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Tuesday, January 31, 2012

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 104


याद आता है गुजरा जमाना 104

जल – ब्रह्माण्ड

मदनमोहन तरुण

२४ दिसम्बर 1969



अपना पदभार ग्रहण करने के लिए मैं दमण पहुँच गया। यहाँ आवास न मिलने तक मेरे रुकने की व्यवस्था पी डब्लू डी के गेस्ट हाउस में की गयी थी। यह गेस्ट हाउस एकदम अरब महासागर के मनोरम तट पर नानी दमण में आवस्थित था।

अबतक मैंने नदियाँ देखी थी , उनके प्रवाह और लहरों का साक्षात्कार किया था, परन्तु अबतक महासागर नहीं देखा था। उनके चित्र देखे थे, उनके बारे में पढा॰भर था। मन में न जाने कब से महासागर देखने की प्रबल इच्छा थी।

आज वह दिन आ गया।

कमरे में प्रवेश करते ही मैंने खिड॰की से दूर - दूर तक फैली महाजलराशि का साक्षात्कार किया। मेरे हाथ जुड॰ गये , मस्तक नत होगया।
मैने कमरा बन्द किया और बाहर निकल पडा॰। अब मैं सागरतट पर खडा॰ था। इस महादर्शन के प्रथम आप्यायित सुविस्मित क्षण को शब्दों में व्यक्त करना सम्भव नहीं। लगा जैसे मैं किसी जल-ब्रह्माणड में प्रविष्ट होगया हूँ ,जहाँ पृथ्वी का कहीं नमोनिशान नहीं है और दूर - दूर तक उत्तालतरंगोंभरा पानी ही पानी है।
सागर नदी की तरह कलकल निनाद नहीं  करता, सिहों की तरह गर्जन करता है।सहस्रों वासुकि नागों की भाँति फूत्कारते ज्वार एकसाथ दौड॰ लगाते हैं और तट के पास आते - आते पाताल में प्रवेश कर जाते हैं।
लगता है जैसे पृथ्वी अपने विशाल पंख खोल कर उड॰ चली है।
लगता है जैसे संध्या का ललाभ ललाम सूर्य पूरी जलराशि को स्वर्णमय करता हुआ इसी में विश्राम करने की तैयारी कर रहा हो।
रामायण में वर्णित सोने की लंका अवश्य ही संध्या के समुद्र जैसी रही होगी और वहाँ रावण अवश्य ही ऐसे ही गर्जन करता होगा अवश्य  ही पवनपुत्र हनुमान ने जो लंका दहन किया था उसका दृश्य कुछ ऐसा ही रहा होगा और लंका - दहन के पश्चात पूरी लंका रात्रिकाकीन समुद्र की तरह होगयी होगी।

मुझे पता नहीं चला कबतक मैं अभिभूत सागरतट पर खडा॰ रहा। जब लैटा तो मैं पूरी तरह भींग चुका था। अब मुझे थकान महसूस होरही थी। मेरे खाने की थाल पास के टेबुल पर रखी थी और भोजन समाप्त कर मैं सोने की तैयारी करता रहा और मेरे भीतर सागर भाँति - भाँति के रूप धारण कर मुझे ललचाता हुआ जैसे बार - बार बुलाता रहा।
तब से करीब आगामी दस वर्षों तक इस महासागर के न जाने कितने रूप मैंने देखे हैं।
  शांत सागर किसी गहन दार्शनिक - सा लगता है। विचारमग्न  सागर के ललाट की गहन चलरेखाओं में अननन्तता का सृजनात्मक विस्तार होता है। आज भी वह सागर मेरे भीतर वैसे ही अवस्थित है। आज भी जब मैं उससे बहुत दूर चला आया हूँ मैं अपने अन्तः में सदा के लिए अंकित और अवस्थित उस सागर तट पर न जाने कितनी देर खडा॰ रहता हूँ।

बरसात के दिनों मे आकाश से जब धारासार वर्षा होने लगती है तो धरती- आकाश -सागर सब की सत्ता एक - दूसरे में विलीन हो जाती है।आकाश में बादल गरजते हैं और नीचे सागर।

यह महासगर मेरे पूरे दमण - निवास की सबसे बडी॰ उपलब्धि था ।
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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 103


याद आता है गुजरा जमाना 103


वह मेरा अविस्मरणीय साक्षात्कार


मदनमोहन तरुण


यू पी एस सी में उच्च पदों के लिए मैंने कई साक्षात्कार दिए और सब में मेरा चयन हुआ , परन्तु मैं वहाँ के प्रथम साक्षात्कार को कभी नहीं भूला।

दमण कालेज के लिए साक्षात्कारपत्र मिलने प र कई लोगों ने सुझाव दिया कि मैं वहाँ सूट पहन कर जाऊँ।सूट का एक अपना प्रभाव होता है।उन दिनों मैं केवल धोती कुर्ता ही पहनता था। मैंने निर्णय लिया कि मैं धोती - कुर्ता पहन कर ही साक्षात्कार के लिए जाऊँगा । अपने -आप में मेरी पूरी आस्था थी और मैं जानता था कि असरदार होना है तो स्वयम मुझे होना है न कि मेरे पहनावे को । वैसे भी मेरे मन में कहीं - न- कहीं यह विक्षोभ था कि मैं अपने वर्तमान पद से नीचे के पद के साक्षात्कार के लिए जा रहा हूँ।
एक स्टील के बक्से में अपने प्रमाणपत्र और प्रकाशित पुस्तकें और पत्रिकाएँ डालकर मैं दिल्ली के लिए रवाना हो गया । दिल्ली मैं  स्टेशन के पास के एक होटल में रुका तथा दूसरे दिन साक्षात्कार के लिए यू पी एस सी के कार्यालय में पहुँच गया । एक अधिकारी ने मेरे प्रमाणपत्रो की जाँच की और प्रतीक्षाकक्ष में बैठने को कहा । जब मैं प्रतीक्षाकक्ष के द्वार पर पहुँचा तो तो देखा कि उस कक्ष में सूट-बूटधारी हस्तियाँ बैठी हैं । सोचा यहाँ के बडे॰ -बडे॰ अफसरान होंगे। वहाँ से मैं बाहर चला आया और एक कर्मचारी से पूछा कि मैं यहाँ इन्टरव्यू देने आया हूँ , मुझे कहाँ बैठना है ?  उस कर्मचारी ने भी मुझे उसी कमरे में जाने को कहा । जब मैने उससे कहा कि वहाँ बडे॰ - बडे॰ अफसरान बैठे हैं तो वह मुस्कुराया। उसने कहा - ' वे अफसरान नहीं , आप ही जैसे इंटरव्यू देनेवाले लोग हैं ।' फिर उसने मेरे धोती - कुर्ते पर ध्यान देते हुए कहा कि आप में और उनमें इतना ही फर्क है कि आप धोती - कुर्ता में हैं और वे सूट - बूट में ।‘ सुनकर मेरी आँखें खुल गयीं।  मैं अधिक विश्वास के साथ उस कक्ष में प्रविष्ट हुआ और एक कुर्सी पर बैठ गया । वहाँ सब के हाथ में छोटे - बडे॰ बैग थे, मेरी तरह कोई स्टील का बडा॰ बक्सा लेकर नहीं आया था।

थोडी॰ देर में सबके नाम पुकारे जाने लगे । जो लोग अबतक हल्के - फुल्के मूड में गप्पें मार रहे थे वे सब गंभीर होगये । भीतर  से प्रथम सज्जन बाहर आए ।किसी ने उन्हें रोक कर कुछ पूछने का प्रयास किया किन्तु वे रुके नहीं बाहर चले गये । एक ने लौट कर बताया कि बहुत होमली वातावरण है ।कोई छेड॰छाड॰ नहीं है। लोग सामान्यत; १५- २० मिनट में बाहर आ - जा हे थे। अब मेरी बारी थी । मेरे पास बैठे सज्जन ने मुस्कुराते हुए मेरे प्रति शुभकामना व्यक्त की ।उन्हें धन्यवाद देता हुआ , अपना भारी स्टील का बक्सा उठाए , मैं कक्ष के भीतर प्रविष्ट हुआ। यह अपेक्षया एक विशाल कक्ष था  । एक बडे॰ टबुल के चारों ओर चार कुर्सियाँ लगी थी। सामने की कुर्सी पर एक भव्य से विशालकाय व्यक्ति  बैठे थे। मैंने उनका अभिवादन किया । संकेत से उन्होंने मुझे अपने सामने की कुर्सी पर बै ठने को कहा । मैं उन्हें धन्यवाद देता हुआ कुर्सी पर बैठ गया । मैने गौर से देखा। उनकी जेब पर उनका नाम लिखा था। वे फौज के मेजर जर्नल थे। सम्भवतः चेयरमैन । मेरे बैठने के तुरत बाद उन्होंने मेरा परिचय  किनारे की कुर्सी पर बैठे एक सज्जन से कराया । वे इतने क्षीणकाय थे कि मैं अबतक उन्हें देख नहीं पाया था । वे संत साहित्य के प्रसिद्द विद्वान थे। मैं उनकी पुस्तकें पढ॰ चुका था। उन्हें देखने का अवसर पहली बार मिला था। मैंने ससम्मान उनको नमस्कार किया।वही विषय के विशेषज्ञ थे  । संत साहित्य मेरा प्रिय विषय था। उन्होंने मुझसे कबीर से सम्बद्द कुछ मार्मिक प्रश्न पूछे । सम्भवतः मैंने उनकेप्रश्नों का संतोषप्रद उत्तर दिआ, उनके चेहरे की चमक से कुछ ऐसा ही लगा ।

अबतक मेरी कुछ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थी , जिनमें मेरा उपन्यास 'संत्रास' भी था । ‘संत्रास’ एक चेतना प्रवाही उपन्यास है ।उसका विषय बाहरी दुनिया से अधिक मनुष्य की अन्तश्चेतना से सम्बद्ध है । उसमें कई प्रतीक चिह्नों का भी स्थान - स्थान पर प्रयोग किया गया है। चेयरमैन महोदय ने मुझे मेरी प्रकाशित कृतियाँ दिखाने को कहा जिनका उल्लेख मैंने अपने आवेदनपत्र में किया था । मैंने बक्सा खोलकर कुछ प्रकाशन निकाल कर सामने टेबुल पर रख दिया ।

