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Wednesday, March 30, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 24

याद आता है गुजरा जमाना -24


अब्दुल अजीज दफ्तरी


मदनमोहन तरुण

अब्दुल अजीज जहानाबाद के बुक-बाइंडर थे। उनकी दुकान बाजार में थी और उनका घर मेरे मुहल्ले में।उनका चेहरा पतला -सा था ,मूँछ हल्की और दाढी॰ नुकीली - सी।उनके सिर पर एक गोल टोपी होती थी। वे सदा लुंगी पहने रहते थे। कुल मिलाकर उनके चेहरे से शांति झलकती थी। वे मेरे बाबा को चचाजी कहकर बुलात थे।

मेरे बाबा प्राचीन पुस्तकों के समर्पित संग्रहकर्ता थे।उनके पास ढेर सारी मूल्यवान पांडुलिपियाँ थीं ,जिन्हें वे बहुत सँजोकर रखा करते थे और उनके इस कार्य में अब्दुल अजीज उनकी बहुत सहायता करते थे।ताड॰ और भोजपत्र पर लिखी पुस्तकों के लिए वे जिल्द तैयार करते और जीर्ण - शीर्ण पुस्तकों की पूरी निष्ठा के साथ मरम्मत करते।

एक बार मेरे बाबा ने 'रामायण' की एक दुर्लभ और प्राचीन तथा जर्जर प्रति देकर उनके पास भेजा। जब मैं उनकी दुकान पर पहुँचा तो वे अखवार पढ॰ रहे थे। पुस्क देखकर उन्होंने पूछा - 'कौन - सी पुस्तक है ?' मैने कहा -''रामायण है।' सुनने के बाद उन्होने कहा कि एक सप्ताह बाद आना और फिर अखवार पढ॰ने में लीन हो गये। मुझे उनका यह व्यवहार जरा भी अच्छा नहीं लगा। सचपूछिए तो बहुत क्रोध आया , परन्तु मैंने उन्हें कुछ कहा नहीं , वहाँ से सीधे लौटकर घर वापस आगया।उनके प्रति मेरा गुस्सा अबतक शांत नहीं हुआ था।मैंने बाबा से कहा कि वे अब अपनी किताबें , उनके पास न भेजें । जहानाबाद में उनके अलावा और भी जिल्दसाज हैं।' सुनकर बाबा ने पूछा ' क्या हुआ?' मेने कहा उन्होंने काम करने से इनकार कर दिआ और इसका कारण भी नहीं बतलाया।' बाबा थोडी॰देर चुप रहे फिर उन्होंने पूछा- 'आखिर उसने कहा क्या?' मैने कहा - उसने कहा कि एक सप्ताह के बाद लाना ।परन्तु इसका कोई करण नही बताया।सुनकर बाबा बोले - ठीक है, पुस्तक रख दो, वह काम करेगा। बाबा की यह बात मुझे पसन्द नहीं आई। जिस आदमी ने इतनी उपेक्षा प्रकट की , उसके प्रति इतनी सहानुभूति क्यों। वह मुफ्त में काम तो कर नहीं रहा था। यही पैसे देकर ,यह काम अभी दूसरे से भी कराया जासकता है। परन्तु बाबा के ादेश का तो हमें पालन करना ही था। मैं अपना गुस्सा पीकर और मन मसोस कर रह गया।

करीब एक सप्ताह बाद , किसी दिन सवेरे - सवेरे आब्दुल अजीज मारे यहाँ आए। वे साफ धुली हुई गंजी ौर लुंगी पहने थे। टोपी भी लगता था साफ की गयी थी ौर उन्होंने शायद सवेरे - सवेरे स्नान किया था। उन्होंने बाबा से किताब माँगी। बाबा ने मुझसे किताब मँगवाई और उन्हें देदिया। वे लेकर चले गये। पिछले प्करण के बारे में बाबा ने उनसे कुछ भी नहीं पूछा। मेरे मन में पिछला क्रोध अभी भी बरकरार था।मैंने कहा -'लगता है आज इनके पास कोई काम नहीं है इसलिए सवेरे - सवेरे आ गये।' बाबा सिर्फ मुस्कुरा कर रह ये , उन्होंने कुछ कहा नहीं।

ग्धकुछ दिनों बाद उन्होंने मुझे पुस्तक लाने के लिए उनके यहाँ भेजा। जब मैं उनकी दुकान मेम गया, तो मुझे देखते ही वे भीतर के कमरे में चले गये और वहाँ से किताब लेकर आए और मुझे देदिया। उस पुस्तक को इस नये कलेवर में पहचानना अत्यन्त कठिन था। लगता था जिसे कल भिखारी के रूप में सड॰क पर भीख माँगते देखा था , वह आज राजा के आसन पर बैठा दिखाई पड* गया। मैं चौंक गया ! क्या यह वही किताब है? उसका बाहरी प्रच्छद कडे॰ कूटपर लाल सटी रेक्जिन से चमचमा रहा था। उसके जीर्ण - शीर्ण अन्तः के पृष्ठों की मरम्मत पारदर्शी सफेद कागज से की गयी थी।वे पृष्ठ पहले के दुरुस्त पन्नों से भी अधिक मजबूत और लुभावने लग रहे थे।मै अब्दुल अजीज की यह कला देखकर मुग्ध रह गया। मैंने उनकी प्रशंसा की। मेरे शब्दों का उन्हों ने विनम्रता से स्वागत करते हुए कहा - 'चाचाजी का काम है न !इसमें कोई कोताही कैसे हो सकती है? 'यह सुनते ही मैंने उनसे पूछा - अच्छा , यह बतलाइए कि पिछली बार ापने काम करने से मना क्यों कर दिया था ?' मेरी बात सुनकर वे थोडी॰ देर चुप रहे। फिर बोले ' बात यह है , बबुआजी, कि उनदिनों मेरा दामाद आया हुआ था। घर में उसके स्वागत में तरह - तरह के पकवान बन रहे थे, जिसमें ऐसे जानर का भी मांस बना था जिसे हिन्दू लोग बुरा मानते हैं। वह मांस मैने भी खाया था। भला उसे खाकर मैं 'रमायन' जी को केसे छू सकता था। जब मेरा दामाद चला गया , तब मैंने अपने सारे कपडे॰ धोए और नहा कर और पवित्र होकर आपके यहाँ से इन्हें लाने गया। दूसरी कितावों की जिल्दसाजी करते समय मैं उनपर एक लकडी॰ रखता हूँ और उसे पाँव से दबा कर काम करता हूँ , परन्तु 'रमायन' जी पर तो पाँव नहीं रख सकता न ! इसपर मैंने घुटना रखकर काम किआ है ,जिससे मेरा घुटना छिल - छिल गया है। मगर उससे क्या, हर चीज एक तो नहीं।' कहकर वे चुप हो गये।

वे जैसे - जैसे बोलते जा रहे थे, वैसे - वैसे मुझे उनमें एक नये अब्दुल अजीज नजर आ रहे थे। ऐसे व्यक्ति पर शंका करते हुए मैं स्वयं को लज्जित अनुभव कर रहा था। चलते समय मैंने उन्हें विन्रता से प्रणाम किया और पुस्तक लेकर आभार सहित चला आया।'

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Tuesday, March 29, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 23

