Total Pageviews

Tuesday, January 31, 2012

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 103


याद आता है गुजरा जमाना 103


वह मेरा अविस्मरणीय साक्षात्कार


मदनमोहन तरुण


यू पी एस सी में उच्च पदों के लिए मैंने कई साक्षात्कार दिए और सब में मेरा चयन हुआ , परन्तु मैं वहाँ के प्रथम साक्षात्कार को कभी नहीं भूला।

दमण कालेज के लिए साक्षात्कारपत्र मिलने प र कई लोगों ने सुझाव दिया कि मैं वहाँ सूट पहन कर जाऊँ।सूट का एक अपना प्रभाव होता है।उन दिनों मैं केवल धोती कुर्ता ही पहनता था। मैंने निर्णय लिया कि मैं धोती - कुर्ता पहन कर ही साक्षात्कार के लिए जाऊँगा । अपने -आप में मेरी पूरी आस्था थी और मैं जानता था कि असरदार होना है तो स्वयम मुझे होना है न कि मेरे पहनावे को । वैसे भी मेरे मन में कहीं - न- कहीं यह विक्षोभ था कि मैं अपने वर्तमान पद से नीचे के पद के साक्षात्कार के लिए जा रहा हूँ।
एक स्टील के बक्से में अपने प्रमाणपत्र और प्रकाशित पुस्तकें और पत्रिकाएँ डालकर मैं दिल्ली के लिए रवाना हो गया । दिल्ली मैं  स्टेशन के पास के एक होटल में रुका तथा दूसरे दिन साक्षात्कार के लिए यू पी एस सी के कार्यालय में पहुँच गया । एक अधिकारी ने मेरे प्रमाणपत्रो की जाँच की और प्रतीक्षाकक्ष में बैठने को कहा । जब मैं प्रतीक्षाकक्ष के द्वार पर पहुँचा तो तो देखा कि उस कक्ष में सूट-बूटधारी हस्तियाँ बैठी हैं । सोचा यहाँ के बडे॰ -बडे॰ अफसरान होंगे। वहाँ से मैं बाहर चला आया और एक कर्मचारी से पूछा कि मैं यहाँ इन्टरव्यू देने आया हूँ , मुझे कहाँ बैठना है ?  उस कर्मचारी ने भी मुझे उसी कमरे में जाने को कहा । जब मैने उससे कहा कि वहाँ बडे॰ - बडे॰ अफसरान बैठे हैं तो वह मुस्कुराया। उसने कहा - ' वे अफसरान नहीं , आप ही जैसे इंटरव्यू देनेवाले लोग हैं ।' फिर उसने मेरे धोती - कुर्ते पर ध्यान देते हुए कहा कि आप में और उनमें इतना ही फर्क है कि आप धोती - कुर्ता में हैं और वे सूट - बूट में ।‘ सुनकर मेरी आँखें खुल गयीं।  मैं अधिक विश्वास के साथ उस कक्ष में प्रविष्ट हुआ और एक कुर्सी पर बैठ गया । वहाँ सब के हाथ में छोटे - बडे॰ बैग थे, मेरी तरह कोई स्टील का बडा॰ बक्सा लेकर नहीं आया था।

