दिव्य दृष्टि :याद आता है गुजरा जमाना 85
मदनमोहन तरुण
दिव्य दृष्टि
हमारा आंतरिक संसार असाधारण शक्तियों से आपूरित है। हम अपनी जिस शक्ति को विकसित करने का अधिकतम प्रयास करते हैं ,वही विकसित होकर अनेकानेक चमत्कार उत्पन्न करने में समर्थ हो जाती है। दिव्य दृष्टि भी उन्हीं आंतरिक शक्तियों में एक है , जो थोडा॰ - बहुत हर किसी में होती है।
दिव्य दृष्टि के अनेक पक्ष हैं - किसी ऐसी चीज को देखना और उसक हू - ब - हू वर्णन करना जो स्वयं कभी नहीं देखा हो और जो सत्य हो। या भविष्य में घटित होनेवाली घटनाओं को वर्तमान में ही देखलेना और उसका वर्णन करना। किसी आनेवाली विपत्ति को देख लेना और दूसरों को उससे सावधान करदेना ।किसी व्यक्ति को देखते ही उसकी नीयत के बारे में समझ जाना।
सम्भवतः हर किसी के जीवन में कभी - कभी ऐसे पल आते हैं जब कोई अकल्पित चीज हमारे भीतर चमक उठती है और बाद में घटित हो जाती है। मै समझता हूँ , यह हमारे भीतर की वह छुपी शक्ति है या हमारे भीतर की वह सम्भावना है , जिस पर यदि गहराई और निष्ठा से ध्यान दिया जाए तो उसे ध्यान ,शाधना आदि के गहन प्रयोगों से विकसित किया जा सकता है। यह हमारी आंतरिक ऊर्जा हमारे जीवन में बहुत काम आ सकती है। इसका एक पक्ष जीवन के कार्यान्वयन में हमारे शरीर और मन को आत्मिक सहारा है जिसमें आसाधारण क्षमता होती है।कई बार बहुत सामान्य या साधारण आदमी आकस्मिक संकट की घडी॰ में साहस के ऐसे कार्य कर जाता है जो सामान्य जीवन में सम्भव नहीं था। ऐसा नहीं कि उसने ऐसा कुछ करने का संकल्प लिआ था बल्कि उसके जीवन के एक क्षणबिन्दु में अचानक एक ऐसी ऊर्जा उत्पन्न हो गयी , वह चामत्कारिक रूप से कोई आसाधारण कार्य कर गया।
हनुमान जी का अपने छोटे से शरीर को समय - समय पर विशाल बना लेना हमारे भीतर छुपी ऐसी ही ऊर्जा का प्रयोग है।
दिव्यदृष्टि के बारे में मैंने पौराणिक ग्रंथों में पढा॰ था। गीता मे संजय जी द्वारा घर बैठे - बैठे धृतराट्र को युद्धक्षेत्र की समस्त घटनाओं का तात्कालिक विवरण प्रस्तुत कर देना मन की ऐसी ही सिद्ध अवस्था का प्रतिमान है। पहले मैं इन सारी चीजों को पुराणों की एक वर्णन शैली से अधिक महत्व नहीं देता था , परन्तु बाद में मेरी मुलाकात दो ऐसे दिव्यदृष्टि सम्पन्न लोगों से हुई जिन्होंने मेरे सामने बैठे - बैठे मेरे मकान का पूर्ण विवरण प्रस्तुत कर दिया जो वहाँ से मिलों दूर था। ऐेसी बातें उन्होंने केवल मुझे ही नहीं बताईं , बल्कि ऐसे सैकडों॰ लोग हैं जिनके सामने ऐसे रहस्य खोलकर रख दिये जो केवल वही जानते थे।
पंडित घूरन मिश्र एवं पंडित गौरीनाथ शर्मा ऐसे ही लोगों में थे। वे बिहार प्रांत के निवासी थे। एकदिन पंडित गओरीनाथ शर्मा जी मेरे घर आए। घर मैं उनका बहुत स्वागत - सत्कार हुआ। । । पिताजी ने मुझे बताया कि वे दिव्यदृष्टिसम्पन्न व्यक्ति हैं।