Total Pageviews

Monday, August 22, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 51

याद आता है गुजरा जमाना 51

मदनमोहन तरुण

मेरा काँलेज

राँची काँलेज एक विशाल काँलेज था जहाँ हजारों छात्र विभिन्न विषयों का अध्ययन करते थे। यह जहानाबाद के अति सीमित संसार से सर्वथा भिन्न संसार था।यह दुनिया चारों ओर से खुली हुई थी। छात्रों के अलावा यहाँ करीब बीस प्रतिशत छात्राएँ भी अध्ययन करती थीं, जो केवल लड॰किओं के बीच ही सिमट कर नहीं रहती थीं। उनका सबसे विचारों का आदान- प्रदान होता था।कुछ छात्र संघ के जिम्मेदार पदों पर भी थीं।

यहाँ एक नयी दुनिया अपने आनेवाले कल की खुल कर तैयारी कर रही थी। इसे बनते हुए देखना और उसमें अपनी भागीदारी तय करना एक रोमांचक अनुभव था।

काँलेज के हर विषय में कई युवक और बुजुर्ग अध्यापक थे जो अपने विषय में निष्णात थे।उनमें कई अपने क्षेत्र के सुप्रसिद्ध और सुप्रतिष्ठत व्यक्ति थे। कई अपने विचार , व्यवहार और आचरण की विचित्रताओं के लिए छात्रों के बीच विख्यात थे।कई की पढा॰ते समय दीवानगी देखने लायक थी।

हिन्दी में कविता लिखने के कारण बी. ए. में मैंने हिन्दी - साहित्य को अपने अध्ययन के मुख्य विषय( आनर्स) के रूप में चुना। इसके अन्तर्गत तीन सामान्य पेपर्स के साथ इस विषय के अन्य छात्रों की तुलना में तीन अतिरिक्त पेपर्स का अध्ययन करना पड॰ता था। मेरे मित्रों को जब यह मालूम हुआ कि मैं हिन्दी - साहित्य को अपने अध्ययन का विषय बनाने जा रहा हूँ तो उन्हें बहुत निराशा हई। वे मेरे पास आए और मुझे हर प्रकार से समझाने की चेष्टा की कि हिन्दी में कविता लिखना अलग बात है और अध्ययन - विषय का चयन करना अलग बात है। उन्होंने कहा कि पढा॰ई का उद्देश्य है सम्मानपूर्वक रोजी - रोटी कमाना। हिन्दी इसके लिए सक्षम नहीं है। आज अँग्रेजी का बोलवाला है और भविष्य में इस भाषा की माँग बढ॰ती ही जाएगी।इसके विपरीत हिन्दी का कोई भविष्य नहीं है।' उनके विचारों का सम्मान करते हुए भी मैंने अपना निर्णय नहीं बदला। मेरा विचार यह था कि यदि किसी भाषा में लेखनकार्य करना हो, उस पर पूरा अधिकार और उसकी पूरी तैयारी बहुत आवश्यक है।

यह वह समय था जब लोग गॉधी, नेहरू के साथ – साथ प्रेमचन्द , मैथिलीशरण गुप्त , निराला और दिनकर के नाम भी याद रखते थे।अपने शहर के लेखकों एवं विद्वानों की चर्चा से उनकी ऑखों में चमक आजाती थी।साहित्यिक , सांस्कृतिक समारोहों एवं कवि सम्मेलनों में लोगों की अच्छी भीड़ उमड़ आती थी और जनजीवन उससे नयी ताजगी और अपनी जाग्रत परम्पराओं की ऊर्जा लेकर आगे चल पड़ता था।

नकेन के प्रवर्तकों में एक श्री केसरी कुमार जी रॉंची काँलेज के व्याख्याता थे । वे हिन्दी कम्पोजीशन पढ़ाते थे। उन दिनों इन कक्षाओं में तीन सौ के करीब छात्र हुआ करते थे। उन पर मात्र विद्वत्ता के बल पर नियंत्रण रखना सरल न था।केसरी कुमार जी को यह कार्य जानबूझ कर दिया गया था क्योंकि वे विद्वान के साथ दवंग भी थे। वे उन व्याख्याताओं में भी नहीं थे कि 'सुनो या न सुनो मैं तो पढाऊँगा' के दर्शन में विश्वास रखते थे। केसरी कुमार जी के क्लास की एक अलिखित मर्यादा थी।वे पूरी तल्लीनता से पढ़ाते और यदि किसी ने बीच में जरा भी चूँ - चपड़ की तो वे मंच से ही चिल्ला पड़ते और फिर बड़ी तेजी से उस छात्र की बेंच के पास आकर बड़े जोरों से ताली बजा कर भाषण के मंच पर लौट आते और उसी प्रवाह और तल्लीनता में बोलने लगते जहॉ पर वे रुके थे। उस समय लगता ही नहीं था कि अभी कुछ हुआ था।इस प्रकार ताली बजाने की जरूरत उन्हें सत्र में एक – दो बार से ज्यादा नहीं होती थी। वे एम. ए . में श्यामसुन्दर दास का ‘साहित्यालोचन’ पढ़ाते थे।’साहित्यालोचन’ की उनकी प्रति सामान्य प्रतियों से दुगनी मोटी हुआ करती। इस रहस्य को जानने का अवसर मुझे उनके आवासस्थान पर मिला।पूरी पुस्तक की जिल्दबन्दी उनकी टिप्पणियों तथा सम्बध्द सामग्री के साथ की गयी थी।केसरी कुमार जी के सेवानिवृत्त होने का महीना था।राधाकृष्ण जी ने निराला जयंती का आयोजन किया था और नगर की ओर से केसरी कुमार जी की विदाई का समारोह भी उसी के साथ जोड़ दिया गया था।इस समारोह में पटना से नलिनविलोचन शर्मा जी एवं बनारस से त्रिलोचन शास्त्री जी आमंत्रित थे।त्रिलोचन जी पंडित भवभूति मिश्र जी के यहॉं रुके थे।शास्त्री जी के पास एक ही कुर्ता - पाजामा था जिसे वे रात में अँगोछी पहन कर धो लिया करते और सवेरे लोटे में आग डाल कर स्त्री कर लेते थे।

Copyright reserved by MadanMohan Tarun

Sunday, August 21, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 50

याद आता है गुजारा जमाना 50

मदनमोहन तरुण

राँची ,अरी ओ राँची !

बन्ध तोड़ो प्राण की सूखी धरा पर

ज्योति की गंगा उतरना चाहती है ।

वृत्त की आवृत्ति पुनरावृत्ति कोल्हू के वृषभ सा

कर्म करना, उदर भरना, मृत्यु वरना है न जीवन ।

खोज है जीवन गगन विस्तार सागर की गहनता

और उद्घाटन घनों में बद्ध दिनकर की प्रखरता ,

नयन खोलो गगन घन अंचल हटा कर

विद्यु की वनिता विहँसना चाहती है ।

मृत्यु की आराधना में भूल कोई रह गई है

इसलिए तुम अमरता से रिक्त हो कर रह गए हो

चले थे तुम संग अपने सूर्य लेकर , चंन्द्र लेकर

किन्तु वे तम के सदन की अर्गला में बँध गए हैं ,

खोल दो सब द्वार दुग्धिल चंन्द्रिका से ,

आज सरसा सिक्त होना चाहती है ।

- ज्योति गंगा, मदनमोहन तरूण

आज से करीब पचास साल पहले की बात है।

हमारा होस्टल ( नम्बर 5 ) राँची हिल के पास ,हरमू रोड पर अवस्थित था। आसपास बहुत हल्की - फुल्की आबादी थी। हरमू पथ पर, कुछ ही दूर आगे श्मशान था । उस श्मशान के पास से हरमू नदी बहती थी, जिसके पुल से लोगों का आना- जाना होता था।श्मशान के पास कुछ भयानक से चेहरेवाले दाढी॰धारी रहते थे।उन्हें देख कर डर - सा लगता था।लोगों का कहना था कि वे अघोरी तांत्रिक सन्यासी हैं। उनका कोई लोक - सम्पर्क नहीं था।शाम को आदिवासी स्त्री - पुरुषों का दल , दिन भर की मजदूरी के बाद हडि॰या ( देसी शराब) पीकर मस्त, किसी लोकधुन को हवा मे तरंगित करता ,इस सड॰क से हररोज अपने गाँव की ओर जाता था।शाम होते ही यहाँ चारों ओर निविड॰ सन्नाटा पसर जाता था। सिर्फ हम होस्टल के कुछ दीवाने किस्म के लोग पास ही की एक बडी॰ झील के पास , विशेष कर चाँदनी रात में देर तक बैठते थे। यह झील पानी से भरी रहती। इसके किनारों पर कमल के फूल उगे रहते थे।इसमें एक नाव थी जो दिन में मछली पकड॰ने के काम आती थी। और रात में कभी - कभी हम इसें बैठकर चुपके से नौका - विहार कर लेते थे।झील के चारों ओर का परिवेश हरियाली भरे , दूर तक फैले पहाडी॰ खेतों का परिवेश था जो इस झील को और भी खूबसूरत बना देता था।चाँदनी रातों को , विशेषकर पूर्णिमा की रातों में जब गोलाकार विशाल चन्द्रमा निरभ्र आकाश से इस झील के दर्पण में अपना चेहरा देखने के लिए ठीक इसके ऊपर कुछ देर के लिए रुक जाता ,तो वह दीवनगीभरा मोहक दृश्य हमें मानो किसी परीलोक में पहुँचा देता था। यह दृश्य हमारे अन्तस का मधुर विस्तार करदेता और हम देर तक विमुग्ध कभी आँखें बन्दकर और कभी खुली सपनीली आँखों से इस पूरे जदूई वातावरण का आनन्द लेते। मेरे सृजनात्मक व्यक्तित्व के निर्माण में इस झील का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।