याद आता है गुजरा जमाना 23

मदनमोहन तरुण

राघो बाबू की दाढी॰

सैदाबाद में पढा॰ई समाप्त होने के बाद मैं जहानाबाद चला गया ,जहाँ मेरे पिताजी रहते थे। वहाँ के स्कूल के एक शिक्षक राघो बाबू छात्रों के प्रति बहुत क्रूर थे। उनकी बडी॰- बडी॰ दाढी॰ थी । वे तकली के शिक्षक थे। तकली से रुई के सहारे धागा निकाला जाता था ।यह कक्षा सप्ताह में दो दिन होती थी। सामान्यः छात्रों की इसमें कोई रुचि नहीं थी और अंतिम कक्षा होने के कारण उस समय तक हर कोई पूरी तरह थका होता था।ऐसे में छात्रों से तकली चलवाना कोई सआधारण काम नहीं था, परन्तु कक्षा तो होनी ही थी। सम्भवतः इसी मजबूरी के कारण राघो बाबू को कठोर बनना पडा॰ था। परन्तु , इस न्यूनता के लिए उन्होंने जो सजा तय की थी ,वह करीब - करीब अमानुषिक थी। वे ऐसे छात्रओं को, जो तकली लाना भूल जाते थे ,कठोर सजा देते थे। वे छात्र से हथेली बेंच पर रखवाते और उसपर लकडी॰ की हथौडी॰ से जोरों से प्रहार करते थे। इससे अपार पीडा॰ होती और सजा पानेवाले छात्र की हथेली कई दिनों तक फूली हुई रहती और वह कोई काम नहीं कर पाता था। इस दानवी सजा से बचने के लिए सभी लोग पुस्तकें लाना भले भूल जाएँ ,परन्तु तकली लाना नहीं भूलते थे।

पूरी सावधानी बरतने के बावजूद एक दिन मैं भी तकली लाना भूल गया।कक्षा शुरू होने के पहले से ही मैं भीतर से थर -थर काँप रहा था।कक्षा शुरू होने पर मैं सबसे पीछे बैठा और अपने को छुपाने की चेष्टा करता रहा, परन्तु उस क्रूर शिक्षक ने अपना उसदिन का शिकार ढूँढ॰ ही लिया। अपनी निर्मम आँखों से उन्होंने मुझे देखा और चिल्लाए - 'तकली निकालो !' मैंने रोनी आवाज में उन्हें जवाब दिया -' सर , लगता है तकली कहीं रास्ते में गिर गयी।' वे चिल्लाए -' तकली गिर गयी ? अच्छा इधर आओ , मैं उसे खोज निकालता हूँ।' राघो बाबू की आवाज सुन कर सभी छात्रों की उँगलियाँ थम गयीं और उनकी आँखें राघो बाबू का जल्लादी खेल देखने के लिए उनके टेबुल की ओर लग गयीं। मैं डरता - डरता राघो बाबू की ओर बढा॰। उनकी टेबुल के पास पहुँचते - पहुँते मैं पसीने से नहा गया था और थर -थर काँप रहा था।राघो बाबू ने क्रूरता से मेरी ओर देखा और गरजती आवाज में हथेली टेबुल पर रखने को कहा। मेरे पास हथेली टेबुल पर खोल कर रखने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। मैंने अपनी खूली हथेली टेबुल पर रखी। राघो बाबू ने हथौडी॰ ऊपर उठाई ,परन्तु इस बीच मुझमें न जाने कहाँ से इतना साहस आगया कि मैं उछल कर राघो बाबू की दाढी॰ में लटक गया। अब क्लास का नजारा बदल गया था। दाढी॰ पर जोर पड॰ने के कारण राघो बाबू लड॰खडा॰ गये। हथौडी॰ उनके हाथ से छूट कर नीचे गिर गयी।वे समझ नहीं पा रहे थे कि क्या हुआ।मैं उनकी दाढी॰ पर अपनी पकड॰ पूरी तरह मजबूत बना चुका था और उसके सहारे करीब - करीब झूल रहा था। अब राघो बाबू पीडा॰ से चिल्लाने लगे - 'अरे , छोडो॰छोडो॰ !!' मगर मैं कहाँ छोड॰नेवाला था। मैं अपनी पकड॰ और मजबूत बनाता गया और राघो बाबू की चीख - चिल्लाहट और तेज होती चली गयी' ।सभी छात्र अब जोर - जोर से हँस रहे थे।उन्हें जैसे प्रतिकार का सुख मिल रहा था। थोडी॰ देर बाद राघो बाबू मेरे भार से नीचे गिर गये। अब मैंने वहाँ रुकना सुरक्षित नहीं समझा और अपना बस्ता उस स्कूल में छोड॰ कर जो उस दिन भागा सो वहाँ दोबारा कभी नहीं गया। भागते समय राघो बाबू की दाढी॰ के बहुत से बाल मेरी हथेली में थे।

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Sunday, March 27, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 22

याद आता है गुजरा जमाना-22

मदनमोहन तरुण

मेरा पहला फुलपैंट

जब मैं सैदाबाद से जहानाबाद आया, जहाँ मेरे पिताजी रहते थे, तब मेरा नाम वहाँ के मिडिल स्कूल में लिखाया गया।इस स्कूल का नजारा ही अलग था। यह एक विशाल भव्य भवन में अवस्थित था।यहाँ करीब बारह शिक्षक थे। वे सब अच्छे - अच्छे कपडे॰ पहने रहते। उनका अपना कमरा विशाल था , जिसमें शानदार कुर्सियाँ थीं और एक विशाल टेबुल। प्रधानाध्यापक का कमरा अलग था। वहाँ जाने की अनुमति सबको नहीं थी। स्कूल में दो चपरासी थे।वे ही हर घंटे पर घंटी बजाया करते और उसके साथ ही अन्य विषय की अगली कक्षा शुरू होती थी। स्कूल का समय दस बजे से चार बजे तक रहता था।शिक्षक समय -समय पर वहाँ हमारे कपडों , नाखून, बाल आदि की सफाई की भी जाँच किया करते थे।

एक दिन बाबूजी ने मुझे एक कपडा॰ देकर कहा - 'इसे लेकर यूसुफ टेलरिंग में जाओ और अपना फुलपैंट बनवा लो।' मैं कपडा॰ लेकर दौडा॰ -दौडा॰ टेलर के पास गया।वहाँ दो लोग कुर्सियों पर बैठे बडी॰ तल्लीनता के साथ मशीन से सिलाई कर रहे थे। बीच मे एक दुबले ,लम्बे से सज्जन एक गद्दी पर तकिए के सहारे बैठे थे।उनके गले में नापनेवाला फीता माले की तरह लटका था। मैं उनके पास ही जाकर खडा॰ हो गया। उन्होंने ध्यान से मुझे देखा और पूछा - 'कोई काम है? '

मैंने कहा -' फुलपैंट बनवाना है।'

'किसके लिए?'

'अपने लिए।'

'तुम फुलपैंट पहनोगे ?' फिर तनिक रुक कर मेरी ओर देखते हुए बोले - 'फुलपैंट पहनने के लिए अँग्रेजी जानना जरूरी है। अगर तुम अँग्रेजी जानते हो , तभी फूलपैंट बनाऊँगा ,नहीं तो नहीं।'

सुनकर मुझे थोडा॰ क्रोध आगया। कपडा॰ सिलवाने के लिए किसी ऐसे नाटक का मुझे पहले अनुभव नहीं था। अबतक मैं अपनी माँ के हाथों सुई - धागे से सिले कपडे॰ पहनता रहा था।मुझे चुप देखकर यूसुफ मियाँ ने तनिक चुटकी लेते हुए कहा - 'नहीं जानते न, अँग्रेजी ?'

