निरूपाराय
: याद आता है गुजरा जमाना 94
मदनमोहन तरुण
भक्ति
- फिल्मों की महानायिका : निरूपा राय
हिन्दी फिल्मों में निरूपा राय के अभिनय का इतिहास
करीब पचास वर्षों के विशाल कालखण्ड में फैला हुआ है जिसमें उन्होंने २५० से भी अधिक
भक्तिपूर्ण, सामाजिक , ऐतिहासिक फिल्मों में स्त्री जीवन की वैविध्य पूर्ण भूमिकाओं
का कुशल एवं सुप्रशंसनीय निर्वाह किया है। उन्होंने अभिनेताओं की कई पीढि॰यों के साथ
काम किया जिनमें त्रिलोक कपूर, भारत भूषण,बलराज साहनी के साथ धर्मेन्द्र, शशि कपूर
,दिलीप कुमार , अमिताभ बच्चन आदि के नाम प्रमुख हैं।
चार जनवरी 1931 को गुजरात के बलसाड में उत्पन्न निरूपा
राय ने 1946 में जब अभिनय का समारम्भ किया तब मेरी उम्र करीब चार साल की थी। गुजरात
के साथ मेरा गहरा लगाव रहा है। दमण में मैंने
अपने युवाकाल के बारह साल व्यतीत किये जिनमें वहाँ की खट्टी - मीठी यादें शामिल हैं।इन
यादों में गुजरात के स्त्री -पुरुषों से मेरी मिठास भरी मैत्री की यादें सर्वप्रमुख
हैं। गुजराती चरित्र मृदुता, खुलापन और निष्ठा का समन्वित स्वरूप है जिसमें लोगों को
पारिवारिक अपनत्व के साथ स्वीकारने की अद्भुत
विशेषता है।अपनी समग्रता में निरूपा राय के व्यक्तित्व में उन सारी विशेषताओं का समन्वय
है जो उनके अभिनय में पूरे निखार के साथ अभिव्यंजित हुआ।
कुछ लोगों का मानना है कि निरूपा राय ने हिन्दी फिल्म
इंडस्ट्री में माँ की भुमिका पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था ,परन्तु यह उनके विशाल
अभिनय जीवन का एक छोटा -सा -सा हिस्सा है।इस बात
को भी भुलाया नहीं जाना चाहिए कि वे अपने जमाने की भक्ति फिल्मों की ऐसी अधीश्वरी रह
चुकी हैं जिनसे प्रभावित महिलाएँ उनका चित्र देवताओं के साथ रखकर उनकी आरती उतारा करती थीं। उनकी भक्तिपरक
फिल्मों की विशाल संख्या है।ऐसे आज भी बहुत सारे लोग होंगे जिन्हें नीचे दी गयी
, उनके द्वारा अभिनीत कई फिल्मों की याद अभी भी होगी - मीराबाई 1946 , सावित्री सत्यवान
1948, जय हनुमान 1948, सती सुकन्या 1948, वीर
भीमसेन 1949, हर हर महादेव 1950 , अलख निरंजन 1950, श्री विष्णु भगवान 1951, श्री गणेश जन्म 1951
, श्री रामजन्म 1951 , माया मछिन्दर 1951 लव
कुश 1951 , जय महाकाली 1951 , ईश्वरभक्ति 1951 , वीर अर्जुन 1951, शिवशक्ति 1952 ,राजरानी
दमयन्ती 1952, भक्त पूरन 1953, शुक रम्भा 1953, नागपंचमी 1953, शिवरात्रि 1954, शिवकन्या
1954, दुर्गापूजा 1954, चक्रधारी 1954, बिल्वमंगल 1954, वामन अवतार 1955, श्रीगणेश
विवाह 1955, नवरात्रि 1955, महासती सावित्री 1955, भागवत महिमा 1955, सती नागकन्या
1956, रामनवमी 1956, गौरी पूजा 1956, दशहरा 1956 ,बसंत पंचमी 1956, बजरंगबली 1956,
शेषनाग 1957 राम - हनुमान युद्ध 1957, नागलोक 1957, नागमणि 1957, मोहिनी 1957, लक्ष्मीपूजा
1957, कृष्ण - सुदामा 1957, जनम - जनम के फेरे 1957, चण्डीपूजा 1957, रामभक्त विभीषण 1958, पति परमेश्वर 1958, पक्षीराज
1959,कवि कालिदास 1959, भक्त ध्रुवकुमार 1964, श्रीराम - भरतमिलाप 1965, शंकर ,सीता
, अनुसूया 1965, बद्रीनाथ यात्रा 1967, साधु और शैतान 1968, सूर्यदेवता 1968, गंगा
तेरा पानी अमृत 1972,गंगा ,जमुना सरस्वती 1988. आदि ।
हो सकता है लोग इसे विवादास्पद टिप्पणी मानें किन्तु
, मुझे लगता है कि भक्तिपरक फिल्मों की भूमिका एक परम्पराग्रस्त समाज में मात्र मनोरंजन
तक ही सीमित नहीं रही है,उसने चुपचाप सामाजिक जीवन को ,विशेषतः महिलाओं के जीवन को
प्रभावित अवश्य किया है।
उनदिनों समाज में महिलाओं के बाहर आनेजाने पर पाबन्दी