हमारे होस्टल के पास ही राँची हिल थी , जहाँ हम संध्या समय प्रतिदिन जाते थे। इस पहाडी॰ के शिखर पर देवी की एक छोटी , किन्तु मोहक मूर्ति थी । कुछ दिनों बाद , एकदिन मैंने गौरकिया कि देवी की एक आँख बडी॰ और एक छोटी है। इसे मैं गौर न करता तो ज्यादा अच्छा होता क्योंकि उसके बाद मुझे देवी की सुन्दरता से अधिक उनकी उस आँख की कमी पहले नजर आती थी। जोभी हो देवी को देखते रहने में मुझे बहुत आनन्द आता था। राँची की इस पहाडी॰ की ऊँचाई से उसके चारोंओर का दूर - दूर का हरियाली भरा इलाका दिखाई देता था। यह दृश्य मन को एक विस्तार प्रदान करता था।

दूसरे ही दिन कई अन्य छात्रों से मित्रता हो गयी।

यह एक सर्वथा नई दुनिया थी। यहाँ आना एक अभूतपूर्व अनुभव था इस छात्रावास में भारत के विभिन्न प्रदेशों के छात्र थे। उनकी अपनी अलग - अलग भाषाएँ थीं। आपसी सम्प्रेषण की सामान्य भाषा हिन्दी थी ।जो लोग हिन्दी नहीं जानते थे वे अँग्रेजी में काम चलाते थे , परन्तु कुछ ही दिनों में करीब - करीब सबने कामचलाऊ हिन्दी सीख ली।

मेरे मित्रों में कुछ अपने स्वास्थ के प्रति बहुत सजग थे।मैं दुबला - पतला था ,यद्यपि बचपन से ही मेरी नियमित रूप से व्यायाम करने की आदत थी। स्वास्थ के इस नये अभियान के साथ मैं भी जुड॰ गया।हम चार बजे भोर में ही उठकर दण्ड - बैठक लगाते।कुछ इसमें काफी समय लगाते थे लेकिन मैं उतना ही व्यायाम करता था जितना शरीर सहज रूप से स्वीकार करता था। होस्टल से कुछ ही दूरी पर मारवाडी॰ गोशाला थी। व्यायाम समाप्त करने के बाद हमलोग एक- एक ग्लास लेकर वहाँ पहुँच जाते और गाय का अपने सामने दूहा हुआ दूध पीते।दूध पीना मुझे कभी पसन्द नहीं था ।इस बात पर माँ से मेरा झगडा॰ होजाता था,परन्तु यहाँ की बात निराली थी।यहाँ दूध पिए बिना परीशानी होती थी।

केवल दूध पीना मेरे लिए पर्याप्त नहीं था । मेरी आदत चटपटी चीजें खाने की थी।होस्टल के बाहर ही एक होटल था जिसमें सबेरे - सबेरे गर्मागरम और कुरकुरी जलेबियाँ तली जाती थी।मैं सबेरे यही नाश्ता करता था। गर्म जलेबी हाथ से मुँह तक पहुँचती, जीभ उसे गोल - गोल घुमाकर दाँतों के हवाले कर देती और दाँत उसे धीरे-धीरे चबाना शुरू करदेते और अब जिलेबी का रस जिह्वा को तृप्त करता गले में मिठास की सुरसुरी घोलता नीचे उतरने लगता। ओह! यह एकअद्भुत सुख था। इसके बाद दिन की सुखद शुरुआत होती थी।

यहाँ मैं अपनी मर्जी का वादशाह था। जो मन में आता करने के लिए स्वतंत्र था।यहाँ मुझे बार - बार कोई सलाह देनेवाला या मुझपर अनावश्यक रूप से नियंत्रण रखनेवाला नहीं था। सबकुछ मुझे ही करना था।इस स्थिति से मुझे दो मुख्य लाभ हुए।एक अपने पैसे पर इस प्रकार नियंत्रण रखना कि वह बीच में कम न हो जाएऔर दूसरा यह कि जिस कार्य के लिए मैं यहाँ आया था,उसमें किसी प्रकार का विघ्न पडे॰। बडी॰ मुस्तैदी से मैंने इन दिशाओं में स्वयं पर नियंत्रण रखा और इस दिशा में मुझे कभी कोई कठिनाई नहीं हुई।सौभाग्य से मुझे मित्र भी अच्छे मिले।

उनदिनों राँची में दो सिनेमा हाँल थे।प्लाजा, जिसमें तीन से छह बजे तक बँगला फिल्म दिखाई जाती थी तथा रात के तीन शो अँगरेजी फिल्मों के।रतन टाकिज में केवल हिन्दी फिल्में दिखाई जाती थी। यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे यहाँ हिन्दी फिल्मों के अलावा बँगला की कुछ महान फिल्में देखने का अवसर मिला। अँगरेजी फिल्में तो और भी कई जगह देखने को मिल जाती थीं , परन्तु प्रतिदिन एक बँगला फिल्म दिखाने वाले हाँल उस समय आसपास में नहीं के बराबर थे। विभूति बाबू का उपन्यास 'पथेर पांचाली' मैं पहले ही पढ॰ चुका था , और अभिभूत था , परन्तु इस उपन्यास पर सत्यजित रे की महान फिल्म देखने का मौका मुझे अभी तक नहीं मिला था। आकिर एकदिन वह अवसर मिल ही गया। प्लाजा में यह फिल्म लगी। इसे देखने के लिए मैं अपने कई बंगाली मित्रों के साथ प्लाजा पहुँचकर टिकट कटा लिया।इसे देखना एक असाधारण अनुभव था।इसमें विभूति बाबू का उपन्यास जीवंत हो उठा था।बल्कि कहें तो इसके कई अंश अपने - आप में नई सृष्टि की तरह थे। मुझे इसका एक अनूठा दृश्य अब भी याद है।यह करिश्मा सत्यजित राय ही कर सकते थे क्योंकि इस दृश्यांकन के लिए जो गहरी दृष्टि और गहन संवेदन की आवश्यकता होती है वह हर जगह नहीं मिल सकती। वर्षा के तुरत बाद कादृश्य था। पार्वती भागती चली जारही हे। तभी एक छोटे से पानी भरे गड्ढे में एक छोटे से कीडे॰ को तैरता हुआ देखती है। लगता था कीडा॰ खुशी से नाच रहा है। इस दृश्य पर कैमरा देर तक ठहरता है फिर भी कुछलोग इस महान दृश्य को मिस कर जाते हैं।फिर मैंने इस उपन्यास से सम्बन्धित तीनों फिल्में देखीं। फिर मैं इस हाँल का करीब - करीब नियमित दर्शक बन गया । बँगला और अँगरेजी की कई महान फिल्में मैंने यहीं देखीं। इसे मैं अपनी उपलब्धियों में एक मानता हूँ।

राँची का मौसम बहुत ही लुभावना था।पहाडि॰यों और हरियाली के बीच बसी इस नगरी को बादल अपनी फुहारों से हर शाम नहला देते थे।फुहारों से भींगा - भींगा इसका परिवेश बहुत ही ताजगी भरा लगता था। वर्षा में भीगे वृक्षों की पत्तियाँ जब सूरज की रोशनी से चमकती हुई हवा के रोमानी स्पर्श से थिरकने लगतीं तो उसका नजारा किसी मोहक स्वप्निल वातावरण से कम नहीं होता।

राँची मेरे लिए कोई साधारण जगह नहीं थी। यह मेरे जीवन की निर्माणशाला थी।इस स्थान का मुझपर सबसे गहरा प्रभाव पडा॰।

