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Saturday, April 16, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 33

याद आता है गुजरा जमाना 33

मदनमोहन तरुण

मेरी माँ

मेरी माँ गौरवर्णा ,क्षीणकाय, नाटे कद की सुन्दर - सी स्त्री थी।वह बहुत पढी॰ -लिखी नहीं थी , परन्तु उसका अध्ययन अगाध था।उसकी तर्कशक्ति अचूक थी।वह किसी से बातें करते समय अपने मत का समर्थन करने के लिए सटीक दृष्टांत प्रस्तुत करती थी।वह प्रखर, विनम्र और स्वाभिमान- सम्पन्न थी।वह सजने - सँवरने में भी विशवास करती थी। जबतक वह अपने कपडे॰ स्वयं सीती रही , तबतक वह उसमें नये नये प्रयोग करती रही। नवीनता के प्रति उसमें बहुत आकर्षण था। वह अपनी बेटियों एवं बहुओं को भी उसके लिए प्रोत्साहित करती रही।

मेरे ननिहाल में नदी थी ,इसलिए वह तैरना भी अच्छी तरह जानती थी।जब वह मुझसे मिलने दमण में आई तो वह नियमित रूप से समुद्र में तैरने जाती थी और घंटों तैरती।बाद में अन्य स्थानों पर वह मेरी बेटियों के साथ स्वीमिंग पुल का भी आनन्द उठाती रही।

माँ का बक्सा हमारे लिए रहस्यों का भंडार था। वह जब भी बक्सा खोलती ,हम उसे घेर कर खडे॰ हो जाते। उसमें श्रृंगार के सामानों के साथ ढेर सारी पुस्तकें रहती थीं।जिनमें महाभारत, रामायण ,पुराणादि प्रमुख थे। माँ नियमित रूप से तीन -चार घंटे अवश्य पढ॰ती थी , बाद में अध्ययन का यह समय बढ॰ता ही गया।

पुस्तकों के प्रति यह प्रेम मुझे माँ से ही मिला। बडा॰ होने तक मैं उसके बक्से की अधिकतम किताबें पढ॰ गया था और समय - समय पर उससे उन विषयों पर बहस करता , जिसे वह प्रोत्साहित करती थी। वह कभी - कभी व्यंग्यात्मक कविताएँ भी लिखती थी, जिसमें ऐसी बातों पर चुटकी ली गयी होती जो बातें उसे नापसंद थी।मुझे कविता लिखने की संस्कार बाद में सम्भवतः माँ से ही मिला। माँ बच्चों की विशेष रुचियों को प्रोत्साहित करती थी।उसका प्रशासन मधुर , किन्तु सुदृढ॰ था। उसकी इस विशेषता का प्रभाव करीब - करीब हम सभी भाई- बहनों पर पडा॰।मां का सभी सम्मान करते थे।

कृष्ण -दर्शन

वह कृष्णभक्त थी।उसने भगवान कृष्ण और राधिका को प्रत्यक्ष देखा था।

एक बार माँ पिताजी के साथ वृन्दावन गयी। अन्यलोग भी थे। उनदिनों वह बहुत बीमार थी।वह पर्वत पर मंदिर के पास तक जाने में असमर्थ थी।इसलिए उसे कुछ दूरी पर एक वटवृक्ष के पास बैठना पडा॰ जबतक अन्यलोग दर्शन कर वापस लैट न आएँ।जब सभीलोग दर्शन के लिए चले गये तब माँ को बहुत अफसोस हुआ। उसने आँखें मूँद कर कहा - 'हे श्रीकृष्ण ! यह मेरा कैसा दुर्भाग्य है कि मैं यहाँ आकर भी आपका दर्शन नहीं कर सकी ।' उसकी आँखें आँसुओं से भर गयी और मन अथाह पीडा॰ से। थोडी॰ देर तक वह अपनी आँखें बन्द किए रही। कुछदेर बाद उसे घुँघरुओं की आवाज सुनाई पडी॰। उसने जब आँखें खोलीं तो देखा कि एक विशाल , खूब सजा हुआ रथ उसकी ओर चला आ रहा है।रथ में जुते घोडो॰ के घुँघरु मोहक झंकार उत्पन्न करते हुए निकट - से - निकटतर होते जा रहे थे।रथ जैसे -जैसे निकट आया माँ ने देखा कि उसपर एक साँवले रंग का सुदर्शन युवक , मुकुट पहने और हाथ मे बाँसुरी लिए ,एक अतिशय सुन्दरी युवती के पास बैठा है। रथ माँ के पास आकर रुक गया। दोनों युवक- युवती उसे देख कर प्रेमपूर्वक मुस्कुराते रहे, फिर वे रथ में बैठे -बैठे मंदिर की ओर चले गये। उनके चले जाने पर माँ को सहज ही बोध हुआ कि यह तो स्वयं राधा - कृष्ण थे जो उसे दर्शन देने आए थे। माँ की आँखें आँसुओं से तर होगयीं।इस घटना का उसके जीवन पर गहरा प्रभाव पडा॰।

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Friday, April 15, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 32

याद आता है गुजरा जमाना 32

मदनमोहन तरुण

साहित्यकार नहीं, दारोगा चाहिए

चालीस से भी अधिक वर्ष बीत चुके हैं, परन्तु अभी तक सब कुछ स्पष्टतः याद है।

2 अगस्त 1962 का वर्षा की फुहारों में भींगा-भींगा दिन था। आचार्य शिवपूजन सहाय का 1925 में प्रथम बार प्रकाशित एकमात्र उपन्यास ’देहाती दुनिया’ समाप्त करते-करते मैं इतना अभिभूत हो उठा कि उसके लेखक से प्रत्यक्षतः मिलने की इच्छा का निवारण नहीं कर सका। भाषा की ऐसी निरावृत सहजता, चपल-चुहल भरी अभिव्यक्ति, फिर भी आद्यंत प्रशांत विदग्धता का यह मानो प्रथम साक्षात्कार था। पूरा ग्रामीण जीवन मानो अपने समस्त आंतः एवं बहिर्परिवेश की समग्र जीवंतता के साथ स्फूर्त हो उठा था।

मन में विचार आया कैसा होगा यह मिट्टी की सोंधी गंध की तरह अपने इस पूरे सृजन में व्याप्त लेखक! मतवाला मण्डल के यशस्वी सदस्य के रूप में अपने सम्पादन कौशल और अपनी रचना धार्मिता के प्रति समर्पित आचार्य शिवपूजन सहाय के बारे में मुझे जानकारी थी, किन्तु- देहाती दुनिया- की तो एक अलग ही दुनिया थी। उसके चितेरे को देखने की लालसा को दबा पाना असंभव था।

आचार्य जी उन दिनों पटना में रहते थे। पता लेकर दूसरे ही दिन प्रातःकाल मैंने उनका दरवाजा खटखटा दिया। थोड़ी ही देर बाद नाटे कद के अत्यंत गौरवर्ण, गंजी पहने और कमर में अॅंगोछी लपेटे एक वयोवृद्ध सज्जन ने दरवाजा खोला। लगता था अभी-अभी स्नान करके निवृत्त हुए हों। पूरे चेहरे के आत्मीय प्रसार में पतले-पतले होठों के ऊपर से गुजरती नासिका के दोनों तटों पर उनकी ऑंखें अपनी पूरी उद्वीप्ति से कह रह थीं- भला और कौन हो सकते हैं- आचार्य शिवपूजन सहाय! मैंने करबद्ध विनम्रता से अपनी प्रणति अर्पित करते हुए उनके दर्शनार्थ आने का अपना अभिप्रायः व्यक्त किया। उन्होंने मृदुल आत्मीयतापूर्वक मेरा स्वागत करते हुए पास ही पड़ी हुई चौकी पर बिठाया। चौकी पर दरी बिछी थी। उस पर हिन्दी पत्रिकाओं के कुछ ताजा अंक रखे थे। आचार्य जी मुझे बिठा कर थोड़ी देर के लिए भीतर चले गये। तनिक देर बाद एक युवक थाल में ठेकुआ और लडुआ (ठेकुआ आटे में गुड़ या चीनी मिलाकर घी में तल कर बनाया जाता है तथा लडुआ चावल के आटे में चीनी या गुड़ मिलाकर बनाया जाता है) लिए आए और सामने रखकर भोजपुरी में बोले-’तब तक खाइए, वे अभी आते हैं’ कहकर युवक चले गये। मैं ठेकुआ और लडुआ खाने लगा। कुछ ही देर बाद आचार्य जी सफ्फाक धोती-कुर्ता पहने बाहर आए और सामने चौकी पर बैठ गए। लगा एक पूरा युग सामने आकर थम गया। राजनीति और साहित्य की हलचलों से भरा युग। तब साहित्य कद में राजनीति से किसी भी तरह छोटा नहीं था। लोग गाँधी जी को जानते थे तो प्रेमचन्द और रवीन्द्र की भी उतनी ही खबर रखते थे। हिंदी पत्रकारिता स्वाधीनता संग्राम का प्रतीक बन चुकी थी। चारों ओर असाधारण जागृति थी। हर किसी की आँखों में नूतन भविष्य का स्वप्न तरंगित हो रहा था। उसी युग के सुदृढ़ स्तम्भों में से एक थे आचार्य शिवपूजन सहाय, जिन्होंने हिन्दी के तेजस्वी क्रांतिपुरुष निराला के समग्र संघर्ष को अपनी आँखों से देखा ही नहीं था, उसकी साँस से भी परिचित थे। ’कामायनी’ की प्रथम हस्तलिखित प्रति से गुजरने का आमंत्रण दिया था प्रसाद जी ने आचार्य को और उन्होंने प्रसाद जी को तत्संबंधी अपने कुछ सुझाव भी दिए थे जिनमें से कुछ को प्रसाद जी ने स्वीकार भी किया था।

