Total Pageviews

Tuesday, January 31, 2012

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 96


सोहराब मोदी  : याद आता है गुजरा जमाना 96

मदनमोहन तरुण

हिन्दी सिनेमा के युगपुरुष  : सोहराब मोदी


सोहराव मोदी की आवाज खनकती तलवार सी थी , जो असाधारण चमक के साथ  म्यान से बाहर निकलती थी। वह खनक और चमक मैनें और कहीं नहीं देखी।
उनकी जादूई आवाज के लाखों दीवाने थे।
एकबार मोदी जी के थिएटर का एक शो चल रहा था। उसीक्रम में उनकी निगाह एक ऐसे दर्शक पर गई ,जो हाल में आँखें बन्द किए बैठा था। उस आदमी की यह हरकत उन्हें अपमानजनक लगी। उन्होंने तुरत अपने एक आदमी को आदेश दिया कि वह उसके टिकट का पैसा लौटा दे और उसे हाँल से बाहर जाने को कहे। थोडी॰ ही देर में उनका आदमी लौटकर आया और उसने बताया कि वह एक अंधा दर्शक है।वह मात्र उनकी आवाज सुनने के लिए टिकट लेकर आया करता है।

सोहराव मोदी हिन्दी सिनेमा की उन महान विभूतियों में हैं , जिन्होंने अपनी सधी दृष्टि और सधे चरण- निक्षेपों से उसका नेतृत्व और मार्गदर्शन ही नहीं किया है, उसे उपलब्धि के ऐसे - ऐसे शिखर समर्पित किए हैं जो हमेशा उसका गौरववर्धन करते रहेंगे।

मुझे याद नहीं कि मैने सोहराव मोदी की कोई फिल्म छोडी॰ हो।उनके अभिनय का सबसे ऊर्जास्फीत रूप उनकी ऐतिहासिक फिल्मों में दिखाई देता था। जब वे बोलते थे तो लगता था जैसे इतिहास का वह कालखण्ड उनकी वाणी में जीवंत होकर आपनी पूरी गरिमा के साथ स्वयं ही बोल उठा हो।

उनका संदेश पूरे राष्ट्र को संबोधित था,उनकी वाणी में एक युगनायक की खनक थी।

उनकी 'सिकन्दर' फिल्म में पृथ्वीराज जी ने सिकन्दर का रोल किया था। वे अपने रोल से इतने अभिभूत थे कि वर्षों स्वयं को सिकन्दर समझते रहे। पटना में एकबार वे अपना शो करने गये थे , तब किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति ने उन्हें अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किया था। उस आमंत्रण का जबाब देते हुए उन्होंने कहा था --'सिकन्दर अकेला नहीं अपनी पूरी सेना के साथ आया है।‘ इस फिल्म में पृथ्वीराज जी युवा शशिकपूर के बृहदाकार लगते थे।उनदिनों इस फिल्म के दरवारों के भव्य सेट्स और युद्ध के दृश्यों की देश - विदेश में प्रशंसा हुई थी।
 अपनी इस फिल्म में सोहराव मोदी जी ने पोरस का रोल किया था। मुझे उसका एक डायलाँग अभी भी याद है। स्वयं सिकन्दर महाराज पोरस के दरवार में वेश बदलकर एक दूत के रूप में आया है। एक स्थल पर सिकन्दर पोरस से कहता है ' अगर आप हमारे वादशाह के सामने होते तो ऐसा कभी नहीं बोलते।' सुनते ही पोरस की आँखें चमक उठती हैं और वे कहते हैं -' दूत ! हम जो कह रहे हैं , वह तुम्हारे वादशाह के सामने कह रहे हैं।' इस आवाज में गजब का प्रभाव था। उनदिनों ऐसे लोगों की कमी नहीं थी ,जिन्हें सोहराव जी के अनेकों डायलाँग याद थे। इस फिल्म में लम्बे -  लम्बे थिएट्रिकल संवाद हैं ,परन्तु इतने प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किए गये हैं कि दर्शक पर उसका विपरीत प्रभाव नहीं पड॰ता।

