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Monday, January 31, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 2

याद आताहै गुजरा जमाना 2

मदनमोहन तरुण

रामरतन जी

कलानौर के इतिहास से मैं पूरी तरह परिचित नहीं , परन्तु उन दिनों इस अनजाने से छोटे गॉव में जगह – जगह पर पुरानी कलात्मक मूर्तियॉं थीं।मेरी नानी की रसोई घर के दरवाजे पर एक विशाल श्वेत प्रस्तर खंड था जिस पर फूलों की सुन्दर खुदाई थी ।वहॉं के सूर्य- मंदिर की मूर्ति- भी साधारण नहीं थी।’बजार पर' के नाम से ज्ञात मुहल्ले के ठीक बीच में काले पत्थर की शिव की एक विशाल मूर्ति- थी जिनकी गोद में नमित मुख पार्वती बैठी थीं और उनके एक स्तन पर शिव जी की हथेली कोमलता से अवस्थित थी।पार्वती की कमर , उनके स्तनों की गोलाई और व्रीड़ायुक्त पलकों के नीचे तनिक खुले होठों में नियंत्रित किन्तु सुव्यक्त कामुकता थी।इसी मूर्ति के सामने रामरतन जी का मकान था जिन्होंने एक उच्चस्तरीय महाकाव्य लिखा था।नाम याद नहीं।तबतक उनमें कुछ मानसिक विक्षेप के लक्षण दीखने लगे थे। वे अकारण मुस्कुराते रहते।वह महाकाव्य उनके इन्हीं दिनों में सूर्य- मन्दिर के पास नदी किनारे रात - दिन बैठ कर लिखा गया था।उसके कुछ पृष्ठ बहुत ही रद्दी कागज पर गया के किसी प्रेस में छपे थे ।उसकी एक प्रति उन्होंने मेरे पास भी भेजी थी,किन्तु मैं उसे कहीं ढूँढ़ नहीं पा रहा हूँ।वैसे उस महाकाव्य का एक बड़ा भाग मैने कई बैठकों में उनके मुँह से सुना था।जहॉं तक मुझे याद है वह भाषाधिकार , अभिव्यक्ति कौशल एवं मनोज्ञ बिम्ब रचना संयुत छायावादी वृत्ति का प्रशंसनीय महाकाव्य था।रामरतन जी अपने इस महाकाव्य के साथ निराला जी से भी मिले थे। गया से मुद्रित इस महाकाव्यांश में निराला जी की टिप्पणी भी प्रकाशित हुई थी जो मुझे याद नहीं।इस महाकाव्य के अनाम रह जाने की पीड़ा मेरे मन में कहीं अब भी है।हम न जाने ऐसी कितनी ही कृतियों से वंचित रह जाते हैं जो साधन के अभाव में कभी समुचित प्रकाशन का मुँह नहीं देख पातीं।

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Sunday, January 30, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 1

याद आता है गुजरा जमाना -1

मदनमोहन तरुण

डोली लेकर चले कहार

इस बार मैंने मॉं के साथ डोली पर बैठ कर ननिहाल जाने से मना कर दिया।होश सम्हालने बाद पिछली दो बार से मॉ के साथ जाने का मेरा अनुभव बहुत बुरा था।एक तो डोली की छोटी – खाट ,एक किनारे पर बैठी मॉं अपना प्रिय ग्रंथ महाभारत पढती, रहती , बीच में उसका बड़ा सा बक्सा और एक किनारे पर मैं कोई काम न होने के कारण चुलबुल – चुलबुल करता रहता। डोली चारो ओर से ओर से मोटे कपड़े के ओहार से ढॅकी रहती, जिससे न बाहर की दुनिया दिखाई देती न पूरी तरह हवा आती।चार कहारों के कंधों पर तीन घंटों से भी ज्यादा समय तक हिलता डोलता यह अंधा संसार किसी भी दृष्टि से सराहनीय नहीं था।झॉकने का प्रयास करते ही मॉ की वर्ज-ना भरी दृष्टि का सामना होता और जरा भी पर्दा- खुल जाए तो कहारों में जमनका बाबा चिल्ला पड़ते – ‘हॉ हॉं … और मेरी सिट्टीपिट्टी बन्द हो जाती और फिर बाहर के संसार से हम कट कर दूसरों के कंधे पर लदी दुनिया में आ स्मिटते। भीतर हमें केवल बाहर के इंसानों की बोली , पक्षियों की कचबच , कभी कौओं की कॉव – कॉंव , कभी कोयल की कूक , कभी सरसराती हवा, कभी खेतों से हुड़क – हुड़क पानी बहने की आवाज के साथ कहारों की अनवरत हूँ… हूँ… हूँ… अब पहुँचे हैं , भइया रे, सम्हाल के आरी है , खूँटी है , हरिअरी है , अब क्या भइया पहुँच रहे हैं हूँ… हूँ… हूँ… सुनाई देती रहती।जैसे ही डोली कलानौर गॉव के बाहर देवी मंदिर के पास पहुँचती कहार बोल उठते ‘ हॉ बहुरिया! पहुँच गये कलानौर , देवी का मंदिर … सुनते ही मॉं सम्हल कर बैठ जाती।डोली जब कोनाठी पर नानी के घर के पास पहुॅच जाती तो कहार जोर से बोालते - हूँ… हूँ… हूँ… अब पहुँच गये … सुनते ही मॉ महाभारत की पोथी बक्से में डालती और इस दुःखद और दमघोंटू यात्रा की समप्ति पर मैं राहत की सॉस लेता और डोली के जमीन पर रखते - रखते मैं कूद कर नीचे उतर जाता। तबतक वहॉ गॉव की महिलाओं का जमघट लगा रहता। मॉं के डोली से उतरते ही नानी उसे गले से चिपका कर,राग उठा-उठा कर रोती, फिर परिवार की अन्य औरतें उससे लिपट – लिपट कर रोतीं । मैं मुँह बाए खड़ा रहता , उन लोगों को देखता हुआ।तनिक देर बाद अपनी ऑंखें गीली किए नानी मुझे गोद में उठा कर अपने से चिपका लेती।सच तो यह है कि इनदिनों सैदाबाद में भइया के द्वारा रची अजादी की दैनिक पभातफेरी इतनी रोचक हो चली थी कि उसे छोड़ कर मैं कहीं जाना ही नहीं चाहता था।सो इस बार किसी की एक न चली और मैं सैदाबाद में ही रुक गया।

