पंडित गिरीन्द्रमोहन मिश्र : याद आता है गुजरा जमाना 86
मदनमोहन तरुण
द्विवेदीकाल
के लेखक पंडित गिरीन्द्रमोहन मिश्र
विक्रम में
बाबूजी का संदेश मिला कि अपनी बहन के विवाह के निमित्त मुझे दरभंगा जाना है।जब मुझे
मालूम हुआ कि वहाँ मुझे पंडित गिरीन्द्रमोहन मिश्र जी से मिलना है , तो मेरा उत्साह
चौगुणित हो उठा।वे द्विवेदीकाल के हिन्दी के उन असाधारण लेखकों में हैं जिन्होंने पंडित
महावीर प्रसाद द्विवेदी जी द्वारा सम्पादित हिन्दी की महान पत्रिका 'सरस्वती' में वैज्ञानिक
विषयों पर लिखा और हिन्दी की श्री - सम्पदा के अभिवर्धन में अपना महत्वपूर्ण योगदान
दिया। पंडित। सुप्रसिद्ध आलोचक डाँ रामविलास शर्माजी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'महावीरप्रसाद
द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण' मेंउनका ससम्मान
उल्लेख किया है – ‘'जिस समय चारों तरफ वेदान्त के नाम पर विज्ञान -विरोधी अध्यात्मवाद
का प्रचार-प्रसार हो रहा था उस समय गिरीन्द्रमोहन मिश्र जैसे थोड़े से लेखक थे जो प्रयत्न
कर रहे थे कि शिक्षितजनों का चिंतन विज्ञान
की दिशा में बढे.।‘
'सरस्वती'
के मार्च 1913 में प्रकाशित गिरीन्द्रमोहन मिश्र जी के एक लेख ' मानवीय ज्ञान का क्रम
विकाश ' की कुछ पंक्तियाँ देखिए - ' मानसिक अवस्थाओं और भौतिक परिवर्तनों में परस्पर
घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतएव बाहरी अनुभवों की वृद्धि से मानसिक अवस्थाओं में भी उन्नति
होती है। हमारा ज्ञान हमारे मन की एक अवस्थामात्र है। वास्तव में प्रकृत संसार और मानसिक
अनुभवों का का परस्पर वियोग असम्भव है।' हमें खेद है कि हिन्दी के अन्य प्रमुख इतिहासकारों
ने पंडित जी पर चर्चा करने में कोताही की है। हो सकता है यह उनकी अपनी समझ की सीमा
हो।
1973 में गिरीन्द्रमोहन मिश्र जी ने मैथिली में
' किछु देखल किछु सुनल' शीर्षक से अपने संस्मरणों
की महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी। तीन सौ साठ पृष्ठों में विन्यस्त यह पुस्तक दो खंडों में
विभाजित है।प्रथम भाग लेखक के निजी परिवारिक जीवनवृत्त से होता हुआ छात्रों के बीच
स्वाधीनता की सुगबुगाहट , बंग विभाजन , महात्मा गॉधी का फैलता प्रभाव , न्याय- व्यवस्था,
कचहरियों की भाषा , बिहार में हिन्र्दी अंग्रेजी
पत्रकारिता का विकास और चुनौतियॉ , लेखक के कुछ वरिष्ठ शिक्षक , कुछ महत्वपूर्ण आई
. सी . एस . अधिकारी , वकील ,न्यायाधीश , महत्वपूर्ण मुकद्दमे तथा दूसरे भाग में लेखक
की दरभंगा राज की सेवा , भारत छोड़ो आन्दोलन , मुस्लिमलीग द्वारा डाइरेक्ट एक्शन, साम्प्रदायिक दंगा ,मैथिली साहित्य परिषद , जमीन्दारी
उन्मूलन विषयक अधिनियम तथा अन्य कई प्रासंगिक विषयों तक फैला हुआ है।यह पुस्तक किसी
भी दृष्टि से स्वाधीनता संग्राम कालीन भारत का एक और इतिहास नहीं है , बल्कि औपचारिक
इतिहास लेखकों को कई मौलिक अनुद्घाटित सामग्री प्रदान करने में समर्थ है।इस आलेख में
मुख्यतः ऐसे ही प्रसंगों की चर्चा की गयी है जिनका या तो अन्यत्र उल्लेख नहीं है ,
अथवा उसी विषय की चर्चा , इस पुस्तक में वर्णित वृत्तांत से भिन्न है।जैसा कि लेखक
ने लिखा है कि उसे जैसे - जैसे बातें याद आती गयीं , वह उसी रूप में लिखता चला गया।
इस दृष्टि से विवरणसूत्र में फैलाव तथा कहीं –कहीं बिखराव भी है। इस आलेख में प्रयास
किया गया है कि एक विषय के सारे सू्त्र एक ही साथ प्रस्तुत कर दिये जाएँ।
बंग
- विभाजन लेखक की छात्रावस्था की उन महत्वपूर्ण घटनाओं में है जिसने देशव्यापी प्रभाव
डाला और लोगों की स्वाधीनता की चेतना को पूरी प्रखरता से उद्बुद्ध कर दिया।उनदिनों
लेखक एफ . ए. के छात्र थे और राजेन्द्र बाबू बी . ए . के।राजेन्द्र बाबू 1902 में छपरा
