याद आता है गुजरा जमाना 105
मदनमोहन तरुण
दमण काँलेज में मेरा प्रथम दिन
अगले दिन करीब दस बजे मैं अपना पदभार ग्रहण करने के लिए काँलेज चल पडा॰।
कालेज शहर से करीब दो किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित था। रास्ते में दोनों ओर खेत थे
जिसमें फसलों की हरियाली लहरा रही थी। मै तो पहले से ही वहाँ नौकरी के लिए उत्साहित
नहीं था , दूसरे रास्ता देखकर और भी निराशा हुई। जब मै काँलेज पहुँचा तो उसका भवन देखकर
और भी निराशा हुई। अभी यह करीब - करीब अर्धनिर्मित अवस्था में था। काम लगा हुआ था।
बाहर छात्र - छात्राओं की कल्लोलभरी भीड॰ थी।छात्रों की तुलना में छात्राओं की संख्या
अधिक थी और वे छात्रों की तुलना में अधिक सुसज्ज और मुखर थीं। प्राचार्य महोदय के कक्ष
के पास पहुँचकर बाहर खडे॰ पीएन को अपने बारे में बताया। वह तुरत भीतर गया और प्राचार्य
महोदय से अनुमति लेकर ससम्मान मुझे भीतर ले गया।
प्राचार्य महोदय ने सोत्साह एवं आत्मीयतापूर्वक मेरा स्वागत किया। उनकी
आँखों में सौजन्य और सह्रदयता की चमक थी। मुझे अच्छा लगा । मैंने पदभारग्रण की औपचारिकता
पूरी की। उसके बाद ऊन्होंने मुझे रात्रिकालीन भोजन के लिए आमंत्रित किया। पाचार्य महोदय
की उम्र उस समय करीब पचास से ऊपर रही होगी। इस कालेज में आने के पूर्व वे नेपाल विश्वविद्यालय
में प्रोफेसर एवम गणित के विभागाध्यक्ष थे। संध्या समय जब मैं उनके घर पहुँचा तो उनकी
श्रीमती जी ने भी प्रसन्नतापूर्वक मेरा स्वागत
किया। मुझे बहुत अच्छा लगा। बाद जब मेरा परिवार भी मेरे साथ आगया तो उनसे मेरी घनिष्ठता
और भी गहन होगयी।
संध्या समय मेरे विभाग के बारे में सांकेतिक रूप से उन्होंने जो बताया
वह बहुत उत्साहजनक नहीं था।मेरे लिए जटिल परिस्थितियों का सामना करना कभी बहुत कठिन
नहीं रहा है। मैं समय के अनुसार अपना कर्तव्य निर्धारण कर लेता हूँ।
मैं ज्यादातर भीतर की दुनिया में रहनेवाला प्राणी हूँ। मेरा बन्द कमरा
बाहर के संसार से कहीं अधिक विशाल और आकर्षक रहा है। यहाँ मैं अपना समय अध्ययन में
तो लगाता ही हूँ ,उसके अलावा यहाँ मैं अपनी बन्द अँखों के पथ से नये - नये संसारों
की यात्रा करता रहता हूँ। यहाँ बैठे – बैठे मैं न जाने कितने लोकों की यात्रा करता
रहा हूँ। अझात संसार में नजाने मेरे कितने आत्मीय मित्र हैं जिनके साथ मैं अपना अधिकतम
समय बिताता हूँ।
कुलमिलाकर यह मेरे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण दिन था। भारत सरकार की सेवा
में प्रवेश का यह मेरा प्रथम दिन था। मेरे स्थान और पद बदलते रहे ,परन्तु केन्द्रीय
सरकार के विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थानों में मैंने अगले पैतीस वर्ष व्यतीत किए और अपने
पद की गरिमा को अपनी सतत समर्पित सेवा से समुज्वल बनाए रहा। मेरा यह आत्मतोष ही मेरी
सबसे बडी॰ उपलब्धि है।
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