थोडी॰ देर में सबके नाम पुकारे जाने लगे । जो लोग अबतक हल्के - फुल्के मूड में गप्पें मार रहे थे वे सब गंभीर होगये । भीतर  से प्रथम सज्जन बाहर आए ।किसी ने उन्हें रोक कर कुछ पूछने का प्रयास किया किन्तु वे रुके नहीं बाहर चले गये । एक ने लौट कर बताया कि बहुत होमली वातावरण है ।कोई छेड॰छाड॰ नहीं है। लोग सामान्यत; १५- २० मिनट में बाहर आ - जा हे थे। अब मेरी बारी थी । मेरे पास बैठे सज्जन ने मुस्कुराते हुए मेरे प्रति शुभकामना व्यक्त की ।उन्हें धन्यवाद देता हुआ , अपना भारी स्टील का बक्सा उठाए , मैं कक्ष के भीतर प्रविष्ट हुआ। यह अपेक्षया एक विशाल कक्ष था  । एक बडे॰ टबुल के चारों ओर चार कुर्सियाँ लगी थी। सामने की कुर्सी पर एक भव्य से विशालकाय व्यक्ति  बैठे थे। मैंने उनका अभिवादन किया । संकेत से उन्होंने मुझे अपने सामने की कुर्सी पर बै ठने को कहा । मैं उन्हें धन्यवाद देता हुआ कुर्सी पर बैठ गया । मैने गौर से देखा। उनकी जेब पर उनका नाम लिखा था। वे फौज के मेजर जर्नल थे। सम्भवतः चेयरमैन । मेरे बैठने के तुरत बाद उन्होंने मेरा परिचय  किनारे की कुर्सी पर बैठे एक सज्जन से कराया । वे इतने क्षीणकाय थे कि मैं अबतक उन्हें देख नहीं पाया था । वे संत साहित्य के प्रसिद्द विद्वान थे। मैं उनकी पुस्तकें पढ॰ चुका था। उन्हें देखने का अवसर पहली बार मिला था। मैंने ससम्मान उनको नमस्कार किया।वही विषय के विशेषज्ञ थे  । संत साहित्य मेरा प्रिय विषय था। उन्होंने मुझसे कबीर से सम्बद्द कुछ मार्मिक प्रश्न पूछे । सम्भवतः मैंने उनकेप्रश्नों का संतोषप्रद उत्तर दिआ, उनके चेहरे की चमक से कुछ ऐसा ही लगा ।

अबतक मेरी कुछ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थी , जिनमें मेरा उपन्यास 'संत्रास' भी था । ‘संत्रास’ एक चेतना प्रवाही उपन्यास है ।उसका विषय बाहरी दुनिया से अधिक मनुष्य की अन्तश्चेतना से सम्बद्ध है । उसमें कई प्रतीक चिह्नों का भी स्थान - स्थान पर प्रयोग किया गया है। चेयरमैन महोदय ने मुझे मेरी प्रकाशित कृतियाँ दिखाने को कहा जिनका उल्लेख मैंने अपने आवेदनपत्र में किया था । मैंने बक्सा खोलकर कुछ प्रकाशन निकाल कर सामने टेबुल पर रख दिया ।