आचार्य जी से बातें होने लगी। इस उम्र में भी उनकी वाणी में एक खनक थी। उस युग की चर्चा कुछ ऐसी अविरल भावुकता से चली कि ’देहाती हुनिया’ वाला प्रसंग यों ही पड़ा रह गया। बल्कि, वह बात ध्यान में आयी ही नहीं। उन दिनों मुझे लेखकों और कवियों की बहुत-सी पंक्तियाँ याद रहती थीं, जो प्रसंग आते ही स्वयम् निकल पड़ती थी। पता नहीं क्यों आचार्य जी मुझसे बहुत प्रभावित हुए। उन दिनों मेरी कुछेक कविताएँ और एकाध तीखी टिप्पणियाँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थी। यह जानकर कि मैं कविता भी लिखता हूँ उन्होंने एकाध कविता सुनाने को कहा। सुनकर उन्होंने कहा कि ’’अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ। आज की कविताएँ मेरी समझ में नहीं आतीं, परन्तु बड़ी संख्या में लोग लिख रहे हैं, पत्रिकाओं में वे छप रही हैं। अन्य लोग उसका रस अवश्य ही लेते होंगे।’’

कहकर वे तनिक देर चुप रहे। दूर बाहर की ओर देखते रहे फिर बोले- ’’काव्य-रचना और साहित्य -सृजन तो ठीक है, परन्तु मैं आज के युवकों से आशा करता हूँ कि वे समर्पित एवं ईमानदार प्रशासक के रूप में सामने आएँ। आज साहित्यकार से अधिक अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित दारोगा की आवश्यकता है।“

मैं चौंका। भौंचक्क उनकी ओर ताकता रह गया। क्षण भर पश्चात् वे पुनः बोले- ’’आज की स्थितियों को देखकर मन खिन्न हो उठता है। चारों ओर अराजकता-सी फैली है। शरीफ लोगों का जीना कठिन हो उठा है स्त्रियाँ शाम को अकेले घर से बाहर नहीं निकल सकतीं। भाई-भतीजावाद का बोलवाला है। युवकों में बेकारी और निराशा फैली हुई है। हम लोग किसी प्रकार अपनी इज्जत बचाए हुए हैं। गरीबों की कोई सुनने वाला नहीं है। रोज चोरी-डकैती हो रही है। हुल्लड़बाजी है।’’ फिर तनिक थमकर बोले- ’’मैं आप जैसे साहित्य के क्षेत्र में महत्वाकांक्षा रखने वाले युवकों को निराश करना नहीं चाहता, परन्तु मैं फिर कहता हूँ आज देश को कवियों और लेखकों से अधिक अच्छे दरोगा की आवश्यकता है जो दूसरों का दुख-दर्द समझ सके’’। उस समय मुझे उनकी बातें सुनकर ठेस-सी लगी थी। शब्दों के संसार के जुझारू महारथियों की लेखनी के प्रभाव से पूर्णतः परिचित इस लेखक के साथ आखिर कौन-सी ऐसी घटना घटित हो गयी कि साहित्य की शक्ति के प्रति उनकी आस्था इतनी डगमगा उठी है कि वह साहित्यकार की जगह आज दारोगा की प्रतीक्षा कर रहा है।

सोचता हूँ आज यदि वे जीवित होते तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होती। क्या वह मनीषी अपनी चमकती हुई आँखों से आने वाले युगों की भयावह छाया नहीं देख रहा था?

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Tuesday, April 12, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 31

याद आता है गुजरा जमाना -31

मदनमोहन तरुण

जहानाबाद का बदलता चेहरा 5

पिचले पचास वर्षों के बाद 2009 के दिसम्बर महीने में।

शहर के बाहर की ओर जहानाबाद ने दूर - गाँवों तक अपने पाँव फैलाए हैं।ग्रामीण आबादी शहर की ओर बढ॰ रही है और लोग इतस्ततः बिना किसी सुनिश्चित योजना के मकान बनवा रहे हैं। इसी अनुपात में यहाँ का बाजार भी बढा॰ है।बाजार की ओर की सड॰कें पहले जैसी ही हैं , उनका फैलाव नहीं हुआ है किन्तु खरीदारों की संख्या पहले से पचीस गुना से भी ज्यादा बढी॰ है । रिक्शा के साथ - साथ शहर और गाँव वालों के पास कार और जीप भी है। बाजार में जब कभी इनका प्रवेश होता है तो चलना कठिन हो जाता है और लोगों को देर तक रुकना पड॰ता है। बाजार में खरीदारी करने वाले अब केवल पुरुष ही नहीं हैं , करीब पन्द्रह प्रतिशत महिलाएँ भी हैं जो अकेले ही खरीदारी करती हैं। नीतीश कुमार जी के सुशासन में लोगों का आत्मविश्वास बढा॰ है। स्त्रियाँ देर शाम तक खरीदारी करती देखी जा सकती हैं। अब यहाँ एक महिला काँलेज भी है जहाँ कई लड॰कियाँ जीन्स ,स्कर्ट और ऊँची हिल वाली सैंडल में भी दिखाई पड॰ती हैं। उनके चेहरों पर उत्साह , ताजगी और आत्मविशवास झलकता है। यहाँ अब एक से अधिक काँलेज हैं जिनमें पढ॰नेवालों की संख्या अच्छी खासी है।अब यहाँ कई तरह के आधुनिक पब्लिक स्कूल भी खुल गये हैं , जो अगली परीक्षाओं की तैयारी कराते हैं।

एकदिन शाम को जब मैं बाजार से लौट कर अपने घर की ओर गली से गुजर रहा था तो मैंने सैंकडों॰ युवक - युवतियों को यहाँ - वहाँ खडे॰ या गुजरते देखा। मुझे लगा कोई संगीन झगडा॰ हो गया है। मैंने पास के एक दुकानदार से जब वहाँ इतनी बडी॰ संख्या में युवकों के इकट्ठे होने का कारण पूछा तो उसने बताया कि इस गली में यहाँ से वहाँ दूर तक कोचिंग क्लासेस खुले हुए हैं , जहाँ इंजीनियरिंग , कामर्स, मेडिकल एवं प्रशासनिक परीक्षाओं की तैयारी कराई जाती है। जहानाबाद में ऐसे प्रशिक्षणालयों की बहुत बडी॰ सख्या है जहाँ छात्र अपने भविष्य की तैयारी करते हैं।वे केवल जहानाबाद के ही छात्र नहीं हैं , उनमें से काफी लोग सुदूर गाँवों से भी आते हैं। मेंने इन छात्रों में अच्छीखासी संख्या छात्राओं की भी देखी।इन युवक - युवतियों की आँखों में नई चमक थी, उत्साह था और दुनिया में अपनी सत्ता की सार्थकता सिद्द करने का अदम्य उत्साह । यह सतेज महत्वाकांक्षाओं की ऐसी संकल्पित आँधी थी , जो देश - विदेश में छा जाने को बेचैन थी। इनमें केवल पाँच प्रतिशत छात्र ही ऐसे थे जो शिक्षक या लेक्चरर बनने की इच्छा रखते थे।इनमें ज्यदातर की महत्वाकांक्षा प्रशासकीय सेवाओं या आई. टी. में या इंजीनियरिंग में जाने की थी।

सिनेमा हाँल के बाहर , बैंकों , पोस्ट आँफिसों , स्टेशन सब जगह भीड॰ ही भीड॰ दिखाई देती है। कई होटल हैं। कई इडली Wर मसाला-डोसा के होटल हैं ,जिन्हें लोग खूब चाव से खाते हैं।

जहानाबाद की नई पहचान उसके युवक - युवती हैं , जो केवल चलते और दौडते हुए नहीं , बल्की नई - नई दिशाओं में उडा॰न भरते हुए दिखाई देते हैं।

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Monday, April 11, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 30