Copyright Reseved By MadanMohan Tarun

Saturday, August 20, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 49

याद आता है गुजरा जमाना 49

मदनमोहन तरुण

घर से दूर

जहानाबाद के काँलेज में अभीतक इंटरमीडिएट के बाद स्नातक की पढा॰ई शुरू नहीं हुई थी। आगे की पढा॰ई की इच्छा रखनेवाले को गया या पटना जाना पड॰ता था, क्योंकि जहानाबाद से निकटतम दूरी पर यही दो बडे॰ शहर थे।मैं किसी भी कीमत पर इन दो शहरों में अगली पढा॰ई के लिए तैयार नहीं था। मैं अब हर कीमत पर ऐसी जगह रहना चाहता था जहाँ मैम यहाँ के परिवेश से दूर एक स्वतंत्र जीवन बिता सकूँ। अगली पढा॰ई के लिए गया और पटना के बाद दूसरा शहर राँची था जो इनकी तुलना काफी दूर था। बाबूजी मुझे वहाँ भेजने के लिए तैयार नहीं थे।जो भी हो, मैंने तीनों शहरों के कालेजों में अपने नामांकन के लिए आवेदनपत्र भेज दिआ। संयोग से राँची काँलेज से सबसे पहले अनुमतिपत्र आ गया। पटना और गया से आने वाले पत्र की कुछ दिन प्रतीक्षा करने के बाद भी कोई जबाब नहीं आया। अंततः बाबूजी को मुझे राँची भेजने के लिए तैयार होना पडा॰।एकदिन हम रात ग्यारह बजे की ट्रेन से राँची के लिए रवाना हो गये। बाबूजी हमारे साथ थे।मैं रातभर सो नहीं सका। खिड॰की से बाहर देखने की चेष्टा करता तो केवल अंधकार ही अंधकार दिखाई देता लेकिन इतना जरूर लग रहा था कि ट्रेन सघन जंगलों से गुजर रही थी।कोयल की कूक के साथ सबेरा हुआ।अब बाहर देखना आसान था। ट्रेन जंगलों और पहाडों॰ से होती हुई गुजर रही थी। कहीं - कही छोटे - छोटे गाँव दिखाई पड॰ जाते थे। यदि ट्रेन किसी स्टेशन में रुकती तो वहाँ ऐसे लोगों की संख्या अधिक होती जिनके शरीर पर कपडे॰ कम - से - कम होते। कमर में वे सिर्फ छोटा - कपडा॰ लपेटे होते , परन्तु उनके माथे पर किसी रंगीन रस्सी से फूल या पत्ता बँधा होता।युवा महिलाओं की सजावट में भी फूल और पत्तों का महत्व अधिक था । कुछ युवकों के हाथों में मैंने बाँसुरी भी देखी। मुझे लगा मैं एक नयी संस्कृति में शामिल होने जारहा हूँ।वे लोग वहाँ के आदिवासी थे-उराँव ,मुंडा, हो आदि जाति के लोग। सबकी अपनी - अपनी नायाब परम्पराएँ थीं। वे शहरों से सामान्यतः दूर रहते थे।मिशनरियों के प्रचार के कारण उनतक नई रोशनी पहुँच रही थी।

अचानक ट्रेन की गति धीमी होने लगी। बाबूजी जाग कर ब्रश कर चुके थे।मैं भी तैयार था। थोडी॰ ही देर में ट्रेन रुकी।यह था राँची स्टेशन। ट्रेनसे उतरते ही मैंने इस धरती को प्रणाम किया।एक सज्जन वहाँ हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। बाबूजी को देखते ही वे चहक उठे और झुक कर आत्यंत सम्मान से उनके पाँव छुए और बहुत आत्मीयता से हमारा स्वागत किया। वे राँची एक व्यापारी थे और बाबूजी के भक्त। हमारे रुकने की व्यवस्था उन्होंने ही की थी।

उसी दिन राँची काँलेज में मेरा नामांकन हो गया साथ ही मुझे होस्टल नम्बर पाँच में रहने की अनुमति मिल गयी।

बाबूजी जब रात की गाडी॰ से लौटने लगे तो उनकी आँखें गीली थीं।उन्होंने मुझे गले से लगा लिया।उनके भक्त भी उन्हें छोड॰ने गये थे। उनसे उन्होंने कहा 'इनका खयाल रखियेगा। इन्हें कोई कष्ट न हो। यहाँ इनके अभिभावक आप ही हैं।' मेरी ओर देख कर बोले -पढा॰ई में खूब मन लगाना।ज्यादा कविता में मत उलझना।'इसबार मुझे उनकी बातें जरा भी बुरी नहीं लगीं। वे कहीं अंतरतम से बोल रहे थे जिसमें एक पिता की सच्ची पीडा॰ थी।मैं खुद भी बहुत भावुक हो गया था।तभी गाडी॰ सीटी बजाती आगे सरकने लगी। मेरे मन में आया मैं भी बाबूजी के साथ लौट जाऊँ। उनसे बिछुड॰ने की मुझमें अगाध पीडा॰ थी।मैं बहुत भावुक हो रहा था।आदमी कितना विचित्र प्राणी है , जब वह किसी के पास होता है तो वह उसे शायद ही ठीक से समझ पाता है, किन्तु जब उससे दूर चला जाता है तो वही उसे सबसे अच्छा लगने लगता है।

जब मैं लौट कर होस्टल पहुँचा तो मुझे रात भर नींद नहीं आई। एक तो नया माहौल दूसेरे नये सन्नाटे का अजनवी अकेलापन ! मैं अबतक घर से दूर नहीं रहा था। मुझे मेरी माँ याद आ रही थी। मैं जैसे एक छोटा बच्चा बन गया था। लगता था बिलख - बिलख कर रोऊँ। फिर बाबूजी की बहुत याद आती रही ,किस तरह ट्रेन में अकेले बैठे वे चले जा रहे होंगे !उदास ! उनका भी यह नया अनुभव होगा !

उन्हें भी क्या नींद आई होगी ?

Copyright Reserved By MadanMohan Tarun

Friday, August 19, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 48

याद आता है गुजरा जमाना 48

मदनमोहन तरुण

कभी खिले हो ! 48

कभी खिले हो

बियावान जंगल के

उनमत्त गंध - व्याकुल

फूल की तरह !

कभी ज्वारिल

तरंगों की तरह

उमडे॰ हो

कैमरा , प्रेस , रेडियो ,टीवी

से

दूर

सागर की तरह !

कभी चहक उठे हो

पक्षियों की तरह,

गुलाबी भोर की

छुवन से व्याकुल,

हवा के हल्के स्पर्श से

स्पंदित

आह्लादित

शहर के बाहर

की अनजान दूरियों में !

कभी झड॰ पडे॰ हो

सुनसान

घाटियों में,

निर्बाध

उच्छल

उन्माद के निर्झर की तरह !

कभी उमड॰ पडे॰ हो

भविष्य - रहित

अनाम

दिशाओं की ओर !

मैं अपने भीतर की यात्रा पर था।एक उल्लसित उत्सवपूर्ण यात्रा पर ! अपने आप से यह मेरी नयी पहचान थी। मैं एक विशाल पक्षी की तरह कभी गरजते सागर के ऊपर उडा॰न भरता , कभी किसी विशाल पर्वत की सबसे ऊँची चोटी से दुनिया का नजारा करता। जीवन के इस जादूई स्पर्श ने मुझे क्या - से - क्या बना दिया था ! मेरी लेखनी में लगता था जैसे किसी ने नयी और रंगीन स्याही भर दी थी और मै जीवन के उत्सव को उसमें उतारता चला जा रहा था ताकि मैं औरों के उत्साह और सपनों में भी ऐसे ही रंग भर सकूँ।

Copyright Reseved By MadanMohan Tarun

Thursday, August 18, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 47

याद आता है गुजरा जमाना 47

मदनमोहन तरुण

शब्दब्रह्म

बाबूजी की निषेधात्मक टिप्पणियों का मेरे व्यक्तित्व पर बहुत घातक प्रभाव पड॰ रहा था।मेरा आत्मविशवास , मेरा मनोबल सबकुछ संकट में था। मैं स्वयं को सम्हाले हुए था , किन्तु कहीं भीतर से बुरी तरह टूट भी रहा था। ऐसे में कहीं - न - कहीं से मुझे भावात्मक सहयोग की आवश्यकता थी।

