याद आता है गुजरा जमाना 81
मदनमोहन तरुण
यह हमारी प्रतिष्ठा का प्रश्न है
बचपन की बात है। मैं पहलीबार अपने फूफा के गाँव गया था।उनके यहाँ घर के शौचालय का उपयोग केवल महिलाएँ करती ही करती थीं। पुरुष शौचकर्म के लिए बाहर खेत में जाते थे।पुरुषों का शौच के लिए घर में जाना सम्मानजनक नहीं माना जाता था। ऐसा करनेवाले की समाज में निन्दा होती थी।लोग प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व जब अँधेरा - अँधेरा रहता तो घर से पानीभरा लोटा लिए निकल पड॰ते।संद्या समय भी सूर्यास्त के पश्चात लोग ऐसा ही करते। इस नियम का पालन मुझे भी करना पडा॰ यद्यपि मुझे इसकी आदत नहीं थी। मेरे घर में ऐसा कोई ठोस नियम नहीं था।
प्रातःकाल शौचकर्म के लिए खेत में जाने के लिए मुझे भी लोटा में पानी भरकर दिया गया। प्रातःकाल। ।लोटा बहुत बडा॰ और भारी था।मेरे लिए उसे उठाना कठिन था। जब मैंने कोई छोटा लोटा माँगा तो उनके चाचाजी ने कहा - नहीं , नही मैं आपको छोटा लोटा कैसे दे सकता हूँ ! लोग यही कहेंगे कि मेरे घर में कोई बडा॰ लोटा नहीं है। यह हमारी प्रतिष्ठा का प्रश्न है।हाँ , आपको स्वयम लोटा उठाकर लेजाने की आवस्यकता नहीं है। हर दिन एक नौकर आपके पीछे - पीछे लोटा लेकर जाएगा।' ऐसा ही हुआ। प्रतिदिन एक नौकर पानी से भरा लोटा उठाकर मेरे पीछे - पीछे चलने लगा। मैं किसी खेत की आल के पीछे बैठ जाता और नौकर लोटा सामने रख देता। शौचकर्म के बाद बडी॰ कठिनाई से मैं उस पानी का उपयोग कर पाता। मुझे यह सब अटपटा लगता था, परन्तु इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं था। मैं वहाँ जबतक रहा तबतक यह सिलसिला जारी रहा। आखिर यह उनकी प्रतिष्ठा का प्रश्न था!
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