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Monday, March 12, 2012

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 107


याद आता है गुजरा जमाना 107


दमण के सागरपुत्रों की कथा



मदनमोहन तरुण

                 

दमण की आबादी उनदिनों बहुत कम थी । करीब - करीब लोग एक -दूसरे को जानते थे, यदि जानते नहीं, तो पहचानते अवश्य थे।कुछ दिनों बाद तक दमण के विभिन्न तबकों के लोगों से मेरा भी परिचय हो गया।
एक दिन वहाँ के माछी मोहन भाई टंडेल ने हमें सपरिवार पूर्णिमा के दिन नौका - विहार का निमंत्रण दिया। भला हम कब रुकने वाले थे ! उनकी नयी मशीनबोट थी। टहापोह झझकारती हुई चाँदनी रात थी। विशाल चन्द्रबिम्ब सागर के भीतर से निकल रहा था। उसकी अपरिमित रूपराशि से मुग्ध सागर के हजारों -हजार ज्वार अपनी हथेलियाँ ऊपर की ओर उठाए चाँद की ओर भागे चले जा रहे थे। आकाश के तारों का प्रतिबिम्ब सागर तल में ठीक ऐसा लग रहा था ,जैसे किसी पहाडी॰ शहर से नीचे समतल मे बसा बिजली की रोशनी से जगमगाता कोई शहर दिखाई देता है। सचमुच गजब की रात थी वह। ऐसी रात जो जिन्दगी में कभी - कभी आती है।
मोहन भाई का पूरा परिवार और हमलोग नौका पर सवार हो गये।गरुड॰ की तरह अपनी चोंच उठाए नाव सागर में उडा॰न - सी भरती निकल चली। हम  करीब तीस - चालीस किलोमीटर समुद्र के भीतर चले गये। बच्चे कल्लोल कर रहे थे और सागर के ज्वारों को भी हमलोगों से खेलने में मजा आ रहा था । उन्होंने हमें पूरी तरह भिगा दिया था। तट से दूर , बीच सागर में जहाँ चारों ओर पानी के अलावा और कुछ भी नहीं था। इस सम्मोहन में घंटों बीत गये। आने की इच्छा नहीं होती थी ,परन्तु हम ठहरे इंसान ,हमारा और लहरों का हमेशा साथ कहाँ ! आखिर हमें सागर से विदा लेना ही पडा॰। मोहन भाई ने हमें तुरत घर लौटने नहीं दिया । वे हमें अपने घर ले आए। कुछ देर हम उस सम्मोहन भरी यात्रा की याद करते रहे। मोहन भाई ने अब हमें अपना घर दिखाया। बाहर से साधारण दिखनेवाला घर भीतर से इतना सम्पन्न होगा , यह हमने सोचा भी नहीं था।

दमण के मछुआरे सामान्यतः आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं।
उनके घरों में आधुनिक जीवन की सुविधा के वे सारे सामान देखे जा साकते हैं जो  नगरों के सम्पन्न परिवारों के पास होते हैं। परन्तु , इस सम्पन्नता के लिए उन्हें कडा॰ संघर्ष करना पडा॰ है।  जब मैने मोहन भाई की सुविधा सम्पन्नता की सराहना की तो उन्होने दमण के माछियों के अतीत की याद करते हुए कहा-आज दमण के माछियों में आप जो सम्पन्नता देखते हैं वह सदा ऐसी ही नहीं थी ।

यहाँ के माछी बहुत गरीब थे।
समुद़ ही उनकी खेती था। पुरुष समुद़ से मछली पकड॰ कर लाते और स्त्रियाँ उसे बाजार में बेचने जाती थीं। जाल और रस्सी सब हम अपने हाथ से बनाते थे। पहले जाल सन की रस्सी से बनाए जाते थे। आज की तरह नायलोन की तैयार रस्सियाँ नहीं मिलती थी। और अगर मिलती भी तो इतनी महँगी कि हम उसे खरीद नहीं सकते थे। सन के साथ ही उन दिनों खजूर के पत्तों से भी रस्सी बनाई जाती थी।यह रस्सी मजबूत होती थी। इसका उपयोग नाव को बाँधने और उसकी सुरक्षा के लिए किया जाता था। पहले मछुआरे दीव और ओखा तक मछली पकड॰ने जाते थे। नाव में तीन महीने के लिए खाने - पीने की सामग्री रख ली जाती थी। इसके साथ ही नाव में ढेर सारा नमक रख लिया जाता था ताकि उसमें पकडी॰ गयी मछिलयाँ अधिक दिनों तक सुरक्षित रखी जा सकें। यात्रा के पहले नारियल डाल कर समुद़ की पूजा की जाती थी , ताकि उनकी यात्रा सकुशल सम्पन्न हो। उन दिनों विकसित बोट नहीं थे । आजकल तो भयंकर तूफानों में भी नौका को समुद़ में ले जाना आसान हो गया है। पहले मई महीने तक सागर तूफानी हो जाया करता था। तबसे करीब तीन महीने , नारियलीपू्र्णिमा तक , समुद़ में जाना बन्द हो जाता था।
उन दिनों नाव किसी मालिक की होती थी। अन्य छह - सात लोग उसके सहायक होते थे जिन्हें पन्द्रह रुपया महीना तथा भोजन दिया जाता था। मछली पकड॰ने का काम सहकारी स्तर पर किया जाता था। उनदिनों मछली एक ओर सिलवास और दूसरी ओर सूरत
 और बम्बई तक बिकने जाती थी। पोर्तगीजों के समय तक दमण के मछुआरों की आर्थिक हालत खराब बनी रही।

1961 में जब दमण स्वतंत्र हुआ , तब से वे लोग मछली पकड॰ने दुबई तक जाने लगे। मछली पकड॰ने के साथ - साथ वे अन्य व्यापार भी करने लगे। वे यहाँ से चाँदी के बदले दुबई से सोना लाने लगे। सोना जहाज के निचले तल्ले में रख कर लाया जाता ताकि उस पर किसी की नजर न पडे॰। इन पंक्तियों का लेखक जब दमण में था तब रात में करीब - करीब हर घर से धम- धम की आवाज आती रहती। यह सिलसिला रातभर चलता रहता। लगता जैसो कोई कठोर चीज हथौडे॰ से पीटी जा रही हो। पूछने पर लोगों ने बताया कि सोने के बिस्कुटों पर से दुबई की मुहर मिटाई जा रही है तकि इसे भारत के बाजार में उसे आसानी से बेचा जा सके। उस समय तक दमण सोने की तस्करी का बहुत बडा॰ केन्द्र बन चुका था।

मोहन भाई ने अपनी बात आगे बढा॰ते हुए कहा -यहाँ से अठन्नी -चवन्नी ले जाने में भी अच्छा मुनाफा मिलता था। दुबई में भारत के नौ रुपये का दस मिलता था। जब मछुआरों के जहाज दमण से बाहर काफी दिनों तक रहने लगे तो सरकार को शंका हुई। सरकार अब जहाजों के आने - जाने का हिसाब रखने लगी। समय - समय पर धर - पकड॰ भी होने लगी। ऐसे में मछुआरों ने एक अलग रास्ता निकाला। वे आधी दूरी तक समुद्र में अपनी नाव से जाते और उधर दुबई के व्यापारी आधी दूरी तक अपना माल उन तक पहुँचा देते। इस तरह नावों के लम्बे समय तक बाहर रहने की शंका का निवारण हो गया और उनका व्यापार खूब फलता - फूलता रहा।

बडी॰ चीजों के साथ टंडेल यहाँ से लहसुन ले जाते और उसके बदले में वहाँ से लौंग ले आते जो भारतीय बाजार में लहसुन से काफी महँगा बिकता था। आजादी के काफी पहले तक दमण में अरब से आनेवाले जहाजों में खजूर के बोरे आते थे। एक बोरे में चालीस किलो खजूर आता था। उन्हीं बोरों में से कुछ में सोना भी आता था। पोर्तगीज सरकार इस हेराफेरी से परिचित नहीं थी। स्वतंत्रता के पश्चात सरकार ने माछियों को नाव खरीदने के लिए कर्ज देना आरम्भ किया। इस राशि से वे मशीन बोट खरीदते थे तथा दुबई जाकर वह मशीन बेच कर उसमें विदेशी मशीन लगवा लेते थे। कुछ लोग दो मशीनें भी लगवा लेते।

दुबई से सागरतट पर आनेवाले सामानों को तुरत ठीक जगह पर पहुँचाने की सुनिश्चित व्यवस्था थी। एक खेप के लिए मजदूरों को बीस रुपये मिलते थे। अगर किसी ने पाँच बार सामान पहुँचाया तो उसे सौ रुपये मिल जाते थे। सामानों को ठीक जगह पर  रखवानेवाले और उसका हिसाब -किताब रखनेवाले को मैनेजर कहते थे। उन्हें दो से लेकर पाँच हजार रुपये महीना मिलता था। तस्करों के ड्राइवरों को पाँच हजार रुपये माहवार के साथ मकान , भोजन एवं विलासिता की सारी सामग्री उपलब्ध कराई जाती थी , क्योंकि वे उनके सबसे नजदीकी राजदारों में थे और खतरा भी उठाते थे।


आजादी के पाँच वर्षों तक भारत सरकार ने उनके व्यवसाय पर कोई बन्धन नहीं लगाया न कोई टैक्स लिआ। १९६१ से १९६८ तक दमण में तस्करी का व्यापार खूब चला।

१९६९ में सरकार ने रेड डाला जिसमें करीब एक करोड॰ रुपये का सामान पकडा॰ गया। पुलिस के लोगों ने भी इसका भरपूर लाभ उठाया। किसी- किसी घर का तो पूरा सामान उठा लिया गया। पुरुष घर छोड॰ कर भाग गये। कुछ घरों में तो केवल स्त्रियाँ ही रह गयीं। सामानों की धरपकड॰ सर्वथा अनौपचारिक रूप में हुई जिसकी कोई लिखा - पढी॰ नहीं की गयी थी। इस रेड के बाद दमण की जनता किंकर्तव्यविमूढ॰ हो गयी। उसे अबतक इसका बोध नहीं था कि दुबई से सोना लाकर उसका व्यापारिक उपयोग करना एक अवैधानिक कृत्य है। परन्तु इस धरपकड॰ से वह समझ नहीं पा रही थी कि वह अपनी रोजी - रोटी का नया जरिया क्या अपनाए ?