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याद आता है गुजरा जमाना - 30

मदनमोहन तरुण

जहानाबाद के वे दिन – 4

जहानाबाद में साहित्यक सजगता हमेशा ही बनी रही।भले उसका रूप बहुत बृहत नहीं रहा हो, परन्तु यहाँ के साहित्यकारों में सृजन के प्रति उत्साह बना रहा। लोग यहाँ की साहित्यिक संस्था 'ज्ञान गोष्ठी ' में नियमित रूप से भाग लेते थे और सामयिक विषयों पर चर्चाएँ करते तथा एक - दूसरे के लेखन की विविध विधाओं का आनन्द लेते थे। इस गोष्ठी का लाभ यह था कि इसमें बुजुर्ग और नवोदित सभी लोग आते थे ,जिससे जहानाबाद की रचनात्मक परम्परा को एक कडी॰ में सहेजने में आसानी होती थी। लोग एक - दूसरे को व्यक्तिग रूप से भी जानते थे। 'ज्ञान गोष्ठी' के अलावा साहित्यकार अवसर - विशेषपर अपने घर पर भी साहित्यक संगोष्ठी का आयोजन करते थे। समय - समय पर यहाँ के कई कवि बाहर के कवि सम्मेलनों में भी बुलाए जाते थे।

चन्द्रदेव शर्मा

जहानाबाद के प्रसिद्ध कवि चन्द्रदेव शर्मा जी जहानाबाद कोर्ट रहते थे। वहीं उनका प्रेस था 'चाँद प्रेस'। उसी प्रेस से उनकी सारी पुस्तकें छपी थीं। वे सही अर्थों में एक प्रखर राजनीतिक व्यंग्यकार थे।उनके लेखन के बारे में आज भी मेरी निर्भ्रान्त और सुनिश्चित धारणा है इस क्षेत्र में हिन्दी साहित्य में उस कद का कोई दूसरा व्यंग्यकार नहीं है। हिन्दी में हास्य - व्यंग्य के लेखनका वैसे भी घोर दारिद्र्य है और जिन लोगों को इस नाम पर बहुत तामझाम के साथ प्रस्तुत किया जाता है , उनमें अधिकतर लोगों की हैसियत एक मामूली बहुरूपिया या विदूषक से अधिक नहीं है।यह खेद की बात है कि हमारे आलोचकों ने चन्द्रदेव शर्मा जी का उचित मूल्यांकन तक नहीं किया। इससे भी शर्मनाक बात यह है कि किसी सुप्रतिष्ठित हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनका नाम तक नहीं है। शर्मा जी की तीन पुस्तकों का उल्लेख बहुत आवश्यक है -1. 'वीर बन्दा' (खण्डकाव्य) 2. 'दुःशासन राज'(व्यंग्यात्मक कविताओं का संकलन) और 3.'बापू के सपूतों का राज' (नाटक)। इनमे 'वीर बन्दा' शर्मा जी की वर्णनगत ओजस्विता के लिए पढा॰ जाना चाहिए ।सही अर्थों में 'दुशासन राज' और 'बापू के सपूतों का राज' उनकी प्रतिनिधि रचनाएँ हैं , जिनमें उनकी समकालीन राजनीति की गहरी समझ , प्रखर आक्रामकता और एक आहत प्रबुद्ध नागरिक का आक्रोश पूरी गहराई के साथ व्यक्त हुआ है ।

इनके अलावा पडित देवशरण शर्मा, अनिरुद्ध द्विवेदी,कमलापति शास्त्री, दुःखहरण गिरि शास्त्री, उमाकान्त मिश्र आदि यहाँ के वरिष्ठ साहित्यकार थे ।युवापीढी॰ के साहित्यकारों में राधावल्लभ रकेश का नाम उल्लेखनीय है जिसने यहाँ से 'अम्बर' नाम की पत्रिका निकाली थी।

राधावल्लभराकेश बहुत उत्साही और जीवनी शक्ति से भरपूर लेखक थे। यही वैशिट्य उनके लिए जानलेवा सिद्ध हुआ। एकदिन किसी से उनकी कहा सुनी हो गयी। उसके कुछ ही दिनों बाद बडी॰ निर्ममता से उनकी हत्या होगयी।

जहानाबाद में समय - समय पर कवि - सम्मेलनों के आयोजन होते रहते थे। इसमें बिहार के प्रतिष्ठित कवियों को आमंत्रित किया जाता था। गोपाल सिंह नेपाली जी को मेंने आमने - सामने यहीं सुना था। दैनिक 'नवराष्ट्र' के सम्पादक पंडित रामदयाल पाण्डे यहाँ नियमित रूप से आते रहते थे। जनता में साहित्यिक अभिरुचि बढा॰ने में इन सम्मेलनों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। देश के कई कवि इन्हीं कविसम्मेलनों की देन हैं जिनसे उनकी गहरी पहचान बनी। दिनकर और हरिवंशराय बच्चन उन्हीं लोगों में से हैं।

यहाँ के साहित्यकारों में पडित रुद्रदत्त पाठक की चर्चा आवश्यक है जिन्होंने संस्कृत में ' भारतीय रत्न -चरितम' शीर्षक से इतिहास के बृहत ग्रंथ की रचना की , जिसकी भूमिका पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखी। इन्हीं के पुत्र राजवल्लभ पाठक ने मेरे द्वारा सम्पादित त्रैमासिक वैचारिक और विवादास्पद पत्रिका

"अभिशप्त पीढी॰' का प्रकाशन किया। इस विषय पर कभी आगे लिखूँगा।

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Saturday, April 9, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 29

याद आता है गुजरा जमाना - 29

मदनमोहन तरुण

जहानाबाद के वे दिन - 3

जहानाबाद की राजनीति में उनदिनों काँग्रेस का बोलवाला था।फिदा हुसैन साहब उसके अत्यन्त लोकप्रिय नेता थे। उनका कद लम्बा था। नाक लम्बी और ऊँची। वे खादी का स्वच्छ कुर्ता - धोती , जवाहर कट बंडी ,टोपी और चप्पल पहनते थे। वे स्वाधीनता संग्राम में गाँधीजी और पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ काम कर चुके थे ।उनकी छवि एक ईमादार और लोकहितकारी नेता की थी। जनता से उनका गहरा लगाव था और वे उनके सच्चे हितैषी थे। उन्होंने जीवनपर्यंत सादा जीवन बिताया तथा आर्थिक तंगी में रहे। उनके बेटों को भी यह कष्ट झेलना पडा॰। वे हमारे परिवार के बहुत निकट थे। उनके निधन के करीब तीस से ज्यादा वर्ष बीत चुके हैं , परन्तु उनके परिवार से हमारा सम्बन्ध अब भी कायम है। दिल्ली में बडे॰कद के नेता उन्हें व्यक्तिगत तौर पर जानते थे।

गाँधीजी के देहावसान के दिन शहर के अधिकतम लोगों ने अपना सिर मुड॰वाया था।ग्यारह दिनों तक घरों मे सादा भोजन बनता रहा और लोग शोक मनाते रहे ।

काँग्रेस के अलावा वहाँ राष्ट्रीय स्वयं सेवक दल की शाखा , ठाकुरवाडी॰ के पास लगती थी, जिसमें इसके सहभागियों को शारीरिक प्रशिक्षण दिया जाता था। वे लोग एक - दूसरे के नाम के पीछे 'जी' लगाकर बुलाया करते थे। उनके बीच एक दूसरे के प्रति अनुशासनपूर्ण एकत्व था। वे बहुत लोकप्रिय नहीं थे।

शहर में मुख्य सांस्कृतिक गतिविधि दुर्गापूजा और जन्माष्टमी के अवसर पर होती थी।दुर्गापूजा में शहर के दक्षिणी सिरे पर दुर्गा की विशाल मूर्ति बिठाई जाती । वहीं दस दिनों के लिए मेला लगता था , जहाँ हर तरह की चीजें मिल जाती थी। उसे देखने के लिए काफी भीड॰ उमडा॰ करती थी।रात में यहाँ कानपुर की नौटंकी पार्टी का ड्रामा होता था ,जिसे देखने के लिए खूब भीड॰ जमती थी। इसमें आसपास के गाँवों के लोग भी भाग लेते थे। नाटक रातभर चलते थे और हजारों लोग बिना सोए उसका आनन्द उठाते थे ।यह सिलसिला पूरे दस दिनो तक चलता था। मंचपर खूब बडा॰ और ऊँचा हारमोनियम रहता जिसकी आवाज दूर - दूर तक गूँजती थी और पास रखे नगाडे॰ के पास कोयले की आग जलती रहती थी, जिससे जाडे॰ की कनकनाती रातों में भी उसका चमडा॰ तना रहता और उससे किडि॰क - किडि॰क धाँ की मोहक और ऊँची आवाज निकती , जो लोगों को दूर - दूर तक सुनाई पड॰ती थी।उनदिनों माइक नहीं होते थे इसलिए नाटक के पात्र जोर - जोर से संवाद बोलते थे ,जिससे सभी उसे सुन सकें।समान्यतः 'लैला - मजनू और शीरी - फरहाद , सुलताना डाकू आदि नाटक होते। बीच - बीच में नाच भी होता था।उनके संवाद रोमानी, जोशीले और शायराना होते थे जिसके अंत में नगाडे॰ की थाप उसे अधिक रोचकयह बना देती थी। अभिनेत्रियों के साथ उनके विदूषकों के संवाद कई बार अश्लील होते थे ,परन्तु ग्रामीण दर्शकों को इसमें मजा आता था। जो वे दैनिक जीवन में नहीं कर सकते थे , उसे मंचपर अभिनेताओं द्वारा सम्पन्न होते देख कर उन्हें राहत मिलती थी।

