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Sunday, October 16, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 84

याद आता है गुजरा जमाना 84

मदनमोहन तरुण

अन्ना हजारे : आजादी के बाद की आजादी

जब महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारत का स्वाधीनता संग्राम अपनी चरम सीमा पर था , तब मेरा जन्म हो चुका था। उनदिनों मेरी उम्र कम थी, परन्तु इतनी कम भी नहीं कि मैं गाँधी जी तक ले नहीं जाया जा सकता था। परन्तु उनदिनों बच्चों को बहुत बच्चा और बहुत दिनों तक बच्चा माना जाता था।इसीलिए मुझे वहाँ तक नहीं ले जाया गया और मैं गाँधी जी के दर्शन से वंचित रह गया।इतिहास के उनक्षणों से वंचित रह जाने की टीस कहीं - न- कहीं आज भी मेरे भीतर है।

उन दिनों मेरे गाँव में मेरे फुफेरे भाई प्रतिदिन एक प्रभात फेरी का आयोजन करते थे। खेत में झंडा फहराया जाता और हम बच्चे 'भारत माता की जय, 'महात्मा गाँधी की जय,' वन्दे मातरम’का नारा लगाते हुए पूरे गाँव में घूमते थे।इस आयोजन में धीरे - धीरे सभी उम्र के लोग शामिल हो जाते थे। स्री - पुरुष सभी अपने घरों से बाहर निकल आते थे।सम्भवतः ऐसा करते हुए हर किसी को लगता था कि वह स्वाधीनता के संग्राम में बापू जी के साथ - साथ चल रहा है। भला एक महान सेनानी जब पूरे राष्ट्र का युद्ध लड॰ रहा हो तो दूसरे घरों में बैठे कैसे रह सकते हैं। जहानाबाद के कई लोग गाँधी जी के साथ आन्दोलन में भाग लेने चले गये थे ,जिनमें कई लोग भगत सिंह और चन्द्र शेखर आजाद की शैली में लडा॰ई लड॰ चुके थे। फिदा हुसैन साहब गाँधी जी के घोर अनुयायियों में थे और उे समय - समय पर आन्दोलन में भाग लेने के लिए चले जाते थे। वे समय - समय पर मेरे पिताजी से मिलने मेरे घर आया करते थे। खादी की धोती, कुर्ता ,गाँधी टोपी और चप्पल , यही उनका पहनावा था।उन्हे देखकर मुझे बहुत राहत मिलती थी। वे एक ईमानदार , निष्ठावान और समर्पित गाँधीवादी थे। परन्तु ऐसे लोग जो व्यक्तिगत रूप से गाँधी जी के आन्दोलन में भाग नहीं ले रहे थे ,वे भी अपने को हमेशा उस आन्दोलन से जुडा॰ हुआ महसूस करते थे। इसका कारण यह था कि उस समय पुरे देश में गाँधी और भारत को छोड॰कर और कुछ रह ही नहीं गया था। हर कोई गाँधीमय था। उनदिनों ऐसे लोग भी कम थे जिनके पास रेडियो हो, मगर दिल्ली में कहीं कोई पत्ता भी खड॰कता था तो गाँव - गाँव में उसकी आवाज तुरत सुनाई पड॰ जाती थी।हर कोई हर क्षण अपने बलिदान के लिए तैयार रहता था। आसपास के गाँव जहाँ से पहले चोरी - डकैती की खबरें आती रहती थीं , वहाँ भी चोरी - डकैती बन्द - सी हो गयी थी।एक सच्चे व्यक्तित्व का प्रभाव बहुत व्यापक होता है। वह पूरे परिवेश को अपनी ज्योति से आवृत कर लेता है।

आज अन्ना हजारे जी के आन्दोलन का स्वरूप उनदिनों को फिर से जीवंत कर देता हे। मेरे मन में गाँधी जी के अभियानों को देख न पाने की जो कसक थी, वह कहीं - न- कहीं परितृप्त अवश्य हुई है।

सरकार ने अन्ना जी को आन्दोलन शुरू करने के पहले ही जेल में डाल दिआ जिससे अँग्रेजी हुकूमत की याद ताजा हो गयी। यह स्थिति यह बताने के लिए काफी है कि आज हमारी व्यवस्था किस तरह के विवेकविहीन लोगों के हाथ में है। उनमें संकीर्ण स्वार्थों में लिप्त, भ्रष्टाचारी भीतर से इस हद तक डरे हुए हैं कि उन्हें अन्ना हजारे जैसे आदमी में भी अपना भयंकर शत्रु दिखाई पड॰ता है।ये शासक स्वयम के अलावा और किसी को कुछ भी नहीं समझते । इनकी दुनिया नितांत निजी स्वार्थों तक ही सीमित है। अपनी गद्दी बचाने के लिए वे किसी का भी बलिदान देने को सदा तैयार रहते हैं।

मैं सोचता हूँ कि वह क्या है जिसने अन्ना हजारे को पैदा किया। अन्ना हजारे सामूहिक जनाक्रोश के विस्फोट हैं। यह ज्वालामुखी कुछेक दिनों के उत्ताप की देन नहीं है।

