Total Pageviews

Sunday, October 16, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 85

दिव्य दृष्टि :याद आता है गुजरा जमाना 85

मदनमोहन तरुण

दिव्य दृष्टि

हमारा आंतरिक संसार असाधारण शक्तियों से आपूरित है। हम अपनी जिस शक्ति को विकसित करने का अधिकतम प्रयास करते हैं ,वही विकसित होकर अनेकानेक चमत्कार उत्पन्न करने में समर्थ हो जाती है। दिव्य दृष्टि भी उन्हीं आंतरिक शक्तियों में एक है , जो थोडा॰ - बहुत हर किसी में होती है।

दिव्य दृष्टि के अनेक पक्ष हैं - किसी ऐसी चीज को देखना और उसक हू - ब - हू वर्णन करना जो स्वयं कभी नहीं देखा हो और जो सत्य हो। या भविष्य में घटित होनेवाली घटनाओं को वर्तमान में ही देखलेना और उसका वर्णन करना। किसी आनेवाली विपत्ति को देख लेना और दूसरों को उससे सावधान करदेना ।किसी व्यक्ति को देखते ही उसकी नीयत के बारे में समझ जाना।

सम्भवतः हर किसी के जीवन में कभी - कभी ऐसे पल आते हैं जब कोई अकल्पित चीज हमारे भीतर चमक उठती है और बाद में घटित हो जाती है। मै समझता हूँ , यह हमारे भीतर की वह छुपी शक्ति है या हमारे भीतर की वह सम्भावना है , जिस पर यदि गहराई और निष्ठा से ध्यान दिया जाए तो उसे ध्यान ,शाधना आदि के गहन प्रयोगों से विकसित किया जा सकता है। यह हमारी आंतरिक ऊर्जा हमारे जीवन में बहुत काम आ सकती है। इसका एक पक्ष जीवन के कार्यान्वयन में हमारे शरीर और मन को आत्मिक सहारा है जिसमें आसाधारण क्षमता होती है।कई बार बहुत सामान्य या साधारण आदमी आकस्मिक संकट की घडी॰ में साहस के ऐसे कार्य कर जाता है जो सामान्य जीवन में सम्भव नहीं था। ऐसा नहीं कि उसने ऐसा कुछ करने का संकल्प लिआ था बल्कि उसके जीवन के एक क्षणबिन्दु में अचानक एक ऐसी ऊर्जा उत्पन्न हो गयी , वह चामत्कारिक रूप से कोई आसाधारण कार्य कर गया।

हनुमान जी का अपने छोटे से शरीर को समय - समय पर विशाल बना लेना हमारे भीतर छुपी ऐसी ही ऊर्जा का प्रयोग है।

दिव्यदृष्टि के बारे में मैंने पौराणिक ग्रंथों में पढा॰ था। गीता मे संजय जी द्वारा घर बैठे - बैठे धृतराट्र को युद्धक्षेत्र की समस्त घटनाओं का तात्कालिक विवरण प्रस्तुत कर देना मन की ऐसी ही सिद्ध अवस्था का प्रतिमान है। पहले मैं इन सारी चीजों को पुराणों की एक वर्णन शैली से अधिक महत्व नहीं देता था , परन्तु बाद में मेरी मुलाकात दो ऐसे दिव्यदृष्टि सम्पन्न लोगों से हुई जिन्होंने मेरे सामने बैठे - बैठे मेरे मकान का पूर्ण विवरण प्रस्तुत कर दिया जो वहाँ से मिलों दूर था। ऐेसी बातें उन्होंने केवल मुझे ही नहीं बताईं , बल्कि ऐसे सैकडों॰ लोग हैं जिनके सामने ऐसे रहस्य खोलकर रख दिये जो केवल वही जानते थे।

पंडित घूरन मिश्र एवं पंडित गौरीनाथ शर्मा ऐसे ही लोगों में थे। वे बिहार प्रांत के निवासी थे। एकदिन पंडित गओरीनाथ शर्मा जी मेरे घर आए। घर मैं उनका बहुत स्वागत - सत्कार हुआ। । । पिताजी ने मुझे बताया कि वे दिव्यदृष्टिसम्पन्न व्यक्ति हैं।अगर मैं चाहूँ तो उनसे कुछ पूछ सकता हूँ। उनदिनों मैं विक्रम के एम एम कालेज में लेक्चरर था और किराये के एक मकान में रहता था। वह एक बडा॰ - सा मकान था जिसके ऊपर के कमरे में मैं पढा॰ई - लिखाई करता था। मात्र जिज्ञासावश या उससे भी अधिक गौरीनाथ जी की शक्ति की जाँच के खयाल से मैंने उनसे पूछा - ' अच्छा बताइए, मैं विक्रम के जिस मकान में रहता हूँ , वह कैसा है ? मेरा प्रश्न सुनकर क्षणभर उन्होंने मेरी ओर ध्यान से देखा। उनकी आँखें चमक उठीं। उन्होंने कहा - ' यह आप कैसे मकान में रहते हैं। यह तो जानवरों के रहने का मकान है। इसमें नीचे तो जानवर रहते हैं और उसके ऊपर की मंजिल में उनका चारा रखा हुआ है।' तनिक रुककर उन्होंने फिर कहा -' इस मकान में तीन काली - काली भैंसें हें और दो सफेद - सफेद गायें।यह पूरा मकान मिट्टी का बना हुआ है।' कहकर वे चुप हो गये। तनिकदेर बाद उन्होंने फिर कहा - ' आज से आठ महीना बाद आप नतो उस मकान में रहेंगे , न बिहार में। आपकी पोस्टिंग अन्यत्र हो जाएगी।'उनकी बातें सुनकर मुझे हँसी आ गयी।मैं जिस मकान में रहता था उसके बारे में उन्होंने जो भि बताया उसे जानकर मुझे आश्चर्य हुआ। भी । जिस मकान में मैं रहता था उसे उन्होंने जानवरों का आवास ही नहीं बताया उसके जानवरों की संख्या एवं उनके रंग भी बता दिये। जब कि सच्चाई यह थी कि उस मकान में केवल मैं ही रहता था। उसके आसपास जानवरों का नाम - निशान तक नहीं था। मैंने समझ लिया कि वे भी ठगी का पेशा करनेवाले लोगों में से एक हैं। उसके बाद मैंने उनसे कोई प्रश्न नहीं पूछा और वहाँ से उठकर चला आया।

जहानाबाद में वे करीब एक सप्ताह से ज्यादा रहे। इस बीच सैमकडों॰ लोग उनसे मिलने आए।गौरीनाथ जी ने उनके भूत - भविष्य से सम्बन्धित अनेक प्श्नों के उत्तर दिये और लोग संतुष्ट होकर लौट गये।

चार - पाँच दिनों बाद मैं भी जहानाबाद से विक्रम लौट गया। मैंने गौरी जी को अबतक करीब - करीब भुला दिया था। मेरे सन्दर्भ में प्रत्यक्षतः कोई भी बात सही नहीं थी। एक दिन उस मकान के मालिक करीमन मिआं मुझसे मिलने आए। उन्हें देखते ही गौरी जी की बातें मेरे दिमाग में कौंध गयीं।मैंने योहीं जिज्ञासावश उनसे उस मकान के बारे में पूछा।मेरा प्रश्न सुनकर वे हल्के से मुस्कुराए और कहा - ' चलिए , मेरे घर चलिए।' मैं उनके साथ उनके घर गया। उनका विशाल घर दो भागों में विभक्त था। एक भाग में उनका पूरा परिवार रहता था और दूसरे भाग मे उनके जानवर रहते थे। वे दूध के व्यापारी थे। वे मुझे अपने मकान के जानवरोंवाले भाग में ले गये। वहाँ मैंने देखा कि तीन काली - काली भैंसें और दो सफेद गायें नाद में मुँह डाले भोजन करने में व्यस्त थीं। करीमन भाई ने कहा - ' आपको सच बताता हूँ। मैं दूध का व्यापारी हूँ।आप जिस मकान में अभी आप रहते हैं , उसे मैंने अपने जानवरों के लिए बनवाया था। आपके आने के पहले मेरी तीनों भैसें और दोनो गायें वहीं रहती थीं और मकान के ऊपर के भाग में मैं उनका चारा रखता था। जब विक्रम में कालेज खुला तो यहाँ मकानों की बहुत कमी थी। प्रोफेसर लोग यहाँ बाहर से आ रहे थे। मैंने सोचा क्यों न थोडा॰ और पैसा कमा लूँ। यही सोचकर मैने अपने जानवर यहाँ से हटा लिए और मकान की लीपा - पोती कराकर इसे किराए पर दे दिआ।'

उनकी बातें सुनकर मैं स्तंभित रह गया। गौरी जी ने उस मकान के बारे में उतनी दूरी से जो भी बताया था वह अक्षरशः सही था।