सुनकर मैंने क्रोध में कहा-' जनता हँ, जानता हूँ अँग्रेजी। फिर मैंने चिल्ला कर जैसे घोषणा की - 'अल्फावेट कैपिटल और ऊँची आवाज में, एक साँस में A से Z तक बोल गया - AB CD E F G .........W X Y Z. फिर मैंने उसी जोर से चिल्लाकर कहा -' अब अल्फावेट स्माँल और मन्द स्वर में कहा- a b c d e f .......x y z इसके बाद मैंने गर्व से सिर तानकर यूसुफ मियाँ की ओर देखा जिसका अर्थ था क्या समझते हो अँग्रेजी केवल तुम्हें ही आती है ? युसुफ मियाँ थोडी॰ देर अवाक से मेरी ओर देखते रहे, फिर मुस्कुराए और बोले - 'हाँ , हाँ तुम बहुत अच्छी अँग्रेजी जानते हो। मैं तुम्हारे लिए फुलपैंट जरूर बनाऊँगा।' कहकर उन्होंने मेरी नाप लेली और कुछ दिनों के बाद फुलपैंट बनाकर घर भिजवा दिया।

यह मेरा पहला फुलपैंट था। जिसकी याद मैं अब भी भुला नहीं पाया हूँ।

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Friday, March 25, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 21

याद आता है गुजरा जमाना- 21

-मदनमोहन तरुण

महत्वाकांक्षाओं की सुगबुगाहट

सैदाबाद कभी – कभी मुझे मॉ की डोली जैसा लगता है, चारों ओर से बन्द , नियति के कन्धों पर लदा हुआ।वह बाहर की जिन्दगी की तेज रफ्तार के बारे में कुछ भी नहीं जानता।रास्ते ,मोड़ , लोग , जिन्दगी के बदलते चेहरे सबसे बेखबर।डोली को कहार रख दें तो वह रुक कर प्रतीक्षा करने लगता है और उठा कर कहार चल दें तो वह उनपर टॅगा बेखबर चलता चला जाता है।दो सौ घरों की इस बस्ती के अधिकतर लोगों की जिन्दगी ऐसी ही है।ऐसे में कहीं – कहीं जब छोटी – छोटी महत्वाकांक्षाओं की सुगबुगाहट होती है तो अच्छा लगता है।महत्वाकांक्षाएँ किसी हिमशिखर पर आरूढ़ होने की नहीं, किसी गिनी बुक में नाम दर्ज कराने की नहीं , जिन्दगी की मरणासन्न डालियों में जरा-सा पानी डाल कर उसमें कोई एक कोंपल या हो सके तो एकाध फूल खिलाने की महत्वाकांक्षा।बाहर की चकाचौंध भरी दुनिया में हो सकता है इसकी चर्चा भी बेमानी हो, ऊँचाई पर टॅगे किसी विशाल पोस्टर के नीचे जमीन पर झपकी लेते एक उघाड़ बदन मजदूर की सत्ता की तरह,परन्तु यह भी हमारी जिन्दगी की कठोर और मुँह बिराती एक सच्चाई तो है ही।

चमारों के मुहल्ले में दिलकेसर जी का बेटा कलकत्ता से अंग्रेजी बाजा खरीद कर ले आया है।संध्या समय मुहल्ले के कई युवक अभ्यास करते हैं … वो तो बॉंस बरेली से आया ,सावन में ब्याहन आया… ।कुछ दिनों के बाद यह आवाज बन्द हो गयी।कुछ लोगों ने बताया कि दिलकेसर का बेटा बड़ा आदमी बन गया है। पटना की सड़क पर उन्होंने उसे अपने बहुत से संगियों के साथ राजाओं जैसा ड्रेस पहन कर बाजा बजाते हुए देखा है।उसके आगे – पीछे कार और फिटिन चल रही थी।गॉव के लिए गर्व की बात है।

रामोतार भाई के पिताजी घर – घर जाकर लोगों के दाढ़ी – बाल बनाते और फसल कटाई के समय अनाज के खलिहान में पहुँच कर वहॉ से जेजमनिका वसूल कर परिवार चलाते थे साथ ही वे लोगों के रिश्तेदारों तक जनम – मरण की चिट्ठियॉं पहुँचा कर अपना घर चलाते थे।उनकी मॉ गृहिणियों के नाखून काट कर और रॅग कर अपने घर की श्रीवृध्दि में योगदान करती थी।कुछ दिनों बाद सुना कि रामोतार भाई को जबलपुर के किसी सैलून में नौकरी मिल गयी।उनके पिताजी का कहना है कि रामेतार बड़ा आदमी बन गया। वह उनकी तरह लोगों को ईंट पर बिठा कर दाढ़ी नहीं बनाता।उसके सैलून में बड़ी – बड़ी कुर्सियॉ लगी रहती हैं ।सामने बडे॰ - बडे॰आईने टँगे होते हैं।चमकते उस्तुरे से वह ऐसी दाढी बनाता है कि लोगों को नींद आजाए। ।हजामत के बाद सिर की ऐसी मालिश करताहै कि आदमी नये - नये सपने देखने लगे।।सुन कर कुछ लोगों की ऑखें ईष्र्या से दग्ध हो उठती हैं कुछ की आश्चर्य से चमक उठती हैं।कुछ दिनों के बाद रामोतार भाई अपने पिता और मॉं दोनों को जबलपुर ले गये।

गॉंव की चूडी॰हारिन अब भी याद है। उसे सब जोगिन कहते थे।उसको चेहरा उसकी चूड़ियों जैसा ही चमकता था।उसके आते ही घर के पुरुष भीतर जाने का बहाना ढूँढ़ते रहते ।वह इसे समझती थी और स्त्रियों से हॅस – हॅस कर बातें करती हुई उनकी नर्म या कोमल कलाइयों में चूड़ियॉं सरका देती और पुरुषों की ओर अपनी रसीलीऑखें।’सब के देती थी दॉंव बन्धु'। बाद में उसने जहानाबाद में अपनी दुकान खोल ली।

आजादी के बाद पाकिस्तान में अपनी घर- गृहस्थी खो कर आने वाले सिख अपने सिर पर बड़ा – सा बक्सा उठाए गॉव में आते जिसमें सुई - सलाई से लेकर पहनने के कपड़े और बर्तन भी होते।उससे एक ओर जहॉं उनकी कमाई होती ,वहीं गॉव के घरों में नये सामानों की चमक आती और कई युवक फेरी के धंधे की ओर प्रेरित होते।उन दिनों गॉव की फेरी कर बिक्री करनेवाले कई सिख अ।ज जहानाबाद और आसपास अच्छे व्यापारी हैं।

मेरे मुहल्ले का पासी सुरबा ताड़ी की दुकान है। वह कहीं से एक लौंडा ले आया है जिसे वह सरंगी बजा कर नाचना और गाना सिखा रहा है।लौंडा ऊँची तान उठाता है –' पटना से लहॅगा मगा द हो पियबा , अइसे न सूतब … उसकी तान पर ताड़ी पीने वाले लहालोट हो जाते हैं। एक लबनी पीनेवाला दो लबनी पी लेता है ।सुनते हैं सुरबा लौंडे को लेकर पटना में नाच पार्टी शुरू करने की तैयारी में है।

कहारों के मुहल्ले के जितेन्दर ने एक टॉगा खरीद लिया है।गॉव के बनियों के लिए वह जहानाबाद से सामान लाता है और वहीं बाजार से स्टेशन तक सवारी भी ढो लेता है।कई बार आसपास के गॉवों के लिए भी काम करता है।वैसे तो जहानाबाद से शहर तक सड़क के नाम पर एक टूटीफूटी आल है उस पर भी अलगना से आगे लोग सड़क पर ही गाय – भैंस बॉधते हैं। उनके मुँह कौन लगे।सो, हटते – बचते इस सड़क पर दोनों का काम चलता है , भैंसों का भी और जितेन्दर भाई की टॉगेवाली दुलकी घोड़ी का भी।