अगर मैं चाहूँ तो उनसे कुछ पूछ सकता हूँ। उनदिनों मैं विक्रम के एम एम कालेज में लेक्चरर था और किराये के एक मकान में रहता था। वह एक बडा॰ - सा मकान था जिसके ऊपर के कमरे में मैं पढा॰ई - लिखाई करता था। मात्र जिज्ञासावश या उससे भी अधिक गौरीनाथ जी की शक्ति की जाँच के खयाल से मैंने उनसे पूछा - ' अच्छा बताइए, मैं विक्रम के जिस मकान में रहता हूँ , वह कैसा है ? मेरा प्रश्न सुनकर क्षणभर उन्होंने मेरी ओर ध्यान से देखा। उनकी आँखें चमक उठीं। उन्होंने कहा - ' यह आप कैसे मकान में रहते हैं। यह तो जानवरों के रहने का मकान है। इसमें नीचे तो जानवर रहते हैं और उसके ऊपर की मंजिल में उनका चारा रखा हुआ है।' तनिक रुककर उन्होंने फिर कहा -' इस मकान में तीन काली - काली भैंसें हें और दो सफेद - सफेद गायें।यह पूरा मकान मिट्टी का बना हुआ है।' कहकर वे चुप हो गये। तनिकदेर बाद उन्होंने फिर कहा - ' आज से आठ महीना बाद आप नतो उस मकान में रहेंगे , न बिहार में। आपकी पोस्टिंग अन्यत्र हो जाएगी।'उनकी बातें सुनकर मुझे हँसी आ गयी।मैं जिस मकान में रहता था उसके बारे में उन्होंने जो भि बताया उसे जानकर मुझे आश्चर्य हुआ। भी । जिस मकान में मैं रहता था उसे उन्होंने जानवरों का आवास ही नहीं बताया उसके जानवरों की संख्या एवं उनके रंग भी बता दिये। जब कि सच्चाई यह थी कि उस मकान में केवल मैं ही रहता था। उसके आसपास जानवरों का नाम - निशान तक नहीं था। मैंने समझ लिया कि वे भी ठगी का पेशा करनेवाले लोगों में से एक हैं। उसके बाद मैंने उनसे कोई प्रश्न नहीं पूछा और वहाँ से उठकर चला आया।
जहानाबाद में वे करीब एक सप्ताह से ज्यादा रहे। इस बीच सैमकडों॰ लोग उनसे मिलने आए।गौरीनाथ जी ने उनके भूत - भविष्य से सम्बन्धित अनेक प्श्नों के उत्तर दिये और लोग संतुष्ट होकर लौट गये।
चार - पाँच दिनों बाद मैं भी जहानाबाद से विक्रम लौट गया। मैंने गौरी जी को अबतक करीब - करीब भुला दिया था। मेरे सन्दर्भ में प्रत्यक्षतः कोई भी बात सही नहीं थी। एक दिन उस मकान के मालिक करीमन मिआं मुझसे मिलने आए। उन्हें देखते ही गौरी जी की बातें मेरे दिमाग में कौंध गयीं।मैंने योहीं जिज्ञासावश उनसे उस मकान के बारे में पूछा।मेरा प्रश्न सुनकर वे हल्के से मुस्कुराए और कहा - ' चलिए , मेरे घर चलिए।' मैं उनके साथ उनके घर गया। उनका विशाल घर दो भागों में विभक्त था। एक भाग में उनका पूरा परिवार रहता था और दूसरे भाग मे उनके जानवर रहते थे। वे दूध के व्यापारी थे। वे मुझे अपने मकान के जानवरोंवाले भाग में ले गये। वहाँ मैंने देखा कि तीन काली - काली भैंसें और दो सफेद गायें नाद में मुँह डाले भोजन करने में व्यस्त थीं। करीमन भाई ने कहा - ' आपको सच बताता हूँ। मैं दूध का व्यापारी हूँ।आप जिस मकान में अभी आप रहते हैं , उसे मैंने अपने जानवरों के लिए बनवाया था। आपके आने के पहले मेरी तीनों भैसें और दोनो गायें वहीं रहती थीं और मकान के ऊपर के भाग में मैं उनका चारा रखता था। जब विक्रम में कालेज खुला तो यहाँ मकानों की बहुत कमी थी। प्रोफेसर लोग यहाँ बाहर से आ रहे थे। मैंने सोचा क्यों न थोडा॰ और पैसा कमा लूँ। यही सोचकर मैने अपने जानवर यहाँ से हटा लिए और मकान की लीपा - पोती कराकर इसे किराए पर दे दिआ।'
उनकी बातें सुनकर मैं स्तंभित रह गया। गौरी जी ने उस मकान के बारे में उतनी दूरी से जो भी बताया था वह अक्षरशः सही था।
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