जिला स्कूल से एंट्रेंस की परीक्षा में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त कर प्रसिद्धि प्राप्त
कर चुके थे तथा वे बाद में एफ. ए . , बी. ए . और एम . ए. , की परीक्षाओं में भी कलकत्ता विश्वविद्यालय में
प्रथम आए।राजेन्द्र बाबू अच्छे विद्यार्थी होने के साथ- साथ छात्र संगठनों की गतिविधियों
में भी भाग लिया करते थे।
लेखक ने 1908 में मुजफ्फरपुर में आयोजित इसके एक
सम्मेलन में बाबू राजेन्द्रप्रसाद जी से सम्बध्द एक प्रेरक प्रसंग की चर्चा की है जो
उनके भावी व्यक्तित्व के स्वरूप की एक झॉकी प्रस्तुत करता है।सम्मेलन का आयोजन वहॉ
के लंगट सिंह काँलेज में किया गया था।उन दिनों उस कॉलेज का नाम भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज
था।बाद में बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की प्रेरणा से उसका नाम उसके
संस्थापक बाबू लंगट सिंह के नाम पर रखा गया।आयोजित छात्र सम्मेलन का स्थान स्टेशन से
कुछ दूरी पर था। आगन्तुक छात्रों को वहॉ से लेजाने के लिये घोड़ागाड़ी की व्यवस्था की
गयी थी तथा साथ का सामान ले जाने के लिए कुछ स्वयंसेवक भी नियुक्त थे।भाग लेनेवाले
छात्रों की तुलना में घोड़ागाडियों की संख्या
पर्याप्त नहीं थी।जब राजेन्द्र बाबू ट्रेन से उतरे तब अन्य छात्रों से प्रतीक्षा का
कारण पूछा।उन्होंने बताया कि वे घोड़ागाड़ी के लिये प्रतीक्षा कर रहे हैं।यह सुनकर राजेन्द्र
बाबू क्षुब्ध होगये और उन्होंने कहा कि यह खेद की बात है कि आपलोग इस उम्र में पैदल
न जा कर घोड़ागाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे हैं ? उन्हों ने जरा भी प्रतीक्षा नहीं की अपना
सामान उठाया और चल पड़े। अपनी असाधारण प्रखरता
के लिये वे विद्यार्थी जीवन में ही बहुत प्रसिध्द थे तथा छात्र समुदाय में उनकी व्यापक
प्रतिष्ठा थी।उनका अनुसरण करते हुए अन्य बहुत से छात्र उनके साथ चल पड़े। कुछ ही देर बाद सभी लोग सभास्थल पर थे।( 7 )
पुस्तक की भाषा मैथिली होने के कारण उसे वह प्रचार
- प्रसार नहीं मिल सका , जिसकी यह पुस्तक हकदार है। मुझसे पंडित जी के पुत्र पंडित
गोविन्दमोहन मिश्र जी ने , पटना हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश , मुझसे अनुरोध
किया था कि मैं उस पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद करूँ। मैंने उसके करीब सौ पृष्ठों का
अनुवाद भी किया है , परन्तु स्वयम अपनी ही लेखन - व्यस्तता के कारण अभीतक वह काम आगे नहीं बढा॰ पा रहा हूँ , जिसका मुझे बहुत
अफसोस है। सुनिश्चित रूप से यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है जो अधिक - से - अधिक पाठकों
तक पहुँचनी चाहिए।
यह 1966 के जून का महीना था ।
कडा*के की धूप और लू में करीब तीन बजे जब उनके निवासस्थान
पर पहुँचा, तो मैं पसीने से करीब – करीब नहा गया था।बाहर बरामदे में लगी बेंच पर बैठ
गया और उनके नौकर से संदेश भेज दिया।उन्होंने तुरत बुला लिया।कानून की पुस्तकों से
ठसाठस भरे कक्ष में खादी की सफ्फाक गंजी और धोती पहने गौर वर्ण, सिकुड़न मुक्त भास्वर
मुखमंडल, ,प्रशस्त ललाट , ललाई लिए भरे सहृदयतापूर्ण ओष्ठ और ऑखों की पारदर्शी पुतलियों
पर झुकती नर्म पलकों वाले उन सुप्रसिध्द विधिवेत्ता, राजनीतिज्ञ एवं साहित्यकार ने
जिस स्नेहिल आत्मीयता से मेरा स्वागत किया था ,उस प्रभाव को भुला पाना असम्भव है। उम्र अस्सी को छू रही होगी ।मेरे सामने जैसे स्वयं इतिहास
पुरुष बैठा हुआ था। उनके व्यक्तित्व की भव्यता में एक औदार्यपूर्ण विशिष्टता थी जो सामने बैठे व्यक्ति को किंचित भी बोझिलता का
एहसास नहीं कराती थी। बरसों बाद उनकी इस पुस्तक को पढ़ने के बाद मेरे लिए यह समझ पाना
सरल नहीं था कि इस विभूतिमय व्यक्तित्व ने अपना आलोक मंडल इतनी सरल सहजता से कैसे सम्हाल
रखा था।
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