विशेषज्ञ महोदय ने मेरा उपन्यास उठा लिआ। अब सारा प्रश्न मेरे उपन्यास पर ही केन्द्रित हो गया। विभिन्न मनःस्थियों के लिए उस उपन्यास में प्रयुक्त चिह्नों की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा कि ये प्रयोग व्याकरण - सम्मत नहीं हैं। व्याकरण के अनुसार इन चिह्नों का प्रयोग मात्र तीन बार ही किया जाना चाहिए ,जबकि इस उपन्यास में  ऐसे चिह्नो का प्रयोग निर्धारित सीमा से काफी ज्यादा बार किया गया है' कहते हुए उन्होंने मेरी ओर देखा । उनके इस प्रश्न ने मुझे तनिक उत्तेजित कर दिआ। मैंने कहा -'व्याकरण के नियम कई बार कुछ विशेष अभिव्यक्तियों में सहायक न होकर बाधक हो जाते हैं । कई बार उनकी व्यवस्थाएँ आभिव्यक्ति को इतना यांत्रिक बना देती हैं कि कथ्य अपना मर्म खो देते हैं । इस उपन्यास में कई स्थानों पर व्याकरण के  नियमों का अतिक्रमण किया गया है ताकि अभिव्यक्ति को अधिक संवेदनशील  तदवत और प्रभावकारी बनाया जा सके ।' तनिक रुक कर मैंने चेयरमैन महोदय से कहा ' - यदि अनुमति हो तो एक प्रश्न पूछूँ ?' चेयरमैन महोदय ने तुरत कहा -'हाँ ,हाँ पूछिए।' मैंने कहा -' यदि आप घनघोर रात्रि में किसी सूनी जगह से गुजर रहे हों और पीछे से  कोई आप पर आक्रमण कर दे तो क्या आप   व्याकरण के नियमानुसार तीन बार – ‘बाप  बाप  बाप -'  कहेंगे या दर्द से  -' बाप $$$ रे $$$ बाप' - कहते हुए चिल्ला पडें॰गे ?'  मेरे इस प्रश्न से वहाँ सन्नाटा छा गया ।फिर चेयरमैन महोदय बहुत जोरों से ठठा कर हँस पडे॰। उन्होंने विशेषज्ञ महोदय से पूछा -' कोई और प्रश्न पूछना है?' विशेषज्ञ महोदय ने तुरत कहा - 'नहीं … नहीं… 
  इसके बाद चेयरमैन महोदय ने एक नक्शा दिखाते हुए मुझसे पूछा - 'इसमें दमण कहाँ है ?' मैने तुरत उस स्थान पर अपनी उँगली रख दी । देख कर वे मुस्कुराए और बोले - 'यह तो नहीं है।' मैंने देखा तो वहाँ दमण की जगह इलाहाबाद लिखा हुआ था। मैं तनिक देर रुका और कहा -' यह नक्शा गलत है ।' चेयरमैन महोदय ने कहा ‘नक्शा कैसे गलत हो सकता है?'  मैंने कहा – ‘यह नक्शा जरूर गलत है।' मेरा उत्तर सुनकर वे फिर जोरों से हँसे और बोले - ' आपने किसी इनक्रीमेंट की माँग नहीं की है। अगर आप चाहें तो वह आपको मिल सकता है।' उनकी इस बात से मैं चौंक पडा॰। मैं ऐसी जगह से वहाँ गया था जहाँ ऐसे चुनावों में जातीय लोगों को रखने के लिए उनदिनों तरह - तरह के हथकंडे अपनाए जाते थे। मैंने सोचा  शायद यहाँ भी कुछ ऐसे ही खेल का इरादा है , अन्यथा सरकार किसी को बिन माँगे इनक्रीमेंट देने को तैयार क्यों होगी । मैंने कहा -'मुझे नहीं चाहिए ।' उन्होंने फिर भी मुझे अतिरिक्त इनक्रीमेंट के लिए प्रोत्साहित किया , परन्तु मैंने नकारात्मक उत्तर दिआ। उन्होंने धन्यवाद करते हुऐ मुझे विदा दिया। मैंने भी धन्यवाद दिया । अपनी कितावें बक्से में बन्द कीं और उसे उठा कर बाहर निकल गया।
मेरा साक्षात्कार एक घंटा से भी ऊपर चला। जब मैं कक्ष से बाहर आया तो सभीलोग उत्सुकता से मेरी ओर देखने लगे। वे कुछ पूछना चाते थे , परन्तु मैं वहाँ से बाहर चला आया।   मैं अपने साक्षात्कार से संतुष्ट था , परन्तु इस बात के प्रति भी सुनिश्चित था कि मेरा चुनाव नहीं होगा , क्योंकि विशेषज्ञ महोदय से जिस रूप में मैंने प्रतिप्रश्न किया था वह व्यवहार शायद ही किसी को पसन्द आया हो।

मैंने सोचा  इस आशा को छोड॰कर मुझे दिल्ली और उसके आसपास के महत्वपूर्ण स्थानों का आनन्द उठा लेना चाहिए । मैं दिल्ली १५ दिन रुक गया। परन्तु जब मैं लौट कर घर पहुँचा तो पिताजी ने मुझे यू पी एस सी से प्राप्त बादामी रंग का लिफाफा दिया । मेरा चुनाव हो गया था और मुझे महीनेभर के अन्दर दमण काँलेज ज्वाइन करना था।

मैंने इस नियुक्ति का स्वीकृतिपत्र भेज दिया और दमण जाने की तैयारी करने लगा।
Copyright reserved by MadanMohan tarun

No comments:

Post a Comment