दुर्गापूजा का यह अवसर जहानाबाद को नई चेतना से भर देता था।

इसके साथ ही जन्माष्टमी का त्योहार भी मनाया जाता था। इसका सर्वप्रमुख आयोजन लक्ष्मी नारायण पाण्डेय जी के बैठकखाने पर होता।लक्ष्मीनारायण पांडे स्वाधीनता संग्राम में भाग ले चुके थे। वे सरदार भगत सिंह के अनुयायी थे। उनके बैठकखाने की एक उल्लेखनीय विशेषता थी वहाँ गमलों में लगाए क्रोटन के पौधों की विविधता।उनकी पत्तियों का रंग टहाका चमकीला रहता था ।लक्ष्मी जी सवयं उनकी देखभाल करते थे। वे सबेरे स्नान करते समय कई बालटी पानी से उनकी पत्ती - पत्ती धोकर साफ करते थे।

वे सबेरे -सबेरे घंटो दणड-बैठक करते और मुग्दर भाँजते थे।मैंने उन्हे बोलते हुए बहुत कम सुना।खादी धोती - कुर्ता में सजे लक्ष्मी जी दिन में कभी - कभी बडी खास अदा में सिगरेट पीते। वे मेरे पिताजी के निकटतम मित्रों में थे।वे एक सक्रिय समाजसेवी थे एवं जहानाबाद नोटिफायड एरिया के सदस्य। उनके जमाने में जहानाबाद की सड॰कें हमेशा साफ रहती थीं।

वे अच्छे अभिनेता भी थे। जन्माष्टमी के अवसर पर वहाँ नाटक भी होता था जिसमें स्थानीय प्रतिभाएँ भाग लेती थीं। लखन जी का तांडव नृत्य मैं आज भी नहीं भूल पाया हूँ। यही चन्द्रदेव शर्मा जी का नाटक 'तुलसीदास' खेला गया था।निर्देशक थे लक्ष्मी नारायण पांडे। इसका एक दृश्य मुझे अब भी याद है , जिसमें घनघोर वर्षा की रात में तुलसीदास अपनी पत्नी से मिलने पहुँचते हैं और घर का दरवाजा बन्द देखकर एक साँप को रस्सी समझ कर उसी के सहारे अपनी पत्नी रत्नावली के कक्ष में प्रवेश करते हैं। इस भाग के दृश्यांकन के लिए सारी रोशनी बुझा दी गयी थी , तबले की आवाज से बादलों के गर्जन का चित्रण किया गया था और टार्च के सहारे बिजली चमकने का जीवंत दृश्यांकन किया गया था। इसी मंच पर बाद में मेरे निर्देशन में प्रसाद जी का प्रसिद्ध नाटक ' चन्द्रगुप्त' खेला गया था। इसमें मैने चाणक्य का अभिनय किया था, जिसे बहुत सराहा गया था।

उनदिनों जहानाबाद में मनोरंजन के साधनों में एक मित्र मंडल कल्ब था जहाँ कुछ सम्भ्रान्त लोग रात में मिलते - जुलते थे। अबतक जहानाबाद में कोई सिनेमा हाँल नहीं था। लोग फिल्म देखने पटना जाते थे बाबूजी के साथ एकाधबार मैं भी गया था।परन्तु सिनेमा से अधिक मुझे एलीफिन्सटन सिनेमा हाँल के पास का सोडा फउन्टेन होतल बहुत अच्चा लगा।इसके बेटर खुब सजे धजे रहते और बडी॰ खास अदा के साथ सेवा देत थे। होटल सजा धजा और हरियाली से भरा था।

उनदिनों पर्ल सिनेमा में प्रदीप कुमार एवं बैजयंतीमाला द्वारा अभिनीत फिल्म ' नागिन' चल रही थी। इसमें बीन पर निकाली धुन बहुत लोकप्रिय हुई थी। इस फिल्म में बारह गाने थे जिनमें 'मन डोले ,मेरा तन डोले , मेरे दिल का गया करा रे ,ये कौन बजाए बाँसुरिया' तथा 'छोड॰ दे पतंग मेरी छोड॰ दे ' गाने बहुत लोकप्रिय हुए थे। यह फिल्म पर्ल में तीन साल चली थी। मैं अपनी माँ को यह फिल्म दिखाने पटना ले गया था। मेरी माँ को यह फिल्म इतनी पसंद आई कि मुझे उसके साथ बारह दिन पटना जाना पडा॰ ।

उन दिनों देश के कई वरिष्ठ लेखक पटना में रहते थे ।पटना देश की साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। आचार्य रामावतार शर्मा , आचार्य शिवपूजन सहाय, रामधारी सिंह दिनकर, रामववृक्ष बेनीपुरी, रामदयाल पाण्डेय, गोपाल सिंह नेपाली , नलिनविलोचन शर्मा,आरसी प्रसाद सिंह,लक्मीनारायण सुधांशु, जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज' आदि हिन्दी साहित्य के गौरव थे।आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री मुजफ्परपुर में रहते थे और दरभंगा में पंडित गिरीन्द्र मोहन मिश्र , जो पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा सम्पादित 'सरस्वती 'पत्रिका के वरिष्ठ लेखकों में थे।उनदिनों वे हिन्दी में वैज्ञानिक विषयों पर लिखते थे। मुझे व्यक्तिगत रूप से उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त है। जब मैं उनसे मिला था तब उनकी अवस्था पचासी साल से ऊपर थी। वे लेखक होने के आलावा अपने समय के विख्यात विधिवेत्ता थे। स्वाधीनता संग्राम में वे महात्मा गाँधी के निकटस्थों में थे।

पटना से उनदिनों आचार्य शिवपूजन सहाय के सम्पादन में ' साहित्य' और 'परिषद पत्रिका' जैसी शोधपूर्ण पत्रिकाओं का प्रकाशन होता था। वहीं से रामवृक्ष बेनीपुरी जी के सम्पादन में 'नई धारा' और लक्ष्मी नारायण सुधांशु जी के सम्पादन में 'अवंतिका' का प्रकाशन हुआ। लहेरिया सराय से रामलोचन शरण जी की लेखनी अबाध रूप से चल रही थी।यहीं से बच्चों की लाजबाव पत्रिका 'बालक' और 'चुन्नू मुन्नू' का प्रकाशन होता था।दैनिक समाचारपत्रों में पटना से 'आर्यावर्त' ,'दैनिक विश्वामित्र', 'नवराष्ट्र' आदि का प्रकाशन होता था।

पटना में दुर्गापूजा का समारोह बहुत धूमधाम से मनाया जाता था। इस अवसर पर यहाँ देश के वरिष्ठ गायक और वादक आते थे।यहीं मैंने विसमिल्ला खान, भीमसेन जोशी जैसे लोगों को आमने - सामने सुना था। यही हमने आस्सी साल के कंठे महाराज और युवक गोदई महाराज की तबले पर असाधारण युगलबन्दी सुनी थी।सुलताना परवीन उनदिनों युवा थीं ।इन्हे उनदिनों जितना सुनना सुखद था ,उतना ही उन्हें देखना भी। बाद में उन्हों ने मोटापा बढा॰कर अपने श्रोताओं एवं दर्शकों के साथ बडा॰ अन्याय किया।

ये समारोह रातभर चलते और हम दीवानगी से जाग - जाग कर इनका आनन्द उठाते थे। इसकी एक और विशेषता यह थी कि इसके श्रोता कहीं - कहीं पचास हजार से ऊपर की संख्या में होते , लकिन कहीं से कोई 'चूं' तक की आवाज नहीं होती थी।मुझे इस समय का एक प्रसंग अब भी याद है। स्टेशन के पास ही के मंच से विसिल्ला खां साहब शहनाई बजा रहे थे। हजारों लोग आंखें मूँदे और सिर हिलाते हुए उसका लुत्फ उठा रहे थे, तभी एक सज्जन वहाँ से चलने को बेआवाज उठे , तभी विसमिल्ला खाँ साहब की आवाज आई -'हमसे कोई गुस्तखी तो नहीं हो गयी हुजूर!' यह सुनना क्या था कि वे सज्जन चुपचाप बैठ गये और शहनाई की आवाज फिर उसी तरन्नुम के साथ चल निकली।

