याद आता है गुजरा जमाना 80
मदनमोहन तरुण
मेरे फूफा
मैं अपने फूफा का ( मेरे पिताजी की छोटी बहन के पति) फैन था। तब मेरी उम्र बहुत कम थी, परन्तु उनसे जुडी॰ यादें मेरे मन में मिठास घोल देती हैं। बे ब्रिटिश फौज के रिटायर्ड सैनिक थे। एक फौजी की गरिमा उनके जीवन में हमेशा बनी रही। उनकी चालढाल,बोलचाल सबकुछ अलग थी। वे जब भी हमारे यहाँ आते तो हर कोई उनके निकट बैठना चाहता था। उनके आसपास लोगों की भीड॰ हमेशा लगी रहती थी। सामान्यतः वे घर के बाहर नहीं जाते थे। हमारे बाहर के दालान में बडे॰ से पलँग पर उनका साफ - सफ्फाक बिस्तरा लगा रहता , जिसकी चादर हर दिन बदली जाती थी। प्रतिदिन सवेरे नाई उनकी दाढी॰ बना जाता और सप्ताह में एक बार वे बाल बनवाते थे। उनके पहनने के कपडे॰ में कहीं कोई सिकन नहीं होती। वे धोबी के यहाँ से धुल कर आते थे । उनकी शर्ट की जेब में एक सुगन्धित कार्ड हुआ करता था , जिसकी भीनी - भीनी सुगंध चारों ओर फैलती रहती थी।उनकी इस जीवन - पद्धति में मैंने कभी कोई व्यवधान नहीं देखा।
मैं उनके गाँव बारा जाता तो वहाँ मेरी बहुत आवभगत होती थी। उनका एक नौकर सदा मेरी सेवा में रहता और मेरी छोटी से छोटी आवश्यकता का खयाल रखता। सवेरे नित्य कर्म से निवृत्त होते ही एक कटोरे में काजू, बादाम और पिस्ता का नाश्ता आजाता। मेरे लिए उतना सब खाना बहुत कठिन होजाता , किन्तु उनके चाचाजी सामने बैठकर मुझे खिलाते।उसके बाद मुझे कटोरा भर दूध भी पीना पड॰ता।
उनके चाचाजी मांस के बडे॰ प्रेमी थे। कहते हैं वे एक पूरा बकरा भूनते - भूनते खाजाते थे। वे लम्बे -चौडे॰ विशाल शरीर के धनी इंसान थे। उनकी महत्वाकांक्षा थी कि घर के सभीलोग वैसे ही बनें। मैं उनकी इसी महत्वाकांक्षा का शिकार बनता था।
फूफा मुझे टेकारी घुमाने के लिए ले जाते।वहाँ टेकारी महाराज का किला दर्शनीय था। उनका बाघ अभी भी जीवित था। स्वस्थ , तगडा॰ ,दर्शनीय। लोहे की मोटी पइपों से जडे॰ कमरे में वह शान से घूमता रहता था। भयंकरता में एक अद्भुत सम्मोहन भी होता है। इच्छा होती उसकी पीठ छूलूँ।
वर्षों बाद टेकारी में एक कालेज खुला। मेरे एम ए की परीक्षा का रिजल्ट कुछ ही दिन पहले निकला था। मैं सोच ही रहा था कि क्या करूँ कि फूफा का संदेश आया कि मैं वहाँ लेक्चरर के रूप में ज्वाइन कर लूँ। मेरे लिए कुछ और सोचने की आवश्यकता नहीं थी। उनके के पास अधिक से अधीक रहने का अवसर मेरे लिए नौकरी से कहीं अधिक महत्वपूर्ण था। मैं उस कालेज में करीब तीन महीने तक रहा , परन्तु वे दिन सचमुच बहुत सुखद थे। ।
मेरे फूफा एक फौजी होने के बावजूद स्वप्नजीवी थे।यथार्थ की दुनिया से सपनों की दुनिया में उनका आनाजाना लगा रहता था। यह उनके व्यक्तित्व को सम्मोहन प्रदान करता था।
जीवन केवल फूल नहीं , उसकी सुगन्धि भी है , जो अदृश्य रहकर भी उसे सम्मोहन और सरसता देती रहती है।
यथार्थ और उससे परे, दृश्य और अदृश्य के बीच आनाजाना बना रहना चाहिए। अदृश्य छायाकृतियों का देश है। हम वहाँ जाएँ या न जाएँ, वहाँ के लोग हमारे भीतर - बाहर जरूर बने रहते हैं। हमारी अन्तश्चेतना का संवाद उनसे निरन्तर चलता रहता है। आज हमारे फूफा नहीं हैं , किन्तु उनकी उपस्थिति मैं हमेशा अपने आसपास महसूस करता हूँ।
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