याद आता है गुजरा जमाना 77
मदनमोहन तरुण
हिन्दी साहित्य का उत्कर्ष काल -2
यह किसी भी दृष्टि से हिन्दी साहित्य का विवेचन नहीं है।संस्मरण की अपनी सीमा होती है ।यहाँ जो भी लिखा गया है उसे सीमित स्मृतियों की छाया भर मानना ही उचित होगा। मैंने स्वतंत्र रूप से -Makers of Hindi literature - शीर्षक से MadanMohan Tarun . Sulekha .com के अन्तर्गत हिन्दी के 1०० से भी अधिक लेखकों पर लिखा है, जिसेआप चाहें तो देख सकते हैं।
हिन्दी साहित्य के उन लेखकों को हम ऊपने विद्यार्थी जीवन में दीवानगी के साथ याद करते थे जिन्होंने अकेले ही अपने निजी सृजन- लेखन और एवं संगठित प्रयासों से हिन्दी भाषा और साहित्य को उन ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया , जो सैंकडों॰ लेखक एक साथ मिल कर भी नहीं कर सकते थे। इन लेखकों ,सम्पादकों एवं प्रशासकों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र , महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल , मैथिली शरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद , प्रेमचन्द एवं अज्ञेय सर्व प्रमुख हैं। भारतेन्दु हिन्दी कविता में तो खडी॰बोली की प्रतिष्ठापना नहीं कर सके, परन्तु उन्होंने अपने नाटकों मे हिन्दीभाषा का जो रूप प्रस्तुत किया , वह सही अर्थों में हिन्दी का स्वाभाविक विकासशील रूप था। उन्होंने अपने सम्पादन से हिन्दी के समर्पित लेखकों की एक सेना - सी तैयार की , जिनमें से कई ने हिन्दी भाषा एवं साहित्य -शैली के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान किया।महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने द्वारा सम्पादित 'सरस्वती' से हिन्दी को विषयगत एवं वैचारिक विशदता तो प्रदान की ही , उन्होंने भाषा की दृष्टि हिन्दी को सजाते - सँवारते और अनुशासन सिखाते हुए कई विशिष्ट लेखक दिये। मैथिलीशरण गुप्त के निर्माण में उनका महत्वपूर्ण योगदान है, जिन्होंने हिन्दी कविता को संस्कृत के अतिरिक्त प्रभाव से बचाते हुए उसे सहज - सरल रास्ते पर लाया और विशद रूप से हिन्दी के पाठकों को वह कविता दी जिसने उन्हें संतृप्त किया। जयशंकर प्रसाद ने हिन्दी कविता और गद्य को अपने नाटकों द्वारा उन ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया जिसे तय करने में अन्य भाषाओं को काफी समय लगा। 'कामायनी' हिन्दी साहित्य को उनका ऐसा ही अवदान है। प्रेमचन्द हिन्दी के सबसे सहज और स्वाभाविक लेखक हैं जिन्होंने हिन्दी कथा - साहित्य को विश्वस्तरीय ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का जो इतिहास प्रस्तुत किया , उस ऊँचाई को हमारे लेखक आज भी प्राप्त नहीं कर सके हैं। हिन्दी के आधुनिक लेखकों में अज्ञेय ने साहित्य के क्षेत्र में अपना विशिष्ट रचनात्मक योगदान तो दिया ही , उन्होंने सही अर्थों में साहित्य का कुशल प्रशासन किया। 'तार सप्तक' के चार सम्पादित एवं संकलित खंडों में उन्होंने हिन्दी कविता की प्रयोगवादी धारा एवं नई कविता को सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया।
