'महिषासुर मर्दिनी' : याद आता है गुजरा जमाना 100
मदनमोहन तरुण
गर्ज
गर्ज क्षणं मूढ॰ मधु यावत्पिवाम्यहम
अब से करीब तीस साल पहले मैंने अपने एक मित्र की
प्रेरणा से महालया के शुभ प्रभात में आकाशवाणी कोलकाता से 'महिषासुर मर्दिनी' का प्रसारण
सुना था। वीरेन्द्र कृष्ण भद्र जी की सावेश और आरोह -अवरोहपूर्ण वाणी में दुर्गासप्तशती
का पाठ सुनना सही अर्थों में एक असाधारण और रोमांचक अनुभव था। तब से अबतक मैंने किसी
भी स्थिति में यह कार्यक्रम देखना नहीं छोडा॰। मैं महालया की पूर्व रात्रि दो बजे ही
जग जाता हूँ और फिर नहीं सोता , ताकि किसी भी स्थिति में यह चिरप्रतीक्षित कार्यक्रम
छूट न जाए। मुझ जैसे पूरी दुनिया में करोडों॰ हिन्दू हर वर्ष बडी॰ बेसब्री के साथ इन
अद्भुत क्षणों की प्रतीक्षा करते रहते हैं। इस दुर्गापाठ को सुनना हर बार एक अनूठे
एवं रोमांचकारी अनुभव से गुजरना है।
आकाशवाणी कोलकाता से इस कार्यक्रम का प्रसारण 1930
में शुरु हुआ था।इसके प्रस्तोता वीरेन्द्र कृष्ण भद्र जी का देहान्त बहुत पहले ही हो
चुका है, परन्तु उनकी वाणी का प्रभाव इतना
असाधारण है कि इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जासका। आज उस कार्यक्रम में उन्हीं के मूल पाठ
का रिकार्ड बजाया जाता है। अब तो आकाशवाणी के अनेकों केंन्द्र इसका नियमित रूप
से प्रसारण करते हैं तथा अब इसका हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध है।मेरे पास इस पाठ के सीडी
और केसेट दोनों ही उपलब्ध हैं , परन्तु रेडियो के पास बैठकर इस प्रसारण को सुनने का
अनुभव ही अनूठा होता है। लगता है जैसे हम किसी महान परम्परा के अंग हैं।
इस पूरे कार्यक्रम का प्रसारण बंगला भाषा में होता
है , परन्तु सच तो यह है कि इसका आनन्द उठाने के लिए उस भाषा की जानकारी की आवश्यकता
नहीं है ,उसकी ध्वनिपूर्ण प्रस्तुति सीधे -सीधे हमारे मन-प्राणों पर असाधारण प्रभाव
उत्पन्न करती है। भद्र जी कथा सुनाते - सुनाते असाधारण भावावेग में आजाते हें , कभी
उनकी वाणी विगलित क्रंदन बन जाती है, कभी अशेष ऊर्जा , उत्साह और प्रवेग से भर उठती
है । कभी मन्द से मन्दतर होजाती है तो कभी
वह आरोहण के तीव्र आवेग में परिणत हो हमारी चेतना के रेशे -रेशे को सींच कर जाग्रत
कर देती है।
यह एक संगीतमय कार्यक्रम है।इसमें वीरेन्द्र कृष्ण
भद्र जी की आवाज में दुर्गा सप्तशती के मंत्रों का संस्कृत पाठ तो होता ही है ,उसके
साथ ही सप्तशती का बडा॰भाग उसी प्रभाव के साथ बंगला में प्रस्तुत होता है तथा कथा के
साथ बंगाल के कई प्रसिद्द गायक - गायिकाओं के समवेत स्वर में दुर्गा से सम्बद्ध गायन
चलता रहता है। इसका संगीत पंकज मलिक जी के निर्देशन में तैयार किया गया है जो बहुत
ही प्रभावशाली है और श्रोताओं को गहरी तल्लीनता प्रदान करता है।इसके गायकों में हेमंत
कुमार और आरती मुखर्जी जैसे लोग हैं।
माना जाता है कि महादेवी दुर्गा आश्विन माह की अमावस्या
के बाद सप्तमी, अष्टमी और नवमी को अपने भक्तों के पास पृथ्वी पर आती हैं और दशमी को
लौट जाती हैं।महालया से नवरात्रि का आरम्भ होता है और भक्तजन सप्तशती के पाठ का आरम्भ
कर उनके स्वागत की तैयारी में लग जाते हैं।
पूरे संसार में ऐसे करोडों॰ लोग होंगे जो वीरेन्द्र
कृष्ण भद्र जी की spiritually charged वाणी में प्रसूत दुर्गापाठ के इस पल की प्रतीक्षा
करते रहते हैं ।
देवी सद्यः सृजन हैं , सद्यः विनाश हैं। वे भीमकान्त हैं। वे परम सुन्दरी
हैं, वे विकट -विकराल हैं। उनकी काया कान्त है, उनकी काया अस्थिमात्र है। वे भव्य हैं
,अभव्य हैं। वे वस्त्रवेष्टित सुमनोहरा हैं ,वे नंग धडं॰ग हैं। वेमुक्तकेशी,रौद्रमुखी,महोदरी
,अग्निज्वाला हैं, अमेयविक्रमा हैं, क्रूर हैं, सिंहवाहिनी, सर्वमंत्रमयी हैं ,वे चामुंडा
हैं , वाराही हैं, वे देवमाता हैं, सर्वविद्यामयी हैं, सर्वास्त्रधारिणी हैं, पुरुषाकृति
हैं, वे असाध्य हैं ,साध्य हैं ,वे सर्वस्वरूपा हैं , सर्वेश हैं।
वेदुर्गमच्छेदिनी,दुर्गतोद्धारिणी,दुर्गमध्यानदा,दुर्गमा,दुर्गमार्गप्रदा,दुर्गमोहा,दुर्गमांगी,दुर्गभीमा
दुर्गा हैं।
जब महादैत्य ने भैसेका विकराल रूप धारण कर समस्त
लोकों को विक्षोभित कर दिया तब देबी मधुपान करने लगीं, उनका चेहरा मदप्रभाव से लाल
होगया, वाणी लड॰खडा॰ने लगी और वे जोर -जोर से हँसती हुई बोलीं-
गर्ज गर्ज क्षणं मूढ॰ मधु यावत्पिवाम्यहम।
मया त्वयि हतेत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः।
ऐ मूढ॰! जबतक मैं मद्यपान कर रही हूँ ,तबतक क्षणभर
तू गरज ले।यहीं मेरे हाथों तुम्हारे वध के पश्चात देवता गर्जन करेंगे।
दुर्गा सप्तशती महातेजस स्थिति का विस्फूर्जन है।
यह शब्दों की सीमा से पार का महानाद है।
यह चित्तोत्क र्ष का चरम है ।
यह महानन्द का अविरल निनाद है ।
‘नमस्तस्ये
नमस्तस्ये नमस्तस्यै नमोनमः’ की पुनः पुन; उच्चारणावृत्ति श्रोता को चरम भावदशा के
लोक में प्रक्षेपित कर देती है।
वहाँ वाणी रूपादि से परे अनहदनाद बन जाती है। एक
ऐसी गूँज बनकर भीतर प्रतिध्वनित होती है जो हमें जन्मजन्मान्तरों से जोड॰ देती है।शरीर
संवेग में परिणत होकर अनुभूतिमात्र बन कर रह जाता है।
वीरेन्द्र कृष्ण भद्र की भावाविष्ट वाणी में ध्वनित
इन महामंत्रों का श्रवण एक महानुभव है।
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