काँग्रेस पार्टी ने इन्दिरा गाँधी के बाद एक भी नेता नहीं दिया। मनमोहन सिंह जी तक आते - आते उसकी नेतृत्व क्षमता करीब - करीब चुक गयी। मनमोहन जी एक नेक, ईमानदार और विद्वान इंसान हैं ,परन्तु उनमें नेतृत्व की कोई भी विशेषता नहीं है। वे सुन सकते हैं , परन्तु कुछ कर नहीं सकते। कुछ बोलने के लिए भी उन्हें किसी और की वाणी के अपने मुँह में प्रवेश करने तक रुकना पड॰ता है। नेहरू परिवार के नगण्य अवशेषों से घिरी काँग्रेस पार्टी को एक ऐसी ही ऐसे ही व्यक्ति की तलाश थी। काँग्रेस में सुयोग्य लोगों की सर्वथा कमी हो ,ऐसा नहीं ,परन्तु शासन को यदि हर हालत में नेहरू - परिवार केहाथ में ही रहना हो तो उन्हें एक 'प्रौक्सी प्राइममिनिस्टर ' की आवश्यकता थी ,मनमोहन जी इस कार्य के लिए सबसे सुपात्र व्यक्ति थे। अतः उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया गया। ऐसे व्यक्ति की छत्रछाया में देश की ऊँची कुर्सियाँ क्रिमिनल्स का आरामगाह बनती चली गयी। चारो ओर घूसखोरी, भ्रष्टाचार का नंगा नृत्य होने लगा। आम पढे॰- लिखे नागरिक की इस व्यवस्था में कोई हैसियत नहीं रह गयी क्योंकि शासन - प्रशासन में अधिकार सम्पन्न घाघ ऊँची कुर्सियों पर बैठ गये और ' तू मेरा हित देख, मैं तेरा हित देखूँगा’ की नीतियों के अन्तर्गत का काम करने लगे।

पराधीन भारत में स्वाधीनता संग्राम में भाग लेनेवाले लोगों से जेल भरे रहते थे, स्वाधीन भारत में जेल ऐसे लोगों से भरे हैं जो कभी मंत्री या ऊँचे पदों पर अवस्थित लोग थे। क्रिकेट जैसे खेल के खजाने से भी अधिकारियों ने अपने घर भर लिए। वे जानते थे कि इसका अंतिम परिणाम कुछ दिनों के लिए जेल है। फिर तो सुख ही सुख है।भ्रष्टाचार का नंगा नृत्य कुछ ऐसा बढा॰ की न्यायाधीशों तक ने अपनी गरिमा कलंकित कर ली। ।

देश के लिए यह सबकुछ असह्य होता जा रहा था ,परन्तु उनके बीच से कोई भी आवाज इतनी ऊँची नहीं बन पा रही थी कि उसमें पूरा भारत अभिव्यंजित हो जाए। इसके लिए एक सर्वसमर्पित , बेदाग और अटल संकल्प से संयुत व्यक्ति की आवश्यकता थी जो पूरे देश की ताकत बन जाए। अन्ना हजारे का अवतार ऐसी ही विकट स्थितियों में पूरे राष्ट्र के संकल्पित आक्रोश के प्रतीक के रूप में हुआ जो भ्रष्टाचरण के दुर्धर्ष प्रतीकों की सत्ता मिटाकर जनाधिकार की पूर्णतः सथापना के लिए प्रकट होगया। पूरा देश भीतर - ही - भीतर एक ऐसे व्यक्तित्व की प्रतीक्ज़ा कर रहा था। क्ाति की भूमि तैयार थी। ऐसे में आन्ना ने जब देश को आवाज दी तो जैसे देश के सभी बन्द दरवाजे अचानक खुल गये और उससे आन्दोलन में शामिल होनेवालों का ताँता लग गया।देश का ऐसा कोई हिस्सा नहीं था जहाँ से लोग नहीं आए।दस साल की उम्र से लेकर सौ साल से भी अधिक उम्र के लोगों ने इसमें हिस्सा लिआ। कुछ लोग आपनी नौकरी तक छोड॰ कर आ गये। अन्ना का यह आन्दोलन सही अर्थों में दूसरी आजादी का आन्दोलन बन गया।

आज लोग अपने छोटे- छोटे बच्चों को अपने कंधों पर बिठाए आ रहे हैं। पूछने पर एक ने बताया कि इसे साथ में इसलिए ले आया हूँ कि यह जब बडा॰ हो तो लोगों को बता सके कि इसने अन्ना जी को खुद अपनी आँखों से देखा था। अपने पिता के कंधे पर बैठा , उत्सुक आँखोंवाला बच्चा मेरे भीतर उतर आता है और मैं सोचता हूँ अगर मुझे भी ऐसे ही गाँधी जी के पास लेजाया गया होता तो आज मेरे मन में इतिहास के उन महान क्षणों से वंचित रह जाने का जो मलाल है, वह नहीं रहता।

अन्ना से वे सबलोग जुडे॰ हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनके आन्दोलन में शामिल हैं और वे भी जो टी .वी .छोड॰ कर नहीं उठते , उनकी हर गतिविधि को आँखों से निरन्तर पीते रहते हैं।

अन्ना ने ठीक कहा है ' न हो चाहे अन्ना , परन्तु क्रान्ति की यह मशाल हमेशा जलती रहे।'

अन्ना समय की प्रगति के साथ और भी मजबूत होते चले जाएँगे। उनका व्यक्तित्व स्मृतिमात्र से लोगों को उनके कर्तव्य की दिशा निश्चित करने में सहायक होगा।

वे धन्य हैं जिन्होंने अन्ना के चारोंओर आशा, निष्ठा, उल्लास और विजय की आकांक्ज़ा से दमकते चेहरों के सैलाब को देखा है, जिनकी न कोई उम्र है , न कोई जाति। किसी राष्ट्र के सामने ऐसे दुर्लभ पल इतिहास में कभी - कभी आते हैं।

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