इस बार मैंने मॉं के साथ डोली पर बैठ कर ननिहाल जाने से मना कर दिया।होश सम्हालने बाद पिछली दो बार से मॉ के साथ जाने का मेरा अनुभव बहुत बुरा था।एक तो डोली की छोटी – खाट ,एक किनारे पर बैठी मॉं अपना प्रिय ग्रंथ महाभारत पढती, रहती , बीच में उसका बड़ा सा बक्सा और एक किनारे पर मैं कोई काम न होने के कारण चुलबुल – चुलबुल करता रहता। डोली चारो ओर से ओर से मोटे कपड़े के ओहार से ढॅकी रहती, जिससे न बाहर की दुनिया दिखाई देती न पूरी तरह हवा आती।चार कहारों के कंधों पर तीन घंटों से भी ज्यादा समय तक हिलता डोलता यह अंधा संसार किसी भी दृष्टि से सराहनीय नहीं था।झॉकने का प्रयास करते ही मॉ की वर्जना भरी दृष्टि का सामना होता और जरा भी पर्दा- खुल जाए तो कहारों में जमनका बाबा चिल्ला पड़ते – ‘हॉ … हॉं … और मेरी सिट्टीपिट्टी बन्द हो जाती और फिर बाहर के संसार से हम कट कर दूसरों के कंधे पर लदी दुनिया में आ स्मिटते। भीतर हमें केवल बाहर के इंसानों की बोली , पक्षियों की कचबच , कभी कौओं की कॉव – कॉंव , कभी कोयल की कूक , कभी सरसराती हवा, कभी खेतों से हुड़क – हुड़क पानी बहने की आवाज के साथ कहारों की अनवरत हूँ… हूँ… हूँ… अब पहुँचे हैं , भइया रे, सम्हाल के आरी है , खूँटी है , हरिअरी है , अब क्या भइया पहुँच रहे हैं हूँ… हूँ… हूँ… सुनाई देती रहती।जैसे ही डोली कलानौर गॉव के बाहर देवी मंदिर के पास पहुँचती कहार बोल उठते ‘ हॉ बहुरिया! पहुँच गये कलानौर , देवी का मंदिर … सुनते ही मॉं सम्हल कर बैठ जाती।डोली जब कोनाठी पर नानी के घर के पास पहुॅच जाती तो कहार जोर से बोालते - हूँ… हूँ… हूँ… अब पहुँच गये … सुनते ही मॉ महाभारत की पोथी बक्से में डालती और इस दुःखद और दमघोंटू यात्रा की समप्ति पर मैं राहत की सॉस लेता और डोली के जमीन पर रखते - रखते मैं कूद कर नीचे उतर जाता। तबतक वहॉ गॉव की महिलाओं का जमघट लगा रहता। मॉं के डोली से उतरते ही नानी उसे गले से चिपका कर,राग उठा-उठा कर रोती, फिर परिवार की अन्य औरतें उससे लिपट – लिपट कर रोतीं । मैं मुँह बाए खड़ा रहता , उन लोगों को देखता हुआ।तनिक देर बाद अपनी ऑंखें गीली किए नानी मुझे गोद में उठा कर अपने से चिपका लेती।सच तो यह है कि इनदिनों सैदाबाद में भइया के द्वारा रची अजादी की दैनिक पभातफेरी इतनी रोचक हो चली थी कि उसे छोड़ कर मैं कहीं जाना ही नहीं चाहता था।सो इस बार किसी की एक न चली और मैं सैदाबाद में ही रुक गया।

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