थी।उन्हें घर - आँगन की चारदीवारी के बाहरके संसार को देखने का अवसर कम ही मिलता था।मनोरंजन
के कार्यक्रमों में उनकी सीमा रामायण - महाभारत के उन कथावाचकों तक ही सीमित थी जो
गाँव में एकाध महीने के लिए सम्पूर्ण रामायणादि का कथावाचन करते थे। अधिक से अधिक स्त्रियाँ
घूँघट काढे॰ , गीत गाती हुई गाँव के मंदिर तक जातीं और फिर वैसे ही घूँघट डाले ,माथे
में ढेर सारा सुहाग का सिन्दूर डाले लौट आतीं उनका जीवन डब्बे में बन्द सिन्दूर की
डिबिया जैसा था।
जब हिन्दी फिल्मों का विविध माध्यमों से छोटे - छोटे
शहरों तक प्रसार
होने लगा तब उसके दर्शकों की संख्या पर पुरुषवर्ग का ही वर्चस्व था। बुजुर्ग मानते
थे कि सिनेमा देखने से बहू - बेटियाँ बिगड॰ जाएँगी।परन्तु जब भक्तिपरक फिल्में आतीं
और महिलाएँ अपने पतियों के सामने भगवान शंकर या राम को देखने की इच्छा व्यक्त करतीं
तो कठोर से कठोर पुरुष भी राजी होजाते थे।
इसप्रकार भक्ति- फिल्मों ने पर्दाबद्द महिलाओं के जीवन में वह वातायन खोल दिया जिससे
वे दुनिया का वह हिस्सा देख सकीं जिसमें जिन्दगी के नये - नये रंगरूप थे। इस दुनिया
ने धीरे - धीरे उनके रहने, जीने, चलने, हँसने , बतियाने आदि के तरीके को अधिक रोचक
बनाया। वे अब अपने बच्चों को नयी - नयी कहानियाँ सुना सकती थीं। पहले उनकी चर्चा के
विषय राम, हनुमान शिव, पार्वती बने रहे, फिर धीरे - धीरे उन कलाकारों ने भी उनकी चर्चा
मे प्रवेश किया जो शिव या राम या सीता के रोल में थे।
यह कोई छोटी क्रान्ति नहीं थी । यह स्त्रियों के
प्रति प्रतिबन्धित दृष्टि रखनेवाले समाज में परिवर्तन की एक ऐसी सूक्ष्म धारा का प्रवेश
था जिसने चुपचाप स्त्रियों के जीवन में एक नयी अस्मिता का बोध जाग्रत करते हुए उन्हें
नयी ताजगी से भर दिया।
निरूपा राय उनदिनों भक्तिपरक फिल्मों की सीता, सावित्री,
पार्वती, राधिका,मीरा आदि के चारित्रिक बल, संकल्प, तेजस्विता ,उच्च मानवमूल्यों की
किसी भी कीमत पर रक्षा आदि का प्रतीक बन चुकी थी।
मुझे अच्छी तरह याद है। मेरी दादी को फिल्में देखना
पसन्द नहीं था , परन्तु निरूपा राय का नाम वे जेसे ही सुनती , उनकी आँखों में एक चमक
आजाती। फिल्म देखकर लौटने के बाद वे देर तक मगही की जगह हिन्दी बोलती रहतीं।
सामाजिक
और ऐतिहासिक फिल्में –
भक्तिपरक फिल्मों के साथ ही निरूपा राय ने ऐतिहासिक
एवं सामाजिक फिल्मों में भी काम किया है , जिन्हें व्यापक प्रशंसा प्राप्त हुई है
-
तीन बत्ती
चार रास्ता 1953, दो बीघा जमीन 1953 ,गरम कोट 1955, मुनीम जी 1956, हीरा - मोती -1959, बाजीगर 1959, रजिया
सुलताना -1961, छाया 1962, मुझे जीने दो -1963, गुमराह -1963, हमीर हठ 1964, शहनाई
1965, नीन्द हमारी , ख्वाब तुम्हारे -1966, राम और श्याम 1967,पूरब और पश्चिम
1970, आन मिलो सजना -1970, छोटी बहू 1971, कच्चे धागे 1973, दीवार 1975,आईना 1977,
मुकद्दर का सिकन्दर 1978, खानदान 1979, अमर अकबर अन्थोनी 1979, क्रान्ति 1979, मर्द
1985, लाल बादशाह 1999 आदि उनकी सुचर्चित फिल्मों में हैं, जिनमें उन्होंने अत्याचारों
के विरुद्ध अटल भाव से जूझती प्रचणड,प्रखर , अपराजेय स्त्री , संघर्षों में पति को अटूट एवं अडिग बनाए रखनेवाली
संवेदनशील पत्नी का रोल किया है। सत्तर के
दशकों में निरूपा राय ने अधिकतर माँ का जुझारू एवं अविस्मरणीय रोल किया।
दृश्य कला -माध्यमों का प्रभाव अपरिमित होता है।
वे मनोरंजन करते हुए हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना को प्रभावित करते हैं।
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