विशेषज्ञ महोदय ने मेरा उपन्यास उठा लिआ। अब सारा प्रश्न मेरे उपन्यास पर ही केन्द्रित हो गया। विभिन्न मनःस्थियों के लिए उस उपन्यास में प्रयुक्त चिह्नों की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा कि ये प्रयोग व्याकरण - सम्मत नहीं हैं। व्याकरण के अनुसार इन चिह्नों का प्रयोग मात्र तीन बार ही किया जाना चाहिए ,जबकि इस उपन्यास में  ऐसे चिह्नो का प्रयोग निर्धारित सीमा से काफी ज्यादा बार किया गया है' कहते हुए उन्होंने मेरी ओर देखा । उनके इस प्रश्न ने मुझे तनिक उत्तेजित कर दिआ। मैंने कहा -'व्याकरण के नियम कई बार कुछ विशेष अभिव्यक्तियों में सहायक न होकर बाधक हो जाते हैं । कई बार उनकी व्यवस्थाएँ आभिव्यक्ति को इतना यांत्रिक बना देती हैं कि कथ्य अपना मर्म खो देते हैं । इस उपन्यास में कई स्थानों पर व्याकरण के  नियमों का अतिक्रमण किया गया है ताकि अभिव्यक्ति को अधिक संवेदनशील  तदवत और प्रभावकारी बनाया जा सके ।' तनिक रुक कर मैंने चेयरमैन महोदय से कहा ' - यदि अनुमति हो तो एक प्रश्न पूछूँ ?' चेयरमैन महोदय ने तुरत कहा -'हाँ ,हाँ पूछिए।' मैंने कहा -' यदि आप घनघोर रात्रि में किसी सूनी जगह से गुजर रहे हों और पीछे से  कोई आप पर आक्रमण कर दे तो क्या आप   व्याकरण के नियमानुसार तीन बार – ‘बाप  बाप  बाप -'  कहेंगे या दर्द से  -' बाप $$$ रे $$$ बाप' - कहते हुए चिल्ला पडें॰गे ?'  मेरे इस प्रश्न से वहाँ सन्नाटा छा गया ।फिर चेयरमैन महोदय बहुत जोरों से ठठा कर हँस पडे॰। उन्होंने विशेषज्ञ महोदय से पूछा -' कोई और प्रश्न पूछना है?' विशेषज्ञ महोदय ने तुरत कहा - 'नहीं … नहीं… 
  इसके बाद चेयरमैन महोदय ने एक नक्शा दिखाते हुए मुझसे पूछा - 'इसमें दमण कहाँ है ?' मैने तुरत उस स्थान पर अपनी उँगली रख दी । देख कर वे मुस्कुराए और बोले - 'यह तो नहीं है।' मैंने देखा तो वहाँ दमण की जगह इलाहाबाद लिखा हुआ था। मैं तनिक देर रुका और कहा -' यह नक्शा गलत है ।' चेयरमैन महोदय ने कहा ‘नक्शा कैसे गलत हो सकता है?'  मैंने कहा – ‘यह नक्शा जरूर गलत है।' मेरा उत्तर सुनकर वे फिर जोरों से हँसे और बोले - ' आपने किसी इनक्रीमेंट की माँग नहीं की है। अगर आप चाहें तो वह आपको मिल सकता है।' उनकी इस बात से मैं चौंक पडा॰। मैं ऐसी जगह से वहाँ गया था जहाँ ऐसे चुनावों में जातीय लोगों को रखने के लिए उनदिनों तरह - तरह के हथकंडे अपनाए जाते थे। मैंने सोचा  शायद यहाँ भी कुछ ऐसे ही खेल का इरादा है , अन्यथा सरकार किसी को बिन माँगे इनक्रीमेंट देने को तैयार क्यों होगी । मैंने कहा -'मुझे नहीं चाहिए ।' उन्होंने फिर भी मुझे अतिरिक्त इनक्रीमेंट के लिए प्रोत्साहित किया , परन्तु मैंने नकारात्मक उत्तर दिआ। उन्होंने धन्यवाद करते हुऐ मुझे विदा दिया। मैंने भी धन्यवाद दिया । अपनी कितावें बक्से में बन्द कीं और उसे उठा कर बाहर निकल गया।
मेरा साक्षात्कार एक घंटा से भी ऊपर चला। जब मैं कक्ष से बाहर आया तो सभीलोग उत्सुकता से मेरी ओर देखने लगे। वे कुछ पूछना चाते थे , परन्तु मैं वहाँ से बाहर चला आया।   मैं अपने साक्षात्कार से संतुष्ट था , परन्तु इस बात के प्रति भी सुनिश्चित था कि मेरा चुनाव नहीं होगा , क्योंकि विशेषज्ञ महोदय से जिस रूप में मैंने प्रतिप्रश्न किया था वह व्यवहार शायद ही किसी को पसन्द आया हो।

मैंने सोचा  इस आशा को छोड॰कर मुझे दिल्ली और उसके आसपास के महत्वपूर्ण स्थानों का आनन्द उठा लेना चाहिए । मैं दिल्ली १५ दिन रुक गया। परन्तु जब मैं लौट कर घर पहुँचा तो पिताजी ने मुझे यू पी एस सी से प्राप्त बादामी रंग का लिफाफा दिया । मेरा चुनाव हो गया था और मुझे महीनेभर के अन्दर दमण काँलेज ज्वाइन करना था।

मैंने इस नियुक्ति का स्वीकृतिपत्र भेज दिया और दमण जाने की तैयारी करने लगा।
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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 102


याद आता है गुजरा जमाना 102

अखवार का वह पन्ना

मदनमोहन तरुण

एक दिन मैं अपने बहनोई गुणी बाबू के सात घर की छत पर टहल रहा था। थ।झोकेदार और तेज हवा चल रही थी।सामने दरधा नदी बह रही थी।उसके तट पर ताड॰ के वृक्षों की लम्बी कतार थी।उस तेज हवा में सुदृढ॰ ताड॰ के वृक्ष भी हल्के - हल्के झूम रहे थे।सारा दृश्य बहुत ही मनोरम था।हमदोनों चुप थे क्योकि उस समय मोहक प्रकृति की वाणी और व्यवहार में इतना रस और आनन्द भरा था कि हम एक पल के लिए भी उससे वंचित होना नहीं चाहते थे।

हम इन दृश्यों का आनन्द ले ही रहे थे कि कहीं उड॰ता हुआ अखबार का एक पन्ना हमलोगों के पास ही गिर पडा॰।गुणी बाबु ने उसे योंही उठा लिआ और देखने लगे। उन्होंने कहा 'यह तो यू पी एस सी का वज्ञापन है और अखबार का यह पन्ना मात्र दो दिन पुराना है। उन्होंने विज्ञापन पढा॰ तो चहक उठे।उन्होने कहा अब आप यहाँ से जाने की तैयारी करें।इसमें दमण कालेज में असिस्टेंट लेक्चरर के पद का विज्ञापन है।मैंने सोचा लेक्चरर हूँ , असिस्टेंट लेक्चरर के पद पर क्यों जाऊँ ?मैने यही उनसे कहा तो मेरी शंका का निवारण करते हुए उन्होंने समझाया - 'यह सेन्टृल गवर्नमेंन्ट का गजटेड पोस्ट है। इसका वेतनमान भी आपके अभी के वेतनमान से बेहतर है।एकबार प्रयास करने में क्या हर्ज है।मुझे लगता है यहां आपका चुनाव हो जाए गा।' मैंने कहा ठीक है मैं आवेदनपत्र भेज दूँगा । उन्होंने पूछा आपके पास प्रमाणपत्रों की कापी है या नहीं?' मैने कहा -'नहीं।' वे बोले आज मैं यहाँ नही रुकूँगा।आप अपने  सर्टिफिकेट दीजिए मैं पटना से उसकी काँपी बनवाके और अटेस्ट कर कल लेता आऊँगा।' कहकर उन्होंने मेरे सर्टिफिकेट लिए और पटना चले गये और दूसरे दिन उसे स्वयं अटेस्ट कर पटना से लौट आए। उनके पास यू पी इस सी के आवेदनपत्र का एक पुराना फार्म भी था। उन्हीं की देखरेख में मैंने वह आवेदनपत्र भर दिआ और उसी दिन रजिस्टर्ड डाक से  दिल्ली यू पी इस सी को भेज दिया।
मेरे बहनोई बहुत खुश थे , परन्तु मैं उतना खुश नहीं था। मुझे लग रहा था कि मैं लेक्चरर के पद से असिस्टेंट लेक्चरर के पद पर जा रहा हूँ। हालाँ कि मेरे मन में कहीं ऐसा लग रहा था कि चलो इसी बहाने इस जगह से मुक्ति तो मिलेगी।
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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 100


'महिषासुर मर्दिनी' : याद आता है गुजरा जमाना 100
मदनमोहन तरुण
गर्ज गर्ज क्षणं मूढ॰ मधु यावत्पिवाम्यहम

अब से करीब तीस साल पहले मैंने अपने एक मित्र की प्रेरणा से महालया के शुभ प्रभात में आकाशवाणी कोलकाता से 'महिषासुर मर्दिनी' का प्रसारण सुना था। वीरेन्द्र कृष्ण भद्र जी की सावेश और आरोह -अवरोहपूर्ण वाणी में दुर्गासप्तशती का पाठ सुनना सही अर्थों में एक असाधारण और रोमांचक अनुभव था। तब से अबतक मैंने किसी भी स्थिति में यह कार्यक्रम देखना नहीं छोडा॰। मैं महालया की पूर्व रात्रि दो बजे ही जग जाता हूँ और फिर नहीं सोता , ताकि किसी भी स्थिति में यह चिरप्रतीक्षित कार्यक्रम छूट न जाए। मुझ जैसे पूरी दुनिया में करोडों॰ हिन्दू हर वर्ष बडी॰ बेसब्री के साथ इन अद्भुत क्षणों की प्रतीक्षा करते रहते हैं। इस दुर्गापाठ को सुनना हर बार एक अनूठे एवं रोमांचकारी अनुभव से गुजरना है।
आकाशवाणी कोलकाता से इस कार्यक्रम का प्रसारण 1930 में शुरु हुआ था।इसके प्रस्तोता वीरेन्द्र कृष्ण भद्र जी का देहान्त बहुत पहले ही हो चुका  है, परन्तु उनकी वाणी का प्रभाव इतना असाधारण है कि इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जासका। आज उस कार्यक्रम में उन्हीं के मूल पाठ का  रिकार्ड बजाया जाता है।  अब तो आकाशवाणी के अनेकों केंन्द्र इसका नियमित रूप से प्रसारण करते हैं तथा अब इसका हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध है।मेरे पास इस पाठ के सीडी और केसेट दोनों ही उपलब्ध हैं , परन्तु रेडियो के पास बैठकर इस प्रसारण को सुनने का अनुभव ही अनूठा होता है। लगता है जैसे हम किसी महान परम्परा के अंग हैं।
इस पूरे कार्यक्रम का प्रसारण बंगला भाषा में होता है , परन्तु सच तो यह है कि इसका आनन्द उठाने के लिए उस भाषा की जानकारी की आवश्यकता नहीं है ,उसकी ध्वनिपूर्ण प्रस्तुति सीधे -सीधे हमारे मन-प्राणों पर असाधारण प्रभाव उत्पन्न करती है। भद्र जी कथा सुनाते - सुनाते असाधारण भावावेग में आजाते हें , कभी उनकी वाणी विगलित क्रंदन बन जाती है, कभी अशेष ऊर्जा , उत्साह और प्रवेग से भर उठती है । कभी मन्द से मन्दतर होजाती है  तो कभी वह आरोहण के तीव्र आवेग में परिणत हो हमारी चेतना के रेशे -रेशे को सींच कर जाग्रत कर देती है।
यह एक संगीतमय कार्यक्रम है।इसमें वीरेन्द्र कृष्ण भद्र जी की आवाज में दुर्गा सप्तशती के मंत्रों का संस्कृत पाठ तो होता ही है ,उसके साथ ही सप्तशती का बडा॰भाग उसी प्रभाव के साथ बंगला में प्रस्तुत होता है तथा कथा के साथ बंगाल के कई प्रसिद्द गायक - गायिकाओं के समवेत स्वर में दुर्गा से सम्बद्ध गायन चलता रहता है। इसका संगीत पंकज मलिक जी के निर्देशन में तैयार किया गया है जो बहुत ही प्रभावशाली है और श्रोताओं को गहरी तल्लीनता प्रदान करता है।इसके गायकों में हेमंत कुमार और आरती मुखर्जी जैसे लोग हैं।
माना जाता है कि महादेवी दुर्गा आश्विन माह की अमावस्या के बाद सप्तमी, अष्टमी और नवमी को अपने भक्तों के पास पृथ्वी पर आती हैं और दशमी को लौट जाती हैं।महालया से नवरात्रि का आरम्भ होता है और भक्तजन सप्तशती के पाठ का आरम्भ कर उनके स्वागत की तैयारी में लग जाते हैं।


पूरे संसार में ऐसे करोडों॰ लोग होंगे जो वीरेन्द्र कृष्ण भद्र जी की spiritually charged वाणी में प्रसूत दुर्गापाठ के इस पल की प्रतीक्षा करते रहते हैं ।

