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Sunday, October 16, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 79

याद आता है गुजरा जमाना 79

मदनमोहन तरुण

वहाँ क्या है , जहाँ कुछ भी नहीं है

पढा॰ई समाप्तकर लौटने के बाद मेरी सबसे बडी॰ समस्या थी जीवन-दर्शन की खोज। नौकरी , बडे॰ पद, पैसा और तदर्थ जीवन मुझे पूरी संतुष्टि नहीं दे सकता था।घर में कोई कमी नहीं थी। यदि मैं चाहता तो बिना किसी नौकरी के मजे की जिन्दगी जी सकता था,परन्तु जीवन की जिस विराट , अद्भुत सत्ता का साक्षात कर मैं उसमे लीन होना चाहता था ,उसके लिए पूर्वजों की कमाई सम्पत्ति पर काहिली का जीवन , निश्चित रूप से मेरी उस गरिमा के लिए घातक था ,जिससे कम मैं अपने बारे में कभी सोच भी नहीं सकता था।

विचित्रताओं से भरे इस विराट संसार में एक व्यक्ति के रूप में मेरी सत्ता क्या है ? चाहे जो भी हो,सबसे बडी॰ बात यह है कि मुझे संतुष्टि कहाँ और किस चीज से मिलती है। इससे बडी॰ कोई चीज मेरे लिए नहीं थी। मैं अपने को छूकर , टटोलकर, खूब अच्छी तरह देखना चाहता था। मैं अपना गहन और अंतरंग मित्र बनना चाहता था ।

मैं जानता था कि मेरी सत्ता का बहुत बडा॰ अंश अतिशय सूक्ष्म और अदृश्य है। मैं बाहर का कम और भीतर का आदमी ज्यादा था। मेरे पंख थे , मैं उडा॰न भरता था। मेरे पास दृष्टि थी, जिससे मैं नये - नये संसारों का साक्षात्कार करता था।वहाँ नये मित्र बनाता था।उन सबों की भी अपनी - अपनी रहस्यमय दुनिया थी। हम हमेशा एक - दूसरे के सहयात्री नहीं नहीं थे। सबकी अपनी एक सूक्ष्म सत्ता थी और उतना ही सूक्ष्म लक्ष्य भी था। हम क्षणभर को मिलते फिर कोई नयी छायाकृति आजाती और हम उसमें घुलमिल जाते और फिर किसी और दुनिया का रहस्यमय द्वार खुल जाता।कोई नया क्षितिज दिखाई देता और हम उसमें उड॰ जाते।

ऐसा नहीं कि सामने की दुनिया मुझे अच्छी नहीं लगती थी। खूब अच्छी लगती थी।नदियाँ , वृक्ष चलती हवा ,झुलसाती गर्मी ,वसंत , जडा॰, पशु , पक्षी, सुन्दर चेहरे, मुस्कान , सम्मोहन और देह के सत्य में भी मुझे अथोर आनन्द मिलता था, परन्तु मेरे लिए दुनिया केवल इतनी ही नहीं थी।

मैं तो वह देखना चाहता था ,जो कोई देख नहीं सकता।

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