कहते -कहते मोहन भाई टंडेल थोडी॰ देर रुके , फिर उन्होंने मानो कुछ याद करते हुए कहा - दमण के माछियों में धनजी भाई और कांजी भाई की चर्चा आवश्यक है।जब दमण के अन्य माछी गरीबी की जिन्दगी बिता रहे थे, तब उनके पास चार बडे॰ - बडे॰ जहाज थे। इन चार जहाजों के अलावा अन्य दो छोटे - छोटे जहाजों से जो आमदनी होती थी उसे वे अपनी बेटियों के बीच बाँट देते थे। कांजी भाई बडे॰ साहसी थे। उन्होंने हाथ से चलाई जानेवाली नाव से अफ्रीका तक की यात्रा की थी। उनकी धनाढ्यता का कारण उनका अतुल साहस ही था। यही साहस आगे चलकर दमण के अन्य मछुआरों में भी जागा और लक्ष्मी उन पर भी प्रसन्न होकर उनके घरों में प्रविष्ट हुईं।

 अबतक भाभी जी , मोहन भाई की पत्नी, खाने की थाल लेकर आगईं।भोजन में भात के साथ सेंकी हुई और रसदार मछली थी।देख कर मोहन भाई मुस्कुराए। मैं इसका करण जानता था। सवेरे सब्जी मार्केट में मैं जब भी सब्जी खरीदने जाता वे हँसते हुए कहते 'साहब आप केवल घास खाता है?' घास अर्थात सब्जी। भाभी जी ने भोजन की थाल के साथ फेनी शराब की एक बोतल भी रख दी। भला इसके बिना अतिथि का स्वागत कैसे पूरा हो सकता है! दमण में बच्चे को पैदा होते ही ब्राण्डी की पहली घुट्टी दी जाती है। काजू और फेनी गोवा ,दमण की अपनी शराब है। भोजनादि कार्य समाप्त कर हमने चलने की अनुमित चाही तो मोहन भाई हमें आपनी कार से घर तक छोड॰ आए।

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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa10 6


याद आता है गुजरा जमाना 106

दमण – दर्शन - 1 ( 1969 – 1979  का दमण )

मदनमोहन तरुण



रेस्ट हाउस में सबेरे का नाश्ता समाप्त करते -करते दिन के दस बज चुके थे।तैयार होकर करीब ग्यारह बजे तक मैं शहर की ओर निकल पडा॰।

आगे के प्रथम चौराहे के पास ही पुलिस स्टेशन है और उसके ठीक सामने ,छोटा -सा , परन्तु खूब साजा -सँवरा नानी दमण का  मारकेट। मुख्यतः विदेशी सामानों से भरा बाजार। यहाँ आवश्यकता और शौक की चीजों की विविधता है। इस मारकेट में अन्दर प्रवेश कर इसकी परिक्रमा की जा सकती है। मार्केट से नीचे उतरें तो हरी - हरी सब्जियों की दुकानें । ठीक उसके सामने टैक्सी स्टैण्ड।वहीं पर एक पान की दुकान। तब दमण में बहुत मामूली होटल थे। एकाध। मेरे देखते -देखते नजीर भाई ने अपनी माँ के नाम पर खारी वाड की ओर भव्य 'रौशन मंजिल' बनवाया। उसी की पहली मंजिल पर होटल बना ,जिसमें  समय - समय पर बालीवुड के सितारे रुका करते थे। इसी भवन की तीसरी मंजिल पर मैं अपने परिवार के साथ करीब दस वर्षों (१९ ६९ से १९७९ जून) तक रहा। इसी भवन के पास के सांस्कृतिक आयोजनों में कई बार बालीवुड के गायक अपने कार्यक्रम दे चुके हैं। यहाँ से जरा आगे नजीर भाई ने अपनी पत्नी के नाम पर शमा टाकिज बनवाया था। दमण में करीब हर चार या पाँच दुकान के बाद एक बार है। आबादी का बडा॰ भाग फेनी और काजू नाम की शराब पीता है, परन्तु अपने इस लम्बे प्रवास के दौरान  शायद ही  किसी को बहकते या लड॰खडा॰ते देखा हो। सच पूछिये तो गुजरात के लोगों के लिए दमण का यह सबसे बडा॰ आकर्षण है। ड्राई गुजरात को वे यहाँ गीला करते है।शनिवार और रविवार को यहाँ ऐसे सैलानियों की अचछी भीड॰ जमा होती है। फेनी और काजू रम के अलावा देसी व्हिस्की ,वाइन और बियर , जो बाहर की अपेक्षा थोडे॰ सस्ते है ,यहाँ के मुख्य आकर्षणों में हैं।

पुलिस स्टेशन से उत्तर दिशा की ओर चलें तो आगे चल कर यहाँ की जेटी है, जहाँ पोर्तगीजों के समय में उनके माल से लदे जहाज रुका करते थे। यह जेटी नानी दमण के १७हवीं सदी में निर्मित ,संत जेरोम के विशाल किले की बाहरी गोद में है। संध्या   समय यहाँ अच्छी भीड॰ जमा होती है। इस स्थान का सबसे बडा॰ आकर्षण है , दमण गंगा। यहीं इस नदी का महासागर से मिलन होता है और इसी मिलनबिन्दु पर बसा है यह छोटा , किन्तु  ऐतिहासिक शहर ।  इसी नदी के नाम पर  इस शहर का नाम पडा॰ 'दमण' यह नदी अपने प्रवाह से दमण को दो भागों में विभाजित करती है। एक भाग का नाम है नानी दमण और दूसरे का मोटी दमण। मोटी दमण में ही समस्त सरकारी कार्यालय हैं। यही पोर्तगीजों के समय के भव्य चर्च  तथा स्कूल हैं। इन भवनों पर पोर्तगीज कला की गहरी छाप है। इनके भीतर विशाल -विशाल कक्ष हैं। कमरे सामान्यतः एक- दूसरे से मिले हैं। एक कमरे से दूसरे में जाने के लिए अन्य कमरों से होते हुए जाना पड॰ता है। दमण गंगा के दोनों तटों पर जेटी है और पोर्तगीजों के पुराने किले , जो उनके आधिपत्य की निशानियाँ है। मोटी दमण में ही पुराना लाइटहाउस है। मोटी दमण, नानी दमण   की तुलना में एक कोलाहल मुक्त स्थान है। साफ -सुथरी सड॰कों पर चलते हुए लगता है किसी विशाल किले के भीतर घूम रहे हों। यहाँ चारो ओर छतनार वृक्षों की गहन छाया है। उस समय तक नानी दमण से मोटी दमण जाने का एकमात्र साधन थी नाव।तबतक पुल का निर्माण नहीं हुआ था।

नानी दमण में देवका बीच सबसे सुन्दर है। अब उसके पास कई अच्छे होटल खुल गये हैं।प्राकृतिक दृष्टि से भी यह बीच वृक्षावलियों से शोभित और रमणीक है। मोटी दमण में जमपुर बीच तैराकी के लिए लोकप्रिय है। दमण के सागर तटों पर हमने ढेर सारे शंख ,कौडी॰ और सीप जमा किये थे। 

कभी हरिशचन्द्र कल्याण जी धोण्डे ने बताया था - '१९४० में दमण में भयंकर समुद्री तूफान आया था। यह अक्तूबर महीने की पूर्णिमा थी। दो बजे के बाद हवा धीरे- धीरे चलने लगी। फिर तेज वर्षा शुरू होगयी और हवा क्रमशः तूफानी होती गयी। जिमी सेठ की बाडी॰ के अनेकों नारियल के वृक्ष जड॰ से उखड॰ कर ध्वस्त हो गये। हवा और वर्षा रात भर होती रही। लोगों के घर गिर गये। अनेकों घरों के छप्पर उड॰ गये। वापी में तो गोदाम की पूरी छत ही उड॰ गयी। गनीमत है सागर में बहुत उफान नहीं आया, नहीं तो दमण वासियों का जीवन और भी बेहाल हो जाता।