लोहा सिंह

उनदिनों पटना रेडियो स्टेशन के चौपाल कार्क्रम से जिसदिन 'लोहा सिंह ' धारावाहिक नाटक का प्रसारण होता , उसदिन जहानाबाद ही क्या पूरे बिहार के गली - बजारों में सन्नाटा छा जाता था। हम पूरे परिवार केलोग रेडियो को घेर कर बैठ जाते। बी एन काँलेज के हिन्दी के तत्कालीन प्रोफेसर रामेश्वर सिंह कश्यप लिखित एवं अभिनीत 'लोहा सिंह' केरीकेचर शैली का नाटक था जिसमें एक रिटायर्ड फौजी के दीवानगी भरे चरित्र का मनोरंजक एवं आत्यंतिक चित्रण किया गया था।हिन्दी एवं भोजपुरी मिश्रित , व्याकरण - स्खलित इसकी भाषा इसे और भी रोचक बनाती थी। जोश में जब लोहा सिंह द्वितीय विश्वयुद्ध मेम अपने कारनामोम की चर्चा करने लगते तो उनकी भाषा स्त्रीलिंग - पुलिग के सारे बन्धन तोड॰ देती थी। वहाँ की अग्रेज मेम की याद आते ही उनकी रसिकता भरी दीवानगी बढ॰ जाती और अपनी पत्नी से उनकी नोकझोंक बढ॰ जाती थी।रिटायर्ड फौजी 'लोहा सिंह' के चरित्र में यथार्थ और कल्पना गड्डमड्ड होकर उसे और भी मोहक बना देते हैं। वर्षों बीत गये मगर इस नाटक की खुमारी मुझ पर आज भी है। कईबार इसके डायलाँग मेरे भीतर आज भी गूँजते हैं। मैने उसके बाद ऐसा नाटक न तो देखा, न सुना ।

कल्लू पहलवान

उन दिनों के जहानाबाद की कहानी में कमी रह जाएगी यदि कल्लू पहलवान की चर्चा न की जाए। वे जहानाबाद के सुप्रतिष्ठत पहलवान थे।उन्होंने एक प्रसिद्ध पहलवान को पटक कर यह प्रतिष्ठा प्राप्त की थी।उस विशेष विजय के क्षणों की याद से उनकी आँखें बुषा॰पे में भी चमक उठती थीं। उकदिन हमलोगों के बहुत आग्रह करने पर उन्होंने अपनी विजय की वह गाथा सुनाई -' सबेरे करीब आठ बजे का समय होगा। मैं अपने अखाडे में अपने शिष्यों को दण्ड - बैठक और कुशती के दाव सिखा रहा था।तभी एक ख्यातिप्राप्त पहलवान वहाँ पधारे। मैंने उनका यथोचित स्वागत सत्कार किया।वे मुझसे करीब दुगुने लम्बे - चौडे॰ शरीर के थे।चौडी॰ कसी छाती, प्रचण्ड भुजदण्ड, मोटी जाँघें जैसेकोई घूमता - फिरता शेर हो।मेरे अखाडे॰ मे बजरंगबली की एक मूर्ती थी। सभी आनेवाले उन्हें प्रणाम आवश्य करते थे।मऔंने उस पहलवान में दो बातें गौर कीं। उन्होंने मेरे अखाडे॰ में आते या जाते समय बजरंगबली के सामने अपना सिर नहीं नवाया और मेरे स्वागत - सत्कार पर कोई समान्य - सी औपचारिकता भी नहीं दिखाई। मेरी ोर वे सदा उपेक्षा और अवहेलना से देखते रहे।मुझे बुरा लग रहा था , फिर भी अपना मेहमान समझ कर मैंने उनके सम्मान मेम कोई कमी नहीं की।

जहानाबाद और उसके आसपास मेरे शिष्यों की अच्छी संख्या थी। इसलिए वहाँ जो भी आता वह मेरे पाँ छूता था। वह पहलवान बहुत देर तक यह सब देखता रहा। अचानक उसकी आँखों में प्तिहिंसा - सी जाग उठी। वह उठ खडा॰ हुआ और उसने मुझे चुनौती देते हुए कहा - 'बहुत बडा॰ पहलवान समझते हो अपने को? अगर दम है तो मुझसे एक - दो हाथ करके देखो।' 'मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा था। सुनकर मैं आवाक रह गया। मेरे रोंगटे खडे॰ हो गये।' उस पहलवान ने वहाँ से चलते हुए कहा -' इस गुरुपूर्णिमा को इसी अखाडे॰ में मैं तुम्हें पछाडूँ॰गा ,तैयार रहना।'

यह बात तुरत जहानबाद और आसपास में फैल गयी कि एक बहुत बडे॰ पहलवान से इस गुरु पूर्णिमा को कल्लू की भिडं॰त होगी।वह पहलवान शरीर और बल में मुझसे दुगुना था यह बात मेरी समझ में आगयी थी।मुझे लगा मैंने आजतक जो भी प्रतिष्ठा अर्जित की है ,उसके शेष होने का समय आ गया है। मगर चुनौती, चुनौती है। अगर मैं लड८ने से भाग जाऊँ , तब भी बेइज्ती है और लड॰कर हार जाऊँ तब भी यह शान बचनेवाली नहीं है।मैने बजरंगबली की ओर देखा और यह संकल्प कर लिया कि यह युद्ध मैं अवश्य लडूँ॰गा।यह मेरे प्रभु की इच्छा है।गुरुपूर्णिमा दो दिनों के बाद ही थी।आखिर वह दिन भी आगया। मेरे अखाडे॰ के आसपास सबेरे से ही भीड॰ लगने लगी।

थोडी॰ देर में हम एक - दूसरे के आमने साने थे। मैंने बजरंगबली के सामने अपना सिर नवाया और अखाडे॰ कि पवित्र मिट्टी सिर से लगाकर ताल ठोक दिया।अब मेरे सामने कोई बडा॰ पहलवान खडा॰ नहीं था , एक ऐसा इंसान खडा॰ था जिसने हमारे बजरंगली के सामने अपना माथा नहीं टेका था और हर प्रकार से मेरी अवहेलना की थी। वह पहलवान निशचिंत था कि वह मुझे पटक ही देगा, परन्तु ऊखाडे॰ मेंमैंने उसे सम्हलने का जरा भी मौका नहीं दिया और दौड॰ते हुए मैंे उसकी कमर पकड॰ कर जोरों का झटका दिया। वह इसके लिए तैयर नहीं था । जबतक वह सम्हलता ततक मैंने अपनी पूरी ताकत लगाकर उसे उठालिया और घुमा कर जमीन पर दे मारा। वह आखाडे॰ में गिरा था। खुद मैं भी नहीं समझ पाया कि यह हुआ क्या,मैं जैसे होश में तब आया जब अखाडे॰ चारों ओर लोग उत्साह से चिल्ला रहे थे ' कल्लू पहलवान की जय' और वह पहलवान मेरे अखाडे॰ मे चित्तान पडा॰ समझ नहीं पारहा था कि आखिर यह सब कब और कैसे हो गया !मगर जो होना था सो हो गया। मै जीत चुका था। मैं जोरों से चिल्लया -' जय बजरंग बली ' और उनके चरणों पर लोट गया। उन्होंने मेरी लाज रख ली थी।'

जब मैंने उनकी चमत्कारपूर्ण जीत का कारण पूछा तो उन्होंने कहा -'मेरी जीत का कारण था मेरा त्वरित निर्णय और उसपर टूट पड॰ना और उसकी हार का कारण था उसका अहंकार जिससे वह लड॰ने की जगह यह सोच कर अखाडे॰ में खडा॰ था कि वह मुझे चुटकियों में पछाड॰ देगा। वह सोच रहा था , मैंने कर दिआ ।'

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Friday, April 8, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 28

याद आता है गुजरा जमाना - 2 8

मदनमोहन तरुण

जहानाबाद के वे दिन -2

लोगों के एक स्थान से दूसरी जगह जाने के लिए पाँव से चलनेवाले रिक्सा का प्रयोग किया जाता था। कार एकाध लोगों के पास ही थी। ठाकुर बाबू यहाँ के सबसे धनाढ्य व्यक्ति थे। वे अँग्रेजों के जमाने के रईस थे। शहर में उनके कई राजमहलों जैसे बडे॰ - बडे॰ मकान तथा कई बडे॰ -बडे॰ मिल थे।उनका रहन -सहन उच्चकोटि का था।वे सामान्यतः कभी -कभार अपने विशाल रथ पर निकलते थे। इसमें दो विशाल और स्वस्थ काले घोडे॰ जुते होते थे। पीछे की गद्दीदार चमडे॰ की चमचमाती सीट पर वे स्वयं बैठते थे। यदि कोई महिला भी बैठी होती तो पीछे की सीट को चारों ओर से बन्द कर दिया जाता। इस रथ के पीछे उनका सजाधजा दरवान खडा॰ रहता और आगे की ऊँची सीट पर खास कपडो॰ में सजा रथचालक बैठकर इसे चलाता था। जब कभी यह रथ बाहर निकलता तो लोग उसे देखने के लिए अपने स्थान पर खडे॰ हो जाते थे।