वर्षों बाद

सैदाबाद से मेरा संग – सोहवत वर्षों से छूट गया।आठ साल तो मैं पढ़ाई के लिए बाहर – बाहर रहा और फिर अड़तीस- उन्चालीस साल नौकरी करता रहा।इस बीच एकाध बार जाना हुआ , एकाध दिन के लिए । उसमें किसी से मुलाकात हुई , किसी से नहीं हुई।यहॉं बस हमारी खेती होती है। पूरा परिवार जहानाबाद में रहता है।मगर पर्व - त्योहारों के अवसर पर परिवार का सैदाबाद आना - जाना लगा रहता है।इस बार करीब पैंतालिस साल के बाद सैदाबाद आया हूँ। आजकल तो तीन – चार साल में किसी शहर का चेहरा इतना बदल जाता है कि उसे पहचानना तक मुश्किल हो जाता है , किन्तु सैदाबाद बदल रहा है,परन्तु , अपनी पुरानी पहचान के साथ । हाँ, इतने वर्षों में जहानबाद से सैदाबाद तक पक्की सड़क बन गयी है।बिजली के तार भी तन गये हैं ।यदि करेंट हो तो कुछ घरों में बल्ब भी जलते हैं ।एक या दो घर में टेलीफोन भी है।जिस स्कूल में मैं पढ़ता था उसका कमरा उतना ही बड़ा है किन्तु अब पक्का हो गया है।यहॉं छठी कक्षा तक पढ़ाई होती है। कई क्लास खुले में लगते हैं। चार शिक्षक हैं।लड़कियॉं भी पढ़ती हैं। बच्चों की ऑखों में चमक है , पहले से कहीं ज्यादा।सिंचाई के पुराने कुएँ कुछ ही शेष हैं जिनकी सतह पर बैठ कर शाम गहराने हम तक गप्पें हॉकते थे।अब लाठा – कूँड़ी से नहीं , दमकल से खेती होती है।प्लास्टिक की पाइपें दूर – दूर तक पानी ढोती हैं।खेतों में पहले से अधिक हरियाली है।सड़क के किनारे दो – चार चाय , बिस्कुट, लिट्टी आदि की दुकानें हैं , गली में दो चार बनियों की भी दुकाने खुल गयी हैं।एकाध दवाखाना भी है।परन्तु सत्तर प्रतिशत मकान पहले जैसे ही हैं।मिट्टी के ।आधे खड़े , आधे लड़खड़ाए।गलियॉं वैसी ही खुली, नलियों से भरी।गॉव में दो – चार लोग आसपास के गॉवों या शहरों के स्कूलों में शिक्षक हैं।औरतों में शिक्षा नदारद।ऐसे सौभग्यशाली बच्चे कम ही हैं, जिन्होंने खिलौनों से खेला हो या दो – चार बार मिठाई खाई हो।

बचपन के मित्र बूढ़े – बुजर्ग हो चुके हैं। ज्यादातर की उम्र साठ के आसपास या उससे ऊपर है।किसी की कमर झुक गयी है , किसी के गाल पिचक कर गड्ढे में तब्दील हो गये हैं,किसी को दमा , तो किसी को गठिया ने जकड़ लिया है।कोई न तो देख सकता है , तो कोई सुनने में लाचार है।किसी के शरीर पर पूरा कपड़ा नहीं।जूता शायद ही किसी के पॉव में हो।

मुझे सामने देख कर और पहचानते हुए भी वे मुझसे मिलने में झिझक रहे हैं।वे मुझे अपना मित्र कैसे कहें , ऐसे तो उन्होंने साहब देखे हैं ,जिनके सामने उनकी घिघ्घी बॅध जाती है। जेढन भाई सामने खड़े हैं।लगता है मैं उनका अपराधी हूँ।वे समझ नहीं पा रहे हैं कि बात – व्यवहार कहॉं से शुरू हो ।अंततः मैं ही जेठन भाई को खींचता हुआ कहता हूँ चलिए खेत की ओर घूमने चलते हैं। सुनते ही सबों के चेहरे चमक उठते हैं।उनके चुप्पी साधे बेटे – पोते खिलखिलाने लगते हैं।मैं अपनी जेब से उन्हें चाकलेट निकाल कर देता हूँ।पहले संकोच से, फिर वे आगे बढ़ कर लेते हैं। उनकी बन्दर कूद शुरू हो जाती है।अब हम खेतों से गुजर रहे हैं । गेहूँ के पौधे जवान हो रहे हैं।धनिया के पौधों से मिठास भरी गंध उठ रही है।मित्रों के पाँवों में तेजी है। उनके चेहरे हरिया गये हैं।जुगल जी बहुत अच्छा गाते हैं। उनका प्रस्ताव है आज शाम को गायन – बजावन हो जाए। ढोलक – झाल सब है। सुदामा कहते हैं अब देर रात तक गान – बजान सुरक्षित नहीं , गॉव में अबतक कोई कांड तो नहीं हुआ ,परन्तु नक्सलपंथी यहॉं पनाह लेने लगे हैं।अँधेरा होते – होते यहॉं जीवन की गति रुक जाती है।पता नहीं कब क्या हो जाए।तभी सन्नाटा छा जाता है।जुगल जी नौटंकी से एक तान उठाते हैं – ‘हमको मरने का खौफो खतर ही नहीं’ और एक मित्र मुँह से नगाड़े के बोल निकालने लगते हैं …किड़िक … किड़िक …किड़िक … किड़िक …धॉं। बच्चे समझ नहीं पा रहे हैं अचानक इन बुजुर्गों को आखिर हो क्या गया है ।

सभी कठिनाइयों के बाबजूद सैदाबाद में जिन्दगी किसी नयी तैयारी में जुटी है।जितेन्दर अब जीवित नहीं है। घोड़ी के मरने के बाद उसका टॉगा बिक गया ।अब उसका बेटा आटो चलाता है, सैदाबाद से जहानाबाद तक।संकट जितना ही गहराता है उससे खेलने की ताकत भी उसी अनुपात में पैदा होती है, यह जिन्दगी का उसूल है और सैदाबाद भी इसका पर्याय नहीं।

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Tuesday, March 22, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 20

याद आता है गुजरा जमाना - 20

मदनमोहन तरुण

कुहासे का रथ

अपने स्कूल जीवन की एक रहस्यमय घटना को मैं आज तक भुला नहीं पाया।जून का गर्मी से धधकता महीना था।स्कूल सवेरे सात बजे आरम्भ होकर ग्यारह बजे बन्द हो जाया करता था।वैसे घर से स्कूल कम दूर न था ।वह गॉंव के दूसरे अंतिम छोर पर था।रास्ते में हजारी साव बनिया की दुकान थी वहॉ से आगे एक घनी बॅसवाड़ी थी । उसके पीछे दरधा नदी।मुझे वहॉं पर हमेशा डर लगा करता था और मैं वहॉं से तेजी से भागता हुआ स्कूल पहुँच जाता था।स्कूल से वापिस लौटते समय कोई - न – कोई बच्चा मेरे साथ अवश्य ही रहा करता था।एक दिन मुझे स्कूल से अकेले ही लौटना पड़ा।जेठ की लू से हुहुआती दुपहरिया थी।मैं तेजी से भागा चला जा रहा था।कुछ बॅसवाड़ी के डर से , कुछ धूप से बचाव के लिए।हजारी साव की दुकान के पास से आबादी शुरू हो जाती थी ,इसलिए यह मेरे राहत की जगह थी।परन्तु उस दिन वहॉं का नजारा ही कुछ और था।जब मैं हजारी साव के घर के पास पहुँचा तो वहाँ मुझे कई औरतों के अत्यंत कातर स्वर में बिलख – बिलख कर रोने की आवाज सुनाई पड़ी।मैं वहाँ थोड़ा रुक गया। तभी देखा कि कई लोग कफन जैसे सफेद कपड़े पहने और सिर मुडा॰ए आ – जा रहे थे। इसके साथ ही उनके घर के ठीक सामने, बीच रास्ते पर मैंने एक रहस्यमय रथ खड़ा देखा जो एक सुन्दर मकान जैसा था। एकदम सफेद।उसमें अगरबत्ती जल रही थी।वह मकान गहरे कुहासे जैसा दिखाई दे रहा था । उसका कोई भी हिस्सा जमीन से सटा हुआ नहीं था। लगता था जैसे वह हवा में टॅगा हो। मैं कौतूहलवश उस मकान के नीचे से गुजरने की इच्छा से उसके एकदम निकट चला गया,परन्तु , मुझे वहाँ बहुत जोरों का झटका लगा । लगा किसी ने मुझे बहुत जोरों से वहाँ से धक्का देकर हटा दिआ।