दमण में बाढ॰ का एक विकट दृष्य मैंने भी देखा था। यह बाढ॰ १९७६ में आई थी। सम्भवतः जुलाई का महीना था। उनदिनों मैं खारीवाड के रौशन मंजिल में रहता था। वह दमण का नवीनतम और सबसे ऊँचा मकान था। मै उसकी तीसरी मंजिल पर रहता था। एक दिन तेज हवाएँ चलने लगी और कुछ ही देर में तेज वर्षा होने लगी और धीरे - धीरे हवा ने तूफानी रूप धारण कर लिया। तीन दिनों तक लगातार वर्षा होती रही। सागर पर हर किसी को विश्वास था कि वह पानी को स्वयम में समेट लेगा और दमण वासियों को कोई कष्ट नही होगा। लोग यही सोच कर निश्चिन्त अपने घरों में सो रहे थे। परन्तु रात में करीब तीन बजे जोर - जोर की आवाजें सुन कर लोगों की नींद खुल गयी। जिनके घर नीचे थे , वे पूरी तरह पानी में डूब गये थे। स्वयम रौशन मंजिल का एक तल्ला पानी मे डूबा हुआ था। बाहर सड॰क गायब थीं । सड॰क पानी में डूबी थी। लगता था महासागर दमण शहर की सैर करने आगया है। लोगों की रक्षा के लिए दमण के माछी अपनी नावे पानी भरी सड॰कों पर उतार लाए थे। उसी से एक ओर जहाँ डूबतों को बचाया जा रहा था , वहीं लोगों तक आवश्यकता की चीजें पहुँचाई जा रही थी। दमण के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति को भी इससे पहले किसी ऐसी बाढ॰ की याद नहीं थी।

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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 105


याद आता है गुजरा जमाना 105

मदनमोहन तरुण

दमण काँलेज में मेरा प्रथम दिन

अगले दिन करीब दस बजे मैं अपना पदभार ग्रहण करने के लिए काँलेज चल पडा॰। कालेज शहर से करीब दो किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित था। रास्ते में दोनों ओर खेत थे जिसमें फसलों की हरियाली लहरा रही थी। मै तो पहले से ही वहाँ नौकरी के लिए उत्साहित नहीं था , दूसरे रास्ता देखकर और भी निराशा हुई। जब मै काँलेज पहुँचा तो उसका भवन देखकर और भी निराशा हुई। अभी यह करीब - करीब अर्धनिर्मित अवस्था में था। काम लगा हुआ था। बाहर छात्र - छात्राओं की कल्लोलभरी भीड॰ थी।छात्रों की तुलना में छात्राओं की संख्या अधिक थी और वे छात्रों की तुलना में अधिक सुसज्ज और मुखर थीं। प्राचार्य महोदय के कक्ष के पास पहुँचकर बाहर खडे॰ पीएन को अपने बारे में बताया। वह तुरत भीतर गया और प्राचार्य महोदय से अनुमति लेकर ससम्मान मुझे भीतर ले गया।

प्राचार्य महोदय ने सोत्साह एवं आत्मीयतापूर्वक मेरा स्वागत किया। उनकी आँखों में सौजन्य और सह्रदयता की चमक थी। मुझे अच्छा लगा । मैंने पदभारग्रण की औपचारिकता पूरी की। उसके बाद ऊन्होंने मुझे रात्रिकालीन भोजन के लिए आमंत्रित किया। पाचार्य महोदय की उम्र उस समय करीब पचास से ऊपर रही होगी। इस कालेज में आने के पूर्व वे नेपाल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एवम गणित के विभागाध्यक्ष थे। संध्या समय जब मैं उनके घर पहुँचा तो उनकी श्रीमती जी ने भी  प्रसन्नतापूर्वक मेरा स्वागत किया। मुझे बहुत अच्छा लगा। बाद जब मेरा परिवार भी मेरे साथ आगया तो उनसे मेरी घनिष्ठता और भी गहन होगयी।

संध्या समय मेरे विभाग के बारे में सांकेतिक रूप से उन्होंने जो बताया वह बहुत उत्साहजनक नहीं था।मेरे लिए जटिल परिस्थितियों का सामना करना कभी बहुत कठिन नहीं रहा है। मैं समय के अनुसार अपना कर्तव्य निर्धारण कर लेता हूँ।

मैं ज्यादातर भीतर की दुनिया में रहनेवाला प्राणी हूँ। मेरा बन्द कमरा बाहर के संसार से कहीं अधिक विशाल और आकर्षक रहा है। यहाँ मैं अपना समय अध्ययन में तो लगाता ही हूँ ,उसके अलावा यहाँ मैं अपनी बन्द अँखों के पथ से नये - नये संसारों की यात्रा करता रहता हूँ। यहाँ बैठे – बैठे मैं न जाने कितने लोकों की यात्रा करता रहा हूँ। अझात संसार में नजाने मेरे कितने आत्मीय मित्र हैं जिनके साथ मैं अपना अधिकतम समय बिताता हूँ।

कुलमिलाकर यह मेरे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण दिन था। भारत सरकार की सेवा में प्रवेश का यह मेरा प्रथम दिन था। मेरे स्थान और पद बदलते रहे ,परन्तु केन्द्रीय सरकार के विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थानों में मैंने अगले पैतीस वर्ष व्यतीत किए और अपने पद की गरिमा को अपनी सतत समर्पित सेवा से समुज्वल बनाए रहा। मेरा यह आत्मतोष ही मेरी सबसे बडी॰ उपलब्धि है। 

Tuesday, January 31, 2012

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 104


याद आता है गुजरा जमाना 104

जल – ब्रह्माण्ड

मदनमोहन तरुण

२४ दिसम्बर 1969



अपना पदभार ग्रहण करने के लिए मैं दमण पहुँच गया। यहाँ आवास न मिलने तक मेरे रुकने की व्यवस्था पी डब्लू डी के गेस्ट हाउस में की गयी थी। यह गेस्ट हाउस एकदम अरब महासागर के मनोरम तट पर नानी दमण में आवस्थित था।

अबतक मैंने नदियाँ देखी थी , उनके प्रवाह और लहरों का साक्षात्कार किया था, परन्तु अबतक महासागर नहीं देखा था। उनके चित्र देखे थे, उनके बारे में पढा॰भर था। मन में न जाने कब से महासागर देखने की प्रबल इच्छा थी।

आज वह दिन आ गया।

कमरे में प्रवेश करते ही मैंने खिड॰की से दूर - दूर तक फैली महाजलराशि का साक्षात्कार किया। मेरे हाथ जुड॰ गये , मस्तक नत होगया।
मैने कमरा बन्द किया और बाहर निकल पडा॰। अब मैं सागरतट पर खडा॰ था। इस महादर्शन के प्रथम आप्यायित सुविस्मित क्षण को शब्दों में व्यक्त करना सम्भव नहीं। लगा जैसे मैं किसी जल-ब्रह्माणड में प्रविष्ट होगया हूँ ,जहाँ पृथ्वी का कहीं नमोनिशान नहीं है और दूर - दूर तक उत्तालतरंगोंभरा पानी ही पानी है।
सागर नदी की तरह कलकल निनाद नहीं  करता, सिहों की तरह गर्जन करता है।सहस्रों वासुकि नागों की भाँति फूत्कारते ज्वार एकसाथ दौड॰ लगाते हैं और तट के पास आते - आते पाताल में प्रवेश कर जाते हैं।
लगता है जैसे पृथ्वी अपने विशाल पंख खोल कर उड॰ चली है।
लगता है जैसे संध्या का ललाभ ललाम सूर्य पूरी जलराशि को स्वर्णमय करता हुआ इसी में विश्राम करने की तैयारी कर रहा हो।
रामायण में वर्णित सोने की लंका अवश्य ही संध्या के समुद्र जैसी रही होगी और वहाँ रावण अवश्य ही ऐसे ही गर्जन करता होगा अवश्य  ही पवनपुत्र हनुमान ने जो लंका दहन किया था उसका दृश्य कुछ ऐसा ही रहा होगा और लंका - दहन के पश्चात पूरी लंका रात्रिकाकीन समुद्र की तरह होगयी होगी।

मुझे पता नहीं चला कबतक मैं अभिभूत सागरतट पर खडा॰ रहा। जब लैटा तो मैं पूरी तरह भींग चुका था। अब मुझे थकान महसूस होरही थी। मेरे खाने की थाल पास के टेबुल पर रखी थी और भोजन समाप्त कर मैं सोने की तैयारी करता रहा और मेरे भीतर सागर भाँति - भाँति के रूप धारण कर मुझे ललचाता हुआ जैसे बार - बार बुलाता रहा।
तब से करीब आगामी दस वर्षों तक इस महासागर के न जाने कितने रूप मैंने देखे हैं।
  शांत सागर किसी गहन दार्शनिक - सा लगता है। विचारमग्न  सागर के ललाट की गहन चलरेखाओं में अननन्तता का सृजनात्मक विस्तार होता है। आज भी वह सागर मेरे भीतर वैसे ही अवस्थित है। आज भी जब मैं उससे बहुत दूर चला आया हूँ मैं अपने अन्तः में सदा के लिए अंकित और अवस्थित उस सागर तट पर न जाने कितनी देर खडा॰ रहता हूँ।

बरसात के दिनों मे आकाश से जब धारासार वर्षा होने लगती है तो धरती- आकाश -सागर सब की सत्ता एक - दूसरे में विलीन हो जाती है।आकाश में बादल गरजते हैं और नीचे सागर।

यह महासगर मेरे पूरे दमण - निवास की सबसे बडी॰ उपलब्धि था ।
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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 103


याद आता है गुजरा जमाना 103


वह मेरा अविस्मरणीय साक्षात्कार


मदनमोहन तरुण


यू पी एस सी में उच्च पदों के लिए मैंने कई साक्षात्कार दिए और सब में मेरा चयन हुआ , परन्तु मैं वहाँ के प्रथम साक्षात्कार को कभी नहीं भूला।