Copyright Reserved By MadanMohan Tarun

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 84

याद आता है गुजरा जमाना 84

मदनमोहन तरुण

अन्ना हजारे : आजादी के बाद की आजादी

जब महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारत का स्वाधीनता संग्राम अपनी चरम सीमा पर था , तब मेरा जन्म हो चुका था। उनदिनों मेरी उम्र कम थी, परन्तु इतनी कम भी नहीं कि मैं गाँधी जी तक ले नहीं जाया जा सकता था। परन्तु उनदिनों बच्चों को बहुत बच्चा और बहुत दिनों तक बच्चा माना जाता था।इसीलिए मुझे वहाँ तक नहीं ले जाया गया और मैं गाँधी जी के दर्शन से वंचित रह गया।इतिहास के उनक्षणों से वंचित रह जाने की टीस कहीं - न- कहीं आज भी मेरे भीतर है।

उन दिनों मेरे गाँव में मेरे फुफेरे भाई प्रतिदिन एक प्रभात फेरी का आयोजन करते थे। खेत में झंडा फहराया जाता और हम बच्चे 'भारत माता की जय, 'महात्मा गाँधी की जय,' वन्दे मातरम’का नारा लगाते हुए पूरे गाँव में घूमते थे।इस आयोजन में धीरे - धीरे सभी उम्र के लोग शामिल हो जाते थे। स्री - पुरुष सभी अपने घरों से बाहर निकल आते थे।सम्भवतः ऐसा करते हुए हर किसी को लगता था कि वह स्वाधीनता के संग्राम में बापू जी के साथ - साथ चल रहा है। भला एक महान सेनानी जब पूरे राष्ट्र का युद्ध लड॰ रहा हो तो दूसरे घरों में बैठे कैसे रह सकते हैं। जहानाबाद के कई लोग गाँधी जी के साथ आन्दोलन में भाग लेने चले गये थे ,जिनमें कई लोग भगत सिंह और चन्द्र शेखर आजाद की शैली में लडा॰ई लड॰ चुके थे। फिदा हुसैन साहब गाँधी जी के घोर अनुयायियों में थे और उे समय - समय पर आन्दोलन में भाग लेने के लिए चले जाते थे। वे समय - समय पर मेरे पिताजी से मिलने मेरे घर आया करते थे। खादी की धोती, कुर्ता ,गाँधी टोपी और चप्पल , यही उनका पहनावा था।उन्हे देखकर मुझे बहुत राहत मिलती थी। वे एक ईमानदार , निष्ठावान और समर्पित गाँधीवादी थे। परन्तु ऐसे लोग जो व्यक्तिगत रूप से गाँधी जी के आन्दोलन में भाग नहीं ले रहे थे ,वे भी अपने को हमेशा उस आन्दोलन से जुडा॰ हुआ महसूस करते थे। इसका कारण यह था कि उस समय पुरे देश में गाँधी और भारत को छोड॰कर और कुछ रह ही नहीं गया था। हर कोई गाँधीमय था। उनदिनों ऐसे लोग भी कम थे जिनके पास रेडियो हो, मगर दिल्ली में कहीं कोई पत्ता भी खड॰कता था तो गाँव - गाँव में उसकी आवाज तुरत सुनाई पड॰ जाती थी।हर कोई हर क्षण अपने बलिदान के लिए तैयार रहता था। आसपास के गाँव जहाँ से पहले चोरी - डकैती की खबरें आती रहती थीं , वहाँ भी चोरी - डकैती बन्द - सी हो गयी थी।एक सच्चे व्यक्तित्व का प्रभाव बहुत व्यापक होता है। वह पूरे परिवेश को अपनी ज्योति से आवृत कर लेता है।

आज अन्ना हजारे जी के आन्दोलन का स्वरूप उनदिनों को फिर से जीवंत कर देता हे। मेरे मन में गाँधी जी के अभियानों को देख न पाने की जो कसक थी, वह कहीं - न- कहीं परितृप्त अवश्य हुई है।

सरकार ने अन्ना जी को आन्दोलन शुरू करने के पहले ही जेल में डाल दिआ जिससे अँग्रेजी हुकूमत की याद ताजा हो गयी। यह स्थिति यह बताने के लिए काफी है कि आज हमारी व्यवस्था किस तरह के विवेकविहीन लोगों के हाथ में है। उनमें संकीर्ण स्वार्थों में लिप्त, भ्रष्टाचारी भीतर से इस हद तक डरे हुए हैं कि उन्हें अन्ना हजारे जैसे आदमी में भी अपना भयंकर शत्रु दिखाई पड॰ता है।ये शासक स्वयम के अलावा और किसी को कुछ भी नहीं समझते । इनकी दुनिया नितांत निजी स्वार्थों तक ही सीमित है। अपनी गद्दी बचाने के लिए वे किसी का भी बलिदान देने को सदा तैयार रहते हैं।

मैं सोचता हूँ कि वह क्या है जिसने अन्ना हजारे को पैदा किया। अन्ना हजारे सामूहिक जनाक्रोश के विस्फोट हैं। यह ज्वालामुखी कुछेक दिनों के उत्ताप की देन नहीं है।

काँग्रेस पार्टी ने इन्दिरा गाँधी के बाद एक भी नेता नहीं दिया। मनमोहन सिंह जी तक आते - आते उसकी नेतृत्व क्षमता करीब - करीब चुक गयी। मनमोहन जी एक नेक, ईमानदार और विद्वान इंसान हैं ,परन्तु उनमें नेतृत्व की कोई भी विशेषता नहीं है। वे सुन सकते हैं , परन्तु कुछ कर नहीं सकते। कुछ बोलने के लिए भी उन्हें किसी और की वाणी के अपने मुँह में प्रवेश करने तक रुकना पड॰ता है। नेहरू परिवार के नगण्य अवशेषों से घिरी काँग्रेस पार्टी को एक ऐसी ही ऐसे ही व्यक्ति की तलाश थी। काँग्रेस में सुयोग्य लोगों की सर्वथा कमी हो ,ऐसा नहीं ,परन्तु शासन को यदि हर हालत में नेहरू - परिवार केहाथ में ही रहना हो तो उन्हें एक 'प्रौक्सी प्राइममिनिस्टर ' की आवश्यकता थी ,मनमोहन जी इस कार्य के लिए सबसे सुपात्र व्यक्ति थे। अतः उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया गया। ऐसे व्यक्ति की छत्रछाया में देश की ऊँची कुर्सियाँ क्रिमिनल्स का आरामगाह बनती चली गयी। चारो ओर घूसखोरी, भ्रष्टाचार का नंगा नृत्य होने लगा। आम पढे॰- लिखे नागरिक की इस व्यवस्था में कोई हैसियत नहीं रह गयी क्योंकि शासन - प्रशासन में अधिकार सम्पन्न घाघ ऊँची कुर्सियों पर बैठ गये और ' तू मेरा हित देख, मैं तेरा हित देखूँगा’ की नीतियों के अन्तर्गत का काम करने लगे।

पराधीन भारत में स्वाधीनता संग्राम में भाग लेनेवाले लोगों से जेल भरे रहते थे, स्वाधीन भारत में जेल ऐसे लोगों से भरे हैं जो कभी मंत्री या ऊँचे पदों पर अवस्थित लोग थे। क्रिकेट जैसे खेल के खजाने से भी अधिकारियों ने अपने घर भर लिए। वे जानते थे कि इसका अंतिम परिणाम कुछ दिनों के लिए जेल है। फिर तो सुख ही सुख है।भ्रष्टाचार का नंगा नृत्य कुछ ऐसा बढा॰ की न्यायाधीशों तक ने अपनी गरिमा कलंकित कर ली। ।

देश के लिए यह सबकुछ असह्य होता जा रहा था ,परन्तु उनके बीच से कोई भी आवाज इतनी ऊँची नहीं बन पा रही थी कि उसमें पूरा भारत अभिव्यंजित हो जाए। इसके लिए एक सर्वसमर्पित , बेदाग और अटल संकल्प से संयुत व्यक्ति की आवश्यकता थी जो पूरे देश की ताकत बन जाए। अन्ना हजारे का अवतार ऐसी ही विकट स्थितियों में पूरे राष्ट्र के संकल्पित आक्रोश के प्रतीक के रूप में हुआ जो भ्रष्टाचरण के दुर्धर्ष प्रतीकों की सत्ता मिटाकर जनाधिकार की पूर्णतः सथापना के लिए प्रकट होगया। पूरा देश भीतर - ही - भीतर एक ऐसे व्यक्तित्व की प्रतीक्ज़ा कर रहा था। क्ाति की भूमि तैयार थी। ऐसे में आन्ना ने जब देश को आवाज दी तो जैसे देश के सभी बन्द दरवाजे अचानक खुल गये और उससे आन्दोलन में शामिल होनेवालों का ताँता लग गया।देश का ऐसा कोई हिस्सा नहीं था जहाँ से लोग नहीं आए।दस साल की उम्र से लेकर सौ साल से भी अधिक उम्र के लोगों ने इसमें हिस्सा लिआ। कुछ लोग आपनी नौकरी तक छोड॰ कर आ गये। अन्ना का यह आन्दोलन सही अर्थों में दूसरी आजादी का आन्दोलन बन गया।

आज लोग अपने छोटे- छोटे बच्चों को अपने कंधों पर बिठाए आ रहे हैं। पूछने पर एक ने बताया कि इसे साथ में इसलिए ले आया हूँ कि यह जब बडा॰ हो तो लोगों को बता सके कि इसने अन्ना जी को खुद अपनी आँखों से देखा था। अपने पिता के कंधे पर बैठा , उत्सुक आँखोंवाला बच्चा मेरे भीतर उतर आता है और मैं सोचता हूँ अगर मुझे भी ऐसे ही गाँधी जी के पास लेजाया गया होता तो आज मेरे मन में इतिहास के उन महान क्षणों से वंचित रह जाने का जो मलाल है, वह नहीं रहता।