पता नहीं क्यों मैं बहुत डर गया और भागा – भागा घर आकर बाबा के पास बैठ गया। मैं हॉंफ रहा था। थोड़ी देर में जब मैं शांत हुआ तो बाबा को सबकुछ बताया।बाबा ने कहा कहीं हजारी साव का निधन तो नहीं हो गया ! मुहल्ले के लोगों ने कहा कल तक तो वे एकदम ठीक थे। उनके परिवार में भी कोई बीमार भी नहीं था।मेरे मन में भी भूचाल सा मचा था। पता नहीं क्यों मुझे लग रहा था कि जो मैंने आज देखा वह कोई साधारण दृश्य नहीं था।मैं अपने मुहल्ले के कुछ लोगों के साथ वहॉ फिर से गया। इस बार वहॉं का वातावरण एकदम शांत था। हजारी साव सदा की भॉंति शांत भाव से लोगों को सौदा तौल – तौल कर दे रहे थे।हमलोग सब देख कर चुपचाप लौट आए।लोगों ने कहा आप डर गये होंगे। मैं चुप रह गया ।परन्तु मेरे लिए उसे मात्र काल्पनिक घटना मान लेना असम्भव था।मैंने अपने कानों से स्त्रियों को आर्तनाद करते सुना था । बाबा ने भी उसे मेरा वहम मान कर टाल दिया।परन्तु दादी डर गयीं ।उन्हें लगा बच्चे को किसी की नजर लग गयी। उन्होंने आग में मिर्च जला कर मेरी नजर उतारी। परन्तु यह भी सच है कि मैं दूसरे दिन स्कूल अकेला नहीं जा सका ।जब अन्य मित्र चले तो मैं उनके साथ हो लिया।कुछ दिनों बाद मेरा भय चला गया और मेरा स्कूल जाना सामान्य हो गया।

इस घटना के करीब पन्द्रह दिनों बाद जब मैं स्कूल से लौट रहा था तो मैंने फिर हजारी साव के घर से गुजरते समय ठीक उसी दिन की तरह महिलाओं को उनके घर के भीतर से आर्त्तनाद करते सुना।साथ ही उसी दिन जैसे कई पुरुष अपना सिर मुडा॰ए और शरीर में सफेद कपडा॰ लपेटे घर के भीतर आना - जाना कर रहे थे। मैं बहुत डर गया और वहॉं से बेतहाशा दौड़ने लगा और हॉफता हुआ घर पहुँचा।बाबा बाहर की बैठक में बैठे हुए थे। मैं उन्हीं के पास उनकी गोद में गिर पड़ा। मेरे लिए कुछ भी बोलना सम्भव नहीं था।दादी भी घर के अन्दर से बैठक में आगयीं।थोड़ी देर बाद मैंने हॉफते उन्हें सारा वृत्तान्त सुनाया।बाबा सुनकर स्तम्भित रह गये। मेरी बातों को उन्होंने गम्भीरता से लिया, क्योंकि मैं झूठ कभी नहीं बोलता था।बाबा मेरे साथ हजारी साव की दुकान की ओर चल पड़े।जब हम वहॉं पहुँचे तो स्त्रियों का आर्त्तनाद उसी प्रकार जारी था। अब वहॉ लोगों की भीड़ भी थी और यह सूचना मिली कि उस दिन प्रातःकाल ही हजारी साव की मृत्यु हो चुकी थी।हम लौट आए।

तब से अबतक मेरे मन में यह प्रश्न उठता है कि जो पन्द्रह दिन पहले मैंने हजारी साव के दरवाजे पर देखा था वह क्या था ? वे औरतें कौन थीं , जो रो रही थीं ? वे कफन से कपड़े पहने कौन से लोग थे ? तपती जेठ की दोपहरी में वह कैसा कुहासा था और उसके भीतर वह रथ जैसी चीज क्या थी? उससे कौन ले जाया गया ? आदमी कब मरता है ? क्या अपनी मौत से बहुत पहले ही ?

किन्तु आजतक वह रहस्य कोई सुलझा न सका।

एक अपार्थिव रहस्य से यह मेरा प्रथम साक्षात्कार था, जिसे मैं अब भी समझ नहीं पाया हूँ।

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Sunday, March 20, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 19

याद आता है गुजरा जमाना 19

मदनमोहन तरुण

वह पैशाचिक घटना 19

कभी बहुत पहले इस गॉंव में एक दर्दनाक हादसा हुआ था , बुजुर्ग बहुत दर्द के साथ उसे याद करते हैं।तब नन्दन जी की उम्र ग्यारह साल के करीब रही होगी जब उनके पिता दामोदर जी की मृत्यु हुई थी।वे गॉव – गॉव में लोगों के यहॉं पूजा – पाठ कर परिवार का पालन करते थे।घर में अर्जन का कोई अन्य माध्यम नहीं था।वे अपने बेटे नन्दन को कुछ और बनाने की इच्छा रखते थे, अतः वे उनकी पढ़ाई पर सबसे अधिक ध्यान देते थे। उन्हें पूजादि कराने के लिए अपने जीवन काल में कभी किसी के यहॉं जाने नहीं दिया।परन्तु किस्मत की मार देखिए कि वे स्वयं अचानक चले गये और परिवार के सामने भूख से बेहाल और विकराल जिन्दगी अपना मुँह बाए खड़ी हो गयी।फिर परिवार भी छोटा नहीं।स्वयं नन्दन जी की मॉ , उनकी विधवा बुआ और उनकी दादी जो गॉव में विकट डायन के रूप में विख्यात थीं और उन्हें लेकर घर में कई बार अपमानजनक हादसे हो चुके थे।उनकी दादी के बारे में प्रसिध्द था कि वे अगर किसी बच्चे को टोक दें तो उससे जिन्दगी सदा के लिए छिन जाती थी।कई बार उनकी टोकाटोकी को लेकर गॉववालो उनसे मारपीट कर चुके थे। गॉव के लोग उनकी नजर से अपने बच्चों को बचाते थे । लोगों की उनके परिवार के प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी।लोग यही कहते कि डायन को खाने को जब कुछ भी न मिला तो अपने बेटे को ही खा गयी।ऐसे में नन्दन के सामने परिवार की जीवनरक्षा का पूजा – पाठ कराने के अलावा कोई और रास्ता न रहा।उन्होंने पढाई छोड़ दी और गॉव – गॉव पूजा की पोथी और जनेऊ लिए दौड़ लगाते रहे।

उम्र चालीस की हो गयी, परन्तु डायन के इस घर मे कोई अपनी बेटी ब्याहने को तैयार नहीं हुआ।अंततः एक गरीब ब्राह्मण ने अपनी दस साल की बिटिया उनके घर ब्याह दी।उसे परिवार के लोग प्यार से छोटी कह कर बुलाने लगे। छोटी अबतक अपने घर पर या तो गुड़ियों के साथ खेली थी या रसोई में अपनी मॉ के लिए पानी भर कर लाती रही थी।वह पति – पत्नी का मर्म क्या जाने। इसलिए जब उसे अपने पति के साथ सोने जाने को कहा गया तो वह रोने लगी और दादी में चिपक गयी।उसकी ददिया सास ने अबतक गॉंव वालों की ओर से सदा अपमान और अनादर ही पाया था ।घर में भी उनका कोई विशेष सम्मान नहीं था इसलिए पतोहू के अपने से चिपक जाने और अपनापन दिखाने से उन्हें थोड़ी राहत मिली और उन्होंने उसे अपने कलेजे से लगा लिया। अब छोटी दिन – रात उन्हीं से चिपकी रहती।किन्तु गॉंव में यह खबर दूसरे रूप में फैली।फुसफुसाहटों ने सैदाबाद की गली – गली के कान फूँक दिये कि बुढ़िया डायन अब अपने पतोहू को अपनी विद्या सिखा – पढ़ा रही है।कुछ दिनों के बाद गॉंव की कुछ औरतों ने दावा किया कि बुढ़िया डायन की पतोहू अपनी सास से भी भयंकर डायन बन गयी है और आधी रात के बाद गॉव की उन गलियों में मड़॰राती फिरती है जहॉं नवजात बच्चे हों।छाया की भला कोई सच्चाई होती है ? जितने लोग उतनी बातें।किसी – किसी ने तो छोटी को धधकती आग के रूप में देखने का दावा किया। किसी ने तो उसके खून से रँगे दॉत भी देख लिए।निस्सड़ ग्रामीणों की कल्पना इतनी उर्वर होती है , यह समझना मुश्किल है।