देवी सद्यः सृजन हैं ,  सद्यः विनाश हैं। वे भीमकान्त हैं। वे परम सुन्दरी हैं, वे विकट -विकराल हैं। उनकी काया कान्त है, उनकी काया अस्थिमात्र है। वे भव्य हैं ,अभव्य हैं। वे वस्त्रवेष्टित सुमनोहरा हैं ,वे नंग धडं॰ग हैं। वेमुक्तकेशी,रौद्रमुखी,महोदरी ,अग्निज्वाला हैं, अमेयविक्रमा हैं, क्रूर हैं, सिंहवाहिनी, सर्वमंत्रमयी हैं ,वे चामुंडा हैं , वाराही हैं, वे देवमाता हैं, सर्वविद्यामयी हैं, सर्वास्त्रधारिणी हैं, पुरुषाकृति हैं, वे असाध्य हैं ,साध्य हैं ,वे सर्वस्वरूपा हैं , सर्वेश हैं।
 वेदुर्गमच्छेदिनी,दुर्गतोद्धारिणी,दुर्गमध्यानदा,दुर्गमा,दुर्गमार्गप्रदा,दुर्गमोहा,दुर्गमांगी,दुर्गभीमा दुर्गा हैं।
जब महादैत्य ने भैसेका विकराल रूप धारण कर समस्त लोकों को विक्षोभित कर दिया तब देबी मधुपान करने लगीं, उनका चेहरा मदप्रभाव से लाल होगया, वाणी लड॰खडा॰ने लगी और वे जोर -जोर से हँसती  हुई बोलीं-
गर्ज गर्ज क्षणं मूढ॰ मधु यावत्पिवाम्यहम।
मया त्वयि हतेत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः।
ऐ मूढ॰! जबतक मैं मद्यपान कर रही हूँ ,तबतक क्षणभर तू गरज ले।यहीं मेरे हाथों तुम्हारे वध के पश्चात  देवता गर्जन करेंगे।
दुर्गा सप्तशती महातेजस स्थिति का विस्फूर्जन है।
यह शब्दों की सीमा से पार का महानाद है।
यह चित्तोत्क र्ष का चरम है ।
यह महानन्द का अविरल निनाद है ।
 ‘नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्यै नमोनमः’ की पुनः पुन; उच्चारणावृत्ति श्रोता को चरम भावदशा के लोक में प्रक्षेपित कर देती है।
वहाँ वाणी रूपादि से परे अनहदनाद बन जाती है। एक ऐसी गूँज बनकर भीतर प्रतिध्वनित होती है जो हमें जन्मजन्मान्तरों से जोड॰ देती है।शरीर संवेग में परिणत होकर अनुभूतिमात्र बन कर रह जाता है।

वीरेन्द्र कृष्ण भद्र की भावाविष्ट वाणी में ध्वनित इन महामंत्रों का श्रवण एक महानुभव है।
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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 99


गीताप्रेस ,गोरखपुर  :याद आता है गुजरा जमाना 99
मदनमोहन तरुण
गीताप्रेस ,गोरखपुर 
भारत में  उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में अवस्थित 'गीताप्रेस' संस्थान का महत्व हिन्दुओं के लिए किसी तीर्थस्थान से कम नहीं है।यदि यह संस्थान नहीं होता तो हिन्दू वांsगमय की महानतम कालजयी कृतियाँ इतने विशाल पाठकवर्ग तक कभी पहुँच नहीं पातीं। इस महान संस्थान ने हिन्दू धर्मग्रंथों में गीता, उपनिषद , वेदान्त,महाभारत, रामायण,रामचरितमानस एवम भारतीय संतों की कृतियों को न मात्र अविश्वसनीय रूप से सस्ते मूल्य में, बल्कि सुरुचिपूर्ण मजबूत जिल्दबन्दी के साथ भारत के अधिकतम हिन्दुओं के घरों में पहुँचा दिया है। हिन्दी और अँग्रेजी के अलावा इन ग्रंथों का प्रकाशन भारत की अन्य कई भाषाओं में भी उपलब्ध कराया गया है।
इस महान संस्थान की स्थापना 1923 में सनातन धर्म के प्रचार के लिए जयदयाल गोयनका जी द्वारा की गयी थी। वे आजीवन इन ग्रथों का सम्पादन करते रहे और सनातन धर्म का संदेश सर्वत्र पहुँचाते रहे।
गीताप्रेस ने गीता के अनेकों संस्करण प्रकाशित किये जिनका मूल्य इतना कम रखा गया है कि इसे कोई भी खरीद सकता है।
इस महान प्रकाशन ने तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ महाकाव्य को 'हनुमान चालीसा’ की तरह घर - घर में पहुँचा दिया। इसके प्रकाशन दुनिया भर के हिन्दुओं में लोकप्रिय है।  ‘रामचरितमानस’ पंडितों और काव्यरसिकों के सीमित दायरे और सीमित समझ का अतिक्रमण करता हुआ लोकजीवन में प्रविष्ट हो गया।ढोलक और झाल पर 'रामा हो रामा' की धुन के साथ प्राण - प्राण में गूँज ही नहीं गया ,लोकजीवन का संविधान बनकर प्रतिष्ठित होगया। 'रामचरितमानस' की एक - एक चौपाई ग्रामीण भारत के घर, परिवार और समाज के प्रति कर्तव्यों की विधायिका बन गयी।

अच्छा कागज, अच्छी छपाई,मजबूत सिलाई , जिल्दबन्दी और कलात्मकता इन प्रकाशनोंकी विशेषता है।इस संस्थान की प्रकाशकीय निष्ठा का सबसे बडा॰ उदाहरण है छपाई की शुद्धता के प्रति इसकी अतुलनीय निष्ठा।इसके प्रकाशनों से गुजरते हुए आप पाएँगे कि कई स्थलों पर इसकी अशुद्धियाँ स्याही से ठीक की गयी हैं। यद्यपि इन  प्रकाशनों में अशुद्धियाँ यदाकदा ही दिखाई पड॰ती है तथापि लाखों प्रतियों में हाथ से संशोधन मामूली समर्पण और निष्ठा का प्रतिफलन नहीं हो सकता। 

गीताप्रेस के महान प्रकाशनों का साक्षात्कार मैंने अपनी माँ के उस बक्से में किया था जो उसका चलता -फिरता पुस्तकालय था। वह जहाँ भी जाती , उसका बक्सा उसके साथ जाता था।आज से करीब साठ -पैंसठ साल पहले कलानौर जेसे दूरवासी गाँव में इन पुस्तकों की पहुँच से यह सहज ही अनुमान लगाया जासकता है कि इस प्रकाशन की कितनी व्यापक  प्रतिष्ठा थी।मेरी माँ आजीवन इन ग्रंथों को तल्लीनता एवं भक्तिपूर्ण समर्पण के साथ पढ॰ती रही , उसपर विचार - विमर्ष करती हुई इस बात का प्रयास करती रही कि उन ग्रंथों का संदेश औरों तक भी पहुँचता रहे। इन ग्रंथों को पढ॰ने की ललक मेरे मन में यहीं से आरम्भ हुई थी और आज भी बनी हुई है।
मेरे पितामह इस संस्थान से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'कल्याण' के आजीवन ग्राहक रहे।इस पत्रिका का हर विशेषांक संग्रहणीय हुआ करता था।पुराणों , उपनिषदों ,संतों की वाणी तथा हिन्दूधर्म ,संस्कृति और दर्शनादि पर आधारित इसके विशेषांक  आज भी किसी मूल्यवान धरोहर से कम नहीं समझे जाते। 1927 में 'कल्याण' का प्रकाशन हनुमानप्रसाद पोद्दार जी के सम्पादन में हुआ था जो गीतप्रेस के संस्थापकों में थे। वे 1971 तक आजीवन इस पत्रिका का सम्पादन करते रहे। इसका प्रकाशन आज भी जारी है जिसके पाठकों की संख्या ढाई लाख से भी अधिक है।
हनुमानप्रसाद पोद्दार जी ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया था।
वे बंगाल के क्रातिकारियों के निकट सम्पर्क में थे।इन्हीं कारणों से उन्हें ब्रिटिश सरकार के कारागार की मेहमानी करनी पडी॰। कारागार में उन्हें एक नयी जीवनदृटि मिली। इसके फलस्वरूप उन्होंने भारतीय मूल्यों एवम सनातन धर्म की मान्यताओं को घर - घर तक पहुँचाने का निर्नय लिया। इसी के फलस्वरूप उन्होंने ‘कल्याण’ के प्रकाशन - सम्पादन का कार्य आरम्भ किया।

1934 से 'कल्याण - कल्पतरु' के नाम से इस मासिक का प्रकाशन अँग्रेजी में भी किया गया जो अब भी जारी है।
हनुमानप्रसाद पोद्दार जी का हिन्दी एवं अँग्रेजी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था।इनके द्वारा प्रसूत पुराणों एवम महाकाव्यों के अनुवाद जहाँ भाषा की दृष्टि से सरल और सुसंप्रेष्य हैं ,वहीं उनमें उन कृतियों की काव्यात्मकता एवं उनकी विशिष्टता भी अक्षुण्ण है।
प्रकाशन का कोई भी इतिहास विश्व की इस महान संस्था के उल्लेख के बिना सुनिश्चित रूप से अपूर्ण माना जाएगा।

इस संस्थान की प्रशंसा स्वयं महात्मा गाँधी ने भी की थी।

जिस भारत को महात्मा गाँधी ने अपने अभूतपूर्व आन्दोलनों से विदेशी शासन से मुक्त कराया ,उसी भारत को गीताप्रेस ने सही अर्थों में भारतीय महिमा से मंडित किया।
मैं इस महान प्रकाशन संस्था और इसके संस्थापकों को नतशिर प्रणाम करता हूँ।
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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 98


साँप : याद आता है गुजरा जमाना  98

मदनमोहन तरुण

साँप

लगता है साँपों से मेरा कोई पुराना सम्बन्ध हे,साँप चाहे जो भी हो,पशुजाति का या मनुष्यजाति का ।
आज से बहुत पहले मैंने 'साँप' शीर्षक से एक कविता लिखी थी -
एक साँप
खूँटी पर टँगा हआ
एक साँप
रंध्र में अँटा हुआ
एक साँप
डटा हुआ द्वार पर
एक साँप
मैं
किसको डँसूँ ?
तब मैं विक्रम के जिस मकान में रहता था उसके पीछे के भाग में कई अधबनी दीवारें थी। ,जो शायद कोई कमरा बनाने के लिए उठाई गई हों और बाद में उन्हें अधबना ही छोड॰ दिया गया हो। जबतक मैं उस मकान में अकेला रहा तबतक मैं कभी उसओर गया ही नहीं। जब कुछदिनों बाद जब वहाँ मेरी पत्नी आईं तो मकान की नये ढंग से सफाई और देखरेख शुरू हो गयी। पीछे का भाग भी धूप सेंकने के लिए इस्तेमाल में आने लगा।एकदिन प्रातःकाल मेरी पत्नी ने कहा कि यहाँ साँप रहते हैं।'मैने एक साँप को दीवार से होते हुए किसी और दिशा की ओर जाते हुए देखा है।' मेरा माथा ठनका। सुरक्षा की दृष्टि से यहाँ रहना किसी भी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं हो सकता था। भला जिस घर में साँप रहता हो, उस घर में आदमी कैसे सुरक्षित अनुभव कर सकता है? अब मैंने निश्चय कर लिया कि यह मकान शीघ्र ही छोड॰ दूँगा और नया मकान देखने भी लगा।

