याद आता है गुजरा जमाना 42
मदनमोहन तरुण
यहाँ से भगवान बुद्ध गुजरे थे
गया मैं अपने एक मित्र से मिलने गया था। वहीं मेरी मुलाकात एक बुजुर्ग सज्जन से हुई।उनके चेहरे पर एक चमकभरी निश्चिन्तता थी और आँखों में स्थैर्य था। यह विशेषता नियमित रूप से ध्यान करनेवालों में बहुत दिनों के बाद आजाती है।कुछ देर तक समान्य परिचय और इतस्ततः की बातें होती रहीं और फिर चर्चा अध्यात्म की ओर मुड॰ गयी। अध्यात्म मेरा भी प्रिय विषय था। उनकी बातों में गहराई थी, इसलिए हम देर तक बातें करते रहे।यदि मित्र याद न दिलाते कि मेरी अंतिम ट्रेन का समय हो गया है तो मुझे शायद समय का बोध ही नहीं होता।उस समय रात के ग्यारह बजनेवाले थे। मैं जल्दी से उठा और उनसे चलने की इजाजत माँगी। वे मुझे उस मोड॰ तक छोड॰ने आए , जहाँ से स्टेशन के लिए रिक्सा मिलता था। उसके बाद उनसे सम्बन्ध और गहरा होता चला गया। मैं गया जब भी जाता, उनसे मिलता जरूर था।
वे गया के एक बहुत पुराने मुहल्ले में रहते थे जिसकी गलियाँ बहुत सँकरी और गंदी थी। बरसात के दिनों में वहाँ तक पहुँचना और भी कठिन होजाता था।नालियों का पानी गली में चारों ओर भर जाता था। उसी सँकरी गली के बीच में उनका विशाल मकान था। मकान के भीतरी भाग का रख-रखाव और उसकी सजावट वहाँ रहनेवाले की सुरुचि और सम्पन्नता को दर्शाती थी। मैं वहाँ जब भी जाता तो एक प्रश्न मेरे मन में अचानक कौंधता ' यदि इनके पास इतनी सम्पन्नता है तो ये तो गया के किसी भी खुले स्थान पर अपना मकान बनवा सकते हैं, फिर इस गंदी - सी गली में क्यों? एकाध बार मैंने धीरे से उनसे यह पूछा तो मुस्कुराते हुए उन्होंने जबाब टाल दिआ।
उसके बाद मैं वर्षों के लिए बाहर चला गया , परन्तु पत्रों के द्वारा उनसे सम्पर्क बना रहा। दो - तीन वर्षों के बाद उन्होंने पत्र से मुझे अपने यहाँ गृह-प्रवेश की पूजा के लिए आमंत्रित किआ। इस समाचार से मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि वे उस गंदी और सँकरी गली से मुक्त होकर किसी और मकान में जा रहे हैं। किन्तु उस पत्र में उनका पुराना ही पता छपा हुआ था। सोचा शायद अतिथियों के रुकने की व्यवस्था उन्होंने पुराने मकान में की होगी या सबको वहीं से एकसाथ नये मकान मैं जाना होगा। जब मैं उस समारोह में भाग लेने के लिए गया स्टेशन में पहुँचा तो देखा वे मुझे लेने के लिए प्लेटफार्म पर आए हुए हैं। हम बहुत आत्मीयता से गले मिले और उनके साथ चल पडे॰। रास्ते मैं मैने उन्हें इस बात के लिए बधाई दी कि अन्ततः उन्होंने अपना मकान बदल दिआ। इस पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की , सिर्फ मुस्कुराते रहे। अब हम उसी पुरानी गली से गुजर रहे थे।कुछ ही देर में उनका मकान आ गया। परन्तु मैंने देखा वहाँ उनका वही पुराना मकान खडा॰ था जिसमें इतस्ततः कुछ परिवर्तन कर एक नयारूप दे दिया गया था।बाद में उन्होंने स्पष्ट किया कि पूजा इसी मकान के लिए होनी है। सुनकर मुझे बहुत कोफ्त हुई।मैने तनिक चिढ॰कर पूछा 'आखिर इस गली से इतना लगाव क्यों ?' तनिक देर वे चुप रहे। फिर कहा -' मैं ऐसा नहीं कर सकता।' मैंने पूछा- 'आखिर ऐसा क्या बन्धन है?' मेरा प्रश्न सुनकर लगा उनकी दृष्टि सुदूर अतीत में चली गई है। कुछ क्षणों बाद उन्होंने कहा - 'आज से वर्षों पहले यह मकान मेरे दादाजी के भी दादाजी ने बनवाया था। तब यहाँ कोई गली थी , न कोई और मकान था। कहते हैं बोधगया जाते समय भगवान बुद्ध इस रास्ते से गुजरे थे।आज भी रात के सन्नाटे में मुझे उनके चरणों की आवाज सुनाई पड॰ती है।लगता है भगवान बुद्ध इस गली से होते हुए गुजर रहे हैं। भला इस जगह से अच्छी और कौन जगह हो सकती है , जहाँ मैं अपना मकान बनवाऊँ ?' उनके उत्तर ने मुझे अवाक कर दिआ। मैंने। उनकी ओर देखा। उनकी दृष्टि अब भी सुदूर आतीत में टिकी थी जैसे वे भगवान बुद्ध को आते हुए देख रहे हों... मैंने दोबारा उनसे यह प्रश्न कभी नहीं पूछा
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meditation me aisi anubhootiyan hona samanya hai.aisi anubhootiyon ko ignore kar lakshya ki taraf chalte rahna sreyskar hota hai.
ReplyDeletei appreciate these words...keep it up n update more sir...god bless..jai hind
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें..
http://vanshmishra.blogspot.com