याद आता है गुजरा जमाना 83
मदनमोहन तरुण
वे चमकभरी आँखें
टेकारी का सत्येन्द्रनारायण कालेज छोड॰कर मैने विक्रम में महंथ मधुसूदन दास कालेज ज्वाइन कर लिआ। सिनहा।उनदिनों बिहार में जातिवाद का बोलवाला था। कभी भूमिहार लोगो का वर्चस्व होता तो कभी क्षत्रिय लोग उनपर हाबी होजाते।जिस जाति के मुख्यमंत्री होते , उसी जाति का बोलवाला हो जाता। बाबू श्रीकृष्ण सिंह भूमिहार वर्ग के और बाबू अनुग्रहनारायण सिंह क्षत्रिय वर्गों के प्रतीक थे। सिंह। विक्रम का का एम एम कालेज तब खुला था जब विनोदानन्द झा जी बिहार के मुख्यमंत्री थे। इस काँलेज के लिए पैसा महंथ मधुसूदनदास जी ने दिआ था।इस काँलेज के प्राचार्य थे रामचन्द्र मिश्र मधुप जी जो दानापुर के बी.एस कालेज से आए थे ,जहाँ वे मनोविज्ञान विभाग के अध्यक्ष थे। वे एक सज्जन और स्वप्नदर्शी व्यक्ति थे।उस कालेज में कुछ दिनों के बाद स्थानीय लोगों के वर्चस्व के अहम की हेराफेरी शुरू हो गयी जिससे ऊबकर मिश्र जी पुनः वहाँ से वापस दानापुर चले गये। यहसब उनदिनों के लिए कोई नयी बात नहीं थी। ऐसे खेल चलते ही रहते ते। विक्रम कावलेज के अध्यापकोम की नियुक्तियों में जातिवाद का सहारा नहीं लिआ गया था ।वहाँ सभीजाति के अध्यापक थे और कुछ सुयोज्ञ भी थे ।एम एम कालेज अपेक्षया एक सुव्यवस्थित काँलेज था फिर भी मैं जानता था यह मेरा वांछित पडा॰व नहीं ।
इस काँलेज में जो चीज मुझे सबसे अधिक प्रभावित कर रही थी वह थी यहाँ के विद्यार्थियों की आखों में महत्वाकांक्षा की चमक। ऐसी आँखें मुझे बहुत प्रभावित करती हैं। मैं अपनी कक्षाओं में उनकी इस अपेक्षा को खूब हवा देता था।वहाँ के विद्यार्थी मेरे परिवार के सदस्य जैसे हो गये थे।
विक्रम एक छोटा कस्बा था। वहाँ दो - चार दुकाने थीं। सगीर अहमद जी की दुकान में दैनिक जरूरत की चीजें मिलती थी। वे इस कालेज के हेडक्लर्क भी थे। सुयोग्य और सज्जन व्यक्ति थे। एक मिठाई की दुकान थी।एक वैद्य जी थे जिनकी बाद में हत्या होगयी थी।
इन कस्बों में काँलेज खुलने का बहुत महत्व था , चाहे वह टेकारी हो या विक्रम।यदि ये कालेज नहीं खुलते तो आसपास के सैंकडों॰ विद्यार्थी गरीबी के कारण कभी किसी कालेज का मुँह भी नहीं देख पाते।इन संस्थाओं के कारण बहुतों को ग्रैज्युएट बनने का सौभाग्य मिला और लोगों के सपनों को सिंचित होने का अवसर प्राप्त हुआ। बाद में इस काँलेज में एक लड॰की भी पढ॰ने लगी जो सामाजिक दृष्टि से यहाँ एक क्रांति कही जा सकती थी।वह लड॰कों के बीच असाधारण आत्मविश्वास के साथ बैठती।मैं उसका बहुत प्रशंसक था। अन्य विद्यार्थी भी उसके प्रति धीरे - धीरे सहज होते गये थे।उसके पिताजी एक स्कूल इंस्पेक्टर थे और मेरे अच्छे मित्र बन गये थे।
युवकों के भीतर जागता आगे बढ॰ने का उत्साह, उनकी चमकती आँखें , यहाँ की बहुत बडी॰ उपलब्धि थी।
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