दूसरे दिन मेरी पत्नी ने पीछे से बुलाया।सुबह के सात बज रहे थे।भगवान सूर्य आकाश में लालिमा के सम्मोहन का विस्तार करते हुए अपनी यात्रा आरम्भ कर चुके थे। मैं नीचे गया तो पत्नी ने बिना कुछ बोले सामने की अधबनी दीबार की ओर आकर्षित किया। मैंने जो देखा ,तो देखता ही रह गया। वहाँ एक काली धारियोंवाला सफेद साँप कुंडली मारे सूर्य की ओर फण उठाए सुस्थिर भाव से अवस्थित था। हमारे वहाँ जाने, खडे॰ होने की आबाजाही से वह सर्वथा अप्रभावित देरतक उसी मुद्रा में बना रहा। हमलोग भी वहाँ से अपनी दृष्टि हटा नहीं सके। हमलोग उस दिव्य सर्प को देर तक देखते रहे। थोडी॰ देर बाद जब सूर्य की लालिमा थोडी॰ कम होने लगी तो वह साँप धीरे से सरकता हुआ दीबार में कहीं गायब हो गया। यह एक भयावह स्थिति थी । वह कोई साधारण साँप नहीं ,विषधर नाग था। ।

यहाँ रहना मौत के मुँह में रहने जैसा था। मैंने मकान ढूँढ॰ने की प्रक्रिया तेज कर दी।
अगले  दिन सबेरे श्रीमतीजी ने मुझे फिर नीचे बुलाया। आज भी वही दृश्य था। नाग सुस्थिर भाव से सूर्य की ओर फण काढे॰ अपनी गोल कुंडली पर अवस्थित था। आज फिर वह उसी मुद्रा में डटा रहा। सूर्य की लालिमा कम होते ही वह फिर सरकता हुआ दीबार में कहीं गायब होगया।  यह दृश्य मैंने उसके बाद भी कई बार देखा। अब उस साँप के बारे में मेरा और मेरी श्रीमती का दृष्टिकोण पूरी तरह बदल गया। हमलोगों ने सोचा इतना दिव्य साँप कोई साधारण साँप नहीं होसकता।अवश्य ही यह पूर्वजन्म का महान योगी है। इससे हमें कोई हानि नहीं हो सकती। अब हमलोगों ने मकान न बदलने का निर्नय कर लिया। हमलोग उस मकान में अगले दो वर्षों तक रहे।

मेरे एक 'मित्र' नाश्ते के समय किसी - न - किसी बहाने मुझसे मिलने आजाया करते थे। वे मेरी पत्नी की पाककला की बहुत तारीफ करते और कभी - कभी किसी बात के लिए मेरी भी प्रशंसा कर दिया करते थे।उनके बारे में मेरे कई मित्रों ने बताया था वे कि मेरे पीछे मेरे खिलाफ तरह - तरह की चुगली करते हुए मेरी जडें॰ काटने का प्रयास किया करते हैं।मैंने उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया , परन्तु जानता था कि वे इसी प्रकार के 'इंसान' हैं। एकदिन जब वे नाश्ता करते हुऐ मेरी पत्नी की पाककला की तरीफ कर रहे थे तो मैंने उनका ध्यान बँटाते हुए कहा - 'इस मकान में एक विचित्र नाग रहता है।' सुनते ही उन्होंने अपने दोनों पाँव उठाकर कुर्सी पर रख लिए और साश्चर्य चिल्लाए - 'क्या साँप '। उनका चेहरा इस समय देखने लायक था। लग रहा था मानों वहाँ सच में साँप आगया हो। किसी प्रकार नाश्ता समाप्त कर मेरे यहाँ से लौटते समय उन्होंने कहा - आपको यह मुझे पहले ही बताना चाहिए था । अब मैं आपके यहाँ कभी नहीं आऊँगा। जिसके घर में साँप हो , वह घर सुरक्षित नहीं हो सकता।' कहकर वे चलते बने। उनकी बातों से मेरी पत्नी को बहुत निराशा हुई।कहा उस आदमी ने हमलोगों की सुरक्षा के बारे में कुछ भी नहीं कहा , मात्र अपनी चिन्ता करता हुआ चलता बना।हमलोग दरवाजे की ओर आगे बढ॰ कर देखने लगे जिधर वे तेजी से पाँव बढा॰ते चले जा रहे थे। हवा तेज थी।उनकी धोती उड॰ती हुई हवा मे लहरा रही थी और सूरज की रोशनी में इसतरह झलमला रही थी जैसे अनेकों साँप एक साथ चले जारहे हों। । श्रीमती ने कहा - वह देखिए कैसा लग रहा है ?' मैने कहा – ‘यह एक अधिकतम विषैले नाग से मुक्ति का दिन है।'
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चाणक्य की शिखा : याद आता है गुजरा जमाना 97

मदनमोहन तरुण

चाणक्य की शिखा

जहानाबाद में हमलोग समय - समय पर नाटक खेला करते थे।नाटक इतने प्रभावशाली होते थे कि उसे देखने के लिए अच्छी - खासी भीड॰ जमा होजाती थी। नाटक में अभिनय का समारम्भ तो मैंने सैदाबाद में ही कर दिया था ।तब मेरी उम्र बहुत कम थी। तब छोटका भइया नागवन्दन जी हरिश्चन्द्र बनते और मैं रोहिताश्व का रोल करता था। हमारे घर के बाहर का चबूतरा मंच बनता।दर्शक बहुत नहीं होते थे , परन्तु मुहल्ले के करीब - करीब हर किसी के आजाने से रोचकता तो बढ॰  ही जाती थी ,हमलोगों का उत्साह भी खूब बढ॰ जाता था। कोई अलग से ड्रेस आदि नहीं होता था , परन्तु हम सन को रंग से रँगकर दाढी॰ - मूँछ बनालिया करते थे। इन नाटकों के खेलने का कोई निश्चित समय नहीं होता था। जिस दिन निश्चित किया गया , उसीदिन होगया नाटक। शाम - शाम तक मुहल्ले के लोगों को सूचना दे दी जाती। अभिनय के नाम पर ज्यादा जोर आवाज की उतार - चढा॰व पर दिया जाता था। भइया ही दिन में रिहर्सल करवाते थे।

 नाटक खेलने का यह चश्का जहानाबाद में भी बना रहा।यहाँ तककि जब मैं राँची में पढ॰ रहा था तब भी काँलेज मिस कर नाटक खेलने आजाता था। अभिनय स्वयं भी करता और मित्रों को भी उसके लिए तैयार करता था। मेरा मित्र शशिभूषण बहुत अच्छा प्रबन्धक था। उसके पिता श्री लक्ष्मीनाथ पाण्डे स्वाधीनता सेनानी थे और चन्द्रशेखर आजाद के निकट सम्पर्क में रह चुके थे। वे प्रतिदिन प्रातःकाल खूब व्यायाम करते और संध्या समय अपने तरह - तरह के रंगोंवाले क्रोटन के एक - एक पौधे की पत्ती - पत्ती को धोकर साफ करते जिससे उसमें चमक - सी पैदा होजाती थी । उसकी पत्तियों का रंग, कटाव, मोड॰ सबकुछ निखर कर स्प्ष्ट होजाता। उन्हें यह कार्य करते हुए देखना भी एक असाधारण अनुभव होता था।
उनके घरपर जन्माष्टमी के समय उच्चकोटि का कलात्मक आयोजन होता था। भगवान कृष्ण का हिण्डोला सजाया जाता और रात - रात भर समारोह होता। उनके पिता शालिग्राम जी बहुत नाटकीयता से लल्लूलाल जीका 'सुखसागर' पढ॰ते जिसकी भाषा हिन्दी और व्रज मिश्रित होती थी। उस कथा को सुनने के लिए खूब भीड॰ जमा होती और इस अवसर पर कवि - सम्मेलन भी होते थे। लक्ष्मीनाथ जी को कलात्मक संस्कार यहीं से मिले थे। वे बहुत अच्छे अभिनेता भी थे। जहानाबाद में दुर्गापूजा के अवसर पर कानपुर से नौटंकी पार्टियाँ आया करती थी जो नगाडे॰ की चोट पर काव्यात्मक डायलोग बोल कर लैला -मजनू' ‘सीरी - फरहाद' जेसे नाटक प्रस्तुत करती थी। उनके नगाडे॰ की किडि॰क -किडि॰क धाँ की आवाज दूर - दूर तक फैलती थी। उनदिनों माइक की व्यवस्था नहीं थी इसलिए नौटंकी के अभिनेता इस हदतक जोर लगाकर डायलाँग बोलते कि उनकी आवाज पूरे शहर में फैलती थी। 'लैला , लैला पुकारूँ मैं वन में , हाय लैला बसी मेरे मन में।' …’मुझको मरने का खौफो खतर ही नहीं ‘…किडि॰क किडि॰क धाँ … किडि॰क धाँ … उसे देखने के लिए दूर -दूर के गाँवों से लोग आते और रात -रात भर जाग कर नौटंकी का मजा लेते थे। पीछे के दर्शक आगे आने केलिए 'जयबजरंगबली' का नारालगते  एक- दुसरे को धँसोड॰ते हुए मंच के निकट पहुँचने का प्रयास करते। मैं भी करीब - करीब हर रात जागकर नौटंकी देखता था।
 हर दीपावली के अवसर पर पं लक्ष्मीनाथ पाण्डे जी की ठाकुरवाडी॰ के पास नाटक होता था। ठाकुरवाडी॰ के पास की खुली जगह जहानाबाद की सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र हुआ करती थी। स्वयं लक्ष्मी जी बहुत अच्छे आभिनेता थे। इन नाटकों मे टेहटा के लखन जी बहुत प्रभावशाली शिवतांडव प्रस्तुत करते थे। लक्ष्मी जी के पुत्र शशिभूषण में अभिनय की प्रतिभा तो नहीं थी ,परन्तु वह बहुत अच्छा व्यवस्थापक था। उससे हमारी गहरी मित्रता थी। वह मुझे नाटक करने के लिए हमेशा उकसाता रहता था। जब एक बार हमने उससे सैदाबाद में खेले जानेवाले नाटकों की चर्चा की तो वह चमक उठा। उसने कहा नाटक हम यहाँ भी खेलेंगे। नाटक तुम चुनोगे, अभिनय निर्देशन तुम करोगे और मैं व्यवस्था का जिम्मा लूँगा। मैंने इस दिशा में कार्य आरम्भ कर दिया। मुहल्ले के कुछ युवावस्था की ओर उन्मुख किशोरों को हमने इसके लिए तैयार किया। मेरे पास एकांकियों का एक संग्रह था ' करुण पुकार' वहीं से छोटे - छोटे एकांकी हमने तैयार किये। इसतरह जहानाबाद में हमने नाटक खेलने की तैयारी शुरू की। हमलोगों में खूब उत्साह था। स्कूल से लौटने के बाद हम शशिभूषण की बैठक में जमा होते और वहीं नाटक का जमकर रिहर्सल चलता। शशिभूषण ड्रेस, दाढी॰ - मूछ, साडी॰ - ब्लाउज ,धोती  आदि की व्यवस्था करता। यह सारा इंतजाम हम मुहल्ले भर के लोगों से मान - मिन्नत करके जमा कर लेते और इसीतरह टेबुल - कुर्सी का भी ईंतजाम कर लिया जाता। नाटक खेलने के दिन पूरे मुहल्ले के लोगों को सूचना दी जाती। एकांकी में शुरू से ही दर्शक आने लगे। जैसे - जैसे हमारी दक्षता बढ॰ती गयी वैसे - वैसे दूसरे मुहल्लों के लोग भी आने लगे। सबों ने चुपचाप मुझे अपना निर्देशक स्वीकार लिया था।