अन्ना से वे सबलोग जुडे॰ हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनके आन्दोलन में शामिल हैं और वे भी जो टी .वी .छोड॰ कर नहीं उठते , उनकी हर गतिविधि को आँखों से निरन्तर पीते रहते हैं।

अन्ना ने ठीक कहा है ' न हो चाहे अन्ना , परन्तु क्रान्ति की यह मशाल हमेशा जलती रहे।'

अन्ना समय की प्रगति के साथ और भी मजबूत होते चले जाएँगे। उनका व्यक्तित्व स्मृतिमात्र से लोगों को उनके कर्तव्य की दिशा निश्चित करने में सहायक होगा।

वे धन्य हैं जिन्होंने अन्ना के चारोंओर आशा, निष्ठा, उल्लास और विजय की आकांक्ज़ा से दमकते चेहरों के सैलाब को देखा है, जिनकी न कोई उम्र है , न कोई जाति। किसी राष्ट्र के सामने ऐसे दुर्लभ पल इतिहास में कभी - कभी आते हैं।

Copyright Reserved by MadanMohan Tarun

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 83

याद आता है गुजरा जमाना 83

मदनमोहन तरुण

वे चमकभरी आँखें

टेकारी का सत्येन्द्रनारायण कालेज छोड॰कर मैने विक्रम में महंथ मधुसूदन दास कालेज ज्वाइन कर लिआ। सिनहा।उनदिनों बिहार में जातिवाद का बोलवाला था। कभी भूमिहार लोगो का वर्चस्व होता तो कभी क्षत्रिय लोग उनपर हाबी होजाते।जिस जाति के मुख्यमंत्री होते , उसी जाति का बोलवाला हो जाता। बाबू श्रीकृष्ण सिंह भूमिहार वर्ग के और बाबू अनुग्रहनारायण सिंह क्षत्रिय वर्गों के प्रतीक थे। सिंह। विक्रम का का एम एम कालेज तब खुला था जब विनोदानन्द झा जी बिहार के मुख्यमंत्री थे। इस काँलेज के लिए पैसा महंथ मधुसूदनदास जी ने दिआ था।इस काँलेज के प्राचार्य थे रामचन्द्र मिश्र मधुप जी जो दानापुर के बी.एस कालेज से आए थे ,जहाँ वे मनोविज्ञान विभाग के अध्यक्ष थे। वे एक सज्जन और स्वप्नदर्शी व्यक्ति थे।उस कालेज में कुछ दिनों के बाद स्थानीय लोगों के वर्चस्व के अहम की हेराफेरी शुरू हो गयी जिससे ऊबकर मिश्र जी पुनः वहाँ से वापस दानापुर चले गये। यहसब उनदिनों के लिए कोई नयी बात नहीं थी। ऐसे खेल चलते ही रहते ते। विक्रम कावलेज के अध्यापकोम की नियुक्तियों में जातिवाद का सहारा नहीं लिआ गया था ।वहाँ सभीजाति के अध्यापक थे और कुछ सुयोज्ञ भी थे ।एम एम कालेज अपेक्षया एक सुव्यवस्थित काँलेज था फिर भी मैं जानता था यह मेरा वांछित पडा॰व नहीं ।

इस काँलेज में जो चीज मुझे सबसे अधिक प्रभावित कर रही थी वह थी यहाँ के विद्यार्थियों की आखों में महत्वाकांक्षा की चमक। ऐसी आँखें मुझे बहुत प्रभावित करती हैं। मैं अपनी कक्षाओं में उनकी इस अपेक्षा को खूब हवा देता था।वहाँ के विद्यार्थी मेरे परिवार के सदस्य जैसे हो गये थे।

विक्रम एक छोटा कस्बा था। वहाँ दो - चार दुकाने थीं। सगीर अहमद जी की दुकान में दैनिक जरूरत की चीजें मिलती थी। वे इस कालेज के हेडक्लर्क भी थे। सुयोग्य और सज्जन व्यक्ति थे। एक मिठाई की दुकान थी।एक वैद्य जी थे जिनकी बाद में हत्या होगयी थी।

इन कस्बों में काँलेज खुलने का बहुत महत्व था , चाहे वह टेकारी हो या विक्रम।यदि ये कालेज नहीं खुलते तो आसपास के सैंकडों॰ विद्यार्थी गरीबी के कारण कभी किसी कालेज का मुँह भी नहीं देख पाते।इन संस्थाओं के कारण बहुतों को ग्रैज्युएट बनने का सौभाग्य मिला और लोगों के सपनों को सिंचित होने का अवसर प्राप्त हुआ। बाद में इस काँलेज में एक लड॰की भी पढ॰ने लगी जो सामाजिक दृष्टि से यहाँ एक क्रांति कही जा सकती थी।वह लड॰कों के बीच असाधारण आत्मविश्वास के साथ बैठती।मैं उसका बहुत प्रशंसक था। अन्य विद्यार्थी भी उसके प्रति धीरे - धीरे सहज होते गये थे।उसके पिताजी एक स्कूल इंस्पेक्टर थे और मेरे अच्छे मित्र बन गये थे।

युवकों के भीतर जागता आगे बढ॰ने का उत्साह, उनकी चमकती आँखें , यहाँ की बहुत बडी॰ उपलब्धि थी।

Copyright Reserved By MadanMohan Tarun

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 82

याद आता है गुजरा जमाना 82

मदनमोहन तरुण

मेरी मामी का तोता

प्रकृति अनेकानेक असूझ रहस्यो से परिपूर्ण है। हमारे सामान्य जीवन में भी कई बार ऐसी घटनाएँ होती हैं या किसी का ऐसा अकल्पनीय आचरण होने लगता है कि सामान्य बुद्धि और विवेक से उसे समझना बहुत कठिन हो जाता है। मेरे जीवन में ऐसे कई प्रसंग आए हैं जिन्हें न मैं कभी समझ पाया और न दूसरों ने ही उस रहस्य को मेरी मामी अपने मैके से एक तोता लेकर आयी थीं। वे उसका बहुत खयाल रखती थीं।उस तोते को पानी में फुलाया चना, बेर और अमरूद बहुत पसंद था। मामी यह सब उसे समय पर स्वयम खिलाती थीं। सामान्यतः उसका पिंजरा छप्पर से लटका कर टँगा रहता था । मामी जब भी उसके सामने खडीं होतीं ,वह बडे॰ गौर से उन्हें निहारता रहता। एकटक।

एकदिन एक असाधारण घटना हुई। मेरे मामाजी गया से लौटकर आए थे।मामी उस समय तोते के पिंजरे के पास खडी॰ थीं। उन्हें वहाँ देखकर मामाजी भी उनके पास चले गये। किन्तु यह क्या ? मामाजी को मामी जी के पास खडे॰ देख कर तोता भड॰क गया। वह उन्हें घूरता हुआ जोर - जोर से चिल्लाने लगा और पिंजरे पर जोरों से आक्रमण करने लगा। लगा , जेसे वह पिंजरे को तोड॰कर बाहर निकल आएगा और मामाजी पर आक्रमण कर देगा। इस तोते ने आजतक कभी ऐसा आचरण नहीं किया था।मामा -मामी उसे ऐसा करते देखकर डर गये। उन्हें लगा कि यह पिंजरे से यदि ऐसे ही टकराता रहा तो बुरी तरह घायल हो जाएगा। इसबीच आवाज सुनकर मेरी नानी भी वहीं आगयी। मैं भी बाहर निकल आया। कोई समझ नहीं पारहा था कि आखिर तोते को शांत कैसे किया जाए। इसी क्रम में मामाजी ,मामी के पास से हटकर मेरी नानी के पास चले आए। अब जैसे चमत्कार- सा होगया। मामाजी जैसे ही मामी से अलग हुए , तोता पूर्णत; शांत हो गया। उसे शांत देखकर सबों ने राहत की साँस ली। मामाजी लौटकर फिर से तोते के पास खडी॰ मामी के पास चले आए। परन्तु यह क्या , मामाजी के वहाँ आते ही तोता पूर्ववत असामान्य आचरण करने लगा। अब मामी वहाँ से हट गयीं केवल वहाँ मामाजी रहगये, तोता शांत होगया। अब मामाजी के पास नानी आकर खडी॰ होगयी। तोता शांत रहा। तनिक देर बाद मामी, मामा जी के पास आकर फिरसे खडी॰ होगयीं। शांत तोता दोनों को साथ खडा॰देख कर फिर से बुरी तरह आक्रामक हो गया।

अब यह बात सबकी समझ में आगयी कि तोता मामा -मामी को ही साथ खडे॰ देखकर आक्रामक आचरण करने लगता है। मामी के पास यदि कोई और खडा॰ हो तो वह ऐसा आचरण नहीं करता। तोते के इस आचरण की जाँच के लिए वे दोनों कईबार साथ - साथ खडे॰ हुए और तोते ने बार – बार पहले जैसा ही व्यवहार किया।

वह तोता जबतक जीवित रहा , तबतक वह मामा - मामी को साथ खडे॰देखकर वैसा ही उग्र आचरण करता रहा।

बाद में दोनों ने उसके सामने एकसाथ खडा॰ होना बन्द कर दिया। परन्तु कभी वे भूल से भी साथ खडे॰ होते तो तोता जान देने और लेने की मुद्रा में चिल्लाकर पिंजरे को तोड॰कर बाहर आने का प्रयास करता और कई बार अपने इस उग्र आचरण से वह बुरी तरह लहूलुहान होजाता।

हमलोग तोते के इस आसाधारण आचरण को कभी समझ नहीं पाए।

कभी - कभी मामा जी , मामी जी को छेड॰ते हुए कहते , लगता है यह तोता पूर्वजन्म में आपका पति या घनिष्ठ प्रेमी रहा होगा !