।उम्र बढ़ने के साथ – साथ उसमें स्वाभिक रूप से नारीत्व के भावों का उदय होने लगा था। जिसे वह पहले पराया पुरुष भर समझती थी अब वह उनसे अपने सम्बन्धों को समझने लगी थी , यद्यपि दोनों की उम्र में करीब तीस वर्षों का अन्तर था।नन्दन जी के लिए भी यह समझना सरल नहीं था कि वे उसके साथ कैसा व्यववहार करें ? फिर भी वे उसके प्रति अत्यंत स्नेहशील थे और पूजादि से लाई गयी साड़ी – धोती तथा अन्य चढ़ावे सब उसे ही देने लगे थे ,जिसकी वह खूब अच्छी तरह देखभाल करती थी।कभी – कभी वह उनके देर से घर लौटने या भोजन में उपेक्षा करने पर उन्हें डॉंटने भी लगी थी।नन्दन जी को इससे जीवन में रस आने लगा था।घर लौटने पर अब छोटी को बाहर निकलने में जरा भी देर होती तो वे बेचैन हो जाते और उसे पुकार लेते।हालॉकि ऐसा कभी –कभी ही होता था ।

परन्तु , छोटी की क्रूर नियति उसके साथ कोई और ही खेल खेलने की तैयारी में लगी थी।उस भावी का किसी को जरा भी एहसास नहीं था।जिन्दगी मिठास घोलती आगे बढ़ ही रही थी कि एक दिन पास के गॉंव के एक धनाढ्य परिवार का युवक अपने चार साल के बच्चे को कंधे पर बिठाए नन्दन जी को अपने यहॉ सत्यनारायण जी की पूजा कराने के लिए बुलाने आया।छोटी अपनी सास के साथ उस समय बहर दरवाजे पर ही खड़ी थी।गॉव के लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं ,वह इस तथ्य से पूर्णतः अज्ञात थी। युवक के कंधे पर छोटे बच्चे को देख कर वह भावुक हो उठी और उसने कहा ‘ ओह , कितना प्यारा बच्चा है ! और कह कर उसे प्यार से निहारती ही नहीं रही ,उसे तबतक अपनी गोद में लिए खेलती रही जबतक उसके पति उस युवक को पूजा की सामग्री के बारे में बताते रहे।पूजा की सामग्री के बारे में सारी जानकारी लेकर युवक फिर से अपने बेटे को कंधे पर बिठा कर चल पड़ा।वह अपने और सैदाबाद के बीच की नदी पार ही कर रहा था कि उसे अचानक कंधे पर बैठा बेटा लुंजपुंज - सा लगने लगा।जल्दी – जल्दी नदी पार कर वह किनारे पर आया अ‍ौर अपने बेटे को कंधे से नीचे उतार कर देखा तो वह अवाक रह गया।उसके बेटे का शरीर बुखार से तबे की तरह तप रहा था।उसकी ऑखें लाल थीं। वह हिलाने – डुलाने पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखा रहा था।अपनी एकमात्र संतान का पिता यह देख कर घबरा गया।उसके आसपास जार्न पहचान के लोगों की भीड़ जमा हो गयी।वह लोगों के पूछने पर बच्चे की आकस्मिक बीमारी का कोई कारण नहीं बता सका । उसने उसे कहीं भी अपने कंधे से नहीं उतारा था कि उसे कोई जीव - जंतु काट ले।लोगों की आवाज सुन कर उसके घर के लोग भी आ गये।घर के दरवाजे तक जाते – जाते बच्चे ने दम तोड़ दिया।पूरे गॉव में कोहराम मच गया। बच्चे का इस तरह अकस्मिक रूप से चल बसना किसी की समझ में नहीं आया।बच्चे का पिता भी अबतक अपने होश खो चुका था।तभी किसी ने कहा कि वे तो सैदाबाद के नन्दन जी से पूजा के लिए समय निश्चित करने गये थे , तो बच्चे का पिता होश में आगया। सारा दृश्य उसकी ऑंखों के सामने नाच उठा।जब नन्दन जी उसे पूजा की सामग्री के बारे में बता रहे थे तब उनकी छोटी बहू ने बच्चे को गोद में ले लिया था और वह उसके साथ तबतक हँसती – हॅसती खेलती रही थी जबतक वह बच्चे को उससे लेकर वहाँ से रवाना नहीं हो गया। अब ब्च्चे की मौत का कारण सब की समझ में आ गया। बच्चे की दादी ने चिल्लाते हुए कहा कि उसके पोते को नन्दन की औरत खा गयी है।उस परिवार के बारे में यह बात दूर –दूर तक फैल चुकी थी।किसी को शंका न रही ।बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने सैदाबाद का रुख किया। भीड़ के आगे – आगे अपने मृत पोते को गोद में लिए उसकी दादी चल रही थी। चीखती – चिल्लाती हुई।कोलाहल सुन कर पूरा सैदाबाद अपने – अपने दरवाजों पर आ खड़ा हुआ।कई लोग उनके पीछे चल पड़े।नन्दन जी के दरवाजे पर पहुँचते ही लोग चिल्ला – चिल्ला कर छोटी को बुलाने लगे।नन्दन जी कहीं पूजा कराने घर से बाहर निकल चुके थे। देर तक जब भीतर से कोई नहीं निकला तब क्रुध्द भीड़ घर के भीतर घुस गयी ।मृत बच्चे को उसकी दादी ने बीच ऑगन में लिटा दिया और चिल्लाने लगी ‘अरी ओ हरामजादन ! लौटा मेरे हॅसर्ते खेलते बच्चे को जिसे तू खा गयी। नहीं तो मैं तुम्हारा पेट फाड़ कर उसे बाहर निकाल लूँगी।’ नन्दन जी की भाभी ने हाथ जोड़ कर कहा -‘मेरी बहू का कोई कसूर नहीं। वह अभी नादान बच्ची है।’ परन्तु भीड़ को यह सुनने की फुर्सत कहॉ थी।लड़के का बाप अब उनके कमरे के भीतर घुस गया और छोटी के बाल पकड़ कर खींचता हुआ बाहर ले आया। छोटी हक्र्काबक्का थी। उसे अपने घर की ऐसी प्रसिध्दि का कोई ज्ञान नहीं था। वह समझ नहीं पा रही थी कि यह सब क्या हो रहा है।क्षण भर को उसकी निगाह उस मरते बच्चे पर गयी, जिसे अभी कुछ देर पहले उसने अपनी गोद में खिलाया था। उसे देखकर उसके मन में कहीं यह मधुर इच्छा जगी थी कि उसके घर में भी कोई ऐसा बच्चा होता जिससे वह खेल पाती। परन्तु ,वह कुछ बोल भी पाती कि उस बच्चे की दवंग दादी ने उसके बालें को जोर से खींचते हुए उसे नीचे पटक दिया और जोरों से चीखी ‘ वापिस ला मेरे बेटे को हरामजादन , नहीं तो मैं तेरी एक गत नहीं छोड़ूँगी।’ परन्तु मरियल -सी छोटी जोर के झटके से अबतक गिर कर बेहोश हो चुकी थी।उसके बाद जो आया उसी ने उस पर लातें बरसाईं।वह छटपटाती रही , किन्तु कोई भी उसे बचाने का साहस नहीं कर पाया।जब लात – घूसों से भी संतोष नहीं हुआ तो मरते बच्चे के परिवार ने उस पर लाठियॉं बरसाईं। बच्चे के पिता को इससे भी संतोज़ नहीं हुआ। वह घर के भीर से किरासिन तेल की टिन उठा लाया और उसने पूरा तेल छोटी पर उजल दिय। अबतक बेहोश छोटी आग की लपटों की गर्मी से दग्ध - सी होश मे आगयी। उसके पूरे शरीर में आग लग चुकी थी । वह पूरे आँगन में अपनी रक्षा के लिए दौड॰ती रही , लोगों से अपनी रक्षा की गुहार लगाती रही , परन्तु कोई सामने आने का साहस नही कर सका।