एकांकियों की जगह अब हम बडे॰ नाटकों की ओर बढे॰। हमने अपने उपनाम के आधार पर 'तरुण नट्यकला' नाम की एक संस्था बना ली। जब मैं ग्रैज्युएशन करने राँची चला गया तब हमने जयशंकर प्रसाद जी के नाटक 'चन्द्रगुप्त' और ध्रुवस्वामिनी' का गहराई से अध्ययन किया।  अब हमने तय किया की हम अब प्रसाद जी के नाटक खेलने की चुनौती स्वीकार करेंगे। हमने उनके नाटक 'चन्द्रगुप्त' के मंचन की तैयारी शुरू कर दी । यह बहुत मुश्किल काम था। प्रसाद जी के नाटकों की भाषा संस्कृतनिष्ट थी। इसके लिए पढे॰ - लिखे अभिनेताओं की आवश्यकता थी जो पूरी शुद्धता के साथ संवाद बोल सकें। हमने अपने सीमित साधनों में ही इसकी कडी॰ तैयारी शुरू की और तय कर लिया कि इस नाटक के प्रस्तुति करण में हम कहीं भी किसी तरह का समझौता नहीं करेंगे।हमने  एक महीने तक अपने अभिनेताओं की कडी॰ घिसाई की और इसमें मुझे उनका पूरा सहयोग मिला। हमारे इस उत्साह से और कडी॰ मिहनत से लक्ष्मी पाण्डेय जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने चन्द्रगुप्त के दरवार में नृत्य का कार्यक्रम देने के लिए टेहटा से लखन जी को बुलवा लिया। मेरे मित्र रघुनन्दन ने चन्द्रगुप्त का रोल किया और मैंने चाणक्य का।मंच सामने के कुएँ पर चौकी आदि डालकर स्वयं लक्ष्मी जी ने बनवाया। हमारे परम उत्साही मित्र शिवचन्द्र जी , जो ग्राम पंचायत सुपरवाइजर थे ,ने दफ्तर से छुट्टी लेकर अपना हरप्रकार से सहयोग दिया। अबतक दर्शकों को हमलोगों की क्षमता पर पूरा विश्वास हो गया था। जब लोगों ने सुना कि इसबार तीन घंटे का नाटक 'चन्द्रगुप्त' खेला जाएगा तो लोगों की खूब भीड॰ जमा हुई।
नाटक सुचारु रूप से आरम्भ हुआ। चाणक्य के रोल के लिए मेरे सिर पर गोल टोपी चिपका दी गयी थी और उसे सिर के स्वाभाविक रंग से रँग दिया गया था।यह काम इतनी कुशलता से किया गया था कि मेरा सिर सचमुच ही मुंडित - सा लगता था। उसके ऊपर मोटी - सी शिखा गोंद से चिपका दी गयी थी।सबकुछ ठीकठाक चल रहा था। अब उस प्रसिद्ध डायलग की बारी आयी जिसमें चाणक्य नन्द के अपमान से विक्षुब्ध होकर अपनी शिखा खोल देता है और कहता है -' खींच ले , खींच ले मेरी शिखा,शूद्र के अन्न से पले हुए कुत्ते ! परन्तु याद रख अब यह शिखा तबतक बन्धन में नहीं होगी जबतक मै पूरे नन्दवंश का विनाश न कर दूँ।' यह नाटक का केन्द्रीय डाय लाग था जिसपर चन्द्रगुप्त नाटक काअगला सारा कथा - विकासक्रम आधृत है।डायलाग बोलने के लिए मैं पूरे उत्साह में था और बडे॰ जोश में आगया और अपनी शिखा जोर - लोर से हिलाने लगा।मैं यह भूल गया था कि मेरी शिखा आरिजिनल नहीं है और वह इतने झटके सम्हाल नहीं पाएगी। डायलाँग पूरा करते - करते मुझे लगा कि मेरी शिखा उखड॰कर मेरी मुट्ठी में आगयी है।मैं सावधान होगया और मैंने अपनी मुट्ठी सिर से नहीं हटाई। अतः दर्शक इसे समझ नहीं पाए और मेरी इस अदाकारी पर लोगों की खूब तालियाँ बजीं।
उस दृश्य की समाप्ति के बाद जब मैं नेपथ्य में गया तो लोगों ने मेरी बहुत सराहना की। नेपथ्य में खडे॰ मेरे कई मित्रों ने मेरी शिखा की स्थिति समझ ली थी और सभी बहुत चिन्तित थे कि कहीं यह रहस्य दर्शकों के सामने न खुल जाए। परन्तु ईश्वर ने हमारी लाज रख ली। शिवचन्द्र पाठक दौडे॰ हुए आए और मुझे गले से लगा लिया।
नाटक की समाप्ति के पश्चात घर लौटा तो मुझे देख कर मेरी श्रीमती जी हँसते - हँसते लोटपोट हो गयीं। उन्होंने कहा ‘आपने अपनी 'टीक' बडी॰ चतुराई से बचा ली।'
मैंने पूछा – ‘क्या आपने भी देख लिया था?' बोलीं - 'हाँ मैं तो आपकी एक- एक अदा देख रही थी। वह डायलाँग बोलते - बोलते आप इतने जोश में आगये कि आपने उसे सिर से उखाड॰ कर अपनी मुट्ठी में ले लिया। अभी मैं हँस रही हूँ , परन्तु उस समय मैं बहुत चिन्तित होगयी थी कि अब क्या होगा। परन्तु आपने बडी॰ चतुराई से उस स्थिति को सम्हाल लिया। मात्र नेपथ्य के पास बैठे आयोजकों में से कुछ को छोड॰कर और कोई इसे भाँप नहीं सका।'

मैं अपने अभिनय का वह पल कभी भुला नहीं सकता ।
मैं अपना यह संस्मरण अपने अभिन्न मित्र शशिभूषण को ससम्मान समर्पित करता हूँ जिनका मात्र 34 वर्ष की आयु में आकस्मिक देहावसान होगया।
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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 96


सोहराब मोदी  : याद आता है गुजरा जमाना 96

मदनमोहन तरुण

हिन्दी सिनेमा के युगपुरुष  : सोहराब मोदी


सोहराव मोदी की आवाज खनकती तलवार सी थी , जो असाधारण चमक के साथ  म्यान से बाहर निकलती थी। वह खनक और चमक मैनें और कहीं नहीं देखी।
उनकी जादूई आवाज के लाखों दीवाने थे।
एकबार मोदी जी के थिएटर का एक शो चल रहा था। उसीक्रम में उनकी निगाह एक ऐसे दर्शक पर गई ,जो हाल में आँखें बन्द किए बैठा था। उस आदमी की यह हरकत उन्हें अपमानजनक लगी। उन्होंने तुरत अपने एक आदमी को आदेश दिया कि वह उसके टिकट का पैसा लौटा दे और उसे हाँल से बाहर जाने को कहे। थोडी॰ ही देर में उनका आदमी लौटकर आया और उसने बताया कि वह एक अंधा दर्शक है।वह मात्र उनकी आवाज सुनने के लिए टिकट लेकर आया करता है।

सोहराव मोदी हिन्दी सिनेमा की उन महान विभूतियों में हैं , जिन्होंने अपनी सधी दृष्टि और सधे चरण- निक्षेपों से उसका नेतृत्व और मार्गदर्शन ही नहीं किया है, उसे उपलब्धि के ऐसे - ऐसे शिखर समर्पित किए हैं जो हमेशा उसका गौरववर्धन करते रहेंगे।

मुझे याद नहीं कि मैने सोहराव मोदी की कोई फिल्म छोडी॰ हो।उनके अभिनय का सबसे ऊर्जास्फीत रूप उनकी ऐतिहासिक फिल्मों में दिखाई देता था। जब वे बोलते थे तो लगता था जैसे इतिहास का वह कालखण्ड उनकी वाणी में जीवंत होकर आपनी पूरी गरिमा के साथ स्वयं ही बोल उठा हो।

उनका संदेश पूरे राष्ट्र को संबोधित था,उनकी वाणी में एक युगनायक की खनक थी।

उनकी 'सिकन्दर' फिल्म में पृथ्वीराज जी ने सिकन्दर का रोल किया था। वे अपने रोल से इतने अभिभूत थे कि वर्षों स्वयं को सिकन्दर समझते रहे। पटना में एकबार वे अपना शो करने गये थे , तब किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति ने उन्हें अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किया था। उस आमंत्रण का जबाब देते हुए उन्होंने कहा था --'सिकन्दर अकेला नहीं अपनी पूरी सेना के साथ आया है।‘ इस फिल्म में पृथ्वीराज जी युवा शशिकपूर के बृहदाकार लगते थे।उनदिनों इस फिल्म के दरवारों के भव्य सेट्स और युद्ध के दृश्यों की देश - विदेश में प्रशंसा हुई थी।
 अपनी इस फिल्म में सोहराव मोदी जी ने पोरस का रोल किया था। मुझे उसका एक डायलाँग अभी भी याद है। स्वयं सिकन्दर महाराज पोरस के दरवार में वेश बदलकर एक दूत के रूप में आया है। एक स्थल पर सिकन्दर पोरस से कहता है ' अगर आप हमारे वादशाह के सामने होते तो ऐसा कभी नहीं बोलते।' सुनते ही पोरस की आँखें चमक उठती हैं और वे कहते हैं -' दूत ! हम जो कह रहे हैं , वह तुम्हारे वादशाह के सामने कह रहे हैं।' इस आवाज में गजब का प्रभाव था। उनदिनों ऐसे लोगों की कमी नहीं थी ,जिन्हें सोहराव जी के अनेकों डायलाँग याद थे। इस फिल्म में लम्बे -  लम्बे थिएट्रिकल संवाद हैं ,परन्तु इतने प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किए गये हैं कि दर्शक पर उसका विपरीत प्रभाव नहीं पड॰ता।

सोहराव मोदी ( 1897-1984) हिन्दी सिनेमा के उस युग के पुराणपुरुष हैं जब उसने चलना आरम्भ ही किया था। सोहराव मोदी ने अपने केरियर की शुरूआत पारसी थिएटर से की थी। वे मूलतः अपने अभिनय में शेक्सपियर के पात्रों को जीवंत करने के लिए प्रसिद्द थे।उन्होंने कुछ मूक फिल्मों में भी काम किया था। 1931 में फिल्मों को पहली बार वाणी मिली। 1935 में उन्होंने पहली बारअपनी फिल्म कम्पनी शुरू की।उनकी पहली दो फिल्में 'खून का खून' ( हेमलेट) तथा ‘सैदे हवस' (किंग जाँन) सेक्सपियर के नाटकों पर आधारित थीं , जो थिएटर काल के उनके अत्यंत प्रिय विषय थे। इन फिल्मों को जनता की बहुत स्वीकृति नहीं मिली। उन्होंने 1936 में मिनर्वा मूवीटोन कम्पनी की स्थापना की ,जिसने बाद मे हिन्दी सिनेमा को कई अविस्मरणीय क्लैसिक्स दिए।
1953 में हिन्दी सिनेमा ने फिल्म 'झाँसी की रानी' के साथ एक नये युग में प्रवेश किया।यह हिन्दी की ही नहीं भारत की पहली टेक्नीकलर फिल्म थी, जिसके निर्माता ,निर्देशक स्वयं सोहराव मोदी थे। झाँसी की रानी का रोल ,उनसे उम्र में बीस साल छोटी उनकी पत्नी आफताब ने किया था। यह झाँसी की रानी का ऊर्जापूर्ण अविस्मरणीय रोल था। घोडे॰ पर सवार तलवार चमकाती आफताब के कई शाट्स शायद ही कभी भुलाये जा सकेंगे। मुझे आफताब का वह तेजस्विता से ऊर्जस्वित चेहरा अब भी याद है जब उसने झाँसी की रानी का सुप्रसिद्ध डायलाग 'मैं झाँसी नहीं दूँगी' की अदायगी की थी। सोहराब मोदी ने इस फिल्म में राजगुरु का प्रभावशाली और अविस्मरणीय रोल किया था।
इन सारी विशेषताओं के बावजूद 'झाँसी की रानी' बाक्स आँफिस को प्रभावित नहीं कर सकी।इस फिल्म को बनाने में सोहराब मोदी ने अपनी पूँजी का बडा॰ हिस्सा लगा दिया था।इस फिल्म की विफलता ने उन्हें बुरी तरह झकझोर दिया , लेकिन इससे उनकी फिल्म निर्माण की ऊर्जा जरा भी प्रभावित नहीं हुई।
इस स्थिति से जूझते हुए मात्र एक साल के बाद 1954 में उन्होंने उर्दू के महान कवि मिर्जा गालिब पर इसी नाम से एक यादगार फिल्म बनायी जो लोगों द्वारा खूब देखी और सराही गयी । इस फिल्म मे मिर्जा गालिब का भावनापूर्ण रोल भारतभूषण जी ने किया था। सुरैया ने गालिब की प्रेयसी  का रोल किया था , किन्तु इस फिल्म में उनकी और स्वयं 'मिर्जा गालिब' फिल्म की उपलब्धि थी सुरैया द्वारा मिर्जा गालिब के गजलों की अविस्मरणीय अदायगी।
 इस फिल्म में सुरैया के मधुर स्वर में गालिब की ‘नुक्ताची है गमे दिल', ‘दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है,' य' न थी हमारी किस्मत ,'- जैसी गजलों की मोहक आदायगी , सदा के लिए एक यादगार अदायगी बन गयी।