Copyright reserved by MadanMohan Tarun

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 81

याद आता है गुजरा जमाना 81

मदनमोहन तरुण

यह हमारी प्रतिष्ठा का प्रश्न है

बचपन की बात है। मैं पहलीबार अपने फूफा के गाँव गया था।उनके यहाँ घर के शौचालय का उपयोग केवल महिलाएँ करती ही करती थीं। पुरुष शौचकर्म के लिए बाहर खेत में जाते थे।पुरुषों का शौच के लिए घर में जाना सम्मानजनक नहीं माना जाता था। ऐसा करनेवाले की समाज में निन्दा होती थी।लोग प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व जब अँधेरा - अँधेरा रहता तो घर से पानीभरा लोटा लिए निकल पड॰ते।संद्या समय भी सूर्यास्त के पश्चात लोग ऐसा ही करते। इस नियम का पालन मुझे भी करना पडा॰ यद्यपि मुझे इसकी आदत नहीं थी। मेरे घर में ऐसा कोई ठोस नियम नहीं था।

प्रातःकाल शौचकर्म के लिए खेत में जाने के लिए मुझे भी लोटा में पानी भरकर दिया गया। प्रातःकाल। ।लोटा बहुत बडा॰ और भारी था।मेरे लिए उसे उठाना कठिन था। जब मैंने कोई छोटा लोटा माँगा तो उनके चाचाजी ने कहा - नहीं , नही मैं आपको छोटा लोटा कैसे दे सकता हूँ ! लोग यही कहेंगे कि मेरे घर में कोई बडा॰ लोटा नहीं है। यह हमारी प्रतिष्ठा का प्रश्न है।हाँ , आपको स्वयम लोटा उठाकर लेजाने की आवस्यकता नहीं है। हर दिन एक नौकर आपके पीछे - पीछे लोटा लेकर जाएगा।' ऐसा ही हुआ। प्रतिदिन एक नौकर पानी से भरा लोटा उठाकर मेरे पीछे - पीछे चलने लगा। मैं किसी खेत की आल के पीछे बैठ जाता और नौकर लोटा सामने रख देता। शौचकर्म के बाद बडी॰ कठिनाई से मैं उस पानी का उपयोग कर पाता। मुझे यह सब अटपटा लगता था, परन्तु इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं था। मैं वहाँ जबतक रहा तबतक यह सिलसिला जारी रहा। आखिर यह उनकी प्रतिष्ठा का प्रश्न था!

Copyright reserved by MadanMohan Tarun

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 80

याद आता है गुजरा जमाना 80

मदनमोहन तरुण

मेरे फूफा

मैं अपने फूफा का ( मेरे पिताजी की छोटी बहन के पति) फैन था। तब मेरी उम्र बहुत कम थी, परन्तु उनसे जुडी॰ यादें मेरे मन में मिठास घोल देती हैं। बे ब्रिटिश फौज के रिटायर्ड सैनिक थे। एक फौजी की गरिमा उनके जीवन में हमेशा बनी रही। उनकी चालढाल,बोलचाल सबकुछ अलग थी। वे जब भी हमारे यहाँ आते तो हर कोई उनके निकट बैठना चाहता था। उनके आसपास लोगों की भीड॰ हमेशा लगी रहती थी। सामान्यतः वे घर के बाहर नहीं जाते थे। हमारे बाहर के दालान में बडे॰ से पलँग पर उनका साफ - सफ्फाक बिस्तरा लगा रहता , जिसकी चादर हर दिन बदली जाती थी। प्रतिदिन सवेरे नाई उनकी दाढी॰ बना जाता और सप्ताह में एक बार वे बाल बनवाते थे। उनके पहनने के कपडे॰ में कहीं कोई सिकन नहीं होती। वे धोबी के यहाँ से धुल कर आते थे । उनकी शर्ट की जेब में एक सुगन्धित कार्ड हुआ करता था , जिसकी भीनी - भीनी सुगंध चारों ओर फैलती रहती थी।उनकी इस जीवन - पद्धति में मैंने कभी कोई व्यवधान नहीं देखा।

मैं उनके गाँव बारा जाता तो वहाँ मेरी बहुत आवभगत होती थी। उनका एक नौकर सदा मेरी सेवा में रहता और मेरी छोटी से छोटी आवश्यकता का खयाल रखता। सवेरे नित्य कर्म से निवृत्त होते ही एक कटोरे में काजू, बादाम और पिस्ता का नाश्ता आजाता। मेरे लिए उतना सब खाना बहुत कठिन होजाता , किन्तु उनके चाचाजी सामने बैठकर मुझे खिलाते।उसके बाद मुझे कटोरा भर दूध भी पीना पड॰ता।

उनके चाचाजी मांस के बडे॰ प्रेमी थे। कहते हैं वे एक पूरा बकरा भूनते - भूनते खाजाते थे। वे लम्बे -चौडे॰ विशाल शरीर के धनी इंसान थे। उनकी महत्वाकांक्षा थी कि घर के सभीलोग वैसे ही बनें। मैं उनकी इसी महत्वाकांक्षा का शिकार बनता था।

फूफा मुझे टेकारी घुमाने के लिए ले जाते।वहाँ टेकारी महाराज का किला दर्शनीय था। उनका बाघ अभी भी जीवित था। स्वस्थ , तगडा॰ ,दर्शनीय। लोहे की मोटी पइपों से जडे॰ कमरे में वह शान से घूमता रहता था। भयंकरता में एक अद्भुत सम्मोहन भी होता है। इच्छा होती उसकी पीठ छूलूँ।

वर्षों बाद टेकारी में एक कालेज खुला। मेरे एम ए की परीक्षा का रिजल्ट कुछ ही दिन पहले निकला था। मैं सोच ही रहा था कि क्या करूँ कि फूफा का संदेश आया कि मैं वहाँ लेक्चरर के रूप में ज्वाइन कर लूँ। मेरे लिए कुछ और सोचने की आवश्यकता नहीं थी। उनके के पास अधिक से अधीक रहने का अवसर मेरे लिए नौकरी से कहीं अधिक महत्वपूर्ण था। मैं उस कालेज में करीब तीन महीने तक रहा , परन्तु वे दिन सचमुच बहुत सुखद थे। ।

मेरे फूफा एक फौजी होने के बावजूद स्वप्नजीवी थे।यथार्थ की दुनिया से सपनों की दुनिया में उनका आनाजाना लगा रहता था। यह उनके व्यक्तित्व को सम्मोहन प्रदान करता था।

जीवन केवल फूल नहीं , उसकी सुगन्धि भी है , जो अदृश्य रहकर भी उसे सम्मोहन और सरसता देती रहती है।

यथार्थ और उससे परे, दृश्य और अदृश्य के बीच आनाजाना बना रहना चाहिए। अदृश्य छायाकृतियों का देश है। हम वहाँ जाएँ या न जाएँ, वहाँ के लोग हमारे भीतर - बाहर जरूर बने रहते हैं। हमारी अन्तश्चेतना का संवाद उनसे निरन्तर चलता रहता है। आज हमारे फूफा नहीं हैं , किन्तु उनकी उपस्थिति मैं हमेशा अपने आसपास महसूस करता हूँ।

Copyright reserved by MadanMohan Tarun

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 79

याद आता है गुजरा जमाना 79

मदनमोहन तरुण

वहाँ क्या है , जहाँ कुछ भी नहीं है

पढा॰ई समाप्तकर लौटने के बाद मेरी सबसे बडी॰ समस्या थी जीवन-दर्शन की खोज। नौकरी , बडे॰ पद, पैसा और तदर्थ जीवन मुझे पूरी संतुष्टि नहीं दे सकता था।घर में कोई कमी नहीं थी। यदि मैं चाहता तो बिना किसी नौकरी के मजे की जिन्दगी जी सकता था,परन्तु जीवन की जिस विराट , अद्भुत सत्ता का साक्षात कर मैं उसमे लीन होना चाहता था ,उसके लिए पूर्वजों की कमाई सम्पत्ति पर काहिली का जीवन , निश्चित रूप से मेरी उस गरिमा के लिए घातक था ,जिससे कम मैं अपने बारे में कभी सोच भी नहीं सकता था।