दमण कालेज के लिए साक्षात्कारपत्र मिलने प र कई लोगों ने सुझाव दिया कि मैं वहाँ सूट पहन कर जाऊँ।सूट का एक अपना प्रभाव होता है।उन दिनों मैं केवल धोती कुर्ता ही पहनता था। मैंने निर्णय लिया कि मैं धोती - कुर्ता पहन कर ही साक्षात्कार के लिए जाऊँगा । अपने -आप में मेरी पूरी आस्था थी और मैं जानता था कि असरदार होना है तो स्वयम मुझे होना है न कि मेरे पहनावे को । वैसे भी मेरे मन में कहीं - न- कहीं यह विक्षोभ था कि मैं अपने वर्तमान पद से नीचे के पद के साक्षात्कार के लिए जा रहा हूँ।
एक स्टील के बक्से में अपने प्रमाणपत्र और प्रकाशित पुस्तकें और पत्रिकाएँ डालकर मैं दिल्ली के लिए रवाना हो गया । दिल्ली मैं  स्टेशन के पास के एक होटल में रुका तथा दूसरे दिन साक्षात्कार के लिए यू पी एस सी के कार्यालय में पहुँच गया । एक अधिकारी ने मेरे प्रमाणपत्रो की जाँच की और प्रतीक्षाकक्ष में बैठने को कहा । जब मैं प्रतीक्षाकक्ष के द्वार पर पहुँचा तो तो देखा कि उस कक्ष में सूट-बूटधारी हस्तियाँ बैठी हैं । सोचा यहाँ के बडे॰ -बडे॰ अफसरान होंगे। वहाँ से मैं बाहर चला आया और एक कर्मचारी से पूछा कि मैं यहाँ इन्टरव्यू देने आया हूँ , मुझे कहाँ बैठना है ?  उस कर्मचारी ने भी मुझे उसी कमरे में जाने को कहा । जब मैने उससे कहा कि वहाँ बडे॰ - बडे॰ अफसरान बैठे हैं तो वह मुस्कुराया। उसने कहा - ' वे अफसरान नहीं , आप ही जैसे इंटरव्यू देनेवाले लोग हैं ।' फिर उसने मेरे धोती - कुर्ते पर ध्यान देते हुए कहा कि आप में और उनमें इतना ही फर्क है कि आप धोती - कुर्ता में हैं और वे सूट - बूट में ।‘ सुनकर मेरी आँखें खुल गयीं।  मैं अधिक विश्वास के साथ उस कक्ष में प्रविष्ट हुआ और एक कुर्सी पर बैठ गया । वहाँ सब के हाथ में छोटे - बडे॰ बैग थे, मेरी तरह कोई स्टील का बडा॰ बक्सा लेकर नहीं आया था।

थोडी॰ देर में सबके नाम पुकारे जाने लगे । जो लोग अबतक हल्के - फुल्के मूड में गप्पें मार रहे थे वे सब गंभीर होगये । भीतर  से प्रथम सज्जन बाहर आए ।किसी ने उन्हें रोक कर कुछ पूछने का प्रयास किया किन्तु वे रुके नहीं बाहर चले गये । एक ने लौट कर बताया कि बहुत होमली वातावरण है ।कोई छेड॰छाड॰ नहीं है। लोग सामान्यत; १५- २० मिनट में बाहर आ - जा हे थे। अब मेरी बारी थी । मेरे पास बैठे सज्जन ने मुस्कुराते हुए मेरे प्रति शुभकामना व्यक्त की ।उन्हें धन्यवाद देता हुआ , अपना भारी स्टील का बक्सा उठाए , मैं कक्ष के भीतर प्रविष्ट हुआ। यह अपेक्षया एक विशाल कक्ष था  । एक बडे॰ टबुल के चारों ओर चार कुर्सियाँ लगी थी। सामने की कुर्सी पर एक भव्य से विशालकाय व्यक्ति  बैठे थे। मैंने उनका अभिवादन किया । संकेत से उन्होंने मुझे अपने सामने की कुर्सी पर बै ठने को कहा । मैं उन्हें धन्यवाद देता हुआ कुर्सी पर बैठ गया । मैने गौर से देखा। उनकी जेब पर उनका नाम लिखा था। वे फौज के मेजर जर्नल थे। सम्भवतः चेयरमैन । मेरे बैठने के तुरत बाद उन्होंने मेरा परिचय  किनारे की कुर्सी पर बैठे एक सज्जन से कराया । वे इतने क्षीणकाय थे कि मैं अबतक उन्हें देख नहीं पाया था । वे संत साहित्य के प्रसिद्द विद्वान थे। मैं उनकी पुस्तकें पढ॰ चुका था। उन्हें देखने का अवसर पहली बार मिला था। मैंने ससम्मान उनको नमस्कार किया।वही विषय के विशेषज्ञ थे  । संत साहित्य मेरा प्रिय विषय था। उन्होंने मुझसे कबीर से सम्बद्द कुछ मार्मिक प्रश्न पूछे । सम्भवतः मैंने उनकेप्रश्नों का संतोषप्रद उत्तर दिआ, उनके चेहरे की चमक से कुछ ऐसा ही लगा ।

अबतक मेरी कुछ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थी , जिनमें मेरा उपन्यास 'संत्रास' भी था । ‘संत्रास’ एक चेतना प्रवाही उपन्यास है ।उसका विषय बाहरी दुनिया से अधिक मनुष्य की अन्तश्चेतना से सम्बद्ध है । उसमें कई प्रतीक चिह्नों का भी स्थान - स्थान पर प्रयोग किया गया है। चेयरमैन महोदय ने मुझे मेरी प्रकाशित कृतियाँ दिखाने को कहा जिनका उल्लेख मैंने अपने आवेदनपत्र में किया था । मैंने बक्सा खोलकर कुछ प्रकाशन निकाल कर सामने टेबुल पर रख दिया ।

विशेषज्ञ महोदय ने मेरा उपन्यास उठा लिआ। अब सारा प्रश्न मेरे उपन्यास पर ही केन्द्रित हो गया। विभिन्न मनःस्थियों के लिए उस उपन्यास में प्रयुक्त चिह्नों की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा कि ये प्रयोग व्याकरण - सम्मत नहीं हैं। व्याकरण के अनुसार इन चिह्नों का प्रयोग मात्र तीन बार ही किया जाना चाहिए ,जबकि इस उपन्यास में  ऐसे चिह्नो का प्रयोग निर्धारित सीमा से काफी ज्यादा बार किया गया है' कहते हुए उन्होंने मेरी ओर देखा । उनके इस प्रश्न ने मुझे तनिक उत्तेजित कर दिआ। मैंने कहा -'व्याकरण के नियम कई बार कुछ विशेष अभिव्यक्तियों में सहायक न होकर बाधक हो जाते हैं । कई बार उनकी व्यवस्थाएँ आभिव्यक्ति को इतना यांत्रिक बना देती हैं कि कथ्य अपना मर्म खो देते हैं । इस उपन्यास में कई स्थानों पर व्याकरण के  नियमों का अतिक्रमण किया गया है ताकि अभिव्यक्ति को अधिक संवेदनशील  तदवत और प्रभावकारी बनाया जा सके ।' तनिक रुक कर मैंने चेयरमैन महोदय से कहा ' - यदि अनुमति हो तो एक प्रश्न पूछूँ ?' चेयरमैन महोदय ने तुरत कहा -'हाँ ,हाँ पूछिए।' मैंने कहा -' यदि आप घनघोर रात्रि में किसी सूनी जगह से गुजर रहे हों और पीछे से  कोई आप पर आक्रमण कर दे तो क्या आप   व्याकरण के नियमानुसार तीन बार – ‘बाप  बाप  बाप -'  कहेंगे या दर्द से  -' बाप $$$ रे $$$ बाप' - कहते हुए चिल्ला पडें॰गे ?'  मेरे इस प्रश्न से वहाँ सन्नाटा छा गया ।फिर चेयरमैन महोदय बहुत जोरों से ठठा कर हँस पडे॰। उन्होंने विशेषज्ञ महोदय से पूछा -' कोई और प्रश्न पूछना है?' विशेषज्ञ महोदय ने तुरत कहा - 'नहीं … नहीं… 
  इसके बाद चेयरमैन महोदय ने एक नक्शा दिखाते हुए मुझसे पूछा - 'इसमें दमण कहाँ है ?' मैने तुरत उस स्थान पर अपनी उँगली रख दी । देख कर वे मुस्कुराए और बोले - 'यह तो नहीं है।' मैंने देखा तो वहाँ दमण की जगह इलाहाबाद लिखा हुआ था। मैं तनिक देर रुका और कहा -' यह नक्शा गलत है ।' चेयरमैन महोदय ने कहा ‘नक्शा कैसे गलत हो सकता है?'  मैंने कहा – ‘यह नक्शा जरूर गलत है।' मेरा उत्तर सुनकर वे फिर जोरों से हँसे और बोले - ' आपने किसी इनक्रीमेंट की माँग नहीं की है। अगर आप चाहें तो वह आपको मिल सकता है।' उनकी इस बात से मैं चौंक पडा॰। मैं ऐसी जगह से वहाँ गया था जहाँ ऐसे चुनावों में जातीय लोगों को रखने के लिए उनदिनों तरह - तरह के हथकंडे अपनाए जाते थे। मैंने सोचा  शायद यहाँ भी कुछ ऐसे ही खेल का इरादा है , अन्यथा सरकार किसी को बिन माँगे इनक्रीमेंट देने को तैयार क्यों होगी । मैंने कहा -'मुझे नहीं चाहिए ।' उन्होंने फिर भी मुझे अतिरिक्त इनक्रीमेंट के लिए प्रोत्साहित किया , परन्तु मैंने नकारात्मक उत्तर दिआ। उन्होंने धन्यवाद करते हुऐ मुझे विदा दिया। मैंने भी धन्यवाद दिया । अपनी कितावें बक्से में बन्द कीं और उसे उठा कर बाहर निकल गया।
मेरा साक्षात्कार एक घंटा से भी ऊपर चला। जब मैं कक्ष से बाहर आया तो सभीलोग उत्सुकता से मेरी ओर देखने लगे। वे कुछ पूछना चाते थे , परन्तु मैं वहाँ से बाहर चला आया।   मैं अपने साक्षात्कार से संतुष्ट था , परन्तु इस बात के प्रति भी सुनिश्चित था कि मेरा चुनाव नहीं होगा , क्योंकि विशेषज्ञ महोदय से जिस रूप में मैंने प्रतिप्रश्न किया था वह व्यवहार शायद ही किसी को पसन्द आया हो।