गॉव के लोगों को जब लगने लगा कि मामला एक पैशाचिक खेल से आगे निकल कर संगीन होने वाला है , तब लोग वहॉं से धीरे – धीरे खिसक गये।

कुछ लोग कहते हैं छोटी की चिता जलाने की भी जरूरत नहीं पड़ी , वह ऑंगन में ही जल कर राख हो चुकी थी।।सैदाबाद के जीवन पर सबसे काला धब्बा यही है।

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Thursday, March 17, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 18

याद आता है गुजरा जमाना 18

मदनमोहन तरुण

लयात्मक रोदन

उनदिनों लड॰कियाँ माँ के यहाँ से श्वसुराल जाते हुए खूब रोया करती थीं। उनका रोना बहुत ही कलात्मक और संगीतमय हुआ करता था। वे रोते - बहुत सारी कथा - सी सुनाती जाती थी। -'माँ मुझे जल्दी बुला लेना।' भइया मुझसे मिलने जरूर आना।' 'ज्यादा तिलकुट मत खाना।' ' ऐ माँ अब बाबू जी को समय पर खाना कौन देगा।' 'मेरे तोते का खयाल रखना।' मेरी बकरी को समय पर बाँध देना।' ऐ माँ तेरी बहुत याद आएगी।' अब मुझे बैगन का भुर्ता कौन खिलाएगा? ..... ..... आदि .... आदि ...। और यह सब रो -रो कर गाते हुए। जो लड॰की ऐसा नहीं करती , उसके बारे में कहा जाता कि वह तो श्वसुराल जाने के लिए तैयार बैठी थी। पति आया और चल दी। जरा रोई भी नहीं। इसलिए लड॰कियों में देर तक और तरह - तरह से रोने की प्रतियोगिता - सी रहती। जिसका रोना जितना ही संगीतमय होता , उसकी उतनी ही प्रशंसा होती। गाँव में कोई बुजुर्ग स्त्री लयात्मक रूप से रोने में एक्सपर्ट होती थी, जो नयी लड॰कियों को रोने की ट्रेनिंग भी देती थी। आज सुनने में यह चाहे जितना भी हास्यास्पद लगे , परन्तु कहीं - कहीं इसका प्रयोग होता ही था।

मेरे पिताजी की बहन श्वसुराल जाते समय बहुत रोया करती थीं। वे अपनी माँ में लिपट जातीं तो उन्हें जल्दी छोड॰ती नहीं थीं। एकबार उन्होंने मेरी उँगली पकड॰ ली और रो- रो कर मुझे भी कहानी सुनाने लगीं , परन्तु मुझे उससे क्या , मैं तो अपनी लाठीवाले घोडे॰ को दौडा॰ने के लिए बेचैन था। बडी॰ मुश्किल से मैं उनसे पिंड छुडा॰ सका। तब से वे जब भी श्वसुराल जाने लगतीं , मैं सावधान रहता कि कहीं उनकी पकड॰ में न आजाऊं।एक बार और मैं फिर उनकी पकड॰ में आ ही गया। इसबार उन्होंने मेरी कमीज का एक सिरा पकड॰ लिआ और रोने लगीं।मैंने उनसे छूटने की बहुत चेष्टा की ,परन्तु छूट नहीं सका। मेरी जेब में पेंसिल छीलने के लिए एक ब्लेड था। मैंने सोचा यदि यह आभी काम नही आया तो फिर कब काम आएगा? मैंने अपनी जेब से ब्लेड निकाला और उससे अपनी कमीज का वह सिरा काट लिआ जो वे पकडे॰ थीं और वहाँ से अपनी पूरी ताकत लगा कर भाग निकला।

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Monday, March 14, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 17

यादआता है गुजरा जमाना 17

मदनमोहन तरुण

ईश्वर - वध

जेठन भाई की तरह ही हरिनारायण भाई भी मेरे बचपन के लॅगोटिया यार हैं।हम साथ – साथ लाठी के घोड़े दौड़ाते , लुक्काचोरी का खेल खेलते बड़े हुए हैं।हरिनारायण भाई के परिवार ने विकट गरीबी देखी है ,किन्तु मन में आगे बढ़ने की प्रबल इच्छा की उजास उस परिवार के हर चेहरे पर बनी रही है।यही कारण है कि सैदावाद के कई लोग जहॉ जीविका के लिए परम्परागत मार्गो की खोज करते – करते बली समय के व्दारा घिस - घिस कर सदा के लिए साफ कर दिए गये , वहीं हरिनारायण भाई ने जब एक रास्ता बंद देखा तो उसे छोड़ कर दूसरे रास्ते से निकल गये।

उनके ऑंगन में एक विसाल काले रंग का शिवलिंग था जिनकी उनके दादा जी प्रतिदिन स्नान करके पूजा किया करते थे।पूजा के बाद भगवान को भोजन के लिए कुछ - न - कुछ भोग लगाने का नियम था।परन्तु समयक्रम में भगवान तो वैसे - के - वैसे बने रहे परन्तु भूख की ज्वाला ने इस परिवार के फूल से मुस्कुराते कई बच्चों की जान ले ली।यहॉ तक की उन्हें अपनी सुन्दर - सी बहन की शादी एक बूढ़े से करनी पड़ी।फिर इस शिवलिंग की इतनी खुशामद क्यों जो बैठे - बैठे इस परिवार का रोज केवल ऑंटा गीला करता रहा और किसी संकट में कभी काम न आया ? भला ऐसा देवता किस का ? एक दिन दोपहर में जब परिवार के सभी लोग सोए हुए थे तब हरिनारायण भाई मेरे पास आए और अपनी असाधारण योजना में मुझे अपना साथ देने को कहा।उस योजना के कार्यान्वयन के लिए अदद एक हथौड़े की जरूरत थी और योजना थी एक नाकारा भगवान की सत्ता को सदा के लिए समाप्त कर डालने की। भला मैं ‘न’ कौसे कहता।योजना इतनी रोचक और अभूतपूर्व थी कि मैं भी इसे कार्यान्वित करने को बेचैन उठा।हथौड़ा मेरे घर में था।चुपके से लाकर उन्हें दे दिया और उनकी सहायता के लिए अपने साथ एक और लोहे तनिक भारी और गोल टुकड़ा भी ले लिया।उनके घर पहुँच कर हम शिवलिंग के दोनों और बेठ गये।कुछ ही देर में हरिनारायण भाई ने उनके ऊपर हथौड़े का भारी वार किया।उस प्रहार से भगवान टस - से - मस न हुए। लगता था इस घर में उन्होंने गहरी पैठ बना ली थी।हरिनारायण भाई ने कहा मुफ्त का खा – खा कर मोटे हो गये हैं।कहते – कहते उन्होंने भगवान के सिर पर हथौड़े का अगला जोरदार प्रहार किया।इसे भगवान सहन न कर सके और पूरी तरह हिल गये।अब मेरी बारी थी।मैंने लोहे के भारी गोले के टुकड़े से भगवान पर जोरों का प्रहार किया जिससे वे जगह – जगह से दरक गये।

