याद आता है गुजरा जमाना 76
मदनमोहन तरुण
हिन्दी साहित्य का उत्कर्ष काल -1
जिन दिनों मैं अपनी पढा॰ई कर रहा था वह साधारण समय नहीं था। वह हिन्दी भाषा और साहित्य के उत्कर्ष का समय था। जिन लेखकों , कवियों ,विचारकों एवम सम्पादकों ने हिन्दी साहित्य को गरिमापूर्ण ऊँचाइयों तक पहुँचाया , उनमें से अधिकतम की लेखनी पूरी जीवंतता के साथ उन दिनों इस उत्कर्षकार्य में सक्रिय थी।जिस छायावादी आन्दोलन ने हिन्दी को सही अर्थों में एक सम्मानपूर्ण एवम अपरिहार्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठापित किया ,उसके चार महान हस्ताक्षरों में तीन जीवित ही नहीं थे, निरन्तर लेखनरत भी थे। जयशंकर प्रसाद जी का निधन हो चुका था। वे कई दृष्टियों से हिन्दी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचनाकार थे। उन्होंने कहानी, उपन्यास, नाटक,निबन्ध और कविता हर क्षेत्र में अपनी अनूठी सृजनात्मकता के रंगों की बारिस की , किन्तु कविता और नाटक के क्षेत्र में उन्होंने जिन आभामय शिखरों का आरोहण किया , उनसे हिन्दी साहित्य को एक ऐसा प्रकाश मिला जो कभी धूमिल नहीं होगा। प्रसाद दुनिया के अपरिहार्य साहित्यकार हैं। यदि आप साहित्य के अध्येता हैं और प्रसाद को नहीं पढा॰ है, तो निस्सन्देह आप किसी बहुत बडी॰ विभूति के साक्षात्कार से वंचित रह गये हैं।
यदि आप प्रसाद को पढ॰ना चाहते हैं तो साहित्य अकेदमी द्वारा प्रकाशित 'प्रसाद रचना संचयन ' कभी न खरीदें।पता नहीं इसके सम्पाकों ने किस बुद्धि - विवेक से परिचालित होकर इसमें 'ध्रुवस्वामिनी' और 'चन्द्रगुप्त' जैसे नाटकों को सम्मिलित नहीं किया है, जो इस क्षेत्र में प्रसाद की सबसे बडी॰ देन है। 'ध्रुवस्वामिनी' नाटिका का विषय परम्परागत समाज में एक ऐसा विष्फोट है जिसके सात फेरोंवाले हवनकुंड की चिनगारियों में ऐसी कई सम्पूजित गाँठें जलकर खाक हो जाती हैं जो युगों तक स्त्रियों के गले में दमघोंटू फाँसी का फंदा बनी रही हैं।
'कामायनी' महाकाव्य मनु और श्रद्धा की पौराणिककथा का सूक्ष्माधार लेकर चलती है। वहाँ न देह की उपेक्षा है , न आत्मा की -
प्रकृति के यौवन का शृंगार , करेंगे कभी न बासी फूल;
मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र, आह उत्सुक है उनकी धूल।
पुरातनता का यह निर्मोक ,सहन करती न प्रकृति पल एक;
नित्य नूतनता का आनन्द, किए है परिवर्तन में टेक।
युगों की चट्टानों पर सृष्टि,डाल पदचिह्न चली गंभीर;
देव, गंधर्व, असुर की पंक्ति ,अनुसरण करती उसे अधीर।
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और यह क्या तुम सुनते नहीं, विधाता का मंगल वरदान-
'शक्तिशाली हो विजयी बनो', विश्व में गूंज रहा जयगान।
डरो मत अरे अमृत संतान अग्रसर है मंगलमय वृद्दि;
पूर्ण आकर्षण जीवन केन्द्र ,खिंची आवेगी सकल समृद्दि।
श्रध्दा
प्रसाद की 'कामायनी' को लेकर हिन्दी में कई विवाद और बकवास हुए हैं, जो निस्सन्देह उन 'समालोचकों' की समझ की सीमाओं को उजागर करनेवाले हैं।
