याद आता है गुजरा जमाना 39
मदनमोहन तरुण
' यह कविता मेरी पैरवी से छपी है ! '
उनदिनों रामवृक्ष बेनीपुरी जी के सम्पादन में हिन्दी की सुप्रतिष्ठित पत्रिका ' नई धारा ' का प्रकाशन पटना से होता था।अबतक मेरी कविताएँ जिन पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं हुई थीं वे बहुत विख्यात नहीं थीं। मेरे मन में यह प्रबल इच्छा थी कि उनका प्रकाशन किसी सुविख्यात पत्रिका में हो। एकदिन मुझे लगा कि मेरी 'चन्द्रिमा' शीर्षक कविता किसी ऐसी पत्रिका में भेजी जा सकती है।चाहे छपे न छपे प्रयास करने में क्या हर्ज है। यही सोचकर मैंने वह कविता 'नई धारा' में प्रकाशनार्थ भेज दी। महीनों उनका कोई जवाव नहीं आया। मैंने समझ लिया कि कविता उन्हें पसन्द नहीं आई।मैने उसके प्रकाशन की आशा छोड॰ दी। मैं अपने अन्य कार्यों में लग गया।
एक दिन दोपहर में पोष्टमैन ने मुझे एक भूरे रंग का पैकेट दिआ। सोचा बाबूजी की कोई सामग्री होगी। किन्तु यह देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया कि पैकेट के ऊपर मेरा नाम लिखा है। मैं आब नीचे नहीं रुक सका। दौड॰ता हुआ मैं ऊपर अपने कमरे में पहुँचा। थरथराते हाथों और धड॰कते दिल से मैंने वह पैकेट खोला। अरे ! यह तो 'नई धारा ' का अंक है!मैने धीरे - धीरे उसका पन्ना खोला। क्रमणिका में , अन्य कविताओं के साथ 'चन्द्रिमा' का भी उल्लेख था। अब मैंने वह पन्ना खोला। देखा एक पूरे पन्ने में मेरी कविता मेरे नाम के साथ छपी थी। मैं स्वयं को रोक नहीं सका। मै बहुत जोरों से चिल्लाया। मेरी चिल्लाहट सुनकर मेरी माँ नीचे से ,तेजी से ऊपर आई। माँ के पीछे - पीछे मेरी बहन उमा भी आई। माँ को देखते ही मैं बहुत जोरों से चिल्लाया - माँ ! देखो , देखो , मेरी कविता छपी है। मरी खुशी देख कर माँ की आँखें डबडबा गयीं।ऊमा कुछ समझ तो नहीं सकी , परन्तु वह भी नाचने लगी।माँ ने वह अंक मुझसे लेलिआ और उसे ठाकुर जी पर चढा॰ कर रोली मेरे ललाट में लगा दिआ और मेरे सिर पर हाथ रख कर मुझे आशीर्वाद दिआ। यह मेरे लिए एक विशिष्ट दिन था। मैंने उस कविता को सैंकडों॰ बार पढा॰। उस पृष्ठ से मेरी आँखें हटती ही नहीं थी।
उसी उल्लास में मैं शाम होने की प्रतीक्षा करता रहा ताकि अपनी इस पहली उपलब्धि के बारे में बाबूजी को सूचित कर सकूँ।मुझे पूरा विश्वास था कि इस प्रकाशित कविता को देख कर उनका चेहरा खिल उठेगा और वे गर्व से अपने मित्रों को इसके बारे में बता सकेंगे। वे एक अत्यंत व्यस्त चिकित्सक थे।दिनभर मरीजों से घिरे रहते थे। शाम को ही वे दो घंटों के लिए मुक्त हो पाते थे। उस समय उनके आसपास उनके मित्रगण भी होते थे।शाम को मैं औषधालय पहुँचा। सबसे पहले उनके चरण छुए।ऐसा मैं कभी नहीं करता था इसलिए उन्होंने साश्चर्य मेरी ओर देखा। इसी बीच मैंने पत्रिका का वह विशेष पन्ना खोल कर उनकी ओर रख दिआ और उनकी ओर देखता हुआ प्रतीक्षा करने लगा कि अब उनका चेहरा खुशी से उद्दीप्त हो उठेगा और वे अपना हाथ मेरे सिर पर रख कर मुझे आशीर्वाद देंगे। परन्तु , ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।उन्होंने पत्रिका के उस पृष्ठ पर एक सरसरी निगाह डाली और पत्रिका को चुपचाप टेबुल पर रख दिआ। उनके मित्रों ने पूछा - 'क्या है ?, उन्होंने कहा ' ऐसा कुछ भी नहीं।इनकी एक कविता छपी है , जिसके लिए मैंने सम्पादकजी से से पैरवी की थी।'
सुनते ही उनके मित्रों की आँखों में एक व्यंग्य और तिरस्कारपूर्ण हँसी कौंधी और चली गई। मुझे लगा जेसे किसी ने मुझे पर्वत से नीचे धकेल दिआ।क्षणभर लगा जैसे सामने की हर चीज किसी गहरे कुहासे में खो गई। मैं डगमगा गया। फिर सम्हला। बाबूजी की ओर घूर कर देखा और सारी मर्यादाएँ भूल कर जोरों से चिल्लाया - 'तो यह कविता तुम्र्हारी पैरवी से छपी है ? है न? तो ले , तू ही ले इसे । मैं इसे अस्वीकार करता हूँ। ' यह कह कर मैं उस पत्रिका के पृष्ठों को तबतक फाड॰ता रहा , जबतक वे चूर्ण - विचूर्ण नहीं हो गए। फिर मैंने वे सारे टुकडे॰ उन्हीं की ओर फेंक दिए। उसके बाद मैं सीढि॰यों से बदहवास उतरता हुआ किस ओर निकल गया, इसकी मुझे कोई खबर नहीं थी। कुछ ही देर बाद मैं अपने घर था।
पहुँचते ही माँ ने कहा कि ठाकुर जी की पूजा के लिए मिठाई मँगवा लिआ है। तुम हाथ - पाँव धोकर ठाकुर जी के पास आजाओ। पत्रिका भी साथ लेते आना , वह रातभर ठाकुर जी के पास रहेगी। ' माँ ने जो कहा उसे मैं किसी तरह सुन पाया ,पर वहाँ एक पल के लिए भी नहीं रुका। माँ की ओर कातर दृष्टि डालता हुआ मैं तेजी से अपने कमरे में चला गया और भीतर से दरवाजा बन्द कर लिआ।
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