अबतक मैं जहानाबाद कालेज का विद्यार्थी था। कालेज के एक समारोह में मित्रों के आग्रह पर मैंने अपनी एक कविता पढी॰। उसे सुन कर काँलेज के तत्कालीन प्राचार्य श्री छोटे नारायण शर्मा जी बहुत प्रभावित हुए। श्री शर्मा जी अँग्रेजी साहित्य के विद्वान और अरविन्द दर्शन के गहन अध्येता थे। बाद में उन्होंने काँलेज की नौकरी छोड॰ दी और अरविन्द आश्रम पाण्डिचेरी चले गये। वहीं से वे अरविन्द दर्शन के लिए व्याख्यान देने देश - विदेश में जाया करते थे। काँलेज जीवन के करीब तीस वर्ष बाद जब मैं मसूरी में था , तब वे जर्मनी से लौटते हुए मुझसे मिलने आए थे । उनका मुझ पर सतत स्नेह बना रहा। जहानाबाद एस. एस. कालेज में कविता मेरी सुनने के बाद उन्होंने अपने आवासस्थान पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया। उसमें कई प्रबुद्द जन उपस्थित थे। उन्होंने मुझे अपनी कविताएँ सुनाने को कहा। मैं वहाँ करीब घंटे भर अपनी कविताएँ सुनाता रहा।उससे लोग बहुत प्रभावित हुए।मेरी कविताओं में मनुष्य के साथ पशु -पक्षियों , पेड॰ -पौधों और चल - अचल के दुख- दर्द , उनकी आशा -आकांक्षाओं का चित्रण होता था। मैं प्रकृति के माध्यम से जीवन के आशावादी विचार प्रस्तुत करता था। मैं कोरी भावुकता का कवि नहीं था।मेरा वैचारिक निर्माण एक हद तक उपनिषदों के अध्ययन से हुआ था।शर्मा जी को सम्भवतः यही बात ज्यादा पसन्द आई। उस दिन उन्होंने मुझे महर्षि अरविन्द कृत महाकाव्य 'उर्वशी' एवम हिन्दी के छायावादी कवि श्री सुमित्रानन्दन पंत जी की सुप्रसिद्ध कृति 'पल्लव' देकर पुरस्कृत किया।उनकी इस प्रशंसा ने बाबूजी के आघातों से छलनी मेरे हृदय के जख्मों पर कोमल हाथों से लगाए मरहम का काम किया। एकदिन जब मैंने उनसे पूछा कि क्या कविता लिखकर मैं कोई गलती कर रहा हूँ, तब उन्होंने मुझसे पूछा ' आखिर ऐसे विचार तुममें आए कहाँ से ? तब मैंने उन्हें बताया कि इस विषय पर मेरे प्रति मेरे पिताजी के विचार कैसे हैं। सुनकर वे थोडी॰देर चुप रहे, फिर बोले - कवित्व का वैभव ईश्वर सब को नहीं देता।वह उसके लिए उपयुक्त लोगों का चुनाव करता है। तुम उन सौभाग्यशाली लोगों में हो जिसका उसने इस कार्य के लिए चुनाव किया है। इस बात को याद रखना।'

मैं अपने प्राचार्य शर्मा जी का आभारी हूँ जिन्होंने मुझे मेरे बहुत बडे॰ मनोद्वंद्व से बचा लिआ।

मुझपर बाबूजी ने अपनी निर्मम टिप्पणीयाँ उस उम्र में की थी जब आदमी को प्रोत्साहन और सही मार्ग - दर्शन की बहुत आवश्यकता होती है। किन्तु बाबूजी की टिप्पणियों से मुझे एक बहुत बडा॰लाभ हुआ। मैंने तय किया कि ऐसा व्यवहार मैं अपने बच्चों से कभी नहीं करूँगा। ऊनपर अपने विचार नहीं थोपूँगा और उन्हें उनकी स्वाभाविक रुचि की दिशा में बढ॰ने में पूरी सहायता करूँगा और कभी किसी की आलोचना करनी हो तो दूसरों की उपस्थिति में नहीं करूँगा।अपनी नौकरी के सिलसिले में ऐसे अवसर कईबार आए जब मुझे अपने अधीनस्थ अधिकारियों को कडे॰ शब्दों में सचेत करने की आवश्यकता हुई। परन्तु यह सब मैंने पूरी शालीनता और दृढ॰ता से अपने कार्यालय के एकांत में किया।इसका मुझे हमेशा सुपरिणाम मिला। अपने बच्चों के प्रति भी मैंने अपने निर्णय का सदा पालन किया और और इस बात का सदा खयाल रखा कि मैं उनकी भावनाओं को अनावश्यक रूप से आहत न करूँ।। मुझे उसका सुपरिणाम ही मिला। अपने बेटे - बेटियों के प्रति मेरा सम्बन्ध सदा मित्रों जैसा रहा। इस कारण वे मुझसे किसी भी समस्या पर खुल कर विचार - विमर्ष करते रहे । जो थोडी॰ मुझसे कमी रह गयी, उसे मेरी पत्नी ने पूरा कर दिया।

किसी भी व्यक्ति के सम्मान को आहतकर हम उसकी घृणा के अलावा और कुछ भी नहीं पा सकते।

इनके अलावा मैं अमेरिका के सुप्रसिद्ध आशावादी और व्यक्तित्व - विन्यासक लेखक ओरिसन स्वेट मार्डन की पुस्तक How to get what you want का आभारी हूँ जिसने टूटन के कगार पर खडे॰ मेरे व्यक्तित्व को क्षत - विक्षत होने से बचा लिआ। एक सड॰क से गुजरते हुए पुरानी पुस्तकों के एक विक्रेता के पास मैंने यह पुस्तक देखी। उठा कर कुछ पन्ने पलटे ही कि लगा कि यह पुस्तक मेरे लिए अपरिहार्य है। मैंने उसे तत्काल खरीद लिआ।वह पुस्तक नहीं थी , उसकी एक -एक अभिव्यक्ति विद्युत तरंगों से भरी थी।उसने मेरे हर शिथिल और आहत स्नायु को तरंगमय जागृति से भर दिआ। शब्द इतने प्रभावशाली हो सकते हैं , यह मेरा पहला और अनूठा अनुभव था।मैं उस रात एक क्ष ण भी सो नहीं सका। अपने कमरे में टहलता रहा। मेरी सारी कूंठाएँ नष्ट हो गयी और सारे अँधियारे ज्योतित होगये। मन के भीतर न जाने कितने द्वार खुल गये और मुझे अपने विराट व्यक्तित्व का साक्षात्कार हुआ।अ ब मैं पर्वत शिखरों से उडा॰न भरता हुआ आसमान की ऊँचाइयों तक जा सकता था।एक सुनहली रात। उसके बाद मैं किसी से आहत नहीं हुआ।मैं अब अपनी लघु सीमाएँ तोड॰ कर बाहर एक नई दुनिया में आ चुका था, जो मेरी और केवल मेरी दुनिया थी।मेरा सुनिशचित मत है कि यह पुस्तक कि सी भी उम्र में पढी॰ जा सकती है और इसकी असाधारण उन्नायक शक्ति का अनुभव किया जा सकता है।

ओरिसन स्वेट मार्डन

ओरिसन स्वेटमार्डन का जन्म 1850 में अमेरिका के थार्टन गोरे,न्यू हेमिस्फेयर के एक किसान परिवार में हुआ था। जब वे मात्र तीन वर्ष के थे तभी उनकी बा ईस वर्षीय माता मार्था मार्डन का देहान्त हो गया ।तब से स्वेट मार्डन और उनकी दो बहनों का पालन - पोष ण उनके पिता लियुइस ने किया जिनके पास खेती और शिकार को छोड॰कर जीवन व्यतीत करने का और कोई साधन नहीं था। जब मार्डन केवल सात वर्ष के थे तभी उनके पिता का भी देहान्त हो गया। तब से मार्डन और उनकी बहनों का पालन एक के बाद अन्य कई अभिभावकों द्वारा हुआ। वे अपनी जीविका के लिए मजदूरी करते रहे।

सैमुयल स्माइल की पुस्तक ' Self Help' ने उन्हें नूतन जीवन दृष्टि दी। उन्होंने तय कर लिया कि वे किसी भी कीमत पर अपने जीवन की स्थितियों में परवर्तन करेंगे।वे अपनी उन्नति के लिए सतत प्रयत्नशील रहे और 1871 में उन्होंने बोस्टन विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उनके विकास का सिलसिला चल निकला। 1881 में उन्होंने हारवर्ड विश्वविद्यालय से एम.डी. की डिग्री तथा 1882 में एल.एल.बी. की डिग्री प्राप्त की ।इसके साथ ही उन्होंने बोस्टन स्कूल आँफ ओरेटरी में भी अध्ययन किआ।अपने अध्ययन काल में उन्होंने केटरिंग एवं होटेल मेनेजमेंट में काम करते हुए अच्छी कमाई की।इसीसे उन्होने जमीन खरीदी और बाद में कई होटलों के मालिक बने और उनका सफलता पूर्वक संचालन किआ ।अबतक कोई सोच भी नहीं सकता था कि मार्डन आनेवाले दिनों में प्रेरक पुस्कों के महान लेखक बनेंगे। 1892 में उन्हें अपने व्यवसाय में जोरों का झटका लगा और उन्हें एक होटल में मैनेजर की नौकरी करनी पडी॰।