उसके बाद क्या था, हम उनपर वार – पर- वार करने लग गये।कुछ ही देर में भगवान पत्थर के छोटे – छोटे टुकड़ों के रूप में आसपास बिखरने लगे और दिन ढलते – ढलते चूर्ण के रूप में परिवर्तित हो गये।हमलोगों ने बिना विलम्ब उन्हें घर के बाहर पड़ी राख की ढेर पर फैला दिया और पिंडी की खाली जगह पर बाहर से गेंदा का पौधा उखाड़ कर लगा दिया।हम अपनी इस कला पर मुग्ध रह गये।अब इसे देख कर कोई नहीं कह सकता था कि यहॉ कभी भगवान रहा करते थे और हर रोज पूजा के बाद मुफ्त की रोटी तोड़ा करते थे।

हम अपने इस कारनामें को निहार कर खुश हो ही रहे थे कि भीतर से हरिनारायण भाई के पिताजी खखरे।अब वहॉ रुकना सुरक्षित न था । मैं हथौड़ा और लोहे का गोल टुकड़ा लिए वहॉ से खिसक गया।उस दिन हरिनारायण भाई की अच्छी पिटाई हुई ।किन्तु इसके साथ ही उसदिन एक ऐसी घटना घटी जिसने हरिनारायण भाई के जीवन को पूरी तरह बदल दिया। इस घटना के दूसरे ही दिन उनके घर बनारस के एक पंडा जी आए।बातों - बातों में उन्होंने शाम को चबेना चुरमुराते हुए हरिनारायण भाई से पूछा –‘ रामलीला में नौकरी करोगे ?’ हरिनारायण भाई ने अबतक रात – रात भर कई बार जाग कर रामलीला देखा था , वे उसी रामलीला के पात्र हो सकते हैं ,यह उन्होंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था।उन्होंने पंडा जी की ओर साश्चर्य देखा।पंडा जी ने उनकी मनोदशा समझते हुए कहा – 'असल में हमारी रामलीला में सीता का अभिनय करनेवाला लड़का बड़ी उम्र का हो गया है। तुम अभी किशोर हो ।देखने में सुन्दर और कोमल हो।तुम्हें सीता के रूप में देखना लोगों को अच्छा लगेगा। बड़े होने पर राम भी बन सकते हो।’फिर वे तनिक रुक कर बोले – ‘तुम्हें दोनों समय का भोजन , पहनने को कपड़ा और रामलीला के अंतिम दिन निकलनेवाली झॉकी के चढ़ाबे से भी कुछ मिलेगा।बरसात के दिनों में जब कुछ दिन के लिए कहीं रामलीला नहीं होगी तो तुम अपने माता – पिता से मिलने भी आ सकते हो।’ पंडा जी की बातों से सब की ऑखें चमक उठी।हरिनारायण भाई दूसरे दिन ही बनारस चले गये। समय बीतता गया और गॉंव मे उनके बारे में लोगों को खबरें मिलती रहीं, खास कर उनके बाबा के व्दारा।उनका छोटा भाई समय – समय पर उनसे मिलने जाता और वहॉ से हरिनारायण भाई अपनी माँ , बाबूजी ,बाबा के लिए साडी॰ , धोती और कुछ रुपया – पैसा भी भेजते रहते।कुछ दिनों बाद उनका छोटा भाई भी उन्हीं के पास चला गया। जीवन के अंतिम दिनों में उनके मॉ – बाप ने सुख के दिन भी देखे।लोग कहते बेटा हो तो हरिनारायण जैसा ? हरिनारायण भाई की तरह गॉंव के कई युवकों ने अपने घर के शिवलिंग पर हथौड़े बरसाए, लेकिन किसी को किस्मत का वैसा साथ नहीं मिला। लोग कहते हैं बाबा भोलेनाथ का क्या , वे दिन भर तो भॉंग खाए रहते हैं।उन्हें कुछ पता थोड़े चलता है कि कौन उनका भक्त है और कौन उनका शत्रु।सो , हरिनारायण जी जब उनके सिर पर हथौड़े बरसा रहे होंगे तो वे भॉंग के गहरे नशे में रहे होंगे और उन्हें अभिशाप देने के बदले वरदान दे बैठे।

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Thursday, March 10, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 16

याद आता है गुजरा जमाना - 16

मदनमोहन तरुण

जेठन भाई

मेरे घर के पास ही जेठन भाई का घर था।वे कुम्हार हैं।उनके ऑगन में चाक गड़ा था, जिसकी छेद में डंडा डाल कर घुमाते हुए उनके पिताजी दिन भर तरह – तरह के बर्तन गढ़ा करते थे।चाक पर मिट्टी का लोंदा चढ़ कर जैसे ही घूमने लगता वैसे ही उनकी पानी में भींगी हथेलियॉ उसे अपनी नर्म कसावट में ले लेतीं और मिट्टी का वह लोंदा नए – नए आकार लेने लगता ।कभी वे अपनी कसी मुट्ठी से उस लोंदे को दबाते ,फिर सम्हाल कर उसे अपनी हथेली से थामे रहते और एक सृष्टि धीरे - धीरे रूपाकार लेने लगती।मिट्टी के उस लोंदे से कभी घड़ा निकलता तो कभी कड़ाही , कभी चुक्का , कभी खपड़ा।उनकी इस सतत लीला को देखना एक असाधारण अनुभव था। सच पूछिए तो उनके इस महान कला - कौशल को निहारते – निहारते मैने यह ठान लिया था कि बडा होने पर मैं कुम्हार ही बनूँगा।तब जेठन भाई बहुत छोटे थे।मेरी ही उम्र के ,मगर मॉ के साथ खेत से मिट्टी का ढेला उठा - उठा कर लाया करते थे।तीसरी कक्षा तक जेठन भाई और मैं सैदाबाद के स्कूल में ही पढ़ते रहे।इसके बाद हम ऐनमा स्कूल में जाने लगे।ऐनमा सैदाबाद से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर है।हम यह रास्ता प्रतिदिन चल कर तय करते।ऐनमा का स्कूल गॉधी जी की शिक्षानीति पर बना बेसिक स्कूल था , जहॉ जीवन में मस्तिष्क और हाथ से काम के संतुलन और सम्मान पर बल दिया जाता था।इस नीति के अन्तर्गत जहॉं दोपहर तक हम कक्षाओं में पुस्तकों से गणित आदि की पढ़ाई करते , वहीं दोपहर के बाद खेतों में धान रोपने , बागवानी , चरखा चलाने और तकली से धागा निकालने की शिक्षा पाते।जेठन भाई की लिखावट मेतियों जैसी थी।वे पढ़ने में भी मुझसे तेज थे।

कुछ दिनों बाद उन्होंने ने स्कूल जाना बन्द कर दिया।उनके पिताजी का कहना था कि बर्तनों की मॉग बढ़ गयी है ऐसे में स्कूल जाकर किताबों में ऑख फोड़ने से अच्छा है मिट्टी ढोने में माँ की मदद करना।जेठन भाई खूब रोए ।मैंने भी उनके पिताजी को मनाने की बहुत चेष्टा की परन्तु उन्होंने ने एक न मानी।उनका कहना था कुम्हारी के लिए पढ़ने की क्या जरूरत है ?

पहले मैं स्कूल से घर लौटने पर जेठन भाई के पिताजी के पास बैठ जाता था और मुग्धभाव से उनका सृजन कार्य देखता रहता था ,परन्तु अब मुझे वह जगह एक उज्वल भविष्य की कत्लगाह दिखाई देती।उस समय से जेठन भाई के माथे पर मिट्टी का लोंदा और तनिक और बड़े होने पर धान के बर्ड़े - बड़े बोझों के अलावा किसी ने कभी कुछ और नहीं देखा।जेठन भाई को तो मैं जानता हूँ, परन्तु इसी सैदाबाद में और भी कई लोग होंगे जिनके सपने गरीबी और अशिक्षा की कत्लगाह के शिकार हुए होंगे।यदि ऐसा न होता तो विदेशों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवानेवाले भारतीयों की और भी बड़ी संख्या होती।

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