विचित्रताओं से भरे इस विराट संसार में एक व्यक्ति के रूप में मेरी सत्ता क्या है ? चाहे जो भी हो,सबसे बडी॰ बात यह है कि मुझे संतुष्टि कहाँ और किस चीज से मिलती है। इससे बडी॰ कोई चीज मेरे लिए नहीं थी। मैं अपने को छूकर , टटोलकर, खूब अच्छी तरह देखना चाहता था। मैं अपना गहन और अंतरंग मित्र बनना चाहता था ।

मैं जानता था कि मेरी सत्ता का बहुत बडा॰ अंश अतिशय सूक्ष्म और अदृश्य है। मैं बाहर का कम और भीतर का आदमी ज्यादा था। मेरे पंख थे , मैं उडा॰न भरता था। मेरे पास दृष्टि थी, जिससे मैं नये - नये संसारों का साक्षात्कार करता था।वहाँ नये मित्र बनाता था।उन सबों की भी अपनी - अपनी रहस्यमय दुनिया थी। हम हमेशा एक - दूसरे के सहयात्री नहीं नहीं थे। सबकी अपनी एक सूक्ष्म सत्ता थी और उतना ही सूक्ष्म लक्ष्य भी था। हम क्षणभर को मिलते फिर कोई नयी छायाकृति आजाती और हम उसमें घुलमिल जाते और फिर किसी और दुनिया का रहस्यमय द्वार खुल जाता।कोई नया क्षितिज दिखाई देता और हम उसमें उड॰ जाते।

ऐसा नहीं कि सामने की दुनिया मुझे अच्छी नहीं लगती थी। खूब अच्छी लगती थी।नदियाँ , वृक्ष चलती हवा ,झुलसाती गर्मी ,वसंत , जडा॰, पशु , पक्षी, सुन्दर चेहरे, मुस्कान , सम्मोहन और देह के सत्य में भी मुझे अथोर आनन्द मिलता था, परन्तु मेरे लिए दुनिया केवल इतनी ही नहीं थी।

मैं तो वह देखना चाहता था ,जो कोई देख नहीं सकता।

Cpyright Reserved by MadanMohan Tarun

Sunday, October 2, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 78

याद आता है गुजरा जमाना 78

मदनमोहन तरुण

भीतर का संसार

बीच -बीच में मैं राँची से जहानाबाद आया करता था।अबतक विवाह के लिए आमंत्रित सभी सम्बन्धी लौट चुके थे। माँ, बाबूजी के पास जहानाबाद लौट गयी थी। मेरी श्रीमती कुछ दिनों तक दादी के पास सैदाबाद में रहीं फिर वे भी जहानाबाद आगयीं।मेरे घर का वातावरण बहुत ही सौमनस्यपूर्ण था। हर किसी को अपने ढंग से जीने की स्वतंत्रता थी। कोई किसी के जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता था।मैंने देखाकि मेरी श्रीमती परिवार में पूरी तरह घुलमिल चुकी है।मेरी दो बहनों में से एक का जन्म मेरे विवाह के करीब पाँच साल पहले ही हो चुका था। मेरी श्रीमती से उसका गहरा लगाव जो उस समय से हुआ सो अबतक बना हुआ है।हमलोगों का जहानाबाद का मकान बहुत विशाल था। उस में हमसबों के लिए अलग- अलग कमरे थे।मुझे पुस्तकों से बहुत लगाव था। मैं अपने पाकेट खर्च का पैसा पुस्तकें खरीदने में ही खर्च करता था। मेरा कमरा पुस्तकों से भरा था।उसमें प्रेमचन्द , जैनेन्द्र कुमार, इलाचन्द्र जोशी, चतुरसेन शास्स्त्री , भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर , अज्ञेय , दिनकर आदि का तबतक प्रकाशित पूरा साहित्य था। मुझे यह देख कर अतिशय प्रसन्नता हुई कि मेरी पत्नी में भी पढ॰ने के प्रति गहरीआसक्ति उत्पन्न हो चुकी थी और वे मेरी अनुपस्थिति में अधिकतम पुस्तकें पूरे मनोयोग से पढ॰ चुकी थीं और आवश्यकता पड॰ने पर उनपर अच्छी - खासी बहस भी कर सकती थीं।

जैनेन्द्र , इलाचन्द्र जोशी तथा अज्ञेय ने हिन्दी साहित्य को एक नया मोड॰ दिया था। ये मूलतः मानवमनोविज्ञान के लेखक थे जिन्होंने हिन्दी साहित्य को बाहरी घटनाओं की अपेक्षा मन के भीतर के संसार की ओर मोडा॰ था। जैनेन्द्र के अधिकतम पात्रों में मन और तन के बीच कभी - कभी गहरा द्वंद्व उत्पन्न होता है, जिसमे बहिर्सम्बन्धों और स्थूल रिश्तों पर आधारित नैतिक , परिवारिक सम्बन्धों की कडि॰याँ चरमरा जाती हैं और पाठक उनपर नये सिरे से विचार करने को बाध्य होता है। इलाचन्द्र जोशी के अधिकतम उपन्यास उनके पात्रों के मनोलोक की गाथाएँ हैं जिनका अपने बाहरी संसार से टकराव होता है।अज्ञेय का 'शेखर एक जीवनी,'नदी के द्वीप', 'अपने - अपने अजनवी' आदि उपन्यास आदमी की उस मूल चेतना की खोज की निष्पत्ति हैं जिसे समाज के बाहरी बन्धनों में इस हद तक जकड॰ देने की चेष्टा की गयी है कि वह अपने भीतर की मूल चेतना तक पहुँचने का साहस नहीं कर पाता। जैनेन्द्र , अज्ञेय आदि की कृतियों के पात्र ऐसी ही स्थितियों के विरुद्ध बगावत की उपज हैं। हिन्दी के नये उपन्यासों में स्त्री - पुरुष के आचरण के अलग - अलग मानदंडों की सार्थकता की गहरी छानबीन हैं और उनके प्रति विद्रोहपूर्ण अस्वीकृति है।

इन उपन्यासों के बीच फणीश्वरनाथ रेणु का महाकाव्यात्मक उपन्यास 'मैला आँचल' वसंती हवा के झोंके-सा आया और अपनी ताजगी के कारण चारों ओर छा गया।यह टेप रिकार्डिंग की शैली में लिखा गया उपन्यास है जो व्यक्ति से अधिक गाँव के जीवन के बदलते आयामों एवं उसकी चुनौतियों का बहुत निकटता , उससे भी अधिक अत्यंत आत्मीयता से उसका साक्षात्कार प्रस्तुत करता है।

इन विषयों पर अपनी पत्नी के साथ मेरी विस्तार से चर्चा होती थी ।घर - गृहस्थी की सामान्य चर्चाओं में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी। मैं यथार्थ और कल्पना, इन दो संसारों के बीच का प्राणी था। मैं ऐसी छाया मूर्तियों के साथ आज भी अपना सबसे अधिक जीवन बिताता हूँ जो दूसरों को दिखाई नहीं देते। दुनिया केवल बाहर ही नहीं है , हमारे भीतर का संसार उससे कहीं अधिक विस्तृत है और वह हमें कहीं अधिक राहत देता है।

मैं चाहूँ तो बिना एक शब्द बोले जीवनभर रह सकता हूँ। जैसे वृक्ष एक ही जगह टिके रहते हैं , कहीं आते - जाते नहीं , वैसे ही मैं एक ही जगह पर अपना पूरा जीवन बिता सकता हूँ। भले दूसरों को लगे कि मैं स्थिर हूँ, परन्तु सच तो यह है कि मैं निरन्तर अपने भीतर के संसार के अनकानेक लोकों की यात्रा पर रहता हूँ।

मुझमें ध्यान - साधना की वृत्ति बचपन से ही रही है, किन्तु उम्र के साथ ही उसमें गहनता आती गयी है। कई बार मैं चार - से - पाँच घंटों तक ध्यान पर बैठा रह जाता हूँ।भीतर के लोकों के लोगों से मेरा गहरा सम्बन्ध है।उनके साथ रहने में मुझे कोऐ कठिनाई नहीं होती। कई बार मैं अंकुर से वृक्ष बनने की बहुत ही कष्टदायी प्रकृया से गुजरता हूँ। शाखा - शाखा, पत्ती- पत्ती फूटता हूँ।फूल - सा खिलता हूँ और सूक्ष्म सुगन्धि बनकर चारों ओर फैल जाता हूँ। मैं अतीत और वर्तमान में ही नहीं भविष्य की भी यात्रा करता हूँ और कई बार मेरा अनागत से साक्षात्कार हो आता है। मेरे पास ऐसी कई दैवी अनुभूतियाँ हैं जो वर्षों बाद ठीक उसी रूप में घटित हुईं जैसा मैंने अपने भीतर उन्हें वर्षों पहले घटित होते देखा था।मेरे लिए कल्पना और यथार्थ में अन्तर कराना कई बार कठिन हो जाता है।

Copyright reseved by MadanMohan Tarun

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 77

याद आता है गुजरा जमाना 77

मदनमोहन तरुण

हिन्दी साहित्य का उत्कर्ष काल -2

यह किसी भी दृष्टि से हिन्दी साहित्य का विवेचन नहीं है।संस्मरण की अपनी सीमा होती है ।यहाँ जो भी लिखा गया है उसे सीमित स्मृतियों की छाया भर मानना ही उचित होगा। मैंने स्वतंत्र रूप से -Makers of Hindi literature - शीर्षक से MadanMohan Tarun . Sulekha .com के अन्तर्गत हिन्दी के 1०० से भी अधिक लेखकों पर लिखा है, जिसेआप चाहें तो देख सकते हैं।

