गीताप्रेस ,गोरखपुर :याद आता
है गुजरा जमाना 99
मदनमोहन तरुण
गीताप्रेस
,गोरखपुर
भारत में
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में अवस्थित 'गीताप्रेस' संस्थान का महत्व हिन्दुओं
के लिए किसी तीर्थस्थान से कम नहीं है।यदि यह संस्थान नहीं होता तो हिन्दू वांsगमय
की महानतम कालजयी कृतियाँ इतने विशाल पाठकवर्ग तक कभी पहुँच नहीं पातीं। इस महान संस्थान
ने हिन्दू धर्मग्रंथों में गीता, उपनिषद , वेदान्त,महाभारत, रामायण,रामचरितमानस एवम
भारतीय संतों की कृतियों को न मात्र अविश्वसनीय रूप से सस्ते मूल्य में, बल्कि सुरुचिपूर्ण
मजबूत जिल्दबन्दी के साथ भारत के अधिकतम हिन्दुओं के घरों में पहुँचा दिया है। हिन्दी
और अँग्रेजी के अलावा इन ग्रंथों का प्रकाशन भारत की अन्य कई भाषाओं में भी उपलब्ध
कराया गया है।
इस महान संस्थान की स्थापना 1923 में सनातन धर्म
के प्रचार के लिए जयदयाल गोयनका जी द्वारा की गयी थी। वे आजीवन इन ग्रथों
का सम्पादन करते रहे और सनातन धर्म का संदेश सर्वत्र पहुँचाते रहे।
गीताप्रेस ने गीता के अनेकों संस्करण प्रकाशित किये
जिनका मूल्य इतना कम रखा गया है कि इसे कोई भी खरीद सकता है।
इस महान प्रकाशन ने तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ महाकाव्य
को 'हनुमान चालीसा’ की तरह घर - घर में पहुँचा दिया। इसके प्रकाशन दुनिया भर के हिन्दुओं
में लोकप्रिय है। ‘रामचरितमानस’ पंडितों और काव्यरसिकों के सीमित दायरे
और सीमित समझ का अतिक्रमण करता हुआ लोकजीवन में प्रविष्ट हो गया।ढोलक और झाल पर 'रामा
हो रामा' की धुन के साथ प्राण - प्राण में गूँज ही नहीं गया ,लोकजीवन का संविधान बनकर
प्रतिष्ठित होगया। 'रामचरितमानस' की एक - एक चौपाई ग्रामीण भारत के घर, परिवार और समाज
के प्रति कर्तव्यों की विधायिका बन गयी।
अच्छा कागज, अच्छी छपाई,मजबूत सिलाई , जिल्दबन्दी
और कलात्मकता इन प्रकाशनोंकी विशेषता है।इस संस्थान की प्रकाशकीय निष्ठा का सबसे बडा॰
उदाहरण है छपाई की शुद्धता के प्रति इसकी अतुलनीय निष्ठा।इसके प्रकाशनों से गुजरते
हुए आप पाएँगे कि कई स्थलों पर इसकी अशुद्धियाँ स्याही से ठीक की गयी हैं। यद्यपि इन प्रकाशनों में अशुद्धियाँ यदाकदा ही दिखाई पड॰ती
है तथापि लाखों प्रतियों में हाथ से संशोधन मामूली समर्पण और निष्ठा का प्रतिफलन नहीं
हो सकता।
गीताप्रेस के महान प्रकाशनों का साक्षात्कार मैंने
अपनी माँ के उस बक्से में किया था जो उसका चलता -फिरता पुस्तकालय था। वह जहाँ भी जाती
, उसका बक्सा उसके साथ जाता था।आज से करीब साठ -पैंसठ साल पहले कलानौर जेसे दूरवासी
गाँव में इन पुस्तकों की पहुँच से यह सहज ही अनुमान लगाया जासकता है कि इस प्रकाशन
की कितनी व्यापक प्रतिष्ठा थी।मेरी माँ आजीवन
इन ग्रंथों को तल्लीनता एवं भक्तिपूर्ण समर्पण के साथ पढ॰ती रही , उसपर विचार - विमर्ष
करती हुई इस बात का प्रयास करती रही कि उन ग्रंथों का संदेश औरों तक भी पहुँचता रहे।
इन ग्रंथों को पढ॰ने की ललक मेरे मन में यहीं से आरम्भ हुई थी और आज भी बनी हुई है।
मेरे पितामह इस संस्थान से प्रकाशित मासिक पत्रिका
'कल्याण' के आजीवन ग्राहक रहे।इस पत्रिका का हर विशेषांक संग्रहणीय हुआ करता था।पुराणों
, उपनिषदों ,संतों की वाणी तथा हिन्दूधर्म ,संस्कृति और दर्शनादि पर आधारित इसके विशेषांक आज भी किसी मूल्यवान धरोहर से कम नहीं समझे जाते।
1927 में 'कल्याण' का प्रकाशन हनुमानप्रसाद पोद्दार जी के सम्पादन में हुआ था जो गीतप्रेस
के संस्थापकों में थे। वे 1971 तक आजीवन इस पत्रिका का सम्पादन करते रहे। इसका प्रकाशन
आज भी जारी है जिसके पाठकों की संख्या ढाई लाख से भी अधिक है।
हनुमानप्रसाद पोद्दार जी ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम
में भाग लिया था।
वे बंगाल के क्रातिकारियों के निकट सम्पर्क में थे।इन्हीं
कारणों से उन्हें ब्रिटिश सरकार के कारागार की मेहमानी करनी पडी॰। कारागार में उन्हें
एक नयी जीवनदृटि मिली। इसके फलस्वरूप उन्होंने भारतीय मूल्यों एवम सनातन धर्म की मान्यताओं
को घर - घर तक पहुँचाने का निर्नय लिया। इसी के फलस्वरूप उन्होंने ‘कल्याण’ के प्रकाशन
- सम्पादन का कार्य आरम्भ किया।
1934 से 'कल्याण - कल्पतरु' के नाम से इस मासिक का
प्रकाशन अँग्रेजी में भी किया गया जो अब भी जारी है।
हनुमानप्रसाद पोद्दार जी का हिन्दी एवं अँग्रेजी
दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था।इनके द्वारा प्रसूत पुराणों एवम महाकाव्यों के अनुवाद
जहाँ भाषा की दृष्टि से सरल और सुसंप्रेष्य हैं ,वहीं उनमें उन कृतियों की काव्यात्मकता
एवं उनकी विशिष्टता भी अक्षुण्ण है।
प्रकाशन का कोई भी इतिहास विश्व की इस महान संस्था
के उल्लेख के बिना सुनिश्चित रूप से अपूर्ण माना जाएगा।
इस संस्थान की प्रशंसा स्वयं महात्मा गाँधी ने भी
की थी।
जिस भारत को महात्मा गाँधी ने अपने अभूतपूर्व आन्दोलनों
से विदेशी शासन से मुक्त कराया ,उसी भारत को गीताप्रेस ने सही अर्थों में भारतीय महिमा
से मंडित किया।
मैं इस महान प्रकाशन संस्था और इसके संस्थापकों को
नतशिर प्रणाम करता हूँ।
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