'जेलर' 1938 , 'पुकार' 1939, 'सिकन्दर'1941, 'पृथ्वीबल्लभ'1943, 'शीशमहल' 1950, 'झाँसी की रानी' 1952, ' मिर्जा गालिब' 1953, 'कुन्दन'1955, 'राजहठ'1956, ‘नौशेरवाने आदिल' 1957, ‘यहूदी’ 1958, 'जेलर (पुनः) 1958, आदि सोहराब मोदी जी की वे फिल्मे हैं ,जिन्होंने हिन्दी सिनेमा को सम्पन्न किया और नयी राहें दिखाईं।

वे लगातार 1983 तक फिल्में बनाते रहे और 1984 में अपनी उम्र के छयासीवें गौरवपूर्ण शिखर से देवलोक की ओर प्रस्थान कर दिया।

यह देश अपनी इस गरिमापूर्ण विभूति को सदा आभारसहित याद रखेगा।
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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 95



के. एन. सिंह :  याद आता है गुजरा जमाना 95

मदनमोहन तरुण

के. एन. सिंह :विलेन’ की एक अनूठी पहचान

हिन्दी खलनायकी के इतिहास में के. एन. सिंह उन हैसियतों में हैं जिन्हें एकबार देख लेने के बाद भुलापाना असम्भव है। अभिव्यक्तिमुखर बडी॰ - बडी॰ आँखें , गहरी आवाज , काला सूट पर ओवरकोट, हाथ में पाइप, हैट, सधी हुई चाल के. एन. सिंह की खास पहचान है । जटिल -से -जटिल परिस्थितियों का अभिनय करते हुए भी उनके चेहरे पर कोई विकृति नहीं आती न उनकी आवाज मे कोई कृत्रिम स्खलन आता है , मात्र आँखों के पास एक हल्की सी मरोर आती है , सामनेवाले की ओर दृष्टि सध जाती है , जिसका स्पष्ट अर्थ निकलता है - 'बकवास बन्द करो।'
राज कपूर और के एन सिंह के अभिनय में एक समानता है। राजकपूर चाहे किसी चरित्र का अभिनय कर रहे हों , वे हमेशा राजकपूर बने रहते हैं ,ठीक उसी प्रकार के एन सिंह सदा के एन सिंह ही बने रहते हैं ,किन्तु उनका प्रभाव अभेद्य रहता है।  मैंने उनकी अधिकतम फिल्में देखी हैं, उनके नायकों को मैं शायद भूल भी गया हूँ , परन्तु के. एन.  की एक - एक अदा मुझे याद है। उनके चलने, बोलने, देखने में खलनायकत्व की कोई भी परम्पराग्रस्तता या विकृति नहीं होती थी , बल्कि, इसके विपरीत, उनकी हर गतिविधि में एक गरिमा बनी रहती थी। वे खलनायकी के क्षेत्र में एक अलग स्कूल थे।
के. एन. सिंह हिन्दी सिनेमा की खलनायकी के इतिहास के उन बहुत थोडे॰ लोगों में हैं जो अपने अभिनय की दूरव्यापी और गहन छाप छोड॰ते हैं।
‘इशारा’ फिल्म में के एन ने पृथ्वीराज जी के पिता का प्रभावशाली रोल किया था , जबकि वे पृथ्वीराज जी से उम्र में बहुत छोटे थे। उनके इस रोल से स्वयम पृथ्वीराज जी भी प्रभावित हुए थे और कहा था ' सबका बाप बनकर दिखाना।' बाद में के. एन. ने उनके पुत्र राजकपूर की फिल्म 'बरसात' और 'आवारा' में अभिनय किया था , जिन्हें  अन्तरराष्ट्रीय ख्याति मिली। राजकपूर को के एन सिंह उनके बचपन से जानते थे।

१९३६ में बनी 'सुनहरा संसार' उनकी पहली फिल्म थी जिसमें उन्होंने डाँक्टर का एक छोटा - सा रोल किया था। 'भगवान' में उन्होंने पहली बार खलनायक का अभिनय किया। इसके पूर्व वे ‘हवाई डाकू’,’अनाथ आश्रम’ , ‘विद्यापति’ आदि फिल्मों में अभिनय कर प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे , परन्तु 'भगवान'1938 -उनकी वह फिल्म थी , जिसप्रकार के रोलों के लिए वे पैदा हुए थे। , ‘ज्वारभाटा'1944, ‘बाजी’1951, ‘परिणीता’ 1953 ‘सी आई डी’1956,‘हावडा॰ब्रिज'1958, ‘चलती का नाम गाडी॰’1958, ‘बरसात की रात’1960, ‘वहकौन थी’1964,'तीसरी मंजिल’ 1966', इवनिंग इन पेरिस'1967, ‘हाथी मेरे साथी'1971,  ‘आशीर्वाद’ 1968, ‘खूबसूरत’ 1980, ‘मि. इंडिया’ 1988 आदि उनकी  करीब 250 में से नयी - पुरानी वे फिल्में हैं , जिन्होंने उन्हें व्यापक ख्याति प्रदान की।

आखिर के. एन. सिंह के व्यक्तित्व की ऊर्जा कास्रोत क्या है ? उनके पिता देहरादून के सुविख्यात क्रिमिनल वकील थे। वे चाहते थे कि उनका पुत्र बैरिस्टर बने। के. एन. ने इसकी तैयारी भी शुरू कर दी थी ,किन्तु इसी बीच एक ऐसी घटना घटी जिसने उनका दृष्टिकोण बदल दिया।उनके पिता के वकालत कौशल के कारण एक ऐसा जघन्यकर्मी अपराधी छूट गया जो हत्या का दोषी था। के. एन. ने इस घटना के बाद वैरिस्ट्री की तैयारी बन्द कर दी । उन्होंने तय कर लिया ' और चाहे जो बनूँ , बैरिस्टर नहीं बनूँगा।'
 वे इसकी तुलना में एक सफल खिलाडी॰ बनना उचित समझते थे। उन्होंने वेट लिफ्टिंग में कुशलता प्राप्त की तथा बर्लिन ओलेम्पिक मेंजाने की तैयारी शुरू कर दी।इसके साथ ही उनके भीतर एक फौजी अधिकारी बनने की इच्छा थी। किन्तु , नियति ने तो उन्हें एक कुशल अभिनेता बनने के लिए पैदा किया था। उनकी कोई भी तैयारी बेकार नहीं गयी। वे सारी तैयारियाँ उनके भीतर अपरिमित ऊर्जा बन कर उनके अभिनय में फूट निकलीं।
के एन सिंह हिन्दी फिल्म संसार के उन प्रबल हस्ताक्षरों में हैं जिनकी स्याही कभी फीकी नहीं पड॰ती।
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Yaad Ataa Hai Gujaraa Jamaanaa 94