मैंने सोचा  इस आशा को छोड॰कर मुझे दिल्ली और उसके आसपास के महत्वपूर्ण स्थानों का आनन्द उठा लेना चाहिए । मैं दिल्ली १५ दिन रुक गया। परन्तु जब मैं लौट कर घर पहुँचा तो पिताजी ने मुझे यू पी एस सी से प्राप्त बादामी रंग का लिफाफा दिया । मेरा चुनाव हो गया था और मुझे महीनेभर के अन्दर दमण काँलेज ज्वाइन करना था।

मैंने इस नियुक्ति का स्वीकृतिपत्र भेज दिया और दमण जाने की तैयारी करने लगा।
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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 102


याद आता है गुजरा जमाना 102

अखवार का वह पन्ना

मदनमोहन तरुण

एक दिन मैं अपने बहनोई गुणी बाबू के सात घर की छत पर टहल रहा था। थ।झोकेदार और तेज हवा चल रही थी।सामने दरधा नदी बह रही थी।उसके तट पर ताड॰ के वृक्षों की लम्बी कतार थी।उस तेज हवा में सुदृढ॰ ताड॰ के वृक्ष भी हल्के - हल्के झूम रहे थे।सारा दृश्य बहुत ही मनोरम था।हमदोनों चुप थे क्योकि उस समय मोहक प्रकृति की वाणी और व्यवहार में इतना रस और आनन्द भरा था कि हम एक पल के लिए भी उससे वंचित होना नहीं चाहते थे।

हम इन दृश्यों का आनन्द ले ही रहे थे कि कहीं उड॰ता हुआ अखबार का एक पन्ना हमलोगों के पास ही गिर पडा॰।गुणी बाबु ने उसे योंही उठा लिआ और देखने लगे। उन्होंने कहा 'यह तो यू पी एस सी का वज्ञापन है और अखबार का यह पन्ना मात्र दो दिन पुराना है। उन्होंने विज्ञापन पढा॰ तो चहक उठे।उन्होने कहा अब आप यहाँ से जाने की तैयारी करें।इसमें दमण कालेज में असिस्टेंट लेक्चरर के पद का विज्ञापन है।मैंने सोचा लेक्चरर हूँ , असिस्टेंट लेक्चरर के पद पर क्यों जाऊँ ?मैने यही उनसे कहा तो मेरी शंका का निवारण करते हुए उन्होंने समझाया - 'यह सेन्टृल गवर्नमेंन्ट का गजटेड पोस्ट है। इसका वेतनमान भी आपके अभी के वेतनमान से बेहतर है।एकबार प्रयास करने में क्या हर्ज है।मुझे लगता है यहां आपका चुनाव हो जाए गा।' मैंने कहा ठीक है मैं आवेदनपत्र भेज दूँगा । उन्होंने पूछा आपके पास प्रमाणपत्रों की कापी है या नहीं?' मैने कहा -'नहीं।' वे बोले आज मैं यहाँ नही रुकूँगा।आप अपने  सर्टिफिकेट दीजिए मैं पटना से उसकी काँपी बनवाके और अटेस्ट कर कल लेता आऊँगा।' कहकर उन्होंने मेरे सर्टिफिकेट लिए और पटना चले गये और दूसरे दिन उसे स्वयं अटेस्ट कर पटना से लौट आए। उनके पास यू पी इस सी के आवेदनपत्र का एक पुराना फार्म भी था। उन्हीं की देखरेख में मैंने वह आवेदनपत्र भर दिआ और उसी दिन रजिस्टर्ड डाक से  दिल्ली यू पी इस सी को भेज दिया।
मेरे बहनोई बहुत खुश थे , परन्तु मैं उतना खुश नहीं था। मुझे लग रहा था कि मैं लेक्चरर के पद से असिस्टेंट लेक्चरर के पद पर जा रहा हूँ। हालाँ कि मेरे मन में कहीं ऐसा लग रहा था कि चलो इसी बहाने इस जगह से मुक्ति तो मिलेगी।
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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 100


'महिषासुर मर्दिनी' : याद आता है गुजरा जमाना 100
मदनमोहन तरुण
गर्ज गर्ज क्षणं मूढ॰ मधु यावत्पिवाम्यहम

अब से करीब तीस साल पहले मैंने अपने एक मित्र की प्रेरणा से महालया के शुभ प्रभात में आकाशवाणी कोलकाता से 'महिषासुर मर्दिनी' का प्रसारण सुना था। वीरेन्द्र कृष्ण भद्र जी की सावेश और आरोह -अवरोहपूर्ण वाणी में दुर्गासप्तशती का पाठ सुनना सही अर्थों में एक असाधारण और रोमांचक अनुभव था। तब से अबतक मैंने किसी भी स्थिति में यह कार्यक्रम देखना नहीं छोडा॰। मैं महालया की पूर्व रात्रि दो बजे ही जग जाता हूँ और फिर नहीं सोता , ताकि किसी भी स्थिति में यह चिरप्रतीक्षित कार्यक्रम छूट न जाए। मुझ जैसे पूरी दुनिया में करोडों॰ हिन्दू हर वर्ष बडी॰ बेसब्री के साथ इन अद्भुत क्षणों की प्रतीक्षा करते रहते हैं। इस दुर्गापाठ को सुनना हर बार एक अनूठे एवं रोमांचकारी अनुभव से गुजरना है।
आकाशवाणी कोलकाता से इस कार्यक्रम का प्रसारण 1930 में शुरु हुआ था।इसके प्रस्तोता वीरेन्द्र कृष्ण भद्र जी का देहान्त बहुत पहले ही हो चुका  है, परन्तु उनकी वाणी का प्रभाव इतना असाधारण है कि इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जासका। आज उस कार्यक्रम में उन्हीं के मूल पाठ का  रिकार्ड बजाया जाता है।  अब तो आकाशवाणी के अनेकों केंन्द्र इसका नियमित रूप से प्रसारण करते हैं तथा अब इसका हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध है।मेरे पास इस पाठ के सीडी और केसेट दोनों ही उपलब्ध हैं , परन्तु रेडियो के पास बैठकर इस प्रसारण को सुनने का अनुभव ही अनूठा होता है। लगता है जैसे हम किसी महान परम्परा के अंग हैं।
इस पूरे कार्यक्रम का प्रसारण बंगला भाषा में होता है , परन्तु सच तो यह है कि इसका आनन्द उठाने के लिए उस भाषा की जानकारी की आवश्यकता नहीं है ,उसकी ध्वनिपूर्ण प्रस्तुति सीधे -सीधे हमारे मन-प्राणों पर असाधारण प्रभाव उत्पन्न करती है। भद्र जी कथा सुनाते - सुनाते असाधारण भावावेग में आजाते हें , कभी उनकी वाणी विगलित क्रंदन बन जाती है, कभी अशेष ऊर्जा , उत्साह और प्रवेग से भर उठती है । कभी मन्द से मन्दतर होजाती है  तो कभी वह आरोहण के तीव्र आवेग में परिणत हो हमारी चेतना के रेशे -रेशे को सींच कर जाग्रत कर देती है।
यह एक संगीतमय कार्यक्रम है।इसमें वीरेन्द्र कृष्ण भद्र जी की आवाज में दुर्गा सप्तशती के मंत्रों का संस्कृत पाठ तो होता ही है ,उसके साथ ही सप्तशती का बडा॰भाग उसी प्रभाव के साथ बंगला में प्रस्तुत होता है तथा कथा के साथ बंगाल के कई प्रसिद्द गायक - गायिकाओं के समवेत स्वर में दुर्गा से सम्बद्ध गायन चलता रहता है। इसका संगीत पंकज मलिक जी के निर्देशन में तैयार किया गया है जो बहुत ही प्रभावशाली है और श्रोताओं को गहरी तल्लीनता प्रदान करता है।इसके गायकों में हेमंत कुमार और आरती मुखर्जी जैसे लोग हैं।
माना जाता है कि महादेवी दुर्गा आश्विन माह की अमावस्या के बाद सप्तमी, अष्टमी और नवमी को अपने भक्तों के पास पृथ्वी पर आती हैं और दशमी को लौट जाती हैं।महालया से नवरात्रि का आरम्भ होता है और भक्तजन सप्तशती के पाठ का आरम्भ कर उनके स्वागत की तैयारी में लग जाते हैं।


पूरे संसार में ऐसे करोडों॰ लोग होंगे जो वीरेन्द्र कृष्ण भद्र जी की spiritually charged वाणी में प्रसूत दुर्गापाठ के इस पल की प्रतीक्षा करते रहते हैं ।