मारवाडि॰यों की शहर में सामान्यतः कपडों की दुकाने थीं। वे अपेक्षया अधिक धनी थे। यहाँ के बाजार में आवश्यकता की हर चीज मिल जाती थी।आसपास के गाँवों के लोग अपनी आवश्यकता की चीजें यहीं खरीदते थे।शहर में दो बैंक थे ।जहानाबाद में पंजाब नेशनल बैंक और जहानाबाद कोर्ट में स्टेट बैंक आँफ ईंडिया।बैक के अलावा जहानाबाद में एक बडा॰ पोस्ट आँफिस और एक सरकारी अस्पताल था।लोग सामान्य रूप से धोती और कुर्ता पहनते थे। गाँधीवादी , खादी का और अन्य लोग अपनी हैसियत के मुताविक सिल्क या महीन सूती का कुर्ता पहते थे। फुलपैंट सामान्यतः सरकारी अधिकारी पहनते थे या थोडे॰ से गिने - चुने लोग। मुसलमान कुर्ता - पाजामा पहनते थे।कुछ के सिर पर टोपी भी होती।मुस्लिम औरतें बुरके से अपना पूरा शरीर ढंके रहती थीं। हिन्दू महिलाएँ साडी॰ पहनती थीं।

चौदह की उम्र पार करते - करते लड॰कियों को भी सलवार - कुर्ता की जगह साडी॰ पहनना पड॰ता था । सोलह से सत्रह की उम्रतक लड॰कियों की शादी सामान्यतः कर दी जाती थी। लड॰की के जन्म के साथ माता - पिता की चिन्ता बढ॰ जाती थी। उनकी पढा॰ई - लिखाई से ज्यादा , परिवार के लोग उनके विवाह की बात सोचने लगते थे। लड॰की की शादी के लिए काफी दहेज देना पड॰ता था।

जहानाबाद में उनदिनों दो प्रमुख स्कूल थे- महात्मा गाँधी हाई स्कूल और मुरलीधर माध्यमिक विद्यालय। इसके संचालक मुरली बाबू शहर के रईसों में थे । लड॰कियों के अलग स्कूल नहीं थे, न तो सहशिक्षा का प्रावधान था। लोग लड॰कियों की शिक्षा की व्यवस्था घर पर ही करते थे।अगर कोई मास्टर पढा॰ने आता तो परिवार का कोई सदस्य पास बैठा उस पर ध्यान रखता था। लोग प्रयास करते कि उन्हें पढा॰ने के लिए कोई बूढा॰ मास्टर रखा जाए।

जहानाबाद में उनदिनों कोई कालेज नहीं था। लोगों को आगे की पढा॰ई करने के लिए पटना या गया जाना पड॰ता था। जहानाबाद का पहला काँलेज, स्वामी सहजानन्द कालेज 1957 में खुला।जबतक इसका अपना भवन नहीं बन गया , तबतक इसे हमारे स्कूल के होस्टल में चलाया गया।मैं इसके प्रथम बैच का विद्यार्थी था।काँलेज के प्राचार्य थे छोटेनारायण शर्मा , ऊँग्रेजी के विद्वान थे और महर्षि अरविन्द के भक्त। बाद में वे उनकी भक्ति में इतने रमे कि कालेज से त्यागपत्र देकर पाण्डिचेरी चले गये और वहाँ से देश - विदेश में जाकर आरविन्द के मतों का प्रचार कने लगे। उनका मुझपर बहुत स्नेह था। जब मैं लालबहादुर शास्त्री अकादमी आँफ एडमिनिस्ट्रेशन में था ,तो वे मुझसे मिलने आए थे।इस कालेज में बहुत ऊच्छे प्राध्यापक थे।उनमें से कुछ को मैं कभी भुला नहीं पाया। दास बाबू हमलोगों को मनोविज्ञान पढा॰ते थे।उनका अध्ययन गहन था ,जिससे उनके अध्यापन में सहजता आगई थी। एक अच्छे शिक्षक के लिए आवश्यक है कि उसे अपने विषय का पूरा ज्ञान हो,परन्तु यह भी आवश्यक है कि वह सहृदय भी हो । उसकी सहृदयता से उसके विद्यार्थी की ग्रहणशीलता बढ॰ जाती है। मदन बाबू हिन्दी के ऐसे ही प्राध्यापक थे। उन की पढा॰ई भी बहुत गहन और रोचक होती थी।उनसे मेरा अच्छा सम्बन्ध था।

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Thursday, April 7, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 27

याद आता है गुजरा जमाना -27

मदनमोहन तरुण

जहानाबाद के वे दिन - 1

जहानाबाद , गया और पटना के ठीक बीच में बसा उनदिनों एक छोटा शहर था। यहाँ से गया और पटना दोनों शहरों की दूरी तीस - तीस किलोमीटर है।आज से पचास साल पहले यहाँ से गुजरने वाली ट्रेनें कोयला और पानी से चलती थीं ।हर ट्रेन यहाँ से आगे की यात्रा के लिए कोयला - पानी यहीं लेती थीं।जहानाबाद को दरधा नदी दो भागों में बाँटती है। इसके दूसरे भाग को 'जहानाबाद कोर्ट' कहा जाता है ,जहाँ उसके सारे महत्वपूर्ण सरकारी कार्यलय हैं। इस पार के रेलवे स्टेशन का नाम भी जहानाबाद कोर्ट है।

यहीं के गाँधी मैदान में उस समय के सारे फुटबाँल मैच खेले जाते थे। मोहन बगान और मुहम्डन क्लब जैसी टीमों की भिडं॰त इसी मैदान में होती थी। मुझे फुटबाल का मैच देखना बहुत पसन्द था।मैं अपने छोटे भाई अजय को साथ लेकर , जहानाबाद से यहाँ तक चलते हुए, करीब दो किलोमीटर की दूरी तय करता था।उस समय मेरी उम्र ग्यारह - बारह साल से अधिक नहीं थी। मैदान के एक सिरे की घास पर बैठे हुए हम दोनों मूंगफली खाते हुए मैच देखा करते थे। अजय की उम्र उस समय नौ साल से ज्यादा नहीं थी।लौटते समय हमदोनों की बहस सामान्यतः ईश्वर के अस्तित्व पर हुआ करती थी और कभी - कभी यह चर्चा इतनी गर्मागर्म होजाती कि हम चलना भूल जाते और रास्ते में खडे॰ होकर बहस करने लगते।

जहानाबाद में उनदिनों बिजली नहीं थी।घरों में लोग किरोसिन तेल से जलनेवाले लालटेन का उपयोग करते थे।बाजार की दुकानों में सामान्यतः पेट्रोमैक्स का प्रयोग होता था। सड॰कों पर जगह - जगह लकडी॰ के खम्भे गडे॰ होते थे , जिनपर चारों ओर शीशे से ढँके बडे॰ -बडे॰ लैम्प होते थे और शाम को एक आदमी इनपर सीढी॰ से चढ॰कर इनके लैम्प में किरासिन तेल भर जाता था । अँधेरा होते ही दूसरा इसे जला जाता ।यह रोशनी सुबह करीब भोर तक रहती थी।यहाँ की सड॰कें सबेरे झाडू॰ से साफ की जाती थीं।

लोगों के घरों में पुराने किस्म के पाखाने थे।जिसे हररोज मेहतर टीन के बडे॰ - बडे॰डब्बों में घर -घर जाकर जमा करते थे और अपने सिर पर उठाकर बाहर ले जाते और एक गाडी॰ पर लाद कर शहर के बाहर एक निश्चित स्थान पर फेक आते थे।यह दृश्य बहुत घिनौना लगता था , परन्तु इसके अलावा उस समय तक कोई अन्य व्यवस्था नहीं थी। बाद में जो मकान बने, उनमें सेफ्टीतैटैंक पाखाने बनने लगे। कुछ वर्षों के बाद सिर पर मल ढोने की प्रथा का विरोध हुआ और हर किसी के लिए घरों में सेफ्टीटैंक पाखाना बनवाना आवश्यक कर दिया गया।

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Tuesday, April 5, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 26

याद आता है गुजरा जमाना -26

मदनमोहन तरुण

माँ ! मैं जा रहा हूँ

अब हमलोग अपने नये मकान में रहने लगे थे।यह एक विशाल मकान था जिसमें हर किसी के लिए अलग - अलग कमरे थे।इसका नाम रखा गया था 'परमानन्द भवन'।मँझिला बाबा के नाम पर, जिन्होने सही अर्थों मैं बाबूजी के पिता की भूमिका निभाई थी।घर से मेरी दादी और बड॰का बाबा भी यहीं आगये थे।