उन्हें एक घर की छत के कमरे में सैमुअल स्माइल की पुस्तक 'Self help' मिली।इस छोटी - सी पुस्तक ने उनके जीवन की दिशा बदल दी। इसके प्रभाव की चर्चा करते हुए उन्होंनेलिखा -' इस छोटी - सी पुस्तक के घर्षक प्रभाव ने मेरे भीतर की प्रसुप्त चिनगारी को जाग्रत कर दिआ।'उन्होंने इसी समय तय किया कि वे अमेरिका के सैमुअल स्माइल बनेंगे और इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनकी यह महत्वाकांक्षा कहीं बढ॰ - चढ॰ कर रंग लाई। अब उन्होंने अपने आशावादी विचारों को लिखकर संकलित करना आरंभ कर दिआ।यही विचार उनके आनेवाले वर्षों में खूब फले-फूले और अपने नूतन विचारधारा के आशावादी प्रोत्साहक विचारों से न जाने कितनों के भीतर की प्रसुप्त चिनगारी को धधका कर उन्होंने नई जिन्दगी दी ।

माडर्न की पहली पुस्तक ' पुशिंग टु द फ्रंट' का प्रकाशन 1894 में हुआ , जिसे पाठकों ने हाथों-हाथ अपना लिआ। 1897 में उन्होंने ' सक्सेस मैगजीन' का प्रकाशन किआ, जिसे व्यापक पाठक वर्ग मिला। 1912 आर्थिक संकट के कारण उन्हें यह पत्रिका बन्द करनी पडी॰ , किन्तु उन्होंने 1918 में पुनः ' सक्सेस' नामकी पत्रिका प्रकाशन किया जो उनके जीवनकाल तक चलती रही और विशाल पाठक वर्ग में समादृत रही। स्वेट मार्डन की ले खन गति बहुत तीव्र थी। उन्होंने प्रति वर्ष करीब दो पुस्तकें लिखीं।

1924 में कई महत्वपूर्ण पुस्तकों की पाण्डुलिपियाँ अगले प्रकाशन के लिए छोड॰कर इस महान लेखक ने इस लोक से विदा ली।

स्वेट मार्डन आज भी अपने क्षेत्र के अप्रतिम लेखक हैं।

स्वेट मार्डन की कुछ प्रमुख पुस्तकें -

1. An Iron will

2. Do It To A Finish

3. Be Good To yourself

4. Peace Power In Plenty

5.How To Get what You want

6.Cheerfulness As A Life power

7. The Miracle Of Right Thought

8.He Can Who Thinks He Can

9. Pushing To The Front Volume 1

10 Pushing To the Front Volume 2

11. Kill worry And Live Longer

12.Makng Life A Masterpiece

13. The Hour Of Opportunity

14. Stories From Life :A Book For Young People

15. Character :The Grandest Thing Of All

16. How To succeed : Stepping stones To Fame And Fortune

स्वेट मार्डन की पुस्तकें हल्के - फुल्के विकास के माध्यमों पर बल नहीं देतीं, उनमें कठिन जीवन की चुनौतियों एवं आध्यात्मिकता की ऐश्वर्यमय ज्योति है। उनकी वाणी में ओजस्विता और गहराई है , उनके दृष्टांत बहुत ही सटीक एवं विश्वसनीय होते हैं।

Copy right Reserved By MadanMohan Tarun

Wednesday, August 17, 2011

Yad Aataa Hai Gujaraa Jamanaa 46

याद आता है गुजरा जमाना 46

मदनमोहन तरुण

मैं लहर से ज्वार बनना चाहती हूँ

तब नदी से

लहर बोली-

ऐ नदी !

में उदरजा तेरी,

तुम्हारी संगिनी हूँ।

किन्तु ,तुमसे एक मेरी प्रार्थना है-

मुझे पुलिनों से न बाँधो,

मैं लहर से ज्वार बनना चाहती हूँ,

मैं गगन तक आज उड॰ना चाहती हूँ।

अब मेरे भीतर छोटी - छोटी सीमाओं से बाहर जाने की बेचैनी बढ॰ती जा रही थी। मैं लहर की तरह नदी के प्रवाह में अपनी सत्ता को विलीन करना नहीं चाहता था।बाबूजी में और मुझमें अन्तर था। मैं आकाशजीवी था और वे धरती के निवासी थे।कल्पना मेरे लिए यथार्थ से कहीं बडी॰ चीज थी और उनके लिए कल्पना बेकार और वकवास थी।आलसिओं का आश्रयस्थल मात्र थी।मैं अपने आप को अपनी कविताओं के माध्यम से पाना चाह रहा था ,क्योंकि वह मेरे अन्तरतम से आरही थी और वहाँ तक पहुँचने का सबसे विश्वसनीय रास्ता भी वही थी।कविता लिखना मेरा शौक नहीं था,मैं कविता लिखने के लिए ही पैदा हुआ था।कविता मुझे मुक्ति देती थी सीमाओं से , उन दायरों से , जिनमें सभी लोग जीते हैं।यही कारण था कि मैं औरों से भिन्न था और बाबूजी मुझे पहचान नहीं पा रहे थे।

Copyright Reserved By MadanMohan Tarun

Tuesday, August 16, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 45

याद आता है गुजरा जमाना 45

मदनमोहन तरुण

श्रीमती इंदिरा गाँधी

पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद के प्रधानमंत्रियों में इंदिराजी का नाम उल्लेखनीय है।इंदिराजी कठिन फैसले लेनेवाली खुले दिमाग की एक साहसी प्रधानमंत्री थीं।पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसी भावुकता उनमें नहीं थी। वे समय आने पर बहुत रुथलेस निर्णय लेने में समर्थ थीं। उनका कार्यकाल बहुत सीमित , विवादास्पद ,किन्तु अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा।

इंदिरा जी से सम्बन्धित एक घटना मुझे याद आ रही है,जो उनके व्यक्तित्व के उस पक्ष को प्रस्तुत करती है जो अपने निर्माणकाल में था।वे समय की नजाकत और अपने कर्तव्यों को तब भी समझती थीं।

तब इंदिराजी अपनी युवावस्था में थीं।उनकी मोहक सुन्दरता सबको लुभानेवाली थी।

तब पंडित जवाहरलाल राँची आए थे।खादी से मढी॰ जीप एयरपोर्ट से उन्हें लेकर आरही थी।पंडितजी जीप पर खडे॰ होकर हाथजोडे॰ जनता के अभिवादनों का जबाब दे रहे थे। इंदिरा जी ठीक उनकी सीट के पीछे बैठी थीं। एक स्थान पर जीप विद्यार्थियों की भीड॰ से होती हुई आगे बढ॰ने ही वाली थी कि कुछ विद्यार्थियों ने चिल्लाकर कहा- ' हम इंदिरा गाँधी को देखेंगे' , 'हम इंदिरा गाँधी को देखेंगे'।पंडित जी ने जीप रुकवा दी। उनका चेहरा क्रोध से तमतमाकर लाल हो गया था। उन्होंने पीछे मुड॰कर इंदिरा जी की ओर देखा। इंदिरा जी उठकर खडी॰ होगयीं। पंडित जी ने करीब - करीब चिल्लाते हुए कहा - ' लो देखो , देखो , इंदिरा को!' इंदिरा जी ने बडी॰ सौम्यता से मुस्कुराते हुए अपने हाथ जोडे॰ और चारों ओर देखती हुई उसी गरिमा से पुनः बैठ गयीं। भीड॰ में सन्नाटा छा गया और जीप पुनः धीरे - धीरे आगे बढ॰ने लगी।

Copyright Reserved By MadanMohan Tarun

Monday, August 15, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 44

याद आता है गुजरा जमाना 44

मदनमोहन तरुण

पंडित जवाहरलाल नेहरू 2

इस बार मैंने पंडित जी को एकदम भिन्न रूप में देखा , जिसकी मेरे हृदय पर अमिट छाप पड़ी। ईस्वी सन ठीक से याद नहीं। पटना के गॉधी मैदान में कॉंग्रेस का सम्भवतः कोई अधिवेशन आयोजित था। एक विशाल पंडाल में ऊचा मंच बनाया गया था। पंडित जी उस अधिवेशन को संबोधित करने वाले थे।खूब भीड़ जमा थी।दर्शकों की भीड़ में वहॉ मैं भी खड़ा था।मंच पर देश –प्रदेश के गण्य – मान्य नेता उपस्थित थे।पंडित जी आते ही सीधे मंच पर चले गये । सभी नेताओं ने उठ कर उनका स्वागत किया। मंच पर नेतादि मसनदों के सहारे बैठे थे। बीच में पंडित जी बैठे।इधर नीचे की भीड़ में मंच के निकट – से – निकटतर जाने के लिए जैसे लोगों में होड़ - सी लग गयी। पीछे के लोग आगे के लोगों को धकेलते हुए मंच की ओर बढ़ने लगे।तभी पंडित जी की दृष्टि एक छोटी बच्ची पर पड़ी , जो भीड़ में लोगों के बीच फॅस गयी थी ।उसके दबने का खतरा था। पंडित जी उठ कर खड़े हो गये और उन्होंने भीड़ को डॉटते हुए उस बच्ची को बचाने के लिए कहा। परन्तु, वहॉ सुनने की फुर्सत किसे थी ! बच्ची को संकट में देख कर पंडित जी मंच से कूदने को आगे बढ़े , तभी उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए एक नेता ने पीछे से उनके कुर्ते का एक छोर पकड़ लिया । पंडित जी ने अपना कुर्ता छुड़ाते हुए क्रोध में भर कर पास से मसनद उठा कर उस नेता की ओर फेंका और तेजी से सींढ़ियों से उतरते हुए लोगों के देखते – देखते मंच के नीचे से उस बच्ची को अपनी गोद में उठा लिया और उसी तेजी से मंच पर वापस पहुँच गये।अब मंचस्थ नेताओं एवं सुरक्षा अधिकारियों ने राहत की सॉस ली।