इन लेखकों एवं सम्पादकों का उल्लेख करते हुए हम गीताप्रेस , गोरखपुर के प्रकाशक लेखक एवं सम्पादक हनुमानप्रसाद पोद्दार जी को नहीं भूल सकते जिन्होंने अत्यन्त सस्ते दामों पर रामायण , महाभारत और गीता को उच्चस्तरीय हिन्दी अनुवादों सहित भारत के उन पाठकों तक भी पहुँचा दिया जिनमें पढ॰ने कीआदत नहीं थी और जो पढ॰ नहीं सकते थे, उन्होंने भक्ति से अभिभूत होकर इन पुस्तकों को सुना , गाया और संतृप्ति प्राप्त की।
इन कृतियों और कृतिकारों के उद्भव के पीछे अपने पूरे युग का उद्वेलन छुपा हुआ था।उनदिनों पराधीन भारत विभिन्न स्तरों पर , विभिन्न विचारधाराओं के अन्तर्गत अपनी स्वाधीनता की लडा॰ई लड॰ रहा था।तिलक, सुभाषचन्द्रबोस,सरदार भगतसिंह आदि और महात्मा गाँधी देश की जनता के असाधारण प्रेरणा स्रोत बने हुए थे।गाँधी जी के आन्दोलनों ने इस देश के जन-जन को स्वाधीनता सेनानी बना दिया था, जहाँ मार कर नहीं, मरकर जीतने का या मंत्र फूँका गया था। दुनिया इस अनूठी युद्धनीति से हैरान थी। यहाँ पहली बार युद्ध में शरीर नहीं , आत्मा को योद्धा बनाया गया था।देश की स्वाधीनता सुनिश्चित है, इस हर कोई आश्वस्त था । यह जीने - मरने की लडाई थी। अब कोई भी पराधीन रहने को तैयार नहीं था।
अंततः देश अपने महान मानवीय मूल्यों से किसी भी प्रकार का समझौता किए बिना एक अद्भुत ,असाधारण अहिंसा की लडाई लड॰कर स्वाधीन हुआ , किन्तु स्वाधीनता के साथ ही उसे हिंसा के दानवों ने चारों ओर से घेर कर अपने ही लोगों के रक्तप्लावन का जो खेल खेला उससे इंसानियत का सिर नीचा होगया। देश के विभाजन के लिए आगजनी, बलात्कार, लूट ,हत्या का नंगा खेल खेला गया और देश को चीर कर खंडित कर दिया गया। वह खेल आज भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है और समय- समय पर वह अपना विकृत चेहरा दिखाता रहता है।
इन्ही दिनों मानवमूल्यों के प्रतिमान देश चहेते बापू का सीना छलनी कर दिया गया।
इन्हीं चीत्कारों, कराहों के बीच स्वाधीन भारत ने उस प्रजातंत्र की स्थापना की जिसकी आजादी उसके जन- जन के सतत समर्पित आमरण युद्धों का परिणाम थी।
समग्र भारतीय साहित्य पर इसकी गहरी छाया लम्बे अरसे तक बनी रही और भारत की अधिकतम भाषाओं के साहित्य में इसकाल में कालजयी कृतियाँ प्रस्तुत की गयी क्योंकि इन घटनाओं के गहरे प्रभाव के भीतर ही हर किसी में एक नये भारत की रचना का उत्साह और अटूट संकल्प था।
आगे चलकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्येतिहास को मौलिकतापूर्वक आगे बढा॰या ,कबीर का नया मूल्यांकन प्रस्तुत किया तथा रचनात्मक क्षेत्र में 'चारुचन्द्रलेख' जैसा उपन्यास प्रस्तुत किया।आचार्य द्विवेदी के साथ ही रामविलास शर्मा ने हिन्दी समालोचना को एक नये परिप्रेक्ष्य में विकसित किया।
हिन्दी कथा -साहित्य में प्रेमचन्द के बाद ञशपाल निर्विवाद रूपसे सबसे बडे॰ कथाकार थे जिन्होंने एकओर तो जीवन और सामाजिक व्यवस्था मे नये मूल्यों की स्थापना पर बल दिया वहीं अपने महाकाव्यात्मक उपन्यास 'झूठा सच' में स्वाधीनता संग्राम और उसके बाद की राजनीतिक स्थितियों को निर्मम सच्चाई के साथ प्रस्तुत कर दिया।