सोहराव मोदी ( 1897-1984) हिन्दी सिनेमा के उस युग के पुराणपुरुष हैं जब उसने चलना आरम्भ ही किया था। सोहराव मोदी ने अपने केरियर की शुरूआत पारसी थिएटर से की थी। वे मूलतः अपने अभिनय में शेक्सपियर के पात्रों को जीवंत करने के लिए प्रसिद्द थे।उन्होंने कुछ मूक फिल्मों में भी काम किया था। 1931 में फिल्मों को पहली बार वाणी मिली। 1935 में उन्होंने पहली बारअपनी फिल्म कम्पनी शुरू की।उनकी पहली दो फिल्में 'खून का खून' ( हेमलेट) तथा ‘सैदे हवस' (किंग जाँन) सेक्सपियर के नाटकों पर आधारित थीं , जो थिएटर काल के उनके अत्यंत प्रिय विषय थे। इन फिल्मों को जनता की बहुत स्वीकृति नहीं मिली। उन्होंने 1936 में मिनर्वा मूवीटोन कम्पनी की स्थापना की ,जिसने बाद मे हिन्दी सिनेमा को कई अविस्मरणीय क्लैसिक्स दिए।
1953 में हिन्दी सिनेमा ने फिल्म 'झाँसी की रानी' के साथ एक नये युग में प्रवेश किया।यह हिन्दी की ही नहीं भारत की पहली टेक्नीकलर फिल्म थी, जिसके निर्माता ,निर्देशक स्वयं सोहराव मोदी थे। झाँसी की रानी का रोल ,उनसे उम्र में बीस साल छोटी उनकी पत्नी आफताब ने किया था। यह झाँसी की रानी का ऊर्जापूर्ण अविस्मरणीय रोल था। घोडे॰ पर सवार तलवार चमकाती आफताब के कई शाट्स शायद ही कभी भुलाये जा सकेंगे। मुझे आफताब का वह तेजस्विता से ऊर्जस्वित चेहरा अब भी याद है जब उसने झाँसी की रानी का सुप्रसिद्ध डायलाग 'मैं झाँसी नहीं दूँगी' की अदायगी की थी। सोहराब मोदी ने इस फिल्म में राजगुरु का प्रभावशाली और अविस्मरणीय रोल किया था।
इन सारी विशेषताओं के बावजूद 'झाँसी की रानी' बाक्स आँफिस को प्रभावित नहीं कर सकी।इस फिल्म को बनाने में सोहराब मोदी ने अपनी पूँजी का बडा॰ हिस्सा लगा दिया था।इस फिल्म की विफलता ने उन्हें बुरी तरह झकझोर दिया , लेकिन इससे उनकी फिल्म निर्माण की ऊर्जा जरा भी प्रभावित नहीं हुई।
इस स्थिति से जूझते हुए मात्र एक साल के बाद 1954 में उन्होंने उर्दू के महान कवि मिर्जा गालिब पर इसी नाम से एक यादगार फिल्म बनायी जो लोगों द्वारा खूब देखी और सराही गयी । इस फिल्म मे मिर्जा गालिब का भावनापूर्ण रोल भारतभूषण जी ने किया था। सुरैया ने गालिब की प्रेयसी  का रोल किया था , किन्तु इस फिल्म में उनकी और स्वयं 'मिर्जा गालिब' फिल्म की उपलब्धि थी सुरैया द्वारा मिर्जा गालिब के गजलों की अविस्मरणीय अदायगी।
 इस फिल्म में सुरैया के मधुर स्वर में गालिब की ‘नुक्ताची है गमे दिल', ‘दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है,' य' न थी हमारी किस्मत ,'- जैसी गजलों की मोहक आदायगी , सदा के लिए एक यादगार अदायगी बन गयी।

'जेलर' 1938 , 'पुकार' 1939, 'सिकन्दर'1941, 'पृथ्वीबल्लभ'1943, 'शीशमहल' 1950, 'झाँसी की रानी' 1952, ' मिर्जा गालिब' 1953, 'कुन्दन'1955, 'राजहठ'1956, ‘नौशेरवाने आदिल' 1957, ‘यहूदी’ 1958, 'जेलर (पुनः) 1958, आदि सोहराब मोदी जी की वे फिल्मे हैं ,जिन्होंने हिन्दी सिनेमा को सम्पन्न किया और नयी राहें दिखाईं।

वे लगातार 1983 तक फिल्में बनाते रहे और 1984 में अपनी उम्र के छयासीवें गौरवपूर्ण शिखर से देवलोक की ओर प्रस्थान कर दिया।

यह देश अपनी इस गरिमापूर्ण विभूति को सदा आभारसहित याद रखेगा।
Copyright Reserved By MadanMohan Tarun

No comments:

Post a Comment