हमारा राष्ट्रनायक इस समय एक सच्चे अभिभावक की भूमिका में था।उस छोटी बालिका को संकट में देख कर उसने अपने पद और मर्यादा की कोई चिन्ता न की, न वह सुरक्षा कर्मियों के लिए ही प्रतीक्षा कर सका।

अपने महान राष्ट्रनायक की इस भावुकता से मेरी ऑंखें नम हो गयीं।

Copyright reserved by MadanMohan Tarun

0

Sunday, August 14, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 43

याद आता है गुजरा जमाना 43

मदनमोहन तरुण

पंडित जवाहरलाल नेहरू - 1

देश के नेताओं में पंडित जवाहरलाल नेहरू मुझे बहुत प्रिय थे । स्वाधीनता संग्राम में ही नहीं ,बाद में भी उनमें युवासुलभ उत्साह बराबर कायम रहा और वे अपनी संतुलित नीतियों के बल पर एक ऐसे देश को भविष्य का ठोस आधार देने में सक्षम हो सके जिसे स्वाधीनता के तुरत बाद के विभाजन , पाशविक साम्प्रदायिक दंगों एवं हताशा ने भीतर से बुरी तरह झिंझोड॰ कर रख दिया था। आज नेहरू जी के आलोचकों की कमी नहीं है, उन्होंने कुछ ऐतिहासिक गलतियाँ कीं, किन्तु मात्र इतने से उनका महत्व कम नहीं हो जाता।इस देश को उनकी देन बहुत बडी॰ है।

पंडित जी का भाषण मैंने कई बार सुना है।उनमें पांडित्य के साथ असाधारण जोश और संतुलन होता था। उनका सम्बोधन घर के उस बुजुर्ग सदस्य की तरह होता था, जिस पर सब का भरोसा था। पंडितजी समय पड॰ने पर मंच से अपनी जनता को डाँटने में भी कोई कसर नहीं छोड॰ते थे।उन्हें सुनने के लिए लाखों खी भीड॰ उमड॰ती , परन्तु उनकी सभाओं में कहीं से कोई 'चूँ' की आवाज भी नहीं आती थी।

यहाँ मैं उनके भाषण और व्यक्तित्व के कुछ विरल प्रसंग रख रहा हूँ जिसे मैं कभी भुला नहीं सकता।

ईस्वी सन ठीक से याद नहीं है।

पटना छात्र आन्दोलन के दौरान बी . एन . कॉलेज के एक छात्र दीनानाथ पाण्डे के पुलिस की गोली का शिकार हो जाने के पश्चात , आन्दोलन और भी उग्र हो गया तथा नियंत्रण के बाहर होकर अन्य क्षेत्रों में भी फैल गया। बिहार के त्तकालीन वरिष्ठ – से - वरिष्ठ नेताओं ने छात्रों को समझाने की चेष्टा की , किन्तु छात्र मानने को तैयार नहीं हुए। छात्रों ने माँग की कि वे अपना आन्दोलन तबतक वापिस नहीं लेंगे जबतक यहाँ स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरू नहीं आते। इस बीच कुछ और भी छात्र मारे गये तथा आन्दोलन उग्र से उग्रतर होता चला गया। सड़कों पर छात्रों के गिरे खून को चारों ओर से घेर कर उसके पास लिख दिया गया था ‘ यह शहीदों का खून है , इस पर पॉव मत रखिये।’ इस आन्दोलन से बिहार के बुध्दिजीवियों की भी गहरी सहानुभूति थी।कई वरिष्ठ कवियों ने छात्रों के प्रति पुलिस के इस कठोर व्यवहार की आलोचना करते हुए उस घटना पर कविताएँ लिखी थी तथा समाचारपत्रों ने छात्रों के पक्ष में टिप्पणियॉं की थी। स्थिति तब और भी गम्भीर हो गयी जब छात्रों के एकाध दल ने अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए राष्ट्रध्वज जलाया।

अंततः पंडित जवाहरलाल नेहरू पटना आना पडा॰।

मैं पटना से पैंतालिस किलोमीटर दक्षिण जहानावाद में रहता था। युवावस्था में कदम रख रहा था और छात्र आन्दोलन की उत्तेजना मुझ में भी भरपूर थी।पिताजी जब पंडित जी का भाषण सुनने के लिए अपने मित्रों के साथ पटना जाने लगे तो मैं भी साथ चलने के लिए अड़ गया। पटना की उत्तेजक स्थिति को देखते हुए बाबूजी मुझे साथ ले जाने में हिचकिचा रहे थे , परन्तु उन्हें मेरी जिद से समझौता करना पड़ा। हम बारह बजे वाली ट्रेन से पटना के लिए रवाना हो गये। ट्रेन पंडित जी का भाषण सुनने के लिए बेचैन लोगों से खचाखच भरी हुई थी।सब को आशा थी कि पंडित जी छात्रों के ऑसू पोछेंगे और अधिकारियों को डॉट पिलाएँगे। ट्रेन जब पुनपुन स्टेशन पहुँची , तो काले – काले मेघों ने सारा आसमान चारों तरफ से घेर लिया और थोड़ी ही देर मे बादल खूब गरज – गरज कर बरसने लगे। झकोरेदार वर्षा इतनी तेज थी कि हम ट्रेन के कम्पार्टमेंट में भी पूरी तरह भींग गये। पटना पहुँचते ही बाबूजी ने अपने लिए धोती –कुर्ता और मेरे लिए कुर्र्ता - पाजामा खरीदा। भींगे कपड़े झोले में रख कर और नये कपड़े पहन कर हम रिक्शा से गॉधी मैदान के लिए चल पड़े।अबतक वर्षा तो रुक गयी थी ,परन्तु आसमान में बादल अभी भी छाए हुए थे। हम सोचते थे , पता नहीं नेहरू जी आएँ या नहीं आएँ , परन्तु जब हम गॅधी मैदान पहुचे तो लोगों की भीड़ देख कर दंग रह गये। लाखों लोग भींगे कपड़ों में अपने प्रिय नेता को सुनने के लिए चुपचाप बैठे बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे थे। पंडित जी के पहुँचते ही वायुमंडल उनके जजयकार के नारों से गूँज उठा। मंच पर पहुँचते ही पंडित जी ने अपना भाषण आरम्भ कर दिया।लोग पंडित जी से जख्मों पर मरहम की आस लगाए बैठे थे ,परन्तु यह क्या पंडित जी तो जख्मों पर नमक लगाने लगे थे। उन्होंने कहा –‘तीन क्या , अगर तीन सौ विद्यार्थी भी मारे जाते तो मुझे उसका कोई अफसोस नहीं होता।वे लोग , जिन्होंने देश के झंडे को जला कर मुल्क को अपमानित किया , वे किसी भी माफी के लायक नहीं हैं। इस झंडे के लिए न जाने कितने नौजवानों ने अपनी कुर्बानियॉ दीं , जेल गये , लाठियॉं ,गोलियॉ खाईं , यहॉ उसी झंडे को जलाया गया । ’ पंडित जी की इन बातों से विद्यार्थियों के दल से कुछ विरोधी नारे उभरे ,परन्तु पंडित जी ने डॉटते हुए उन्हें ललकारा और कहा कि अगर हिम्मत होतो सामने आकर अपनी बात कहो। यह छुप –छुप कर नारे क्या लग रहे हो ! उस डॉट का तुरत प्रभाव पड़ा और उस गहरी उत्तेजना की स्थिति में भी चारों ओर शांति छा गयी। इसी बीच कुछ फुहारें पड़ने लगी। मंच पर एक अधिकारी छाता खोल कर पंडित जी के पास आ कर खड़ा हो गया । पंडित जी ने बड़े क्रोध में भर कर उस अफसर को छाते के साथ ही अपने पास से करीब – करीब धकेलते हुए ,अलग हटा दिया ।उन फुहारों से कहीं कोई व्यवधान नहीं पड़ा।उनका भाषण चलता रहा।उन्होंने क्रोधपूर्वक कहा –