निरूपाराय : याद आता है गुजरा जमाना 94

मदनमोहन तरुण

भक्ति - फिल्मों की महानायिका : निरूपा राय

हिन्दी फिल्मों में निरूपा राय के अभिनय का इतिहास करीब पचास वर्षों के विशाल कालखण्ड में फैला हुआ है जिसमें उन्होंने २५० से भी अधिक भक्तिपूर्ण, सामाजिक , ऐतिहासिक फिल्मों में स्त्री जीवन की वैविध्य पूर्ण भूमिकाओं का कुशल एवं सुप्रशंसनीय निर्वाह किया है। उन्होंने अभिनेताओं की कई पीढि॰यों के साथ काम किया जिनमें त्रिलोक कपूर, भारत भूषण,बलराज साहनी के साथ धर्मेन्द्र, शशि कपूर ,दिलीप कुमार , अमिताभ बच्चन आदि के नाम प्रमुख हैं।
चार जनवरी 1931 को गुजरात के बलसाड में उत्पन्न निरूपा राय ने 1946 में जब अभिनय का समारम्भ किया तब मेरी उम्र करीब चार साल की थी। गुजरात के साथ   मेरा गहरा लगाव रहा है। दमण में मैंने अपने युवाकाल के बारह साल व्यतीत किये जिनमें वहाँ की खट्टी - मीठी यादें शामिल हैं।इन यादों में गुजरात के स्त्री -पुरुषों से मेरी मिठास भरी मैत्री की यादें सर्वप्रमुख हैं। गुजराती चरित्र मृदुता, खुलापन और निष्ठा का समन्वित स्वरूप है जिसमें लोगों को पारिवारिक अपनत्व के साथ  स्वीकारने की अद्भुत विशेषता है।अपनी समग्रता में निरूपा राय के व्यक्तित्व में उन सारी विशेषताओं का समन्वय है जो उनके अभिनय में पूरे निखार के साथ अभिव्यंजित हुआ।
कुछ लोगों का मानना है कि निरूपा राय ने हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में माँ की भुमिका पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था ,परन्तु यह उनके विशाल अभिनय जीवन का एक छोटा -सा -सा हिस्सा है।इस बात को भी भुलाया नहीं जाना चाहिए कि वे अपने जमाने की भक्ति फिल्मों की ऐसी अधीश्वरी रह चुकी हैं जिनसे प्रभावित महिलाएँ उनका चित्र देवताओं के साथ रखकर उनकी  आरती उतारा करती थीं।  उनकी भक्तिपरक फिल्मों की विशाल संख्या है।ऐसे आज भी बहुत सारे लोग होंगे जिन्हें नीचे दी गयी , उनके द्वारा अभिनीत कई फिल्मों की याद अभी भी होगी - मीराबाई 1946 , सावित्री सत्यवान 1948, जय हनुमान 1948, सती सुकन्या  1948, वीर भीमसेन 1949, हर हर महादेव 1950 , अलख निरंजन 1950,   श्री विष्णु भगवान 1951, श्री गणेश जन्म 1951 , श्री रामजन्म 1951 , माया मछिन्दर 1951  लव कुश 1951 , जय महाकाली 1951 , ईश्वरभक्ति 1951 , वीर अर्जुन 1951, शिवशक्ति 1952 ,राजरानी दमयन्ती 1952, भक्त पूरन 1953, शुक रम्भा 1953, नागपंचमी 1953, शिवरात्रि 1954, शिवकन्या 1954, दुर्गापूजा 1954, चक्रधारी 1954, बिल्वमंगल 1954, वामन अवतार 1955, श्रीगणेश विवाह 1955, नवरात्रि 1955, महासती सावित्री 1955, भागवत महिमा 1955, सती नागकन्या 1956, रामनवमी 1956, गौरी पूजा 1956, दशहरा 1956 ,बसंत पंचमी 1956, बजरंगबली 1956, शेषनाग 1957 राम - हनुमान युद्ध 1957, नागलोक 1957, नागमणि 1957, मोहिनी 1957, लक्ष्मीपूजा 1957, कृष्ण - सुदामा 1957, जनम - जनम के फेरे 1957, चण्डीपूजा 1957,  रामभक्त विभीषण 1958, पति परमेश्वर 1958, पक्षीराज 1959,कवि कालिदास 1959, भक्त ध्रुवकुमार 1964, श्रीराम - भरतमिलाप 1965, शंकर ,सीता , अनुसूया 1965, बद्रीनाथ यात्रा 1967, साधु और शैतान 1968, सूर्यदेवता 1968, गंगा तेरा पानी अमृत 1972,गंगा ,जमुना सरस्वती 1988. आदि ।
हो सकता है लोग इसे विवादास्पद टिप्पणी मानें किन्तु , मुझे लगता है कि भक्तिपरक फिल्मों की भूमिका एक परम्पराग्रस्त समाज में मात्र मनोरंजन तक ही सीमित नहीं रही है,उसने चुपचाप सामाजिक जीवन को ,विशेषतः महिलाओं के जीवन को प्रभावित अवश्य किया है।
उनदिनों समाज में महिलाओं के बाहर आनेजाने पर पाबन्दी थी।उन्हें घर - आँगन की चारदीवारी के बाहरके संसार को देखने का अवसर कम ही मिलता था।मनोरंजन के कार्यक्रमों में उनकी सीमा रामायण - महाभारत के उन कथावाचकों तक ही सीमित थी जो गाँव में एकाध महीने के लिए सम्पूर्ण रामायणादि का कथावाचन करते थे। अधिक से अधिक स्त्रियाँ घूँघट काढे॰ , गीत गाती हुई गाँव के मंदिर तक जातीं और फिर वैसे ही घूँघट डाले ,माथे में ढेर सारा सुहाग का सिन्दूर डाले लौट आतीं उनका जीवन डब्बे में बन्द सिन्दूर की डिबिया जैसा था।
जब हिन्दी फिल्मों का विविध माध्यमों से छोटे - छोटे शहरों तक प्रसार होने लगा तब उसके दर्शकों की संख्या पर पुरुषवर्ग का ही वर्चस्व था। बुजुर्ग मानते थे कि सिनेमा देखने से बहू - बेटियाँ बिगड॰ जाएँगी।परन्तु जब भक्तिपरक फिल्में आतीं और महिलाएँ अपने पतियों के सामने भगवान शंकर या राम को देखने की इच्छा व्यक्त करतीं तो कठोर से कठोर पुरुष  भी राजी होजाते थे। इसप्रकार भक्ति- फिल्मों ने पर्दाबद्द महिलाओं के जीवन में वह वातायन खोल दिया जिससे वे दुनिया का वह हिस्सा देख सकीं जिसमें जिन्दगी के नये - नये रंगरूप थे। इस दुनिया ने धीरे - धीरे उनके रहने, जीने, चलने, हँसने , बतियाने आदि के तरीके को अधिक रोचक बनाया। वे अब अपने बच्चों को नयी - नयी कहानियाँ सुना सकती थीं। पहले उनकी चर्चा के विषय राम, हनुमान शिव, पार्वती बने रहे, फिर धीरे - धीरे उन कलाकारों ने भी उनकी चर्चा मे प्रवेश किया जो शिव या राम या सीता के रोल में थे।
यह कोई छोटी क्रान्ति नहीं थी । यह स्त्रियों के प्रति प्रतिबन्धित दृष्टि रखनेवाले समाज में परिवर्तन की एक ऐसी सूक्ष्म धारा का प्रवेश था जिसने चुपचाप स्त्रियों के जीवन में एक नयी अस्मिता का बोध जाग्रत करते हुए उन्हें नयी ताजगी से भर दिया।
निरूपा राय उनदिनों भक्तिपरक फिल्मों की सीता, सावित्री, पार्वती, राधिका,मीरा आदि के चारित्रिक बल, संकल्प, तेजस्विता ,उच्च मानवमूल्यों की किसी भी कीमत पर रक्षा आदि का प्रतीक बन चुकी थी।
मुझे अच्छी तरह याद है। मेरी दादी को फिल्में देखना पसन्द नहीं था , परन्तु निरूपा राय का नाम वे जेसे ही सुनती , उनकी आँखों में एक चमक आजाती। फिल्म देखकर लौटने के बाद वे देर तक मगही की जगह हिन्दी बोलती रहतीं।
सामाजिक और ऐतिहासिक फिल्में –
भक्तिपरक फिल्मों के साथ ही निरूपा राय ने ऐतिहासिक एवं सामाजिक फिल्मों में भी काम किया है , जिन्हें व्यापक प्रशंसा प्राप्त हुई है -
 तीन बत्ती चार रास्ता 1953, दो बीघा जमीन 1953 ,गरम कोट 1955, मुनीम जी 1956,  हीरा - मोती -1959, बाजीगर 1959, रजिया सुलताना -1961, छाया 1962, मुझे जीने दो -1963, गुमराह -1963, हमीर हठ 1964, शहनाई 1965, नीन्द हमारी , ख्वाब तुम्हारे -1966, राम और श्याम 1967,पूरब और पश्चिम 1970, आन मिलो सजना -1970, छोटी बहू 1971, कच्चे धागे 1973, दीवार 1975,आईना 1977, मुकद्दर का सिकन्दर 1978, खानदान 1979, अमर अकबर अन्थोनी 1979, क्रान्ति 1979, मर्द 1985, लाल बादशाह 1999 आदि उनकी सुचर्चित फिल्मों में हैं, जिनमें उन्होंने अत्याचारों के विरुद्ध अटल भाव से जूझती प्रचणड,प्रखर , अपराजेय स्त्री ,  संघर्षों में पति को अटूट एवं अडिग बनाए रखनेवाली संवेदनशील  पत्नी का रोल किया है। सत्तर के दशकों में निरूपा राय ने अधिकतर माँ का जुझारू एवं अविस्मरणीय रोल किया।

दृश्य कला -माध्यमों का प्रभाव अपरिमित होता है। वे मनोरंजन करते हुए हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना को प्रभावित करते हैं।
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Yaad Ataa Hai Gujaraa Jamaanaa 93


सुमन कल्याणपुर  : याद आता है गुजरा जमाना 93

मदनमोहन तरुण

एक मोहक आवाज , जो कहीं खो गयी

तब मैं दिल्ली के लिए मसूरी से रात की सबसे अंतिम बस से रवाना होता था।इसका एक कारण था।रास्ते में पहाड॰ की ऊँचाई पर एक छोटा - सा होटल था ।उस होटल में बाँस की एक ऊँची लग्गी गडी॰ थी ,जिसके अंतिम सिरे पर एक छोटा -सा साउण्ड बाक्स टँगा होता था। होटलवाला रात में हिन्दी के केवल पुराने और चुने गाने बजाया करता था। अर्ध रात्रि के निविड॰ सन्नाटे में दूर - दूर तक पर्वत की ऊँचाई से अँधेरी घाटियों में गूँजती वह आवाज हमें किसी रहस्यमय संसार में उठा ले जाती थी। मैं इस सुख से स्वयं को कभी वंचित नहीं कर सकता था।

एकबार मैं अपनी पत्नी और बेटी के साथ बैठा मैं चाय और गानों की चुस्की ले रहा था तभी हवा में तैरती गाने की एक मोहक आवाज ने हमारे दिल की गहराइयों में दस्तक देदी - अज हूँ न आए बालमा , मौसम बीता जाए ,हाय रे मौसम बीता जाए' मुहम्मद रफी के साथ गूँजती इस आवाज को न जाने मैंने कितनी बार सुना है , सावन। लेकिन हर बार यह आवाज मन में एक नयी थिरकन पैदा कर देती है। मैंने महिला आवाज की तरीफ करते हुए मुग्धभाव से कहा - बाह , लता जीने गजब का जादू किया है। ' सुनते ही मेरी बेटी सीमा ने मेरा संशोधन करते हुए कहा - 'पापाजी ,यह लता जी की नहीं सुमन कल्याणपुर जी की आवाज है।' सुनकर झटका लगा।सुमन कल्याणपुर। इस आवाज को मैं हमेशा लता जी की आवाज समझता रहा और इसका लुत्फ उठाता रहा। मन ने सवाल किया -' यदि यह आवाज इतनी गरिमापूर्ण है तो उसकी गायिका कहाँ खोगयी ?

इस सृष्टि का निर्माण अद्भुत है। उस महान निर्माता ने यहाँ की हर छोटी - बडी॰ चीज को अपनी एक अलग पहचान दी है , जो दूसरे से नहीं मिलती।चाहे वह मनुष्य हो , पशु हो, वृक्ष हो, पक्षी हो , नदी हो , पहाड॰ हो, झरना हो, हर चीज अपने आप में अनूठी है। हर चीज में ऐसी कोई बात जरूर है जो उसे दूसरे से अलग करती है।हर चीज की अपनी एक 'आरिजिनेलिटी' है। जो अपनी इस 'इयत्ता' को पहचान नहीं पाता, वह अपनी सत्ता खो देता है। निराला जी ने लिखा था - मैने 'मैं' शैली अपनायी।' एकबार आशा भोसले जी ने एक इंटरव्यू में कहा था ' जब मुझे पता चला कि मैं लता दीदी जैसा गाती हूँ ,तो मैं सावधान हो गयी। मुझे लगा यदि मैं इसीतरह गाती रही तो मेरी आवाज लता दीदी की आवाज में खो जाएगी। तब से मैंने जानबूझ कर अपनी एक अलग शैली अपनायी।' और जाहिर है कि इससे आशा भोसले जी  अलग विभूतियों में जानी जाती हैं। लता मंगेशकर इस युग की एक महाविभूति का नाम है। उसका व्यास इतना विशाल है कि उसमें कुछ भी समाहित होकर सदा के लिए अपनी सत्ता को दे सकता है।अतः अपनी निजी पहचान बनाना जरूरी है।

सुमन कल्याणपुर से यहीं भूल हुई। वे एक असाधारण गायिका होने के वावजूद लतामंगेशकर की नकल बन कर रह गयीं। अपनी कोई पहचान नहीं बना सकीं। लतामंगेशकर के ज्वारों में उनकी सत्ता विलीन हो गयी। अन्यथा जिसने - ये किसने गीत छेढा॰, ये मौसम रंगीन शमा, तेरे बिन सूने नयन हमारे, पर्वतों के पेडों पर शाम का बसेरा है , सुरमई उजाला है , सुरमई अँधेरा है , मेरा प्यार भी तू है , ये बहार भी तू है, ये मौसम रंगीन शमा, ठहरिये होस में आ लूँ , तो चले जाइयेगा, अजहूँ न आए बालमा, दिन हो या रात , हम रहें तेरे साथ, न तुम हमें जानो , न हम तुम्हें जानें, बहना ने भाई की कलाई से प्यार बाँधा है, मेरे महबूब  न जा, जैसे सैकडों असाधारण गाने गाये हों, उसकी अलग से कोई पहचान न बन पायी हो ,  यह समझ पाना सरल नहीं है।
मेरे मन में यह सोच कर बडी॰ व्यथा होती है।

इन सब के बावजूद , विशेषज्ञों द्वारा हिन्दी - फिल्म - संगीत की जब भी चर्चा होगी, सुमन जी के श्रेष्ठ सुकंठ से निःसृत मधुर गानों की चर्चा अवश्य होगी, भले ही लोग उसे पहचानने में भूल करें।
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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 92


