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Sunday, October 2, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 78

याद आता है गुजरा जमाना 78

मदनमोहन तरुण

भीतर का संसार

बीच -बीच में मैं राँची से जहानाबाद आया करता था।अबतक विवाह के लिए आमंत्रित सभी सम्बन्धी लौट चुके थे। माँ, बाबूजी के पास जहानाबाद लौट गयी थी। मेरी श्रीमती कुछ दिनों तक दादी के पास सैदाबाद में रहीं फिर वे भी जहानाबाद आगयीं।मेरे घर का वातावरण बहुत ही सौमनस्यपूर्ण था। हर किसी को अपने ढंग से जीने की स्वतंत्रता थी। कोई किसी के जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता था।मैंने देखाकि मेरी श्रीमती परिवार में पूरी तरह घुलमिल चुकी है।मेरी दो बहनों में से एक का जन्म मेरे विवाह के करीब पाँच साल पहले ही हो चुका था। मेरी श्रीमती से उसका गहरा लगाव जो उस समय से हुआ सो अबतक बना हुआ है।हमलोगों का जहानाबाद का मकान बहुत विशाल था। उस में हमसबों के लिए अलग- अलग कमरे थे।मुझे पुस्तकों से बहुत लगाव था। मैं अपने पाकेट खर्च का पैसा पुस्तकें खरीदने में ही खर्च करता था। मेरा कमरा पुस्तकों से भरा था।उसमें प्रेमचन्द , जैनेन्द्र कुमार, इलाचन्द्र जोशी, चतुरसेन शास्स्त्री , भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर , अज्ञेय , दिनकर आदि का तबतक प्रकाशित पूरा साहित्य था। मुझे यह देख कर अतिशय प्रसन्नता हुई कि मेरी पत्नी में भी पढ॰ने के प्रति गहरीआसक्ति उत्पन्न हो चुकी थी और वे मेरी अनुपस्थिति में अधिकतम पुस्तकें पूरे मनोयोग से पढ॰ चुकी थीं और आवश्यकता पड॰ने पर उनपर अच्छी - खासी बहस भी कर सकती थीं।

जैनेन्द्र , इलाचन्द्र जोशी तथा अज्ञेय ने हिन्दी साहित्य को एक नया मोड॰ दिया था। ये मूलतः मानवमनोविज्ञान के लेखक थे जिन्होंने हिन्दी साहित्य को बाहरी घटनाओं की अपेक्षा मन के भीतर के संसार की ओर मोडा॰ था। जैनेन्द्र के अधिकतम पात्रों में मन और तन के बीच कभी - कभी गहरा द्वंद्व उत्पन्न होता है, जिसमे बहिर्सम्बन्धों और स्थूल रिश्तों पर आधारित नैतिक , परिवारिक सम्बन्धों की कडि॰याँ चरमरा जाती हैं और पाठक उनपर नये सिरे से विचार करने को बाध्य होता है। इलाचन्द्र जोशी के अधिकतम उपन्यास उनके पात्रों के मनोलोक की गाथाएँ हैं जिनका अपने बाहरी संसार से टकराव होता है।अज्ञेय का 'शेखर एक जीवनी,'नदी के द्वीप', 'अपने - अपने अजनवी' आदि उपन्यास आदमी की उस मूल चेतना की खोज की निष्पत्ति हैं जिसे समाज के बाहरी बन्धनों में इस हद तक जकड॰ देने की चेष्टा की गयी है कि वह अपने भीतर की मूल चेतना तक पहुँचने का साहस नहीं कर पाता। जैनेन्द्र , अज्ञेय आदि की कृतियों के पात्र ऐसी ही स्थितियों के विरुद्ध बगावत की उपज हैं। हिन्दी के नये उपन्यासों में स्त्री - पुरुष के आचरण के अलग - अलग मानदंडों की सार्थकता की गहरी छानबीन हैं और उनके प्रति विद्रोहपूर्ण अस्वीकृति है।

इन उपन्यासों के बीच फणीश्वरनाथ रेणु का महाकाव्यात्मक उपन्यास 'मैला आँचल' वसंती हवा के झोंके-सा आया और अपनी ताजगी के कारण चारों ओर छा गया।यह टेप रिकार्डिंग की शैली में लिखा गया उपन्यास है जो व्यक्ति से अधिक गाँव के जीवन के बदलते आयामों एवं उसकी चुनौतियों का बहुत निकटता , उससे भी अधिक अत्यंत आत्मीयता से उसका साक्षात्कार प्रस्तुत करता है।

इन विषयों पर अपनी पत्नी के साथ मेरी विस्तार से चर्चा होती थी ।घर - गृहस्थी की सामान्य चर्चाओं में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी। मैं यथार्थ और कल्पना, इन दो संसारों के बीच का प्राणी था। मैं ऐसी छाया मूर्तियों के साथ आज भी अपना सबसे अधिक जीवन बिताता हूँ जो दूसरों को दिखाई नहीं देते। दुनिया केवल बाहर ही नहीं है , हमारे भीतर का संसार उससे कहीं अधिक विस्तृत है और वह हमें कहीं अधिक राहत देता है।

मैं चाहूँ तो बिना एक शब्द बोले जीवनभर रह सकता हूँ। जैसे वृक्ष एक ही जगह टिके रहते हैं , कहीं आते - जाते नहीं , वैसे ही मैं एक ही जगह पर अपना पूरा जीवन बिता सकता हूँ। भले दूसरों को लगे कि मैं स्थिर हूँ, परन्तु सच तो यह है कि मैं निरन्तर अपने भीतर के संसार के अनकानेक लोकों की यात्रा पर रहता हूँ।

मुझमें ध्यान - साधना की वृत्ति बचपन से ही रही है, किन्तु उम्र के साथ ही उसमें गहनता आती गयी है। कई बार मैं चार - से - पाँच घंटों तक ध्यान पर बैठा रह जाता हूँ।भीतर के लोकों के लोगों से मेरा गहरा सम्बन्ध है।उनके साथ रहने में मुझे कोऐ कठिनाई नहीं होती। कई बार मैं अंकुर से वृक्ष बनने की बहुत ही कष्टदायी प्रकृया से गुजरता हूँ। शाखा - शाखा, पत्ती- पत्ती फूटता हूँ।फूल - सा खिलता हूँ और सूक्ष्म सुगन्धि बनकर चारों ओर फैल जाता हूँ। मैं अतीत और वर्तमान में ही नहीं भविष्य की भी यात्रा करता हूँ और कई बार मेरा अनागत से साक्षात्कार हो आता है। मेरे पास ऐसी कई दैवी अनुभूतियाँ हैं जो वर्षों बाद ठीक उसी रूप में घटित हुईं जैसा मैंने अपने भीतर उन्हें वर्षों पहले घटित होते देखा था।मेरे लिए कल्पना और यथार्थ में अन्तर कराना कई बार कठिन हो जाता है।

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