हिन्दी साहित्य के उन लेखकों को हम ऊपने विद्यार्थी जीवन में दीवानगी के साथ याद करते थे जिन्होंने अकेले ही अपने निजी सृजन- लेखन और एवं संगठित प्रयासों से हिन्दी भाषा और साहित्य को उन ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया , जो सैंकडों॰ लेखक एक साथ मिल कर भी नहीं कर सकते थे। इन लेखकों ,सम्पादकों एवं प्रशासकों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र , महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल , मैथिली शरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद , प्रेमचन्द एवं अज्ञेय सर्व प्रमुख हैं। भारतेन्दु हिन्दी कविता में तो खडी॰बोली की प्रतिष्ठापना नहीं कर सके, परन्तु उन्होंने अपने नाटकों मे हिन्दीभाषा का जो रूप प्रस्तुत किया , वह सही अर्थों में हिन्दी का स्वाभाविक विकासशील रूप था। उन्होंने अपने सम्पादन से हिन्दी के समर्पित लेखकों की एक सेना - सी तैयार की , जिनमें से कई ने हिन्दी भाषा एवं साहित्य -शैली के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान किया।महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने द्वारा सम्पादित 'सरस्वती' से हिन्दी को विषयगत एवं वैचारिक विशदता तो प्रदान की ही , उन्होंने भाषा की दृष्टि हिन्दी को सजाते - सँवारते और अनुशासन सिखाते हुए कई विशिष्ट लेखक दिये। मैथिलीशरण गुप्त के निर्माण में उनका महत्वपूर्ण योगदान है, जिन्होंने हिन्दी कविता को संस्कृत के अतिरिक्त प्रभाव से बचाते हुए उसे सहज - सरल रास्ते पर लाया और विशद रूप से हिन्दी के पाठकों को वह कविता दी जिसने उन्हें संतृप्त किया। जयशंकर प्रसाद ने हिन्दी कविता और गद्य को अपने नाटकों द्वारा उन ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया जिसे तय करने में अन्य भाषाओं को काफी समय लगा। 'कामायनी' हिन्दी साहित्य को उनका ऐसा ही अवदान है। प्रेमचन्द हिन्दी के सबसे सहज और स्वाभाविक लेखक हैं जिन्होंने हिन्दी कथा - साहित्य को विश्वस्तरीय ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का जो इतिहास प्रस्तुत किया , उस ऊँचाई को हमारे लेखक आज भी प्राप्त नहीं कर सके हैं। हिन्दी के आधुनिक लेखकों में अज्ञेय ने साहित्य के क्षेत्र में अपना विशिष्ट रचनात्मक योगदान तो दिया ही , उन्होंने सही अर्थों में साहित्य का कुशल प्रशासन किया। 'तार सप्तक' के चार सम्पादित एवं संकलित खंडों में उन्होंने हिन्दी कविता की प्रयोगवादी धारा एवं नई कविता को सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया।

इन लेखकों एवं सम्पादकों का उल्लेख करते हुए हम गीताप्रेस , गोरखपुर के प्रकाशक लेखक एवं सम्पादक हनुमानप्रसाद पोद्दार जी को नहीं भूल सकते जिन्होंने अत्यन्त सस्ते दामों पर रामायण , महाभारत और गीता को उच्चस्तरीय हिन्दी अनुवादों सहित भारत के उन पाठकों तक भी पहुँचा दिया जिनमें पढ॰ने कीआदत नहीं थी और जो पढ॰ नहीं सकते थे, उन्होंने भक्ति से अभिभूत होकर इन पुस्तकों को सुना , गाया और संतृप्ति प्राप्त की।

इन कृतियों और कृतिकारों के उद्भव के पीछे अपने पूरे युग का उद्वेलन छुपा हुआ था।उनदिनों पराधीन भारत विभिन्न स्तरों पर , विभिन्न विचारधाराओं के अन्तर्गत अपनी स्वाधीनता की लडा॰ई लड॰ रहा था।तिलक, सुभाषचन्द्रबोस,सरदार भगतसिंह आदि और महात्मा गाँधी देश की जनता के असाधारण प्रेरणा स्रोत बने हुए थे।गाँधी जी के आन्दोलनों ने इस देश के जन-जन को स्वाधीनता सेनानी बना दिया था, जहाँ मार कर नहीं, मरकर जीतने का या मंत्र फूँका गया था। दुनिया इस अनूठी युद्धनीति से हैरान थी। यहाँ पहली बार युद्ध में शरीर नहीं , आत्मा को योद्धा बनाया गया था।देश की स्वाधीनता सुनिश्चित है, इस हर कोई आश्वस्त था । यह जीने - मरने की लडाई थी। अब कोई भी पराधीन रहने को तैयार नहीं था।

अंततः देश अपने महान मानवीय मूल्यों से किसी भी प्रकार का समझौता किए बिना एक अद्भुत ,असाधारण अहिंसा की लडाई लड॰कर स्वाधीन हुआ , किन्तु स्वाधीनता के साथ ही उसे हिंसा के दानवों ने चारों ओर से घेर कर अपने ही लोगों के रक्तप्लावन का जो खेल खेला उससे इंसानियत का सिर नीचा होगया। देश के विभाजन के लिए आगजनी, बलात्कार, लूट ,हत्या का नंगा खेल खेला गया और देश को चीर कर खंडित कर दिया गया। वह खेल आज भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है और समय- समय पर वह अपना विकृत चेहरा दिखाता रहता है।

इन्ही दिनों मानवमूल्यों के प्रतिमान देश चहेते बापू का सीना छलनी कर दिया गया।

इन्हीं चीत्कारों, कराहों के बीच स्वाधीन भारत ने उस प्रजातंत्र की स्थापना की जिसकी आजादी उसके जन- जन के सतत समर्पित आमरण युद्धों का परिणाम थी।

समग्र भारतीय साहित्य पर इसकी गहरी छाया लम्बे अरसे तक बनी रही और भारत की अधिकतम भाषाओं के साहित्य में इसकाल में कालजयी कृतियाँ प्रस्तुत की गयी क्योंकि इन घटनाओं के गहरे प्रभाव के भीतर ही हर किसी में एक नये भारत की रचना का उत्साह और अटूट संकल्प था।

आगे चलकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्येतिहास को मौलिकतापूर्वक आगे बढा॰या ,कबीर का नया मूल्यांकन प्रस्तुत किया तथा रचनात्मक क्षेत्र में 'चारुचन्द्रलेख' जैसा उपन्यास प्रस्तुत किया।आचार्य द्विवेदी के साथ ही रामविलास शर्मा ने हिन्दी समालोचना को एक नये परिप्रेक्ष्य में विकसित किया।

हिन्दी कथा -साहित्य में प्रेमचन्द के बाद ञशपाल निर्विवाद रूपसे सबसे बडे॰ कथाकार थे जिन्होंने एकओर तो जीवन और सामाजिक व्यवस्था मे नये मूल्यों की स्थापना पर बल दिया वहीं अपने महाकाव्यात्मक उपन्यास 'झूठा सच' में स्वाधीनता संग्राम और उसके बाद की राजनीतिक स्थितियों को निर्मम सच्चाई के साथ प्रस्तुत कर दिया।

कविता के क्षेत्र में मैथिलीशरण गुप्त जी ने राम और कृष्ण को नये कलेवर में प्रस्तुत किया तथा बुद्ध की जगह यशोधरा को ठीक उसी तरह प्रतिष्ठापित किया जैसे अपने महाकाव्य 'साकेत' में उन्होंने सीता की जगह लक्षमण की पत्नी उर्मिला के त्याग को अधिक महत्व प्रदान किया था।

रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी ओजस्वी वाणी से हिन्दी को एक जाग्रत भाषा और अभिव्यक्ति का वाहन बनाया। उनके इतिहास ग्रन्थ 'संस्कृति के चार अध्याय' तथा उनके महाकाव्य 'उर्वशी' पर हिन्दी में कई ओछी चर्चाएँ हुईं जो हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक महत्वपूर्न अंग है।

हरिवंशराय बच्चन जी ने अत्यन्त सहज -स्वाभाविक हिन्दी में उमर खैयाम की रुवाइयों का अनुवाद अपनी खास मौलिकता के साथ प्रस्तुत किया।बाद में उनकी अविस्मरणीय जीवनी 'क्या भूलूँ , क्या याद करूँ' का प्रकाशन हुआ।