‘पटना के कॉलेजों में एक नहीं , अगर सौ – सौ ताले भी लगा दिए जाएँ , तब भी मुझे कोई अफसोस न होगा। जो अपने मुल्क का झंडा जलाता है , उसके लिए हमारे दिल में कोई रहम नहीं।’ यह एक असाधारण नजारा था।फुहारें पड़ रही थीं और राष्ट्रनायक अविचल भाव से अपनी युवा पीढ़ी को डॉटे जा रहा था और लाखों की भीड़ चुपचाप सुने जा रही थी। ऐसा असाधारण दृश्य मैंने अपने जीवन में फिर कभी नहीं देखा।परन्तु ,नेहरू जी के इस सम्बोधन से छात्रों को शांति नहीं मिली।छात्रों की आस टूट गयी।परन्तु, झंडा जलानेवाली बात नेहरू जी के व्दारा इस संजीदगी से कही गयी थी कि अब चर्चा मूल विषय से हट कर इसी पर केन्द्रित हो गयी। लोगों को लगा कि अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए राष्ट्रीय ध्वज को जलाये जाने का कोई औचित्य नहीं था। उसके बाद आन्दोलन बिखर गया और फिर इस स्तर पर कभी संगठित नहीं हो सका।

Copyright Reserved By MadanMohan Tarun

Saturday, August 13, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 42

याद आता है गुजरा जमाना 42

मदनमोहन तरुण

यहाँ से भगवान बुद्ध गुजरे थे

गया मैं अपने एक मित्र से मिलने गया था। वहीं मेरी मुलाकात एक बुजुर्ग सज्जन से हुई।उनके चेहरे पर एक चमकभरी निश्चिन्तता थी और आँखों में स्थैर्य था। यह विशेषता नियमित रूप से ध्यान करनेवालों में बहुत दिनों के बाद आजाती है।कुछ देर तक समान्य परिचय और इतस्ततः की बातें होती रहीं और फिर चर्चा अध्यात्म की ओर मुड॰ गयी। अध्यात्म मेरा भी प्रिय विषय था। उनकी बातों में गहराई थी, इसलिए हम देर तक बातें करते रहे।यदि मित्र याद न दिलाते कि मेरी अंतिम ट्रेन का समय हो गया है तो मुझे शायद समय का बोध ही नहीं होता।उस समय रात के ग्यारह बजनेवाले थे। मैं जल्दी से उठा और उनसे चलने की इजाजत माँगी। वे मुझे उस मोड॰ तक छोड॰ने आए , जहाँ से स्टेशन के लिए रिक्सा मिलता था। उसके बाद उनसे सम्बन्ध और गहरा होता चला गया। मैं गया जब भी जाता, उनसे मिलता जरूर था।

वे गया के एक बहुत पुराने मुहल्ले में रहते थे जिसकी गलियाँ बहुत सँकरी और गंदी थी। बरसात के दिनों में वहाँ तक पहुँचना और भी कठिन होजाता था।नालियों का पानी गली में चारों ओर भर जाता था। उसी सँकरी गली के बीच में उनका विशाल मकान था। मकान के भीतरी भाग का रख-रखाव और उसकी सजावट वहाँ रहनेवाले की सुरुचि और सम्पन्नता को दर्शाती थी। मैं वहाँ जब भी जाता तो एक प्रश्न मेरे मन में अचानक कौंधता ' यदि इनके पास इतनी सम्पन्नता है तो ये तो गया के किसी भी खुले स्थान पर अपना मकान बनवा सकते हैं, फिर इस गंदी - सी गली में क्यों? एकाध बार मैंने धीरे से उनसे यह पूछा तो मुस्कुराते हुए उन्होंने जबाब टाल दिआ।

उसके बाद मैं वर्षों के लिए बाहर चला गया , परन्तु पत्रों के द्वारा उनसे सम्पर्क बना रहा। दो - तीन वर्षों के बाद उन्होंने पत्र से मुझे अपने यहाँ गृह-प्रवेश की पूजा के लिए आमंत्रित किआ। इस समाचार से मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि वे उस गंदी और सँकरी गली से मुक्त होकर किसी और मकान में जा रहे हैं। किन्तु उस पत्र में उनका पुराना ही पता छपा हुआ था। सोचा शायद अतिथियों के रुकने की व्यवस्था उन्होंने पुराने मकान में की होगी या सबको वहीं से एकसाथ नये मकान मैं जाना होगा। जब मैं उस समारोह में भाग लेने के लिए गया स्टेशन में पहुँचा तो देखा वे मुझे लेने के लिए प्लेटफार्म पर आए हुए हैं। हम बहुत आत्मीयता से गले मिले और उनके साथ चल पडे॰। रास्ते मैं मैने उन्हें इस बात के लिए बधाई दी कि अन्ततः उन्होंने अपना मकान बदल दिआ। इस पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की , सिर्फ मुस्कुराते रहे। अब हम उसी पुरानी गली से गुजर रहे थे।कुछ ही देर में उनका मकान आ गया। परन्तु मैंने देखा वहाँ उनका वही पुराना मकान खडा॰ था जिसमें इतस्ततः कुछ परिवर्तन कर एक नयारूप दे दिया गया था।बाद में उन्होंने स्पष्ट किया कि पूजा इसी मकान के लिए होनी है। सुनकर मुझे बहुत कोफ्त हुई।मैने तनिक चिढ॰कर पूछा 'आखिर इस गली से इतना लगाव क्यों ?' तनिक देर वे चुप रहे। फिर कहा -' मैं ऐसा नहीं कर सकता।' मैंने पूछा- 'आखिर ऐसा क्या बन्धन है?' मेरा प्रश्न सुनकर लगा उनकी दृष्टि सुदूर अतीत में चली गई है। कुछ क्षणों बाद उन्होंने कहा - 'आज से वर्षों पहले यह मकान मेरे दादाजी के भी दादाजी ने बनवाया था। तब यहाँ कोई गली थी , न कोई और मकान था। कहते हैं बोधगया जाते समय भगवान बुद्ध इस रास्ते से गुजरे थे।आज भी रात के सन्नाटे में मुझे उनके चरणों की आवाज सुनाई पड॰ती है।लगता है भगवान बुद्ध इस गली से होते हुए गुजर रहे हैं। भला इस जगह से अच्छी और कौन जगह हो सकती है , जहाँ मैं अपना मकान बनवाऊँ ?' उनके उत्तर ने मुझे अवाक कर दिआ। मैंने। उनकी ओर देखा। उनकी दृष्टि अब भी सुदूर आतीत में टिकी थी जैसे वे भगवान बुद्ध को आते हुए देख रहे हों... मैंने दोबारा उनसे यह प्रश्न कभी नहीं पूछा

Copyright Reserved by MadanMohan Tarun

Friday, August 12, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 41

याद आता है गुजरा जमाना 41

सगुनिया पेड॰

मदनमोहन तरुण

पेड॰ सगुनिया !

ठठा हँस पडूँ सुनकर अपना नाम

यही इच्छा होती है।

मुझे याद है

जब फूजा था मैं धरती पर

उस खंडहर में,

कोई सलिल नहीं देने आया था मुझको ,

मेघ ऊमड॰ते आकर बरस चले जाते थे

बागीचों में,

मैं प्यासा देखा करता था सबके चेहरे।

मै थोडा॰ - सा बढा॰

और हरियाए पत्ते लाल,

तभी हँसकर गढ॰ डाला चरवाहे ने

ग्रास बना डाला बकरे का।

फिर फूजा , फिर बढा॰

शुष्कता के विधान को तोड॰,

तभी कुछ बच्चे आए

वे मरोर ले गये हमारे पत्ते सारे ।

किन्तु ,

चाह मन की दृढ॰ होती ही जाती थी।

फिर फूजा मैं,

पत्र - पत्र की कोमलता में

अब काँटे थे,

तना कडा॰ था ।

फिर भी,

एक हठी ने मुझको

कुचल दिया जूते से कहकर

'कितना तुच्छ कुरूप वृक्ष उपजा है भू पर !'

बहुत दिनों तक मैं धरती में गडा॰ रह गया।

टूट गयी थी देह ग्लानि से गडा॰ रह गया।

किन्तु, एक दिन,

किया दमन ने द्रोह

और फिर फूज उठा मैं ,

मैने देखा नभ को

घटा चली जाती थी,

मैंने देखा, सरिता

उमड॰ बही जाती थी,

हवा वसंती फूलों का मुख चूम - चूम कर,

घूम - घूम बँसवाडी॰ के निर्जन कानन में,

मोहक वंशी बजा रही थी।

चिडि॰यों ने फुद - फुद कर अपना

प्रगट किया वासंती हर्षण,

मुझे देख सब हँसे और

मुँह फेर हट गये।

इसी तरह

हर भोर

शुरू होती थी गरलिक अपमानों से,

चुभता था हर क्षण

अंतर में,

रोम - रोम चीखा करता था।

मृत्यु - चिता पर मैं जीवन को

हँस - हँस कर गढ॰ता जाता था।

आघातों ने धूल भरे

मुख पर से दैन्य मिटा डाले थे ,

तरुण हुआ मैं,

मुख पर द्रोही पौरुष प्रबल प्रचणड हो गया,

निज अंतर से ले जीवनरस,

मै असमय ही प्रौढ॰ हो गया।

छाया बढ॰ने लगी,

सिमटने लगी धरा मेरी बाहों में,

दूर - दूर के खग ने की याचना

सुनाए गीत ,

बनाए गुल्म,

हमारे पौरुष की विस्तृत हथेलियों पर

गा - गा कर।

कभी जिन्होंने मुझे चरा था

आज वही होते मेरी छाया में

पशु विश्रब्ध,

घसगढा॰ करता है याचना,

'एक पत्ती दे देना , बडी॰ धूप है।'

एक दिवस आया जब ग्रामप्रमुख ने मेरी

सघन गहन व्यापक छाया में,

देव - स्वप्न - प्रेरित इस मंदिर को बनबाया

शंख बजे,

घंटे घडि॰यालों से

आकाश निनादित - सा हो उठा,

नाचे नर्तक,

कवियों ने पत्ती - पत्ती पर

रचे काव्य शब्दों से झंकृत।

ग्रामबधुओं ने छू मेरी शाखाएँ

माँगे जब वरदान,

'सुहागिन करो, हरो दुख त्रास,

खाली भरो गोद, सूखी काया को सींचो,

जीवन की अमृतधारा से।

अवमानित को वरो आज सम्मान देवता !