कविता के क्षेत्र में मैथिलीशरण गुप्त जी ने राम और कृष्ण को नये कलेवर में प्रस्तुत किया तथा बुद्ध की जगह यशोधरा को ठीक उसी तरह प्रतिष्ठापित किया जैसे अपने महाकाव्य 'साकेत' में उन्होंने सीता की जगह लक्षमण की पत्नी उर्मिला के त्याग को अधिक महत्व प्रदान किया था।
रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी ओजस्वी वाणी से हिन्दी को एक जाग्रत भाषा और अभिव्यक्ति का वाहन बनाया। उनके इतिहास ग्रन्थ 'संस्कृति के चार अध्याय' तथा उनके महाकाव्य 'उर्वशी' पर हिन्दी में कई ओछी चर्चाएँ हुईं जो हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक महत्वपूर्न अंग है।
हरिवंशराय बच्चन जी ने अत्यन्त सहज -स्वाभाविक हिन्दी में उमर खैयाम की रुवाइयों का अनुवाद अपनी खास मौलिकता के साथ प्रस्तुत किया।बाद में उनकी अविस्मरणीय जीवनी 'क्या भूलूँ , क्या याद करूँ' का प्रकाशन हुआ।
हमारे विद्यार्थी जीवन के समय हिन्दी साहित्य सृजन, समालोचना,पत्रकारिता और प्रकाशन की दृष्टि से निरन्तर गतिमय उत्साह से भरा समय था। कल्पना ,कहानी ,ज्ञानोदय, आलोचना माध्यम, लहर,नईधारा , सारिका आदि उच्चकोटि के मासिक प्रकाशन थे तथा साप्ताहिक हिन्दुस्तान और धर्मयुग अपनी लोकप्रियता की चोटियों पर थे। भाषा और साहित्य की समृद्धि में इन पत्रिकाओं का विशिष्ट योगदान था। इन्हीं दिनों अज्ञेय जी द्वारा सम्पादित विशिष्ट साप्ताहिक 'दिनमान' का प्रकाशन हुआ जो हिन्दी के पाठकों के लिए एक नया अनुभव था।राजनीति, समाज, संस्कृति और साहित्य की साम्प्रतिक गतिविधियों को यह पत्रिका पूरी गहराई और गंभीरता के साथ भारत और शेष विश्व के सन्दर्भ में प्रस्तुत करती थी।पत्रकारिता के प्रकाशन क्षेत्र में यह हिन्दी के पाठकों की महत्वाकांक्षाओं को परितृप्त करनेवाली पत्रिका थी। हिन्दी में ऐसा प्रकाशन फिर आजतक नहीं हुआ।
इसके साथ ही उन्हीं दिनों हिन्दी में देश - विदेश की विशिष्ट कृतियों के अनुवादों का प्रकाशन हो रहा था। इन्हीं दिनों मैने रूस के कालजयी कृतिकारों मे टाल्सटाँय, गोर्की, चेखोप, तुर्गनेव, दास्तावस्की आदि की कृतियों क अध्ययन किया था। इन्हीं दिनों मैंने बँगला के अधिकतम वरिष्ठ करतिकारों को पढा॰ था। रवि बाबू की 'संचयिता' मैं बँगला में खरीद लाया था और मूल में उसका आनन्द उठाने के लिए मैंने मनोयोग से बँगला भाषा सीखी थी।राँची के प्लाजा सिनेमा हाल में मुझे बँगला और अँग्रेजी की अधिकतम फिल्में देखने का अवसर मिला जिसके लिए मैं उस सिनेमा हाल का आभारी हूँ।
उन्हीं दिनों 'हिन्द पाकेट' बुक्स ' ने महज एक रुपये में विश्व की महानतम कृतियों को पाठकों तक पहुँचा दिया। प्रकाशन का इतना क्रान्तिकारी कार्य हिन्दी में फिर कभी नहीं हुआ।हाँ, बाद में हिन्दी प्रचारक संस्थान नेहिन्दी के महान कृतिकारों की ग्रंथावलियों का सस्ते दाम पर सराहनीय प्रकाशन किया।
ऐसे प्रयासों से किसी भाषा को फलने- फूलने में सहायता मिलती है।
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