जागृति : याद आता है गुजरा जमाना 92

मदनमोहन तरुण

इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्हाल के

अपने समय में बनी जिन फिल्मों को मैं कभी भुला नहीं पाया , उन आसाधारण फिल्मों में 'जागृति' एक है। स्कूल के प्रधानाचार्य  के रूप में अभिभट्टाचार्य का अभिनय इस फिल्म की उपलब्धियों में है। वे प्रधानाचार्य के रूप में अपने छात्रों में नूतन मूल्य - चेतना जाग्रत कर उन्हें निष्ठावान नागरिक के रूप में ढालना चाहते हैं। स्कूल के अधिकारी एवं शिक्षकगण उनके इन प्रयोगों से सहमत नहीं हैं ,इस कारण उनकी आलोचना होती है ,परन्तु वे अपने प्रयोगों के प्रति अटल रहते हैं।
इन्हीं दिनों एक धनाढ्य परिवार के छात्र अजय का विद्यालय में नामांकन होता है। अजय एक नियम -भंजक है। वह हर रोज नयी - नयी शरारतें करता है और अपने कुछ शिक्षकों का जीवन दुष्कर बना देता है। स्वयं प्रधानाचार्य भी कभी - कभी उसे सु धारने में स्वयं को असमर्थ अनुभव करते हैं ,किन्तु वे अपनी प्रयोगधर्मिता का मार्ग नहीं छोड॰ते।
इसी बीच अजय की मित्रता शक्ति नाम के एक अपंग सहपाठी से हो जाती है जो अपनी गरीब माँ का एकमात्र बेटा है तथा जो जीवन के उच्च मूल्यों के प्रति समर्पित है। शक्ति भी अपने इस मित्र को सुधारने की बहुत चेष्टा करता है , परन्तु सफल नहीं हो पाता। एकदिन अजय स्कूल से चले जाने का निर्णय लेता है। अजय को रोकने के क्रम में सड॰क पार करते समय एक्सीडेंट में शक्ति की मृत्यु होजाती है। इस अप्रत्यासित घटना से आहत अजय के जीवन में असाधारण परिवर्तन आता है। उसके भीतर की दिशाहीन शक्तियाँ सुसंगठित होकर नया रूप लेलेती हैं। कुछ ही दिनों में वह अध्ययन और खेल दोनों ही में अपना सर्वोपरि स्थान बना लेता है।
आत्यंतिक घटनाक्रमों , भाव -संवेगों के बीच से गुजरती इस फिल्म की सुनियोजित कहानी न तो कहीं शिथिल होती है, न कहीं अकारण स्खलित होती है। अजय के आचरण की आत्यंतिकता, शक्ति के चरित्र की गहन संवेदनशीलता एवं अभिभट्टाचार्य जी की सुनियोजित, किन्तु नयी स्थितियों की स्वीकृति के प्रति खुलापन ,फिल्म को कहीं भी अस्वाभाविक होने नहीं देता और उसका प्रभाव निरन्तर गहन से गहनतर होता जाता है।
सुनियोजित कहानी, सुसिद्ध अभिनय कौशल , स्थान - स्थान पर ऐतिहासिक घटनाक्रमों का कुशल संगुफन , के साथ ही इस फिल्म की एक और असाधारण और कालजयी उपलब्धि है, और वह है ,कवि प्रदीप जी द्वारा लिखे इस फिल्म के अमर गीत , जो कानों से होकर हृदयतल में गूँजने लगते हैं। उन गीतों मे ' आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झाँकी हिन्दुस्तान की , इस मिट्टी से तिलक करो यह मिट्टी है बलिदान की', जिसे स्वयं कवि प्रदीप जी ने गाया है, ऐसे ही दूसरे राष्ट्रभक्तिपरक गीत ' दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल, सावरमती के संत तूने कर दिया कमाल', को आशा भोसले जीने गहन भावुकता से प्रस्तुत किया है तथा ' हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के , इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्हाल के', जैसे महान गीत को मुहम्मद रफी जी का स्वर मिला है। राष्ट्रीय समारोहों के अवसर पर आज भी , करीब 62 साल बाद भी ,ये गाने मन- प्राणों पर वैसा ही गहन प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
इस फिल्म का निर्देशन सत्येन बोस जी ने और संगीत निर्देशन हेमंत कुमार जी ने किया था।
यह फिल्म पहली बार 1956 में रिलीज हुई थी, तब मैंआठवीं कक्षा का विद्यार्थी था। इसे मैंने घुमंतू सिनेमा के टेंट में दरी पर बैठकर देखा था। अबतक मैं इस फिल्म का एक भी दृश्य नहीं भूला हूँ।इसके कलाकारों की एक -एक भंगिमा मुझे याद है।
कवि प्रदीप जी ने हिन्दी को कई अमर गीत दिये हैं, परन्तु इस फिल्म का हर गीत तबतक अमर रहेगा ,जबतक हममें राष्ट्राभिमान की अनुभूति बनी हुई है।

इस फिल्म के गानों की ऊष्मा का एक और कारण है। जब यह फिल्म बनी थी , तब हमारी आजादी के केवल आठ - नौ साल ही गुजरे थे। सावरमती के उस अनूठे संत की अद्भुत लडा॰ई हर किसी के भीतर तरोताजा थी।इस फिल्म को ऐसे अनेकों लोगों ने देखा था जिसने गाँधी जी की इस अनूठी लडा॰ई में भाग लिया था।

यह फिल्म हमारी उन क्लैसिक फिल्मों में है जो हमेशा नहीं बनतीं, इस  के फिल्म गाने उन अमर गानों में हैं ,जो हमेशा नहीं लिखे जाते।
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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 91


मधुबाला : याद आता है गुजरा जमाना 91
मदनमोहन तरुण
मधुबाला रूप और यौवन का महोत्सव

सुन्दरता ईश्वर की कला का परम उत्कर्ष है। वह अपनी सृष्टि को निरन्तर विविध रंगों और रूपों से सजाता रहता है। इस विराट - विशाल सृष्टि का कण -कण और क्षण - क्षण अपार सौन्दर्य से परिव्याप्त है जो हमें निरन्तर जीने की प्रेरणा देता है।हरिताभ वृक्षों पर जब खिलखिलाते फूलों की बहार आजाती है,नदी का शांत जल-विस्तार जब प्रभात की किरणों से रंजित होकर उसकी अपार लीलामयता का महोत्सव बन जाता है ,रात्रि का आकाश जब तारों से मंडित होकर अंधकार में भी चमक उठता है,कोई सुन्दर चेहरा जब हमारी दृष्टि से सरकता हुआ निकल जाता है तब उन सम्मोहनपूर्ण पलों में भी विधाता की इस कवित्वमय कला की सराहना किये बिना हम नहीं रह सकते।

सुन्दरता का प्रभाव असाधारण होता है। वह हमारे मन- प्राणों में गुदगुदी पैदा कर देता है।हमारी चेतना पर छाजाता है।हमारी स्मृति को सदा के लिए आवृत कर लेता है। अबतक मैंने जितने सुन्दर चेहरे देखे हैं , जितने सुन्दर दृश्य देखे हैं , वह मेरे भीतर उसी पल के सम्मोहन के साथ अंकित है। सोचकर कभी - कभी चकित होजाता हूँ कि ईश्वर ने हमारे भीतर कितना बडा॰ जीवंत कैनवास दिया है जिसपर जितने भी चित्र बनाओ , वह कभी भरता नहीं। ईश्वर ने हमें जो भी दिया है , भरपूर दिया है।

इन पंक्तियों को लिखते हुए मुझे अपने जमाने की फिल्म अभिनेत्री मधुबाला की याद आरही है।रूपवती मधुबाला सौन्दर्य का जादूई निर्माण थी।उसकी हिरणी - सी चमकती चंचल बडी॰ - बडी॰ आँखें , रसभरे होंठ,चेहरे की प्रफुल्ल ताजगीभरी आभा और समग्र शरीर की लोचभरी पृथुलता में एक असाधारण सम्मोहन था, जिसे भुलापाना असम्भव है।

योंतो 'मुगले आजम' मधुबाला की सुप्रशंसित फिल्मों में से एक है ,परन्तु उसके सौन्दर्य के उत्कर्ष का जो निखार 'बरसात की रात' फिल्म में दिखाई पड॰ता है , वह अन्यत्र कहीं भी नहीं।मुहम्मद रफी की आवाज और भारतभूषण जी द्वारा अभिनीत 'जिन्दगीभर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात' गाने की प्रगति के साथ मधुबाला  के कल्लोलपूर्ण  यौवन  - हिल्लोलित सौन्दर्य का जो उत्कर्षपूर्ण चित्रण हुआ है , वह हिन्दी के अबतक के फिल्म -संसार में अन्यत्र कहीं भी नहीं हुआ है। वह एक रूपसी के ब्लैक ऐण्ड ह्वाइट में चित्रित सौन्दर्य का असाधारण जीवंत और जीवंत साक्षात्कार है।  उनपलों की मधुबाला को देखना एक अभूतपूर्व अनुभव है। ‘न भूतो न भविष्यति ।‘उस पल की मधुबाला को मैं अपने आप्यायित क्षणों में आज भी जब जी करता है , अपनी आँखें मूँदकर देख लिया करता हूँ।

आज सुन्दरी अभिनेत्रियों की कमी नहीं , परन्तु वे अपने चेहरे के साथ अपनी नंगी टाँगें इतनी बेरहमी से बार - बार दिखाती हैं कि  कईबार पता नहीं चलता कि उसकी टाँग कहाँ है और उसका चेहरा कहाँ है।

मधुबाला के चेहरे जैसा ही उसका जघन-प्रदेश और पृष्ठ -प्रदेश भी उच्छल प्रभाव डालता था ,एक थ्रिल पैदा करता था, दिल की धड॰कनें बढा॰ देता था ,परन्तु मुझे याद नहीं कि स्नान के दृश्य में भी कभी उसने अपने शरीर का भद्दा प्रदर्शन किया हो। इसी बात पर एक कहानी याद आती है।शायद यशपाल जी की कहानी 'तुमने क्यों कहा था कि मैं सुन्दर हूँ' कि याद आरही है।इस कहानी की याद बहुत झीनी - झीनी -सी है इसलिए इसके चित्रण में कोई त्रुटि रह गयी हो ,तो क्षमा करेंगे।एक युवक को एक सुन्दरी युवती बहुत पसन्द थी । वह छुप - छुप कर जब भी अवसर मिलता उसे निहारा करता था।थी। इसका उस युवती को भी एहसास था।युवक की दृष्टि से सम्मोहित युवती एकदिन उसके पास पहुँच गयी।उसने सोचा युवक ने अबतक केवल मेरा चेहरा देखा है , इसने मेरा पूरा सुन्दर शरीर तो देखा ही नहीं।यह सोचकर युवती ने अपने शरीर से सारे कपडे॰ खोल कर हटा दिये और युवक के सामने नंगी खडी॰ होगयी । अबतक जो युवक उसे सम्मोहनपूर्ण निगाहों से देख रहा था उसे इस तरह अपने सामने नग्न देखकर मर्माहत होगया। उसे उस युवती से इतनी वितृष्णा हो गयी कि वह वहाँ से उठकर चला गया और उसने उस युवती को फिर कभी नहीं देखा।

महान कलाकारों ने स्त्री - पुरुष के नग्न शरीरों का असाधारण और अविस्मरणीय चित्रण किया है। वे हमारी कला की अमूल्य थाती हैं किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि हमारी अभिनेत्रियाँ हमारे सामने जब मन मेंआए तब नंगी खडी॰ होजाएँ। ऐसी नग्नता निस्सन्देह हमारी सौन्दर्य - चेतना को आहत करती हैं।

। उसका वह उद्दाम कल्लोलभरा रसमय यौवन , वह खनकभरी हँसी , वे जादूई आँखें इस जमाने की भीड॰ में भी कभी खो नहीं सकती। अबतक समय न जाने कितने दौरों से गुजर गया , लेकिन अपनी पत्नी के साथ देखी फिल्म 'बरसात की रात' की मधुबाला को शायद ही कभी भुला सकूँगा।
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