रास्ता भी वही थी।कविता लिखना मेरा शौक नहीं था,मैं कविता लिखने के लिए ही पैदा हुआ था।कविता मुझे मुक्ति देती थी सीमाओं से , उन दायरों से , जिनमें सभी लोग जीते हैं।यही कारण था कि मैं औरों से भिन्न था और बाबूजी मुझे पहचान नहीं पा रहे थे।
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