के.
एन. सिंह : याद आता है गुजरा जमाना 95
मदनमोहन तरुण
के.
एन. सिंह : ‘विलेन’
की एक अनूठी पहचान
हिन्दी खलनायकी के
इतिहास में के. एन. सिंह उन हैसियतों में हैं जिन्हें एकबार देख लेने के बाद भुलापाना
असम्भव है। अभिव्यक्तिमुखर बडी॰ - बडी॰ आँखें , गहरी आवाज , काला सूट पर ओवरकोट, हाथ
में पाइप, हैट, सधी हुई चाल के. एन. सिंह की खास पहचान है । जटिल -से -जटिल परिस्थितियों
का अभिनय करते हुए भी उनके चेहरे पर कोई विकृति नहीं आती न उनकी आवाज मे कोई कृत्रिम
स्खलन आता है , मात्र आँखों के पास एक हल्की सी मरोर आती है , सामनेवाले की ओर दृष्टि
सध जाती है , जिसका स्पष्ट अर्थ निकलता है - 'बकवास बन्द करो।'
राज कपूर और के एन
सिंह के अभिनय में एक समानता है। राजकपूर चाहे किसी चरित्र का अभिनय कर रहे हों , वे
हमेशा राजकपूर बने रहते हैं ,ठीक उसी प्रकार के एन सिंह सदा के एन सिंह ही बने रहते
हैं ,किन्तु उनका प्रभाव अभेद्य रहता है। मैंने
उनकी अधिकतम फिल्में देखी हैं, उनके नायकों को मैं शायद भूल भी गया हूँ , परन्तु के.
एन. की एक - एक अदा मुझे याद है। उनके चलने,
बोलने, देखने में खलनायकत्व की कोई भी परम्पराग्रस्तता या विकृति नहीं होती थी , बल्कि,
इसके विपरीत, उनकी हर गतिविधि में एक गरिमा बनी रहती थी। वे खलनायकी के क्षेत्र में
एक अलग स्कूल थे।
के. एन. सिंह हिन्दी
सिनेमा की खलनायकी के इतिहास के उन बहुत थोडे॰ लोगों में हैं जो अपने अभिनय की दूरव्यापी
और गहन छाप छोड॰ते हैं।
‘इशारा’ फिल्म में
के एन ने पृथ्वीराज जी के पिता का प्रभावशाली रोल किया था , जबकि वे पृथ्वीराज जी से
उम्र में बहुत छोटे थे। उनके इस रोल से स्वयम पृथ्वीराज जी भी प्रभावित हुए थे और कहा
था ' सबका बाप बनकर दिखाना।' बाद में के. एन. ने उनके पुत्र राजकपूर की फिल्म 'बरसात'
और 'आवारा' में अभिनय किया था , जिन्हें अन्तरराष्ट्रीय
ख्याति मिली। राजकपूर
को के एन सिंह उनके बचपन से जानते थे।
१९३६ में बनी 'सुनहरा
संसार' उनकी पहली फिल्म थी जिसमें उन्होंने डाँक्टर का एक छोटा - सा रोल किया था।
'भगवान' में उन्होंने पहली बार खलनायक का अभिनय किया। इसके पूर्व वे ‘हवाई डाकू’,’अनाथ
आश्रम’ , ‘विद्यापति’ आदि फिल्मों में अभिनय कर प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे , परन्तु
'भगवान'1938 -उनकी वह फिल्म थी , जिसप्रकार के रोलों के लिए वे पैदा हुए थे। , ‘ज्वारभाटा'1944,
‘बाजी’1951, ‘परिणीता’ 1953 ‘सी आई डी’1956,‘हावडा॰ब्रिज'1958, ‘चलती का नाम गाडी॰’1958,
‘बरसात की रात’1960, ‘वहकौन थी’1964,'तीसरी मंजिल’ 1966', इवनिंग इन पेरिस'1967, ‘हाथी
मेरे साथी'1971, ‘आशीर्वाद’ 1968, ‘खूबसूरत’
1980, ‘मि. इंडिया’ 1988 आदि उनकी करीब
250 में से नयी - पुरानी वे फिल्में हैं , जिन्होंने उन्हें व्यापक ख्याति प्रदान की।
आखिर के. एन. सिंह
के व्यक्तित्व की ऊर्जा कास्रोत क्या है ? उनके पिता देहरादून के सुविख्यात क्रिमिनल
वकील थे। वे चाहते थे कि उनका पुत्र बैरिस्टर बने। के. एन. ने इसकी तैयारी भी शुरू
कर दी थी ,किन्तु इसी बीच एक ऐसी घटना घटी जिसने उनका दृष्टिकोण बदल दिया।उनके पिता
के वकालत कौशल के कारण एक ऐसा जघन्यकर्मी अपराधी छूट गया जो हत्या का दोषी था। के.
एन. ने इस घटना के बाद वैरिस्ट्री की तैयारी बन्द कर दी । उन्होंने तय कर लिया ' और चाहे जो बनूँ ,
बैरिस्टर नहीं बनूँगा।'
वे इसकी तुलना में एक सफल खिलाडी॰ बनना उचित समझते
थे। उन्होंने वेट लिफ्टिंग में कुशलता प्राप्त की तथा बर्लिन ओलेम्पिक मेंजाने की तैयारी
शुरू कर दी।इसके साथ ही उनके भीतर एक फौजी अधिकारी बनने की इच्छा थी। किन्तु , नियति
ने तो उन्हें एक कुशल अभिनेता बनने के लिए पैदा किया था। उनकी कोई भी तैयारी बेकार
नहीं गयी। वे सारी तैयारियाँ उनके भीतर अपरिमित ऊर्जा बन कर उनके अभिनय में फूट निकलीं।
के एन सिंह हिन्दी
फिल्म संसार के उन प्रबल हस्ताक्षरों में हैं जिनकी स्याही कभी फीकी नहीं पड॰ती।
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