देवी सद्यः सृजन हैं ,  सद्यः विनाश हैं। वे भीमकान्त हैं। वे परम सुन्दरी हैं, वे विकट -विकराल हैं। उनकी काया कान्त है, उनकी काया अस्थिमात्र है। वे भव्य हैं ,अभव्य हैं। वे वस्त्रवेष्टित सुमनोहरा हैं ,वे नंग धडं॰ग हैं। वेमुक्तकेशी,रौद्रमुखी,महोदरी ,अग्निज्वाला हैं, अमेयविक्रमा हैं, क्रूर हैं, सिंहवाहिनी, सर्वमंत्रमयी हैं ,वे चामुंडा हैं , वाराही हैं, वे देवमाता हैं, सर्वविद्यामयी हैं, सर्वास्त्रधारिणी हैं, पुरुषाकृति हैं, वे असाध्य हैं ,साध्य हैं ,वे सर्वस्वरूपा हैं , सर्वेश हैं।
 वेदुर्गमच्छेदिनी,दुर्गतोद्धारिणी,दुर्गमध्यानदा,दुर्गमा,दुर्गमार्गप्रदा,दुर्गमोहा,दुर्गमांगी,दुर्गभीमा दुर्गा हैं।
जब महादैत्य ने भैसेका विकराल रूप धारण कर समस्त लोकों को विक्षोभित कर दिया तब देबी मधुपान करने लगीं, उनका चेहरा मदप्रभाव से लाल होगया, वाणी लड॰खडा॰ने लगी और वे जोर -जोर से हँसती  हुई बोलीं-
गर्ज गर्ज क्षणं मूढ॰ मधु यावत्पिवाम्यहम।
मया त्वयि हतेत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः।
ऐ मूढ॰! जबतक मैं मद्यपान कर रही हूँ ,तबतक क्षणभर तू गरज ले।यहीं मेरे हाथों तुम्हारे वध के पश्चात  देवता गर्जन करेंगे।
दुर्गा सप्तशती महातेजस स्थिति का विस्फूर्जन है।
यह शब्दों की सीमा से पार का महानाद है।
यह चित्तोत्क र्ष का चरम है ।
यह महानन्द का अविरल निनाद है ।
 ‘नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्यै नमोनमः’ की पुनः पुन; उच्चारणावृत्ति श्रोता को चरम भावदशा के लोक में प्रक्षेपित कर देती है।
वहाँ वाणी रूपादि से परे अनहदनाद बन जाती है। एक ऐसी गूँज बनकर भीतर प्रतिध्वनित होती है जो हमें जन्मजन्मान्तरों से जोड॰ देती है।शरीर संवेग में परिणत होकर अनुभूतिमात्र बन कर रह जाता है।

वीरेन्द्र कृष्ण भद्र की भावाविष्ट वाणी में ध्वनित इन महामंत्रों का श्रवण एक महानुभव है।
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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 99


गीताप्रेस ,गोरखपुर  :याद आता है गुजरा जमाना 99
मदनमोहन तरुण
गीताप्रेस ,गोरखपुर 
भारत में  उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में अवस्थित 'गीताप्रेस' संस्थान का महत्व हिन्दुओं के लिए किसी तीर्थस्थान से कम नहीं है।यदि यह संस्थान नहीं होता तो हिन्दू वांsगमय की महानतम कालजयी कृतियाँ इतने विशाल पाठकवर्ग तक कभी पहुँच नहीं पातीं। इस महान संस्थान ने हिन्दू धर्मग्रंथों में गीता, उपनिषद , वेदान्त,महाभारत, रामायण,रामचरितमानस एवम भारतीय संतों की कृतियों को न मात्र अविश्वसनीय रूप से सस्ते मूल्य में, बल्कि सुरुचिपूर्ण मजबूत जिल्दबन्दी के साथ भारत के अधिकतम हिन्दुओं के घरों में पहुँचा दिया है। हिन्दी और अँग्रेजी के अलावा इन ग्रंथों का प्रकाशन भारत की अन्य कई भाषाओं में भी उपलब्ध कराया गया है।
इस महान संस्थान की स्थापना 1923 में सनातन धर्म के प्रचार के लिए जयदयाल गोयनका जी द्वारा की गयी थी। वे आजीवन इन ग्रथों का सम्पादन करते रहे और सनातन धर्म का संदेश सर्वत्र पहुँचाते रहे।
गीताप्रेस ने गीता के अनेकों संस्करण प्रकाशित किये जिनका मूल्य इतना कम रखा गया है कि इसे कोई भी खरीद सकता है।
इस महान प्रकाशन ने तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ महाकाव्य को 'हनुमान चालीसा’ की तरह घर - घर में पहुँचा दिया। इसके प्रकाशन दुनिया भर के हिन्दुओं में लोकप्रिय है।  ‘रामचरितमानस’ पंडितों और काव्यरसिकों के सीमित दायरे और सीमित समझ का अतिक्रमण करता हुआ लोकजीवन में प्रविष्ट हो गया।ढोलक और झाल पर 'रामा हो रामा' की धुन के साथ प्राण - प्राण में गूँज ही नहीं गया ,लोकजीवन का संविधान बनकर प्रतिष्ठित होगया। 'रामचरितमानस' की एक - एक चौपाई ग्रामीण भारत के घर, परिवार और समाज के प्रति कर्तव्यों की विधायिका बन गयी।

अच्छा कागज, अच्छी छपाई,मजबूत सिलाई , जिल्दबन्दी और कलात्मकता इन प्रकाशनोंकी विशेषता है।इस संस्थान की प्रकाशकीय निष्ठा का सबसे बडा॰ उदाहरण है छपाई की शुद्धता के प्रति इसकी अतुलनीय निष्ठा।इसके प्रकाशनों से गुजरते हुए आप पाएँगे कि कई स्थलों पर इसकी अशुद्धियाँ स्याही से ठीक की गयी हैं। यद्यपि इन  प्रकाशनों में अशुद्धियाँ यदाकदा ही दिखाई पड॰ती है तथापि लाखों प्रतियों में हाथ से संशोधन मामूली समर्पण और निष्ठा का प्रतिफलन नहीं हो सकता। 

गीताप्रेस के महान प्रकाशनों का साक्षात्कार मैंने अपनी माँ के उस बक्से में किया था जो उसका चलता -फिरता पुस्तकालय था। वह जहाँ भी जाती , उसका बक्सा उसके साथ जाता था।आज से करीब साठ -पैंसठ साल पहले कलानौर जेसे दूरवासी गाँव में इन पुस्तकों की पहुँच से यह सहज ही अनुमान लगाया जासकता है कि इस प्रकाशन की कितनी व्यापक  प्रतिष्ठा थी।मेरी माँ आजीवन इन ग्रंथों को तल्लीनता एवं भक्तिपूर्ण समर्पण के साथ पढ॰ती रही , उसपर विचार - विमर्ष करती हुई इस बात का प्रयास करती रही कि उन ग्रंथों का संदेश औरों तक भी पहुँचता रहे। इन ग्रंथों को पढ॰ने की ललक मेरे मन में यहीं से आरम्भ हुई थी और आज भी बनी हुई है।
मेरे पितामह इस संस्थान से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'कल्याण' के आजीवन ग्राहक रहे।इस पत्रिका का हर विशेषांक संग्रहणीय हुआ करता था।पुराणों , उपनिषदों ,संतों की वाणी तथा हिन्दूधर्म ,संस्कृति और दर्शनादि पर आधारित इसके विशेषांक  आज भी किसी मूल्यवान धरोहर से कम नहीं समझे जाते। 1927 में 'कल्याण' का प्रकाशन हनुमानप्रसाद पोद्दार जी के सम्पादन में हुआ था जो गीतप्रेस के संस्थापकों में थे। वे 1971 तक आजीवन इस पत्रिका का सम्पादन करते रहे। इसका प्रकाशन आज भी जारी है जिसके पाठकों की संख्या ढाई लाख से भी अधिक है।
हनुमानप्रसाद पोद्दार जी ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया था।
वे बंगाल के क्रातिकारियों के निकट सम्पर्क में थे।इन्हीं कारणों से उन्हें ब्रिटिश सरकार के कारागार की मेहमानी करनी पडी॰। कारागार में उन्हें एक नयी जीवनदृटि मिली। इसके फलस्वरूप उन्होंने भारतीय मूल्यों एवम सनातन धर्म की मान्यताओं को घर - घर तक पहुँचाने का निर्नय लिया। इसी के फलस्वरूप उन्होंने ‘कल्याण’ के प्रकाशन - सम्पादन का कार्य आरम्भ किया।

1934 से 'कल्याण - कल्पतरु' के नाम से इस मासिक का प्रकाशन अँग्रेजी में भी किया गया जो अब भी जारी है।
हनुमानप्रसाद पोद्दार जी का हिन्दी एवं अँग्रेजी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था।इनके द्वारा प्रसूत पुराणों एवम महाकाव्यों के अनुवाद जहाँ भाषा की दृष्टि से सरल और सुसंप्रेष्य हैं ,वहीं उनमें उन कृतियों की काव्यात्मकता एवं उनकी विशिष्टता भी अक्षुण्ण है।
प्रकाशन का कोई भी इतिहास विश्व की इस महान संस्था के उल्लेख के बिना सुनिश्चित रूप से अपूर्ण माना जाएगा।

इस संस्थान की प्रशंसा स्वयं महात्मा गाँधी ने भी की थी।

जिस भारत को महात्मा गाँधी ने अपने अभूतपूर्व आन्दोलनों से विदेशी शासन से मुक्त कराया ,उसी भारत को गीताप्रेस ने सही अर्थों में भारतीय महिमा से मंडित किया।
मैं इस महान प्रकाशन संस्था और इसके संस्थापकों को नतशिर प्रणाम करता हूँ।
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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 98