मेरी दादी मेरे पिताजी को बहुत प्यार करती थीं।वैसे तो हर माँ अपने बेटे को प्यार करती है, किन्तु उनका प्यार बहुत ही अनूठा और असाधारण था। बाबूजी एक चिकित्सक थे। वे सवेरे आठ बजे नाश्ता कर औषधालय चले जाते थे, किन्तु उनके जाते समय दादी उन्हें गोद में बिठातीं और उनके सिर पर हाथ रख कर थोडी॰ देर तल्लीनता से आँख मूँदकर अपनी पूरी हथेली उनकी पीठ पर फिराती थीं। बाबूजी भी बच्चे की तरह नियमित रूप से उनकी गोद के पास बैठकर ही औषधालय या कहीं जाते थे। जब दोपहर में वे लौटते तो अपनी जेब से सारे रुपये निकालकर दादी को देदेते। दादी उसे छूतीं और फिर उन्हें देदेती थीं।हमलोग कभी जब चिल्लाने लगते कि -'दादी सारा पैसा बाबूजी को ही देदेती हैं, हमलोगों को नहीं; '-तो वे कुछ पैसे हमलोगों में भी बाँट देती थीं।बाबूजी रात में बारह बजे के बाद ही औषधालय से लौटते थे।दादी यदि उसके पहले सो भी जातीं तो बाबूजी के दरवाजे पर दस्तक देते ही वे चैतन्य होकर जाग जातीं और अपने बेटे का स्वागत करती थीं। बाबूजी के सोने जाने के समय भी वे एक बार अपनी हथेली उनके सिर से पीठ तक जरूर घुमाती थीं। मैंने इस पूरे क्रम को दादी के जीवनकाल में कभी अनियमित होते नहीं देखा। दादी जब नब्बे वर्ष की हो गयीं , तब भी उनके असाधारण पुत्रप्रेम का क्रम नहीं बदला।बाबूजी उससमय तक पाँच बच्चों के पिता हो चुके थे और हमलोग भी छोटे नहीं थे। परन्तु, वे भी दादी के पास एक छोटे बच्चे की तरह ही बैठते।मुझे दादी के बाबूजी के प्रति इस व्यवहार से बहुत हैरानी होती।मेरी माँ तो कभी हमलोगों को इसतरह प्यार नहीं करती ! मैं जब दादी से इसका कारण पूछता तो वे बहुत गंभीर होजातीं। उनकी आँखें आँसुओं से तर होजातीं और वे चुपचाप आकाश की ओर देखने लगतीं। दादी को इस प्रश्न से पीडि॰त होते देखकर न मैंने फिर कभी यह प्रश्न उनसे पूछा , न कभी उन्होंने कुछ बताया। फिर भी मेरे मन में यह सवाल उमड॰ता - घुमड॰ता रहा कि ऐसा क्यों ?

एक दिन मैंने यही सवाल अपने दादाजी से पूछा।सुनते ही दादाजी गंभीर होगये और उनकी आँखे नम होगयीं। परन्तु , उन्होंने दादी के इस आचरण का जो कारण बताया वह असाधारण ही नहीं , अविश्वसनीय एवं अत्यन्त कारुणिक था।

दादाजी ने बहुत दूर देखती निगाहों से डूबी -डूबी आवाज में कहा - 'तुम्हारे पिताजी का जन्म अपने छह भाइयों के बाद हुआ था। वे उनमें सबसे छोटे हैं।'अपने भाइयों में सबसे छोटे ?' मैंने साश्चर्य कहा - 'वे हैं कहाँ ? मैंने तो उन्हें कभी नहीं देखा।' मेरे प्रश्न से दादाजी की आवाज भरभरा गयी और आँखें नम हो गयीं। उन्होंने कहा -' वे नहीं रहे।' कहकर दादाजी थोडी॰ देर चुप रहे फिर उन्होंने कहा -' जब मेरा विवाह हुआ तो मेरी उम्र अठारह साल की थी। तुम्हारी दादी खुले गौरवर्ण की अत्यन्त सुन्दर महिला थीं। पूरे परिवार में यह बहुत दिनों के बाद होनेवाला विवाहोत्सव था।उनके घर में आने के बाद चारों ओर खुशी की लहर फैल गयी।उनका स्वभाव बहुत मधुर था।उन्होंने कुछ दिनों के बाद घर का पूरा दायित्व स्वयं सम्हाल लिआ।हमारा समय बहुत आनन्द से बीतने लगा। विवाह के बाद जब दस साल बीत गये तो लोगों को चिन्ता होने लगी।सभीलोग घर में एक सन्तान की प्रतीक्षा कर रहे थे। मुझे भी चिन्ता हुई।कुछ दिनों बाद मेरे गुरु जी आए। सबने उनके सामने परिवार की चिन्ता रखी। उन्होंने कुछ पूजा -पाठ किया और लगता है ईश्वर ने उनकी प्रार्थना सुन ली।करीब एक वर्ष बाद ही मेरे घर में सोहर ( संतान के जन्म के बाद गाया जानेवाला गीत) की आवाज गूँज उठी।अपनी पहली संतान को देखकर हमलोगों के हर्ष का कोई ठिकाना नहीं रहा।अब मेरा मन कहीं नहीं लगता। मैं दिनभर उसे देखने का कोई - न - कोई बहाना ढूँढ॰ता रहता।वह गौरवर्ण का बहुत ही सुन्दर बच्चा था। उसकी आँखें बडी॰ - बडी॰ थीं।वह धीरे - धीरे बडा॰ होने लगा। समय के साथ उसके कल्लोल से घर का कोना - कोना गूँजने लगा। मैं तो जैसे उसका दीवाना था। कभी भी उसे अपनी आँखों से ओझल होने नहीं देता था। जहाँ जाता उसे अपनी गोद में लिए चलता और कुछ बडे॰ होने पर उसे अपने कंधे पर उठाए चलता।उसके आने से पूरा घर खुशहाली से भर गया।समय कैसे गुजरता है ,यह हमलोगों को पता ही नहीं चलता।

अब वह चलने,खेलने,बोलने और दौड॰ने लगा था।उसकी पढा॰ई आरम्भ होचुकी थी। उसे संस्कृत के बहुत से मंत्र कंठस्थ थे। उसका उच्चारण बहुत साफ था और मस्तिष्क बहुत प्रखर। वह जो याद कर लेता, उसे कभी भूलता नहीं था। वह मुझे कोई काम करने नहीं देता।वह अपनी माँ से गहरा लगाव रखता था और उनके आगे - पीछे लगा रहता।हमारा संसार अब केवल वही था। हमारे जीवन की सारी खुशियाँ उसी में समाहित थीं। हम जैसे एक स्वप्नलोक में जीवित थे।

किन्तु, नियति हमारे पीछे क्या खेल खेलने की योजना बना रही है , यह हम नहीं जानते।

अब उसकी उम्र नौ साल की होरही थी।एकदिन वह अपनी माँ के पास आया।उसने उनके चरण छुए और कहा - 'माँ, मैं जा रहा हूँ।' इसके पहले उसने ऐसा कभी नहीं किआ था। तुम्हारी दादी ने समझा यह उसका कोई नया खेल होगा। उन्होंने हँसते हुऐ उसे बहुत दुलार किआ और उसके सिर पर हाथ फेरतेहुए कहा -'शरारती! जल्दी आना।' कहकर वे काम में लग गयीं। थोडी॰ देर बाद जब वे लौट कर आईं तो देखा कि वह सोया है। दिन में वह कभी सोता नहीं था । देखकर तुम्हारी दादी बहुत चिन्तित हुईं, सोचा कहीं उसे बुखार तो नहीं! घबराई हुई वे उसके पास गईं।ललाट छूकर देखा तो वह एकदम ठंढा था। फिर घबराते हुए उन्होंने उसे जगाने की चेष्टा की तो पाया कि उसके शरीर में किसी तरह की कोई चेतना नहीं है।वे रोती हुई चिल्लाईं और मुझे पुकारने लगीं। आवाज सुनकर मैं दौडा॰ --दौडा॰ आया। वे उसे छाती से लगाए रो रही थीं। मैं कुछ समझ नहीं पया। उसे छूकर देखा। उसका पूरा शरीर बर्फ - सा ठंढा था। नब्ज देखा, उसमें कोई गति नहीं थी। आँखों की पुतलियाँ स्थिर थीं।वह अब इस संसार से किसी दूसरे संसार में जा चुका था। मेरे घर में हाहाकार छा गया। मेरी हँसती - खेलती दुनिया उजड॰ चुकी थी।हमारे जीने का अब कोई अर्थ नहीं रह गया।इसका हमलोगों के मन पर दूरगामी प्रभाव पडा॰। कईबार इच्छा हुई कि इस जीवन का अन्त कर लें, परन्तु इस जीवन के नियम बहुत कठिन हैं। हम किसी अदृश्य के हाथों बँधे हैं।कुछ भी हमारे वश में नहीं है।'

