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Tuesday, January 31, 2012

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 97


चाणक्य की शिखा : याद आता है गुजरा जमाना 97

मदनमोहन तरुण

चाणक्य की शिखा

जहानाबाद में हमलोग समय - समय पर नाटक खेला करते थे।नाटक इतने प्रभावशाली होते थे कि उसे देखने के लिए अच्छी - खासी भीड॰ जमा होजाती थी। नाटक में अभिनय का समारम्भ तो मैंने सैदाबाद में ही कर दिया था ।तब मेरी उम्र बहुत कम थी। तब छोटका भइया नागवन्दन जी हरिश्चन्द्र बनते और मैं रोहिताश्व का रोल करता था। हमारे घर के बाहर का चबूतरा मंच बनता।दर्शक बहुत नहीं होते थे , परन्तु मुहल्ले के करीब - करीब हर किसी के आजाने से रोचकता तो बढ॰  ही जाती थी ,हमलोगों का उत्साह भी खूब बढ॰ जाता था। कोई अलग से ड्रेस आदि नहीं होता था , परन्तु हम सन को रंग से रँगकर दाढी॰ - मूँछ बनालिया करते थे। इन नाटकों के खेलने का कोई निश्चित समय नहीं होता था। जिस दिन निश्चित किया गया , उसीदिन होगया नाटक। शाम - शाम तक मुहल्ले के लोगों को सूचना दे दी जाती। अभिनय के नाम पर ज्यादा जोर आवाज की उतार - चढा॰व पर दिया जाता था। भइया ही दिन में रिहर्सल करवाते थे।

 नाटक खेलने का यह चश्का जहानाबाद में भी बना रहा।यहाँ तककि जब मैं राँची में पढ॰ रहा था तब भी काँलेज मिस कर नाटक खेलने आजाता था। अभिनय स्वयं भी करता और मित्रों को भी उसके लिए तैयार करता था। मेरा मित्र शशिभूषण बहुत अच्छा प्रबन्धक था। उसके पिता श्री लक्ष्मीनाथ पाण्डे स्वाधीनता सेनानी थे और चन्द्रशेखर आजाद के निकट सम्पर्क में रह चुके थे। वे प्रतिदिन प्रातःकाल खूब व्यायाम करते और संध्या समय अपने तरह - तरह के रंगोंवाले क्रोटन के एक - एक पौधे की पत्ती - पत्ती को धोकर साफ करते जिससे उसमें चमक - सी पैदा होजाती थी । उसकी पत्तियों का रंग, कटाव, मोड॰ सबकुछ निखर कर स्प्ष्ट होजाता। उन्हें यह कार्य करते हुए देखना भी एक असाधारण अनुभव होता था।
उनके घरपर जन्माष्टमी के समय उच्चकोटि का कलात्मक आयोजन होता था। भगवान कृष्ण का हिण्डोला सजाया जाता और रात - रात भर समारोह होता। उनके पिता शालिग्राम जी बहुत नाटकीयता से लल्लूलाल जीका 'सुखसागर' पढ॰ते जिसकी भाषा हिन्दी और व्रज मिश्रित होती थी। उस कथा को सुनने के लिए खूब भीड॰ जमा होती और इस अवसर पर कवि - सम्मेलन भी होते थे। लक्ष्मीनाथ जी को कलात्मक संस्कार यहीं से मिले थे। वे बहुत अच्छे अभिनेता भी थे। जहानाबाद में दुर्गापूजा के अवसर पर कानपुर से नौटंकी पार्टियाँ आया करती थी जो नगाडे॰ की चोट पर काव्यात्मक डायलोग बोल कर लैला -मजनू' ‘सीरी - फरहाद' जेसे नाटक प्रस्तुत करती थी। उनके नगाडे॰ की किडि॰क -किडि॰क धाँ की आवाज दूर - दूर तक फैलती थी। उनदिनों माइक की व्यवस्था नहीं थी इसलिए नौटंकी के अभिनेता इस हदतक जोर लगाकर डायलाँग बोलते कि उनकी आवाज पूरे शहर में फैलती थी। 