साँप : याद आता है गुजरा जमाना  98

मदनमोहन तरुण

साँप

लगता है साँपों से मेरा कोई पुराना सम्बन्ध हे,साँप चाहे जो भी हो,पशुजाति का या मनुष्यजाति का ।
आज से बहुत पहले मैंने 'साँप' शीर्षक से एक कविता लिखी थी -
एक साँप
खूँटी पर टँगा हआ
एक साँप
रंध्र में अँटा हुआ
एक साँप
डटा हुआ द्वार पर
एक साँप
मैं
किसको डँसूँ ?
तब मैं विक्रम के जिस मकान में रहता था उसके पीछे के भाग में कई अधबनी दीवारें थी। ,जो शायद कोई कमरा बनाने के लिए उठाई गई हों और बाद में उन्हें अधबना ही छोड॰ दिया गया हो। जबतक मैं उस मकान में अकेला रहा तबतक मैं कभी उसओर गया ही नहीं। जब कुछदिनों बाद जब वहाँ मेरी पत्नी आईं तो मकान की नये ढंग से सफाई और देखरेख शुरू हो गयी। पीछे का भाग भी धूप सेंकने के लिए इस्तेमाल में आने लगा।एकदिन प्रातःकाल मेरी पत्नी ने कहा कि यहाँ साँप रहते हैं।'मैने एक साँप को दीवार से होते हुए किसी और दिशा की ओर जाते हुए देखा है।' मेरा माथा ठनका। सुरक्षा की दृष्टि से यहाँ रहना किसी भी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं हो सकता था। भला जिस घर में साँप रहता हो, उस घर में आदमी कैसे सुरक्षित अनुभव कर सकता है? अब मैंने निश्चय कर लिया कि यह मकान शीघ्र ही छोड॰ दूँगा और नया मकान देखने भी लगा।

दूसरे दिन मेरी पत्नी ने पीछे से बुलाया।सुबह के सात बज रहे थे।भगवान सूर्य आकाश में लालिमा के सम्मोहन का विस्तार करते हुए अपनी यात्रा आरम्भ कर चुके थे। मैं नीचे गया तो पत्नी ने बिना कुछ बोले सामने की अधबनी दीबार की ओर आकर्षित किया। मैंने जो देखा ,तो देखता ही रह गया। वहाँ एक काली धारियोंवाला सफेद साँप कुंडली मारे सूर्य की ओर फण उठाए सुस्थिर भाव से अवस्थित था। हमारे वहाँ जाने, खडे॰ होने की आबाजाही से वह सर्वथा अप्रभावित देरतक उसी मुद्रा में बना रहा। हमलोग भी वहाँ से अपनी दृष्टि हटा नहीं सके। हमलोग उस दिव्य सर्प को देर तक देखते रहे। थोडी॰ देर बाद जब सूर्य की लालिमा थोडी॰ कम होने लगी तो वह साँप धीरे से सरकता हुआ दीबार में कहीं गायब हो गया। यह एक भयावह स्थिति थी । वह कोई साधारण साँप नहीं ,विषधर नाग था। ।

यहाँ रहना मौत के मुँह में रहने जैसा था। मैंने मकान ढूँढ॰ने की प्रक्रिया तेज कर दी।
अगले  दिन सबेरे श्रीमतीजी ने मुझे फिर नीचे बुलाया। आज भी वही दृश्य था। नाग सुस्थिर भाव से सूर्य की ओर फण काढे॰ अपनी गोल कुंडली पर अवस्थित था। आज फिर वह उसी मुद्रा में डटा रहा। सूर्य की लालिमा कम होते ही वह फिर सरकता हुआ दीबार में कहीं गायब होगया।  यह दृश्य मैंने उसके बाद भी कई बार देखा। अब उस साँप के बारे में मेरा और मेरी श्रीमती का दृष्टिकोण पूरी तरह बदल गया। हमलोगों ने सोचा इतना दिव्य साँप कोई साधारण साँप नहीं होसकता।अवश्य ही यह पूर्वजन्म का महान योगी है। इससे हमें कोई हानि नहीं हो सकती। अब हमलोगों ने मकान न बदलने का निर्नय कर लिया। हमलोग उस मकान में अगले दो वर्षों तक रहे।

मेरे एक 'मित्र' नाश्ते के समय किसी - न - किसी बहाने मुझसे मिलने आजाया करते थे। वे मेरी पत्नी की पाककला की बहुत तारीफ करते और कभी - कभी किसी बात के लिए मेरी भी प्रशंसा कर दिया करते थे।उनके बारे में मेरे कई मित्रों ने बताया था वे कि मेरे पीछे मेरे खिलाफ तरह - तरह की चुगली करते हुए मेरी जडें॰ काटने का प्रयास किया करते हैं।मैंने उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया , परन्तु जानता था कि वे इसी प्रकार के 'इंसान' हैं। एकदिन जब वे नाश्ता करते हुऐ मेरी पत्नी की पाककला की तरीफ कर रहे थे तो मैंने उनका ध्यान बँटाते हुए कहा - 'इस मकान में एक विचित्र नाग रहता है।' सुनते ही उन्होंने अपने दोनों पाँव उठाकर कुर्सी पर रख लिए और साश्चर्य चिल्लाए - 'क्या साँप '। उनका चेहरा इस समय देखने लायक था। लग रहा था मानों वहाँ सच में साँप आगया हो। किसी प्रकार नाश्ता समाप्त कर मेरे यहाँ से लौटते समय उन्होंने कहा - आपको यह मुझे पहले ही बताना चाहिए था । अब मैं आपके यहाँ कभी नहीं आऊँगा। जिसके घर में साँप हो , वह घर सुरक्षित नहीं हो सकता।' कहकर वे चलते बने। उनकी बातों से मेरी पत्नी को बहुत निराशा हुई।कहा उस आदमी ने हमलोगों की सुरक्षा के बारे में कुछ भी नहीं कहा , मात्र अपनी चिन्ता करता हुआ चलता बना।हमलोग दरवाजे की ओर आगे बढ॰ कर देखने लगे जिधर वे तेजी से पाँव बढा॰ते चले जा रहे थे। हवा तेज थी।उनकी धोती उड॰ती हुई हवा मे लहरा रही थी और सूरज की रोशनी में इसतरह झलमला रही थी जैसे अनेकों साँप एक साथ चले जारहे हों। । श्रीमती ने कहा - वह देखिए कैसा लग रहा है ?' मैने कहा – ‘यह एक अधिकतम विषैले नाग से मुक्ति का दिन है।'
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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 97


चाणक्य की शिखा : याद आता है गुजरा जमाना 97

मदनमोहन तरुण

चाणक्य की शिखा

जहानाबाद में हमलोग समय - समय पर नाटक खेला करते थे।नाटक इतने प्रभावशाली होते थे कि उसे देखने के लिए अच्छी - खासी भीड॰ जमा होजाती थी। नाटक में अभिनय का समारम्भ तो मैंने सैदाबाद में ही कर दिया था ।तब मेरी उम्र बहुत कम थी। तब छोटका भइया नागवन्दन जी हरिश्चन्द्र बनते और मैं रोहिताश्व का रोल करता था। हमारे घर के बाहर का चबूतरा मंच बनता।दर्शक बहुत नहीं होते थे , परन्तु मुहल्ले के करीब - करीब हर किसी के आजाने से रोचकता तो बढ॰  ही जाती थी ,हमलोगों का उत्साह भी खूब बढ॰ जाता था। कोई अलग से ड्रेस आदि नहीं होता था , परन्तु हम सन को रंग से रँगकर दाढी॰ - मूँछ बनालिया करते थे। इन नाटकों के खेलने का कोई निश्चित समय नहीं होता था। जिस दिन निश्चित किया गया , उसीदिन होगया नाटक। शाम - शाम तक मुहल्ले के लोगों को सूचना दे दी जाती। अभिनय के नाम पर ज्यादा जोर आवाज की उतार - चढा॰व पर दिया जाता था। भइया ही दिन में रिहर्सल करवाते थे।