प्रसाद की 'कामायनी' को यदि आप हिन्दी से हटा दें तो ,कविता के क्षेत्र में आप बहुत बडे॰ छूछेपन का अनुभव करेंगे। किन्तु , 'कामायनी' मात्र इसीलिए अपरिहार्य नहीं है, वह हमें कविता और सृजनात्मकता की कई ऐसी अलंघित ऊँचाइयों के पार ले जाती है जिसे किसी भाषा ने पहली बार देखा और अनुभव किया है।
छायावाद के चार स्तम्भों में तीन - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला , सुमित्रानन्दन पंत तथा महादेवी वर्मा - मेरे अध्ययनकाल में सक्रिय थे। हमलोगों को उनसबों की कविताएँ पढा॰ई जाती थीं।
सच तो यह है कि इन कवियों को अधिक गंभीरता से मैंने अपने काँलेज और विश्वविद्यालय के दिनों के बाद पढा॰। छायावाद के ये सभी कवि असाधारण थे।इन सभी कवियों की अपनी विल्कुल अलग पहचान थी , यद्यपि ये सब एक विशेष रचना - धारा के प्रवर्तक थे।
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने कोई महाकाव्य तो नहीं लिखा ,परन्तु स्वयं उनका व्यक्तित्व महाकाव्यात्मक था और वे अपनी निराला जीवन - पद्दति के कारण एक मिथ बन चुके थे। उनके अध्येताओं की तुलना में उनके भक्तों की संख्या बडी॰ थी। लोग दूर - दूर से उनके दर्शन के लिए आया करते थे।स्वयं मेरे मित्रों में कई उनके दीवानों में थे और उनके दर्शन के बाद अपने आप को धन्य समझते थे।
पत्र - पत्रिकाओं में उनके बारे में सदा कुछ - न- कुछ छपता रहता था।
बाँकेबिहारी भटनागर द्वारा सम्पादित 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' हमारे विद्यार्थीकाल का सुप्रतिष्ठित प्रकाशन था। मैं बडी॰ दीवानगी के साथ इस पत्रिका के नये अंकों की प्रतीक्षा करता था।
इसकी सम्पादकीय टिप्पणियाँ बहुत निर्भीकतापूर्ण होती थी साथ ही इसमें उच्चकोटि के साहत्यिक लेख भी छपते थे।इसके अधिकतम अंकों में निराला जी के बारे में कुछ- न –कुछ छपता रहता था। निराला जी की नई -से - नई कविता उन्हीं के हस्ताक्षर में इसके मुखपृष्ट पर छपती थी। मैं निराला जी के दीवानों में था और मैं वर्षों निराला जयंती का आयोजन करता रहा जिसमें लोग उत्साहपूर्वक भाग लेते थे।
निराला एक महान कवि थे।भाषा पर उनका अधिकार असाधारण था।एक ओर जहाँ उन्होंने संस्कृतगर्भित सामासिक कविता ' राम की शक्तिपूजा' लिखी तो दूसरी ओर 'सरोजस्मृति' कविता में अपनी पुत्री की मृत्यु से आहत विकल निराला का हृदय तरल होकर बह निकला।इस कविता में एक ओर जहाँ पुत्री की स्मृत पूर्व छवियाँ कवि को आहत करती हैं, वहीं अपनी ही जाति - बिरादरी की हृदयहीनता पर कवि आक्रोश से भर उठता है और उसकी भाषा रुक्ष हो जाती है।
निराला को पढ॰ते हुए कई बार ऐसा लगता है कि , चाहे वह उनकी कविता हो या उपन्यास, हम उनके निजी जीवन से गुजर रहे हैं।'राम की शक्तिपूजा' में राम जब व्यथित होकर कहते हैं -
'धिक जीवन जो पाता ही आया है विरोध, धिक साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध !
जानकी ! हाय उद्दार प्रिया का हो न सका !'