'लैला , लैला पुकारूँ मैं वन में , हाय लैला बसी मेरे मन में।' …’मुझको मरने का खौफो खतर ही नहीं ‘…किडि॰क किडि॰क धाँ … किडि॰क धाँ … उसे देखने के लिए दूर -दूर के गाँवों से लोग आते और रात -रात भर जाग कर नौटंकी का मजा लेते थे। पीछे के दर्शक आगे आने केलिए 'जयबजरंगबली' का नारालगते  एक- दुसरे को धँसोड॰ते हुए मंच के निकट पहुँचने का प्रयास करते। मैं भी करीब - करीब हर रात जागकर नौटंकी देखता था।
 हर दीपावली के अवसर पर पं लक्ष्मीनाथ पाण्डे जी की ठाकुरवाडी॰ के पास नाटक होता था। ठाकुरवाडी॰ के पास की खुली जगह जहानाबाद की सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र हुआ करती थी। स्वयं लक्ष्मी जी बहुत अच्छे आभिनेता थे। इन नाटकों मे टेहटा के लखन जी बहुत प्रभावशाली शिवतांडव प्रस्तुत करते थे। लक्ष्मी जी के पुत्र शशिभूषण में अभिनय की प्रतिभा तो नहीं थी ,परन्तु वह बहुत अच्छा व्यवस्थापक था। उससे हमारी गहरी मित्रता थी। वह मुझे नाटक करने के लिए हमेशा उकसाता रहता था। जब एक बार हमने उससे सैदाबाद में खेले जानेवाले नाटकों की चर्चा की तो वह चमक उठा। उसने कहा नाटक हम यहाँ भी खेलेंगे। नाटक तुम चुनोगे, अभिनय निर्देशन तुम करोगे और मैं व्यवस्था का जिम्मा लूँगा। मैंने इस दिशा में कार्य आरम्भ कर दिया। मुहल्ले के कुछ युवावस्था की ओर उन्मुख किशोरों को हमने इसके लिए तैयार किया। मेरे पास एकांकियों का एक संग्रह था ' करुण पुकार' वहीं से छोटे - छोटे एकांकी हमने तैयार किये। इसतरह जहानाबाद में हमने नाटक खेलने की तैयारी शुरू की। हमलोगों में खूब उत्साह था। स्कूल से लौटने के बाद हम शशिभूषण की बैठक में जमा होते और वहीं नाटक का जमकर रिहर्सल चलता। शशिभूषण ड्रेस, दाढी॰ - मूछ, साडी॰ - ब्लाउज ,धोती  आदि की व्यवस्था करता। यह सारा इंतजाम हम मुहल्ले भर के लोगों से मान - मिन्नत करके जमा कर लेते और इसीतरह टेबुल - कुर्सी का भी ईंतजाम कर लिया जाता। नाटक खेलने के दिन पूरे मुहल्ले के लोगों को सूचना दी जाती। एकांकी में शुरू से ही दर्शक आने लगे। जैसे - जैसे हमारी दक्षता बढ॰ती गयी वैसे - वैसे दूसरे मुहल्लों के लोग भी आने लगे। सबों ने चुपचाप मुझे अपना निर्देशक स्वीकार लिया था।