 नाटक खेलने का यह चश्का जहानाबाद में भी बना रहा।यहाँ तककि जब मैं राँची में पढ॰ रहा था तब भी काँलेज मिस कर नाटक खेलने आजाता था। अभिनय स्वयं भी करता और मित्रों को भी उसके लिए तैयार करता था। मेरा मित्र शशिभूषण बहुत अच्छा प्रबन्धक था। उसके पिता श्री लक्ष्मीनाथ पाण्डे स्वाधीनता सेनानी थे और चन्द्रशेखर आजाद के निकट सम्पर्क में रह चुके थे। वे प्रतिदिन प्रातःकाल खूब व्यायाम करते और संध्या समय अपने तरह - तरह के रंगोंवाले क्रोटन के एक - एक पौधे की पत्ती - पत्ती को धोकर साफ करते जिससे उसमें चमक - सी पैदा होजाती थी । उसकी पत्तियों का रंग, कटाव, मोड॰ सबकुछ निखर कर स्प्ष्ट होजाता। उन्हें यह कार्य करते हुए देखना भी एक असाधारण अनुभव होता था।
उनके घरपर जन्माष्टमी के समय उच्चकोटि का कलात्मक आयोजन होता था। भगवान कृष्ण का हिण्डोला सजाया जाता और रात - रात भर समारोह होता। उनके पिता शालिग्राम जी बहुत नाटकीयता से लल्लूलाल जीका 'सुखसागर' पढ॰ते जिसकी भाषा हिन्दी और व्रज मिश्रित होती थी। उस कथा को सुनने के लिए खूब भीड॰ जमा होती और इस अवसर पर कवि - सम्मेलन भी होते थे। लक्ष्मीनाथ जी को कलात्मक संस्कार यहीं से मिले थे। वे बहुत अच्छे अभिनेता भी थे। जहानाबाद में दुर्गापूजा के अवसर पर कानपुर से नौटंकी पार्टियाँ आया करती थी जो नगाडे॰ की चोट पर काव्यात्मक डायलोग बोल कर लैला -मजनू' ‘सीरी - फरहाद' जेसे नाटक प्रस्तुत करती थी। उनके नगाडे॰ की किडि॰क -किडि॰क धाँ की आवाज दूर - दूर तक फैलती थी। उनदिनों माइक की व्यवस्था नहीं थी इसलिए नौटंकी के अभिनेता इस हदतक जोर लगाकर डायलाँग बोलते कि उनकी आवाज पूरे शहर में फैलती थी। 'लैला , लैला पुकारूँ मैं वन में , हाय लैला बसी मेरे मन में।' …’मुझको मरने का खौफो खतर ही नहीं ‘…किडि॰क किडि॰क धाँ … किडि॰क धाँ … उसे देखने के लिए दूर -दूर के गाँवों से लोग आते और रात -रात भर जाग कर नौटंकी का मजा लेते थे। पीछे के दर्शक आगे आने केलिए 'जयबजरंगबली' का नारालगते  एक- दुसरे को धँसोड॰ते हुए मंच के निकट पहुँचने का प्रयास करते। मैं भी करीब - करीब हर रात जागकर नौटंकी देखता था।
 हर दीपावली के अवसर पर पं लक्ष्मीनाथ पाण्डे जी की ठाकुरवाडी॰ के पास नाटक होता था। ठाकुरवाडी॰ के पास की खुली जगह जहानाबाद की सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र हुआ करती थी। स्वयं लक्ष्मी जी बहुत अच्छे आभिनेता थे। इन नाटकों मे टेहटा के लखन जी बहुत प्रभावशाली शिवतांडव प्रस्तुत करते थे। लक्ष्मी जी के पुत्र शशिभूषण में अभिनय की प्रतिभा तो नहीं थी ,परन्तु वह बहुत अच्छा व्यवस्थापक था। उससे हमारी गहरी मित्रता थी। वह मुझे नाटक करने के लिए हमेशा उकसाता रहता था। जब एक बार हमने उससे सैदाबाद में खेले जानेवाले नाटकों की चर्चा की तो वह चमक उठा। उसने कहा नाटक हम यहाँ भी खेलेंगे। नाटक तुम चुनोगे, अभिनय निर्देशन तुम करोगे और मैं व्यवस्था का जिम्मा लूँगा। मैंने इस दिशा में कार्य आरम्भ कर दिया। मुहल्ले के कुछ युवावस्था की ओर उन्मुख किशोरों को हमने इसके लिए तैयार किया। मेरे पास एकांकियों का एक संग्रह था ' करुण पुकार' वहीं से छोटे - छोटे एकांकी हमने तैयार किये। इसतरह जहानाबाद में हमने नाटक खेलने की तैयारी शुरू की। हमलोगों में खूब उत्साह था। स्कूल से लौटने के बाद हम शशिभूषण की बैठक में जमा होते और वहीं नाटक का जमकर रिहर्सल चलता। शशिभूषण ड्रेस, दाढी॰ - मूछ, साडी॰ - ब्लाउज ,धोती  आदि की व्यवस्था करता। यह सारा इंतजाम हम मुहल्ले भर के लोगों से मान - मिन्नत करके जमा कर लेते और इसीतरह टेबुल - कुर्सी का भी ईंतजाम कर लिया जाता। नाटक खेलने के दिन पूरे मुहल्ले के लोगों को सूचना दी जाती। एकांकी में शुरू से ही दर्शक आने लगे। जैसे - जैसे हमारी दक्षता बढ॰ती गयी वैसे - वैसे दूसरे मुहल्लों के लोग भी आने लगे। सबों ने चुपचाप मुझे अपना निर्देशक स्वीकार लिया था।

एकांकियों की जगह अब हम बडे॰ नाटकों की ओर बढे॰। हमने अपने उपनाम के आधार पर 'तरुण नट्यकला' नाम की एक संस्था बना ली। जब मैं ग्रैज्युएशन करने राँची चला गया तब हमने जयशंकर प्रसाद जी के नाटक 'चन्द्रगुप्त' और ध्रुवस्वामिनी' का गहराई से अध्ययन किया।  अब हमने तय किया की हम अब प्रसाद जी के नाटक खेलने की चुनौती स्वीकार करेंगे। हमने उनके नाटक 'चन्द्रगुप्त' के मंचन की तैयारी शुरू कर दी । यह बहुत मुश्किल काम था। प्रसाद जी के नाटकों की भाषा संस्कृतनिष्ट थी। इसके लिए पढे॰ - लिखे अभिनेताओं की आवश्यकता थी जो पूरी शुद्धता के साथ संवाद बोल सकें। हमने अपने सीमित साधनों में ही इसकी कडी॰ तैयारी शुरू की और तय कर लिया कि इस नाटक के प्रस्तुति करण में हम कहीं भी किसी तरह का समझौता नहीं करेंगे।हमने  एक महीने तक अपने अभिनेताओं की कडी॰ घिसाई की और इसमें मुझे उनका पूरा सहयोग मिला। हमारे इस उत्साह से और कडी॰ मिहनत से लक्ष्मी पाण्डेय जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने चन्द्रगुप्त के दरवार में नृत्य का कार्यक्रम देने के लिए टेहटा से लखन जी को बुलवा लिया। मेरे मित्र रघुनन्दन ने चन्द्रगुप्त का रोल किया और मैंने चाणक्य का।मंच सामने के कुएँ पर चौकी आदि डालकर स्वयं लक्ष्मी जी ने बनवाया। हमारे परम उत्साही मित्र शिवचन्द्र जी , जो ग्राम पंचायत सुपरवाइजर थे ,ने दफ्तर से छुट्टी लेकर अपना हरप्रकार से सहयोग दिया। अबतक दर्शकों को हमलोगों की क्षमता पर पूरा विश्वास हो गया था। जब लोगों ने सुना कि इसबार तीन घंटे का नाटक 'चन्द्रगुप्त' खेला जाएगा तो लोगों की खूब भीड॰ जमा हुई।
नाटक सुचारु रूप से आरम्भ हुआ। चाणक्य के रोल के लिए मेरे सिर पर गोल टोपी चिपका दी गयी थी और उसे सिर के स्वाभाविक रंग से रँग दिया गया था।यह काम इतनी कुशलता से किया गया था कि मेरा सिर सचमुच ही मुंडित - सा लगता था। उसके ऊपर मोटी - सी शिखा गोंद से चिपका दी गयी थी।सबकुछ ठीकठाक चल रहा था। अब उस प्रसिद्ध डायलग की बारी आयी जिसमें चाणक्य नन्द के अपमान से विक्षुब्ध होकर अपनी शिखा खोल देता है और कहता है -' खींच ले , खींच ले मेरी शिखा,शूद्र के अन्न से पले हुए कुत्ते ! परन्तु याद रख अब यह शिखा तबतक बन्धन में नहीं होगी जबतक मै पूरे नन्दवंश का विनाश न कर दूँ।' यह नाटक का केन्द्रीय डाय लाग था जिसपर चन्द्रगुप्त नाटक काअगला सारा कथा - विकासक्रम आधृत है।डायलाग बोलने के लिए मैं पूरे उत्साह में था और बडे॰ जोश में आगया और अपनी शिखा जोर - लोर से हिलाने लगा।मैं यह भूल गया था कि मेरी शिखा आरिजिनल नहीं है और वह इतने झटके सम्हाल नहीं पाएगी। डायलाँग पूरा करते - करते मुझे लगा कि मेरी शिखा उखड॰कर मेरी मुट्ठी में आगयी है।मैं सावधान होगया और मैंने अपनी मुट्ठी सिर से नहीं हटाई। अतः दर्शक इसे समझ नहीं पाए और मेरी इस अदाकारी पर लोगों की खूब तालियाँ बजीं।
उस दृश्य की समाप्ति के बाद जब मैं नेपथ्य में गया तो लोगों ने मेरी बहुत सराहना की। नेपथ्य में खडे॰ मेरे कई मित्रों ने मेरी शिखा की स्थिति समझ ली थी और सभी बहुत चिन्तित थे कि कहीं यह रहस्य दर्शकों के सामने न खुल जाए। परन्तु ईश्वर ने हमारी लाज रख ली। शिवचन्द्र पाठक दौडे॰ हुए आए और मुझे गले से लगा लिया।
नाटक की समाप्ति के पश्चात घर लौटा तो मुझे देख कर मेरी श्रीमती जी हँसते - हँसते लोटपोट हो गयीं। उन्होंने कहा ‘आपने अपनी 'टीक' बडी॰ चतुराई से बचा ली।'
मैंने पूछा – ‘क्या आपने भी देख लिया था?' बोलीं - 'हाँ मैं तो आपकी एक- एक अदा देख रही थी। वह डायलाँग बोलते - बोलते आप इतने जोश में आगये कि आपने उसे सिर से उखाड॰ कर अपनी मुट्ठी में ले लिया। अभी मैं हँस रही हूँ , परन्तु उस समय मैं बहुत चिन्तित होगयी थी कि अब क्या होगा। परन्तु आपने बडी॰ चतुराई से उस स्थिति को सम्हाल लिया। मात्र नेपथ्य के पास बैठे आयोजकों में से कुछ को छोड॰कर और कोई इसे भाँप नहीं सका।'

मैं अपने अभिनय का वह पल कभी भुला नहीं सकता ।
मैं अपना यह संस्मरण अपने अभिन्न मित्र शशिभूषण को ससम्मान समर्पित करता हूँ जिनका मात्र 34 वर्ष की आयु में आकस्मिक देहावसान होगया।
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