हमसब तेरी प्रजा ,

तुम्हीं वटराज हमारे ।

मुझे याद आगये पुराने दिन वे सारे

बच्चे मुझे नोच जब लेते थे हँस - हँस कर

कुचल पाँव के नीचे,

विहँस चले जाते थे।

आज सगुनिया सिद्ध पेड॰ मैं

अमित ग्रंथ का आलंबन हूँ।

मुझे भाग्य ने काटा कितनी बार,

कर्म ने गढा॰ बराबर ।

अपना पथ मैं स्वयम बनाता रहा

गगन तक।

भूमि और आकाश बीच मैं

अपनी रचना।

बादल अब आ - आ कर कहते

'बोलो जल कितना बरसाऊँ,

तेरे चरण पखार धन्य जीवन कर जाऊँ।'

मुझे हँसी आजाती

ये बातें सुन - सुन कर ।

बूँद बूँद पी हालाहल जो

पोर - पोर चीत्कारों पर पलता आया है,

जो आपना अस्तित्व सदा

ज्वालाओं पर गढ॰ता आया है,

उसे सावनी बूँद

तृप्त क्या कर पाएगी ?

बाघों का गर्जन क्या कोयल गा पाएगी ?

Copyright Reserved By MadanMohan Tarun

Thursday, August 11, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 40

याद आता है गुजरा जमाना 40

मदनमोहन तरुण

अपनी राह

चुनौतियाँ कई बार हमारे व्यक्तित्व के उन नये आयामों का उद्घाटन करती हैं , जिनसे हम इसके पूर्व परिचित नहीं थे।

बाबूजी ने जिनदिनों मेरे सृजनात्मक व्यक्तित्व पर अपनी घातक नकारात्मक टिप्पणियाँ की थीं, उनदिनों मैं उस दौर में था जब भींगती मसें ( नई - नई उगती मूँछें ) आदमी की जिन्दगी को नये पानी से सींचना शुरू कर देती हैं। यह उम्र का वह नाजुक दौर था जिसमें आदमी अगर कहीं भीतर से टूट जाए तो उसके लिए सँवरना बहुत कठिन हो जाता है।परन्तु ,मेरी रीढ॰ केवल हड्डियों और मांस- मज्जामात्र से ही नहीं बनी थी, वह बाबा की गोद में बैठकर बचपन में उनके तेजस्वी व्यक्तित्व और उनकी भाव -संकुल वाणी में वर्णित महाभारत , अन्य पुराणों , हितोपदेश और पंचतंत्र की सुनी कथाओं से निर्मित थी। बाबूजी की समय - असमय मुझ पर की गयी नकारात्मक टिप्पणियों ने मुझे कष्ट तो बहुत दिआ , परन्तु मेरी धमनियों मे बहती आदमी की गौरवगाथाओं ने उन्हें मेरे अन्तस्थ तक पहुंचने नहीं दिया। इसके लिए अपने बाबा का बहुत आभारी हूँ और अपनी माँ के कोमल , ममत्वमय किन्तु अटूट और तेजस्वी व्यक्तित्व का भी।,विवाह के बाद मेरी पत्नी मेरे संकल्पों के पीछे अटूट शक्ति बनकर खडी॰ रहीं। इससे कष्ट भी कम नहीं हुआ ,परन्तु जीवन के ऐसे पलों का स्वाद सचमुच बहुत अनूठा था।

मेरी जिन्दगी में ऐसे पल अनेकों बार आए जब मैं कभी - कभी पूरी तरह जैसे धूलिसात हो गया , परन्तु अपनी ही राख से मैं फिर - फिर फूट उठा , पहले से कहीं अधिक मजबूत होकर।

इन सबके बावजूद मैं अपने बाबूजी का बहुत सम्मान करता था।अकारण नहीं। वे एक समर्पित चिकित्सक थे।अपने विषय के वे गहन ज्ञाता थे।लालची जरा भी नहीं थे।उनके पास चिकित्सा के लिए ऐसे मरीज भी आते थे , जिनके पास नतो रहने की जगह होती , न खाने को पैसे, वे ऐसे मरीजों की सारी व्वस्था स्वयं करते थे। उन्हें औषधि भी मुफ्त में देते थे। समान्यतः वे रात में घर काफी देर से लौटते थे , परन्तु उनका स्पष्टतः निर्देश था कि यदि कोई मरीज उनके सोने के तुरत बाद भी आया हो तो उन्हें अवश्य जगा दिया जाए। माँ उनके आराम का खयाल रखती हुई इस कार्य में कभी कोताही करती थी, जिसके कारण उसे डाँट भी पड॰ जाती, परन्तु ऐसे अवसर कभी - कभी ही आते थे, समान्यतः तो पुकारनेवाले की आवाज सुनते ही बाबूजी खुद जाग जाते थे।उन्हें चुनौतीपूर्ण और दुरूह रोगियों का इलाज बहुत प्रिय था , खासकर वे, जो हर जगह से हार कर आते थे।जब ऐसे मरीज ठीक होकर जाने लगते तो उनकी आँखों की चमक देखने लायक होती थी। वे वंध्या स्त्रियओं की चिकित्सा के लिए वे बहुत प्रसिद्ध थे।ऐसी संतानवती स्त्रियों की विशाल संख्या थी, जो उन्हें देवता की तरह पूजती थी।

उनके आसपास ऐसे सम्बन्धियों की भीड॰ रहती थी , जो अपने आर्थिक अभावों का रोना रोकर उनका शोषण करते थे। बाबूजी को यह बात मालूम थी , परन्तु उन्हें अपने सामने गिड॰गिडा॰ने वाले लोग पसन्द थे और वे उन्हें देते भी थे। उनके अपनों और परायों में ऐसे कई थे जिन्होंने इसका खूब लाभ उठाया। वे अपने बच्चों से भी ऐसी ही आशा रखते थे ,जिसने उ नके सामने गिड॰गिडा॰ दिआ , उसे सबकुछ मिल गया और जिसने ऐसा नहीं किया ,उसे उन्होंने उसके सहज अधिकारों से भी वंचित कर दिआ।

बाबा द्वारा प्रदत्त सकारात्मक दृष्टि ने मुझे अपनी जडों॰ को पृथ्वी की गहराइयों में ले जाने की क्षमता दी और तूफानी हवाओं में ऊपर आकाश की ओर झूमने की।

मेरे बाबा के भीतर भी यह ऊर्जा कहीं ऐसे ही कारणों से आई थी।बाबूजी अपने छह भाइयों की मृत्यु के बाद पैदा हुए थे।उन्हें बचाने के लिए बाबा के छोटे भाई, अर्थात हमारे मँझिला बाबा ने सगुन के रूप में उन्हें गोद ले लिया था और यह सगुन काम भी कर गया।बाबूजी जीवित बच गये।मँझिला बाबा ने बडी॰ निष्ठा के साथ उनका पालन - पोषण किआ। उन्हें पढा॰या - लिखाया और अपने पाँवों पर खडा॰ किआ। इसलिए बाबूजी उन्हें ही अपना पिता मानते रहे। मेरे बाबा को अपने पिता होने का सम्मान नहीं मिला। इसकी कसक कहीं - न - कहीं उनके भीतर जरूर थी।परन्तु, वे जीवन को बहुत खुली दृष्टि से ग्रहण करते थे, इसलिए उनकी जीवंतता सदा अक्षत बनी रही और उनसे अधिक निकटता के कारण ये संस्कार मुझे भी प्राप्त हुए।

परन्तु, यह मैं आजतक नहीं समझ पाया कि बाबूजी मेरी उपलब्धियों के प्रति सदा ही , नकारात्मक क्यों बने रहे ?

Copyright Reserved By MadanMohan Tarun