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Tuesday, January 31, 2012

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 104


याद आता है गुजरा जमाना 104

जल – ब्रह्माण्ड

मदनमोहन तरुण

२४ दिसम्बर 1969



अपना पदभार ग्रहण करने के लिए मैं दमण पहुँच गया। यहाँ आवास न मिलने तक मेरे रुकने की व्यवस्था पी डब्लू डी के गेस्ट हाउस में की गयी थी। यह गेस्ट हाउस एकदम अरब महासागर के मनोरम तट पर नानी दमण में आवस्थित था।

अबतक मैंने नदियाँ देखी थी , उनके प्रवाह और लहरों का साक्षात्कार किया था, परन्तु अबतक महासागर नहीं देखा था। उनके चित्र देखे थे, उनके बारे में पढा॰भर था। मन में न जाने कब से महासागर देखने की प्रबल इच्छा थी।

आज वह दिन आ गया।

कमरे में प्रवेश करते ही मैंने खिड॰की से दूर - दूर तक फैली महाजलराशि का साक्षात्कार किया। मेरे हाथ जुड॰ गये , मस्तक नत होगया।
मैने कमरा बन्द किया और बाहर निकल पडा॰। अब मैं सागरतट पर खडा॰ था। इस महादर्शन के प्रथम आप्यायित सुविस्मित क्षण को शब्दों में व्यक्त करना सम्भव नहीं। लगा जैसे मैं किसी जल-ब्रह्माणड में प्रविष्ट होगया हूँ ,जहाँ पृथ्वी का कहीं नमोनिशान नहीं है और दूर - दूर तक उत्तालतरंगोंभरा पानी ही पानी है।
सागर नदी की तरह कलकल निनाद नहीं  करता, सिहों की तरह गर्जन करता है।सहस्रों वासुकि नागों की भाँति फूत्कारते ज्वार एकसाथ दौड॰ लगाते हैं और तट के पास आते - आते पाताल में प्रवेश कर जाते हैं।
लगता है जैसे पृथ्वी अपने विशाल पंख खोल कर उड॰ चली है।
लगता है जैसे संध्या का ललाभ ललाम सूर्य पूरी जलराशि को स्वर्णमय करता हुआ इसी में विश्राम करने की तैयारी कर रहा हो।
रामायण में वर्णित सोने की लंका अवश्य ही संध्या के समुद्र जैसी रही होगी और वहाँ रावण अवश्य ही ऐसे ही गर्जन करता होगा अवश्य  ही पवनपुत्र हनुमान ने जो लंका दहन किया था उसका दृश्य कुछ ऐसा ही रहा होगा और लंका - दहन के पश्चात पूरी लंका रात्रिकाकीन समुद्र की तरह होगयी होगी।

मुझे पता नहीं चला कबतक मैं अभिभूत सागरतट पर खडा॰ रहा। जब लैटा तो मैं पूरी तरह भींग चुका था। अब मुझे थकान महसूस होरही थी। मेरे खाने की थाल पास के टेबुल पर रखी थी और भोजन समाप्त कर मैं सोने की तैयारी करता रहा और मेरे भीतर सागर भाँति - भाँति के रूप धारण कर मुझे ललचाता हुआ जैसे बार - बार बुलाता रहा।
तब से करीब आगामी दस वर्षों तक इस महासागर के न जाने कितने रूप मैंने देखे हैं।
  शांत सागर किसी गहन दार्शनिक - सा लगता है। विचारमग्न  सागर के ललाट की गहन चलरेखाओं में अननन्तता का सृजनात्मक विस्तार होता है। आज भी वह सागर मेरे भीतर वैसे ही अवस्थित है। आज भी जब मैं उससे बहुत दूर चला आया हूँ मैं अपने अन्तः में सदा के लिए अंकित और अवस्थित उस सागर तट पर न जाने कितनी देर खडा॰ रहता हूँ।

बरसात के दिनों मे आकाश से जब धारासार वर्षा होने लगती है तो धरती- आकाश -सागर सब की सत्ता एक - दूसरे में विलीन हो जाती है।आकाश में बादल गरजते हैं और नीचे सागर।

यह महासगर मेरे पूरे दमण - निवास की सबसे बडी॰ उपलब्धि था ।
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