'कुछ दिनों बाद तुम्हारी दादी फिर गर्भवती हुईं और एक और संतान की माँ बनीं। परन्तु , इस बार हमने उसमें कोई दिलचस्पी नहीं ली। बस , यंत्रवत उसकी देखभाल करते रहे। वह उपेक्षित जीवन जी रहा था। एकदिन हमारे गुरुदेव आए। घर की सारी स्थिति को उन्होंने देखा , समझा और कहा - 'कमलेश्वर !यह तुम्हारा वही पहला बच्चा है , जो लौट कर आया है। तुम इसकी जरा भी उपेक्षा मत करो।' गुरु जी की बात सुनते ही उसके प्रति हमारी दृष्टि बदल गयी और हम उसकी देखभाल करने लगे।समय तेजी से आगे बढ॰ने लगा। इस बीच उसके और भी भाई पैदा हुए।उसका नौवाँ साल लगा। एकदिन वह अपनी माँ के पास आया , उनके पाँव छुए और कहा - 'माँ ! मैं जा रहा हूँ।' यह सुनते ही तुम्हारी दादी घबरा गयीं।उन्होंने उसे बहुत जोरों से पकड॰ कर कलेजे से लगा लिआ और चिल्लाईं,- 'नहीं बेटा , नहीं, अब मैं तुम्हें कहीं जाने नहीं दूँगी।' परन्तु इसबार फिर से खेल खत्म होचुका था। वह उनकी गोद में ही दम तोड॰ चुका था।इस तरह एक के बाद एक कर हमारे छह बच्चे ठीक इसी तरह , समान स्थिति में हमें छोड॰ कर चले गये।सातवें पुत्र के रूप में तुम्हारे पिताजी का जन्म हुआ।तब मेरे मँझले भाई परमानन्द ने तुम्हारी दादी से कहा- 'भाभी! इसे आप हमें देदीजिए। हो सकता है यह हमारे भाग्य से जीवित रहे।' संतान के बारे में अब हम करीब - करीब भावहीन से होचुके थे। हमारी स्थिति एक मशीन से अधिक कुछ भी नहीं थी। भाई के ऐसा कहते ही हमने तुरत हामी भर दी। भाई ने जीवन भर विवाह नहीं किया। वह तुम्हारे पिता की हर तरह से देखभाल करते रहे।' मैंने पूछा - 'क्यों , उन्होंने विवाह क्यों नहीं किया ?' दादाजीने कहा -' उनके मन में डर था कि पता नहीं पत्नी कैसे स्वभाव की हो। कहीं वह इसकी उपेक्षा न कर दे और अपनी ही संतान की देखभाल में न रह जाए।' दादाजी ने आगे कहा -' मेरे भाई अपनी भाभी और बेटे को लेकर कामरूप कामख्या गये और वहाँ देवी की हर प्रकार से प्रार्थना और पूजा की। देवी ने उनकी पुकार सुन ली।वे जबतक जीवित रहे तबतक प्रति वर्ष तुम्हारे पिता और अपनी भाभी को लेकर कामरूप कामख्या (आसाम) जाते रहे और देवी की उपासना करते रहे।तुम्हारे पिता का नौवा वर्ष पूरा हुआ। अबतक उनके भाइयों में से किसी ने नौवाँ वर्ष पूरा नहीं किया था।अब हममें नयी आशा बँधी थी।परमानन्द समर्पितभाव से उसकी देखभाल करते रहे और तुम्हारे पिता , गंगाधर, बडे॰ होने लगे। उन्होंने अपनी पढा॰ई की और इतने बडे॰ डाँक्टर बने। परन्तु , उन्होंने सदा मेरे मँझले भाई को ही पिता तुल्य माना। अपने औषधालय का नाम उन्होंने परमानन्द औषधालय रखा और घर का परमानन्द भवन।मेरे छोटे भाई की पत्नी ने भी उनका बहुत खयाल रखा। तुम्हारे पिता उन्हें अपनी माँ की तरह सम्मान देते रहे। अपने इस पुत्र के प्रति तुम्हारी दादी की इतनी भावुकता का यही

कारण है।' कहकर दादाजी चुप होगये।मुझे अपने प्रश्न का उत्तर मिल चुका था।

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Sunday, April 3, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 25

याद आता है गुजरा जमाना -25

मदनमोहन तरुण

मेरा हीनतम आचरण

हमलोग जहानाबाद के पाठकटोली मुहल्ले में रहते थे।वह किराए का बडा॰ - सा मकान था।हमलोगों का अपना मकान उस समय तक नहीं बना था।माँ सबेरे स्टोब पर बाबूजी के लिए नाश्ता बनाती थी।गेहूँ के आटे का मीठा छिलका।पतला और कुरकुरा। वह बाबूजी को बहुत पसन्द था। वे उसके साथ सामान्यतः परबल की तरकारी खाते और एक किलो दूध पीकर औषधालय जाते थे।यह क्रम नियमित रूप से वर्षों चलता रहा। उस समय तक मेरी किसी बहन या भाई का जन्म नहीं हुआ था'।माँ के साथ केवल मैं ही रहता था। मेरी उम्र आठ साल से ज्यादा की नहीं थी। दादी और दादाजी सैदाबाद में ही रहते थे।मँझिला बाबा परमानन्द जी घर पर शायद ही कभी रहते थे।वे उच्च कोटि के योगी , चिकित्सक और प्राचीन ग्रथों की पाडुलिपियों के महान संग्रहकर्ता थे। वे तबतक बाबूजी के साथ रहे ,जबतक उन्हें भरोसा नहीं हो गया कि बाबूजी अब बीमारियों के बारे में स्वयं ही सही और उच्चकोटि का निर्णय ले सकते हैं। आखिर वे ही तो उनके गुरु थे और सही अर्थों में उन्होंने ही उनके पिता के कर्तव्य का पालन किया था। बाबूजी इस बात को कभी नहीं भूले। हमारे बड॰का बाबा जहानाबाद कभी - कभी ही आते थे। जबतक हमारा अपना मकान बन नहीं गया, तबतक मुझे याद नहीं कि वे यहाँ कभी रुके थे।

जहानाबाद के इस मकान को मैं कभी भूल नहीं सकता ,क्योकि यहीं मुझसे मेरे जीवन का सबसे बडा॰ अपराध हुआ था , जिसके लिए मैं स्वयं को कभी क्षमा नहीं कर सका।

मेरे यहाँ दूध देनेवाला ग्वाला जब उसदिन सबेरे मेरे दरवाजे पर आया तो उसके साथ एक बहुत प्यारा - सा छोटा बच्चा था। वह बहुत सुन्दर कपडे॰ पहने हुए था।उसकी भोलीभाली सूरत कृष्ण कन्हैया जैसी लग रही थी। मैं देर तक उस सुन्दर बालक के चेहरे से अपनी आँखें हटा नहीं सका। थोडी॰ देर बाद मेरे भीतर न जाने कब का, कौन - सा छुपा राक्षस जाग उठा।उस दिन के ठीक एक दिन पहले पिताजी ने मुझे एक चप्पल खरीद कर दिया था।वह मुझे इतना पसन्द आया कि मैंने उसे पहना नहीं। उसे साथ लेकर, सिर के नीचे रखकर सोया। मैं वही चप्पल लेकर घर के भीतर से बाहर आया। अबतक ग्वाला वहाँ से जाने की तैयारी कर रहा था।मैं जल्दी से सीढि॰यों से नीचे उतरा और वह चप्पल उस बच्चे के गाल से छुआभर दिया। बच्चा थोडी॰ देर स्तंभित - खडा रहा, फिर उसकी आँखें आँसुओं की धारा बहाने लगीं और वह बिलख - विलख कर रोने लगा। उसके युवक पिता ने उसे कलेजे से लगा लिया और उसे चुप कराने की बहुत कोशिश की, परन्तु वह रोता ही रहा। उसके आँसू थे कि रुकते ही नहीं थे।मैं मूर्ति की तरह पश्चाताप में खडा॰ रह गया।मुझे अपने अपराध का बोध हो चुका था।ग्वाले ने मुझे कुछ भी नहीं कहा। वह अपने बच्चे को गोद में लिए और माथे पर दूध का बर्तन उटाए चुपचाप चला गया।

उस रात मैं जरा भी सो नहीं पाया। उसकी प्यारी - भोली सूरत और उसकी आँसू बरसाती आँखें मेरे सामने से ओझल नहीं हो सकीं। मैंने तय किया कि कल सबेरे वह जैसे ही मेरे घर पर आएगा, मैं उससे क्षमा माँग लूँगा।उसे अपने हाथों से खिलाऊँगा।परन्तु ,वह दिन कभी नहीं आया।मैने ग्वाले से जब पूछा कि उस बच्चे को लेकर क्यों नहीं आया तो ग्वाले ने बताया कि वह यहाँ आने को तैयार नहीं हुआ। वह घर जाकर बीमार होगया। उसके बाद मैंने ग्वाले से जब भी पूछा ,उसने यही बताया कि वह अब शहर में आना नहीं चाहता।

वह बच्चा तो फिर कभी नहीं आया ,परन्तु उसकी भोली , अपमान से आहत, आँसू बहाती सूरत मेरे भीतर सदा के लिए बस गयी। उसने मुझे जैसे मेरे ही कठघरे में खडा॰ कर दिया।मैं आजतक उस अपराध के लिए खुद को क्षमा नहीं कर सका। उसकी वह सूरत मुझे आजतक तड॰पाती है।

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