तो लगता है इसमे स्वयम निराला के निजी जीवन की पीडा॰ बोल रही है। निराला का व्यक्तिगत जीवन बहुत ही कठिन था। उनके मन में यह पीडा थी कि हिन्दी संसार उनका सही मूल्यांकन नहीं कर सका । वे अपने बारे में बहुत ऊँची धारणा रखते थे। 'तुलसीदास' निराला की लम्बी कविता है। वह हि्दी भाषा और साहित्य को उनके द्वारा प्रदत्त एक अनूठा उपहार है जिसका मूल्यांकन अभी बाकी है।
छायावाद की कविताओं को पढ॰ते समय एक और बात ध्यान देने योग्य है। प्रसाद की 'कामायनी' और निराला के 'तुलसीदास' काव्यों की रचना पराधीन भारत में हुई है , इसलिए इनमें विभिन्न प्रसंगों पर आजादी का तुमुलनाद है , कहीं स्पष्ट उद्बोदन है , तो कहीं प्रच्छन्न उत्प्रेरण ।
'तुलसीदास' में वे लिखते हैं-
'जागो - जागो आया प्रभात ,बीती वह बीती अन्ध रात'
झरता भर ज्योतिर्मय प्रपात पूर्वाचल,
बाँधो ,बाँधो किरणे चेतन, तेजस्वी, हे तमजिज्जीवन,
आती भारत की ज्योतिर्घन महिमा बल ।
होगा फिर से दुर्धर्ष समर, जड॰ से चेतन का निशि वासर,
कवि का प्रति छवि से जीवनहर , जीवनभर,
भारती इधर, हैं उधर सकल, जड॰ जीवन के संचित कौशल
जय, इधर ईश, हैं उधर सबल मायाकर।'
भाषा के इस ठाठ के साथ निराला का एक ठेठ प्रयोग भी देखिए -
गर्म पकौडी॰-
ऐ गर्म पकौडी॰।
नमक मिर्च की मिली
ऐ गर्म पकौडी॰।
मेरी जीभ जल गयी
सिसकियाँ निकल रहीं
लार की बूँदें कितनी टपकी,
पर दाढ॰ तले तुझे दबा ही रक्खा मैंने।
उनके उपन्यासों में 'बिल्लेसुर बकरिहा' और ' चतुरी चमार' कठिन ,चुनौतियों भरे जीवन की अगाध जिजीविषा की कथा है, जिसकी भाषा में काँटे , कुश की चुभन है, मिट्टी ,पत्थर का पैरों को लगनेवाला दरदरापन है , मगर उसमें पूरी जीवंतता और रसमयता है।
निराला के रचना - संसार में विविधता है, आकाश है, पर्वत शिखर हैं , गर्वित गर्जित सागर , बादल हैं, खाई खंदक , टीले -टापर हैं , परन्तु हैं सब निरालामय।
निराला सहज -असहज जीवन के कठिन - सरल स्रष्टा हैं।उनका कवि जिता महान है , उतना ही उनका व्यक्तित्व भी।
एक बार रेशमी लम्बे बालों वाली एक छवि निराला जी के पास बैठी थी। महादेवी वर्मा जब निरालाजी के यहाँ पहुँचीं तो इस कमनीय छवि के प्रति जिज्ञासा व्यक्त करते हुए सहज भाव से पूछ बैठीं -' यह लड॰की कौन है?' तब महाकवि निराला ने पंत जी का परिचय देते हुए महादेवी जी से कहा - 'ये अल्मोडा॰ से आए हैं और हिन्दी के कवि हैं।' छायावाद की इन दो विभूतियों की पहली मुलाकात कुछ ऐसी ही थी। कोमल, कांत , कमनीय सुमित्रानन्दन पंत जी ने छायावाद को अपनी इन्हीं विशिष्टताओं से सँवारा। उनमें कालिदासीय भाषा की कोमलता एवं कमनीयता थी, जिससे उन्होंने प्रकृति के मोहक पक्षों को प्रस्तुत किया।उनके प्रकृति चित्रों में मुग्धता एवं प्रश्नात्मकता है।वे प्रकृति के हर रूप के पीछे एक रहस छायाकी उपस्थित पाते हैं।प्रकृति के कठोर रूप का चित्रण उनके यहाँ नाममात्र को है , परन्तु उनकी 'परिवर्तन' शीर्षक कविता उनके सामर्थ्य के उस द्वार को खोलती है जिसे एकपक्षीय समालोचक देखकर भी कई बार अनदेखा करते रहे। 'परिवर्तन' कविता छायावाद की विरल प्रस्तुतियों में एक है -
'लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरन्तर ,छोड॰ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर !
शत - शत फेनोछ्वसित,स्फीत - फूत्कार भयंकर ,घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर !
मृत्यु तुम्हारा गरल-दन्त , कंचुक कल्पान्तर ,अखिल विश्व ही विवर
वक्र कुंडल
दिग्मंडल !'
पंत जी बाद में अरविन्द दर्शन से प्रभावित होकर अध्यात्म प्रधान कविताएँ लिखने लगे , किन्तु उस स्वर्णाभा में पंत का कवि तरोहित हो गया।
पंत जी का प्रतिनिधि कविता - संकलन सुनिश्चित रूप से 'पल्लव ' ही है ,जहाँ उनका पंतत्व सर्वथा अक्षुण्ण है।
महादेवी वर्मा छायावाद के चौथे स्तम्भ का नाम है।
महदेवी जी ने केवल गीत लिखे हैं। उनमें विस्तार या विविधता नहीं है। वेदना की गहनता उनकी कविता का स्थायी भाव है। किन्तु , उनकी वेदना का घनत्व इतना गहन और प्रगाढ॰ है कि वह व्यक्तिगत जीवन की सीमाओं को लाँघ कर विश्ववेदना में परिणत हो जाता है ।वे सीमा से असीम और आत्म से अध्यात्म की यात्रा के अमिट पद- निक्षेप हैं। किन्तु, उनकी विशिष्टता यह है कि उनमें वैराग्य की जगह जीवनराग की अभिव्यक्ति है। किसी के अभाव में वहाँ जीवन के अकेलेपन की तीव्र अनुभूति अवश्य है , किन्तु विराट द्वारा निर्मित इस अद्भुत सृष्टि के दिवा - रात्रि का, बाहर -भीतर का ,प्रच्छन्न और व्यक्त सौन्दर्य महादेवी को कहीं भी रुक्ष होने नहीं देता ।उनमें जीवन के प्रति रसभरा आकर्षण हमेशा बना रहता है -
ओ अरुण - वसना !
तारकित नभ-सेज से वे
रश्मि - अप्सरियाँ जगातीं ;
अगरुगन्ध बयार ला -ला
विकच अलकों को बसातीं !
रात के मोती हुए पानी हँसी तू मुकुल - दशना !
छू मृदुल जावक - रचे पद
हो गये सित मेघ -पाटल;
विश्व की रोमावली
आलोक - अंकुर - सी उठी जल !
बाँधने प्रतिध्वनि बढीं लहरें बजी जब मधुप - रशना !
बन्धनों का रूप तम ने
रातभर रो - रो मिटाया
देखना तेरा क्षणिक फिर
अमिट सीमा बाँध आया !
दृष्टि का निक्षेप है बस रूप -रंगों का बरसना !
है युगों की साधना से
प्राण का क्रन्दन सुलाया,
आज लघु जीवन किसी
निःसीम प्रियतम में समाया !
राग छलकाती हुई तू आज इस पथ में न हँसना !
ओ अरुण - वसना !
महादेवी की वेदना, करुणा का विस्तार बन कर उनके पालतू पशुओं के संस्मरणों में तरल आत्मीयता के साथ व्यक्त हुई है जो जीवन और परिवेश के प्रति उनके गहरे लगाव को व्यक्त करती है।
महादेवी उन कवियों में हैं जो अपने मूल्यांकन की कसौटी स्वयं ही तैयार करती हैं। भाव और भाषा दोनों ही में महादेवी छायावाद की अन्य विभूतियों की तरह हीअपने समय से बहुत आगे रही हैं।
'छायावाद' हिन्दी साहित्य की वह लम्बी और ऊँची उछाल है जो किसी भी भाषा को दुनिया के सामने अपना सिर उन्नत करने का अधिकार प्रदान करती है।
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