एकांकियों की जगह अब हम बडे॰ नाटकों की ओर बढे॰। हमने अपने उपनाम के आधार पर 'तरुण नट्यकला' नाम की एक संस्था बना ली। जब मैं ग्रैज्युएशन करने राँची चला गया तब हमने जयशंकर प्रसाद जी के नाटक 'चन्द्रगुप्त' और ध्रुवस्वामिनी' का गहराई से अध्ययन किया।  अब हमने तय किया की हम अब प्रसाद जी के नाटक खेलने की चुनौती स्वीकार करेंगे। हमने उनके नाटक 'चन्द्रगुप्त' के मंचन की तैयारी शुरू कर दी । यह बहुत मुश्किल काम था। प्रसाद जी के नाटकों की भाषा संस्कृतनिष्ट थी। इसके लिए पढे॰ - लिखे अभिनेताओं की आवश्यकता थी जो पूरी शुद्धता के साथ संवाद बोल सकें। हमने अपने सीमित साधनों में ही इसकी कडी॰ तैयारी शुरू की और तय कर लिया कि इस नाटक के प्रस्तुति करण में हम कहीं भी किसी तरह का समझौता नहीं करेंगे।हमने  एक महीने तक अपने अभिनेताओं की कडी॰ घिसाई की और इसमें मुझे उनका पूरा सहयोग मिला। हमारे इस उत्साह से और कडी॰ मिहनत से लक्ष्मी पाण्डेय जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने चन्द्रगुप्त के दरवार में नृत्य का कार्यक्रम देने के लिए टेहटा से लखन जी को बुलवा लिया। मेरे मित्र रघुनन्दन ने चन्द्रगुप्त का रोल किया और मैंने चाणक्य का।मंच सामने के कुएँ पर चौकी आदि डालकर स्वयं लक्ष्मी जी ने बनवाया। हमारे परम उत्साही मित्र शिवचन्द्र जी , जो ग्राम पंचायत सुपरवाइजर थे ,ने दफ्तर से छुट्टी लेकर अपना हरप्रकार से सहयोग दिया। अबतक दर्शकों को हमलोगों की क्षमता पर पूरा विश्वास हो गया था। जब लोगों ने सुना कि इसबार तीन घंटे का नाटक 'चन्द्रगुप्त' खेला जाएगा तो लोगों की खूब भीड॰ जमा हुई।
नाटक सुचारु रूप से आरम्भ हुआ। चाणक्य के रोल के लिए मेरे सिर पर गोल टोपी चिपका दी गयी थी और उसे सिर के स्वाभाविक रंग से रँग दिया गया था।यह काम इतनी कुशलता से किया गया था कि मेरा सिर सचमुच ही मुंडित - सा लगता था। उसके ऊपर मोटी - सी शिखा गोंद से चिपका दी गयी थी।सबकुछ ठीकठाक चल रहा था। अब उस प्रसिद्ध डायलग की बारी आयी जिसमें चाणक्य नन्द के अपमान से विक्षुब्ध होकर अपनी शिखा खोल देता है और कहता है -' खींच ले , खींच ले मेरी शिखा,शूद्र के अन्न से पले हुए कुत्ते ! परन्तु याद रख अब यह शिखा तबतक बन्धन में नहीं होगी जबतक मै पूरे नन्दवंश का विनाश न कर दूँ।' यह नाटक का केन्द्रीय डाय लाग था जिसपर चन्द्रगुप्त नाटक काअगला सारा कथा - विकासक्रम आधृत है।डायलाग बोलने के लिए मैं पूरे उत्साह में था और बडे॰ जोश में आगया और अपनी शिखा जोर - लोर से हिलाने लगा।मैं यह भूल गया था कि मेरी शिखा आरिजिनल नहीं है और वह इतने झटके सम्हाल नहीं पाएगी। डायलाँग पूरा करते - करते मुझे लगा कि मेरी शिखा उखड॰कर मेरी मुट्ठी में आगयी है।मैं सावधान होगया और मैंने अपनी मुट्ठी सिर से नहीं हटाई। अतः दर्शक इसे समझ नहीं पाए और मेरी इस अदाकारी पर लोगों की खूब तालियाँ बजीं।
उस दृश्य की समाप्ति के बाद जब मैं नेपथ्य में गया तो लोगों ने मेरी बहुत सराहना की। नेपथ्य में खडे॰ मेरे कई मित्रों ने मेरी शिखा की स्थिति समझ ली थी और सभी बहुत चिन्तित थे कि कहीं यह रहस्य दर्शकों के सामने न खुल जाए। परन्तु ईश्वर ने हमारी लाज रख ली। शिवचन्द्र पाठक दौडे॰ हुए आए और मुझे गले से लगा लिया।
नाटक की समाप्ति के पश्चात घर लौटा तो मुझे देख कर मेरी श्रीमती जी हँसते - हँसते लोटपोट हो गयीं। उन्होंने कहा ‘आपने अपनी 'टीक' बडी॰ चतुराई से बचा ली।'
मैंने पूछा – ‘क्या आपने भी देख लिया था?' बोलीं - 'हाँ मैं तो आपकी एक- एक अदा देख रही थी। वह डायलाँग बोलते - बोलते आप इतने जोश में आगये कि आपने उसे सिर से उखाड॰ कर अपनी मुट्ठी में ले लिया। अभी मैं हँस रही हूँ , परन्तु उस समय मैं बहुत चिन्तित होगयी थी कि अब क्या होगा। परन्तु आपने बडी॰ चतुराई से उस स्थिति को सम्हाल लिया। मात्र नेपथ्य के पास बैठे आयोजकों में से कुछ को छोड॰कर और कोई इसे भाँप नहीं सका।'

मैं अपने अभिनय का वह पल कभी भुला नहीं सकता ।
मैं अपना यह संस्मरण अपने अभिन्न मित्र शशिभूषण को ससम्मान समर्पित करता हूँ जिनका मात्र 34 वर्ष की आयु में आकस्मिक देहावसान होगया।
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