हमारे विद्यार्थी जीवन के समय हिन्दी साहित्य सृजन, समालोचना,पत्रकारिता और प्रकाशन की दृष्टि से निरन्तर गतिमय उत्साह से भरा समय था। कल्पना ,कहानी ,ज्ञानोदय, आलोचना माध्यम, लहर,नईधारा , सारिका आदि उच्चकोटि के मासिक प्रकाशन थे तथा साप्ताहिक हिन्दुस्तान और धर्मयुग अपनी लोकप्रियता की चोटियों पर थे। भाषा और साहित्य की समृद्धि में इन पत्रिकाओं का विशिष्ट योगदान था। इन्हीं दिनों अज्ञेय जी द्वारा सम्पादित विशिष्ट साप्ताहिक 'दिनमान' का प्रकाशन हुआ जो हिन्दी के पाठकों के लिए एक नया अनुभव था।राजनीति, समाज, संस्कृति और साहित्य की साम्प्रतिक गतिविधियों को यह पत्रिका पूरी गहराई और गंभीरता के साथ भारत और शेष विश्व के सन्दर्भ में प्रस्तुत करती थी।पत्रकारिता के प्रकाशन क्षेत्र में यह हिन्दी के पाठकों की महत्वाकांक्षाओं को परितृप्त करनेवाली पत्रिका थी। हिन्दी में ऐसा प्रकाशन फिर आजतक नहीं हुआ।

इसके साथ ही उन्हीं दिनों हिन्दी में देश - विदेश की विशिष्ट कृतियों के अनुवादों का प्रकाशन हो रहा था। इन्हीं दिनों मैने रूस के कालजयी कृतिकारों मे टाल्सटाँय, गोर्की, चेखोप, तुर्गनेव, दास्तावस्की आदि की कृतियों क अध्ययन किया था। इन्हीं दिनों मैंने बँगला के अधिकतम वरिष्ठ करतिकारों को पढा॰ था। रवि बाबू की 'संचयिता' मैं बँगला में खरीद लाया था और मूल में उसका आनन्द उठाने के लिए मैंने मनोयोग से बँगला भाषा सीखी थी।राँची के प्लाजा सिनेमा हाल में मुझे बँगला और अँग्रेजी की अधिकतम फिल्में देखने का अवसर मिला जिसके लिए मैं उस सिनेमा हाल का आभारी हूँ।

उन्हीं दिनों 'हिन्द पाकेट' बुक्स ' ने महज एक रुपये में विश्व की महानतम कृतियों को पाठकों तक पहुँचा दिया। प्रकाशन का इतना क्रान्तिकारी कार्य हिन्दी में फिर कभी नहीं हुआ।हाँ, बाद में हिन्दी प्रचारक संस्थान नेहिन्दी के महान कृतिकारों की ग्रंथावलियों का सस्ते दाम पर सराहनीय प्रकाशन किया।

ऐसे प्रयासों से किसी भाषा को फलने- फूलने में सहायता मिलती है।

copyright reserved By MadanMohan Tarun

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 76

याद आता है गुजरा जमाना 76

मदनमोहन तरुण

हिन्दी साहित्य का उत्कर्ष काल -1

जिन दिनों मैं अपनी पढा॰ई कर रहा था वह साधारण समय नहीं था। वह हिन्दी भाषा और साहित्य के उत्कर्ष का समय था। जिन लेखकों , कवियों ,विचारकों एवम सम्पादकों ने हिन्दी साहित्य को गरिमापूर्ण ऊँचाइयों तक पहुँचाया , उनमें से अधिकतम की लेखनी पूरी जीवंतता के साथ उन दिनों इस उत्कर्षकार्य में सक्रिय थी।जिस छायावादी आन्दोलन ने हिन्दी को सही अर्थों में एक सम्मानपूर्ण एवम अपरिहार्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठापित किया ,उसके चार महान हस्ताक्षरों में तीन जीवित ही नहीं थे, निरन्तर लेखनरत भी थे। जयशंकर प्रसाद जी का निधन हो चुका था। वे कई दृष्टियों से हिन्दी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचनाकार थे। उन्होंने कहानी, उपन्यास, नाटक,निबन्ध और कविता हर क्षेत्र में अपनी अनूठी सृजनात्मकता के रंगों की बारिस की , किन्तु कविता और नाटक के क्षेत्र में उन्होंने जिन आभामय शिखरों का आरोहण किया , उनसे हिन्दी साहित्य को एक ऐसा प्रकाश मिला जो कभी धूमिल नहीं होगा। प्रसाद दुनिया के अपरिहार्य साहित्यकार हैं। यदि आप साहित्य के अध्येता हैं और प्रसाद को नहीं पढा॰ है, तो निस्सन्देह आप किसी बहुत बडी॰ विभूति के साक्षात्कार से वंचित रह गये हैं।

यदि आप प्रसाद को पढ॰ना चाहते हैं तो साहित्य अकेदमी द्वारा प्रकाशित 'प्रसाद रचना संचयन ' कभी न खरीदें।पता नहीं इसके सम्पाकों ने किस बुद्धि - विवेक से परिचालित होकर इसमें 'ध्रुवस्वामिनी' और 'चन्द्रगुप्त' जैसे नाटकों को सम्मिलित नहीं किया है, जो इस क्षेत्र में प्रसाद की सबसे बडी॰ देन है। 'ध्रुवस्वामिनी' नाटिका का विषय परम्परागत समाज में एक ऐसा विष्फोट है जिसके सात फेरोंवाले हवनकुंड की चिनगारियों में ऐसी कई सम्पूजित गाँठें जलकर खाक हो जाती हैं जो युगों तक स्त्रियों के गले में दमघोंटू फाँसी का फंदा बनी रही हैं।

'कामायनी' महाकाव्य मनु और श्रद्धा की पौराणिककथा का सूक्ष्माधार लेकर चलती है। वहाँ न देह की उपेक्षा है , न आत्मा की -

प्रकृति के यौवन का शृंगार , करेंगे कभी न बासी फूल;

मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र, आह उत्सुक है उनकी धूल।

पुरातनता का यह निर्मोक ,सहन करती न प्रकृति पल एक;

नित्य नूतनता का आनन्द, किए है परिवर्तन में टेक।

युगों की चट्टानों पर सृष्टि,डाल पदचिह्न चली गंभीर;

देव, गंधर्व, असुर की पंक्ति ,अनुसरण करती उसे अधीर।

---

और यह क्या तुम सुनते नहीं, विधाता का मंगल वरदान-

'शक्तिशाली हो विजयी बनो', विश्व में गूंज रहा जयगान।

डरो मत अरे अमृत संतान अग्रसर है मंगलमय वृद्दि;

पूर्ण आकर्षण जीवन केन्द्र ,खिंची आवेगी सकल समृद्दि।

श्रध्दा

प्रसाद की 'कामायनी' को लेकर हिन्दी में कई विवाद और बकवास हुए हैं, जो निस्सन्देह उन 'समालोचकों' की समझ की सीमाओं को उजागर करनेवाले हैं।

प्रसाद की 'कामायनी' को यदि आप हिन्दी से हटा दें तो ,कविता के क्षेत्र में आप बहुत बडे॰ छूछेपन का अनुभव करेंगे। किन्तु , 'कामायनी' मात्र इसीलिए अपरिहार्य नहीं है, वह हमें कविता और सृजनात्मकता की कई ऐसी अलंघित ऊँचाइयों के पार ले जाती है जिसे किसी भाषा ने पहली बार देखा और अनुभव किया है।

छायावाद के चार स्तम्भों में तीन - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला , सुमित्रानन्दन पंत तथा महादेवी वर्मा - मेरे अध्ययनकाल में सक्रिय थे। हमलोगों को उनसबों की कविताएँ पढा॰ई जाती थीं।

सच तो यह है कि इन कवियों को अधिक गंभीरता से मैंने अपने काँलेज और विश्वविद्यालय के दिनों के बाद पढा॰। छायावाद के ये सभी कवि असाधारण थे।इन सभी कवियों की अपनी विल्कुल अलग पहचान थी , यद्यपि ये सब एक विशेष रचना - धारा के प्रवर्तक थे।

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने कोई महाकाव्य तो नहीं लिखा ,परन्तु स्वयं उनका व्यक्तित्व महाकाव्यात्मक था और वे अपनी निराला जीवन - पद्दति के कारण एक मिथ बन चुके थे। उनके अध्येताओं की तुलना में उनके भक्तों की संख्या बडी॰ थी। लोग दूर - दूर से उनके दर्शन के लिए आया करते थे।स्वयं मेरे मित्रों में कई उनके दीवानों में थे और उनके दर्शन के बाद अपने आप को धन्य समझते थे।

पत्र - पत्रिकाओं में उनके बारे में सदा कुछ - न- कुछ छपता रहता था।

बाँकेबिहारी भटनागर द्वारा सम्पादित 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' हमारे विद्यार्थीकाल का सुप्रतिष्ठित प्रकाशन था। मैं बडी॰ दीवानगी के साथ इस पत्रिका के नये अंकों की प्रतीक्षा करता था।

इसकी सम्पादकीय टिप्पणियाँ बहुत निर्भीकतापूर्ण होती थी साथ ही इसमें उच्चकोटि के साहत्यिक लेख भी छपते थे।इसके अधिकतम अंकों में निराला जी के बारे में कुछ- न –कुछ छपता रहता था। निराला जी की नई -से - नई कविता उन्हीं के हस्ताक्षर में इसके मुखपृष्ट पर छपती थी। मैं निराला जी के दीवानों में था और मैं वर्षों निराला जयंती का आयोजन करता रहा जिसमें लोग उत्साहपूर्वक भाग लेते थे।

निराला एक महान कवि थे।भाषा पर उनका अधिकार असाधारण था।एक ओर जहाँ उन्होंने संस्कृतगर्भित सामासिक कविता ' राम की शक्तिपूजा' लिखी तो दूसरी ओर 'सरोजस्मृति' कविता में अपनी पुत्री की मृत्यु से आहत विकल निराला का हृदय तरल होकर बह निकला।इस कविता में एक ओर जहाँ पुत्री की स्मृत पूर्व छवियाँ कवि को आहत करती हैं, वहीं अपनी ही जाति - बिरादरी की हृदयहीनता पर कवि आक्रोश से भर उठता है और उसकी भाषा रुक्ष हो जाती है।

निराला को पढ॰ते हुए कई बार ऐसा लगता है कि , चाहे वह उनकी कविता हो या उपन्यास, हम उनके निजी जीवन से गुजर रहे हैं।'राम की शक्तिपूजा' में राम जब व्यथित होकर कहते हैं -

'धिक जीवन जो पाता ही आया है विरोध, धिक साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध !

जानकी ! हाय उद्दार प्रिया का हो न सका !'

तो लगता है इसमे स्वयम निराला के निजी जीवन की पीडा॰ बोल रही है। निराला का व्यक्तिगत जीवन बहुत ही कठिन था। उनके मन में यह पीडा थी कि हिन्दी संसार उनका सही मूल्यांकन नहीं कर सका । वे अपने बारे में बहुत ऊँची धारणा रखते थे। 'तुलसीदास' निराला की लम्बी कविता है। वह हि्दी भाषा और साहित्य को उनके द्वारा प्रदत्त एक अनूठा उपहार है जिसका मूल्यांकन अभी बाकी है।

छायावाद की कविताओं को पढ॰ते समय एक और बात ध्यान देने योग्य है। प्रसाद की 'कामायनी' और निराला के 'तुलसीदास' काव्यों की रचना पराधीन भारत में हुई है , इसलिए इनमें विभिन्न प्रसंगों पर आजादी का तुमुलनाद है , कहीं स्पष्ट उद्बोदन है , तो कहीं प्रच्छन्न उत्प्रेरण ।

'तुलसीदास' में वे लिखते हैं-

'जागो - जागो आया प्रभात ,बीती वह बीती अन्ध रात'

झरता भर ज्योतिर्मय प्रपात पूर्वाचल,

बाँधो ,बाँधो किरणे चेतन, तेजस्वी, हे तमजिज्जीवन,

आती भारत की ज्योतिर्घन महिमा बल ।

होगा फिर से दुर्धर्ष समर, जड॰ से चेतन का निशि वासर,

कवि का प्रति छवि से जीवनहर , जीवनभर,

भारती इधर, हैं उधर सकल, जड॰ जीवन के संचित कौशल

जय, इधर ईश, हैं उधर सबल मायाकर।'

भाषा के इस ठाठ के साथ निराला का एक ठेठ प्रयोग भी देखिए -

गर्म पकौडी॰-

ऐ गर्म पकौडी॰।

नमक मिर्च की मिली

ऐ गर्म पकौडी॰।

मेरी जीभ जल गयी

सिसकियाँ निकल रहीं

लार की बूँदें कितनी टपकी,

पर दाढ॰ तले तुझे दबा ही रक्खा मैंने।

उनके उपन्यासों में 'बिल्लेसुर बकरिहा' और ' चतुरी चमार' कठिन ,चुनौतियों भरे जीवन की अगाध जिजीविषा की कथा है, जिसकी भाषा में काँटे , कुश की चुभन है, मिट्टी ,पत्थर का पैरों को लगनेवाला दरदरापन है , मगर उसमें पूरी जीवंतता और रसमयता है।

निराला के रचना - संसार में विविधता है, आकाश है, पर्वत शिखर हैं , गर्वित गर्जित सागर , बादल हैं, खाई खंदक , टीले -टापर हैं , परन्तु हैं सब निरालामय।

निराला सहज -असहज जीवन के कठिन - सरल स्रष्टा हैं।उनका कवि जिता महान है , उतना ही उनका व्यक्तित्व भी।

एक बार रेशमी लम्बे बालों वाली एक छवि निराला जी के पास बैठी थी। महादेवी वर्मा जब निरालाजी के यहाँ पहुँचीं तो इस कमनीय छवि के प्रति जिज्ञासा व्यक्त करते हुए सहज भाव से पूछ बैठीं -' यह लड॰की कौन है?' तब महाकवि निराला ने पंत जी का परिचय देते हुए महादेवी जी से कहा - 'ये अल्मोडा॰ से आए हैं और हिन्दी के कवि हैं।' छायावाद की इन दो विभूतियों की पहली मुलाकात कुछ ऐसी ही थी। कोमल, कांत , कमनीय सुमित्रानन्दन पंत जी ने छायावाद को अपनी इन्हीं विशिष्टताओं से सँवारा। उनमें कालिदासीय भाषा की कोमलता एवं कमनीयता थी, जिससे उन्होंने प्रकृति के मोहक पक्षों को प्रस्तुत किया।उनके प्रकृति चित्रों में मुग्धता एवं प्रश्नात्मकता है।वे प्रकृति के हर रूप के पीछे एक रहस छायाकी उपस्थित पाते हैं।प्रकृति के कठोर रूप का चित्रण उनके यहाँ नाममात्र को है , परन्तु उनकी 'परिवर्तन' शीर्षक कविता उनके सामर्थ्य के उस द्वार को खोलती है जिसे एकपक्षीय समालोचक देखकर भी कई बार अनदेखा करते रहे। 'परिवर्तन' कविता छायावाद की विरल प्रस्तुतियों में एक है -

'लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरन्तर ,छोड॰ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर !

शत - शत फेनोछ्वसित,स्फीत - फूत्कार भयंकर ,घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर !

मृत्यु तुम्हारा गरल-दन्त , कंचुक कल्पान्तर ,अखिल विश्व ही विवर

वक्र कुंडल

दिग्मंडल !'

पंत जी बाद में अरविन्द दर्शन से प्रभावित होकर अध्यात्म प्रधान कविताएँ लिखने लगे , किन्तु उस स्वर्णाभा में पंत का कवि तरोहित हो गया।

पंत जी का प्रतिनिधि कविता - संकलन सुनिश्चित रूप से 'पल्लव ' ही है ,जहाँ उनका पंतत्व सर्वथा अक्षुण्ण है।

महादेवी वर्मा छायावाद के चौथे स्तम्भ का नाम है।

महदेवी जी ने केवल गीत लिखे हैं। उनमें विस्तार या विविधता नहीं है। वेदना की गहनता उनकी कविता का स्थायी भाव है। किन्तु , उनकी वेदना का घनत्व इतना गहन और प्रगाढ॰ है कि वह व्यक्तिगत जीवन की सीमाओं को लाँघ कर विश्ववेदना में परिणत हो जाता है ।वे सीमा से असीम और आत्म से अध्यात्म की यात्रा के अमिट पद- निक्षेप हैं। किन्तु, उनकी विशिष्टता यह है कि उनमें वैराग्य की जगह जीवनराग की अभिव्यक्ति है। किसी के अभाव में वहाँ जीवन के अकेलेपन की तीव्र अनुभूति अवश्य है , किन्तु विराट द्वारा निर्मित इस अद्भुत सृष्टि के दिवा - रात्रि का, बाहर -भीतर का ,प्रच्छन्न और व्यक्त सौन्दर्य महादेवी को कहीं भी रुक्ष होने नहीं देता ।उनमें जीवन के प्रति रसभरा आकर्षण हमेशा बना रहता है -

ओ अरुण - वसना !

तारकित नभ-सेज से वे

रश्मि - अप्सरियाँ जगातीं ;

अगरुगन्ध बयार ला -ला

विकच अलकों को बसातीं !

रात के मोती हुए पानी हँसी तू मुकुल - दशना !

छू मृदुल जावक - रचे पद

हो गये सित मेघ -पाटल;

विश्व की रोमावली

आलोक - अंकुर - सी उठी जल !

बाँधने प्रतिध्वनि बढीं लहरें बजी जब मधुप - रशना !

बन्धनों का रूप तम ने

रातभर रो - रो मिटाया

देखना तेरा क्षणिक फिर

अमिट सीमा बाँध आया !

दृष्टि का निक्षेप है बस रूप -रंगों का बरसना !

है युगों की साधना से

प्राण का क्रन्दन सुलाया,

आज लघु जीवन किसी

निःसीम प्रियतम में समाया !

राग छलकाती हुई तू आज इस पथ में न हँसना !

ओ अरुण - वसना !

महादेवी की वेदना, करुणा का विस्तार बन कर उनके पालतू पशुओं के संस्मरणों में तरल आत्मीयता के साथ व्यक्त हुई है जो जीवन और परिवेश के प्रति उनके गहरे लगाव को व्यक्त करती है।

महादेवी उन कवियों में हैं जो अपने मूल्यांकन की कसौटी स्वयं ही तैयार करती हैं। भाव और भाषा दोनों ही में महादेवी छायावाद की अन्य विभूतियों की तरह हीअपने समय से बहुत आगे रही हैं।

'छायावाद' हिन्दी साहित्य की वह लम्बी और ऊँची उछाल है जो किसी भी भाषा को दुनिया के सामने अपना सिर उन्नत करने का अधिकार प्रदान करती है।

copyright Reserved by MadanMohan Tarun