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Friday, September 30, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 75

याद आता है गुजरा जमाना 75

मदनमोहन तरुण

यात्रा भविष्य की ओर

बाबाधाम से वापस लौटने पर रात्रि में श्रीमती से पुनः मुलाकात हई , परन्तु इसबार हमारी बातचीत का विषय भिन्न था। श्रीमती ने कहा कि मुझे राँची जाने की तैयारी करनी चाहिए। आगे की पढा॰ई जारी रखना और उसमें पहले से कहीं अच्छा करना अब चुनौती और प्रतिष्ठा का विषय बन गया है।सुनकर मैं चकित उनकी ओर देखता रहा। मैंने इस प्रकार की सलाह की आशा नहीं की थी।परन्तु सुनकर मुझे राहत मिली और लगा कि यह विवाह आगे चलकर मेरी जिन्दगी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहा है।

मैं इस बात के प्रति पूरी तरह आश्वस्त था कि घर मैं मेरे बिना भी उन्हें किसी प्रकार की कमी नहीं होने जा रही है। मेरे घर में पारिवारिक जीवन की सर्वथा उदार परम्परा थी।कोई

किसी के जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता था। मेरी दादी ने उदारतापूर्ण अपना जीवन जिआ और मेरी मां को भी वही खुला संसार मिला। हमारे घर में परम्परागत सास - बहू की अवधारणा नहीं थी। घर में सभी लोग एक संयमित जीवन जीने के अभ्यासी थे और एक -दूसरे की भावनाओं का पूरा खयाल रखते थे।

अंततः मेरे राँची जानेका दिन आगया। परन्तु इस बार मैं यह यात्रा एक नई प्रेरणा के अन्तर्गत सम्पन्न करने जा रहा था। यह मेरे और मेरी पत्नी के सम्मान की रक्षा की यात्रा थी। हमें हर प्रकार से यह सिद्ध करना था कि विवाह हमारी प्रगति के रास्ते में किसी भी प्रकार से बाधक बनने नहीं जा रहा है। मुझे बाबूजी की शंकाओं को अपने आचरण से निर्मूल करना था।

राँची हर प्रकार से मेरे भविष्य की साधनाभूमि थी। वहाँ पहुँच कर मैंने इस भूमि को झुक कर प्रणाम किया। ऐसा मैंने शायद ही पहले किया हो। मैं स्वयं अपने आचरण के कुछ अवयवों को चकितभाव से देख रहा था।यह यात्रा एक नये यात्री की यात्रा थी जिसके संकल्प में सही अर्थों में चुनौती का नया एहसास था।

अध्ययन के प्रति मेरी गहरी आसक्ति थी।मैं योजनाबद्ध रूप से अध्ययन का आदी था। जैसे छह महीनों के लिए यह तय करलेता कि मैं दुनिया के अधिकतम महाकाव्यों का अध्ययन करूँगा ,तो उस संकल्प का मैं पूरी निष्ठा के साथ पालन करता था। आज भी मेरी वही आदत बरकरार है।मेरे मित्रोंको लगता था कि मैं ऐसा करके अपने कोर्स की तैयारी के साथ अन्याय कर रहा हूँ ,परन्तु मैं इस दिशा में पूरी तरह स्पष्ट था। मैं साहित्य का विद्यार्थी था । मेरा भविष्य एक समर्पित अध्येता और लेखक का भविष्य था। मेरी तैयारी बडे॰ पैमाने पर चल रही थी। इस दिशा में मुझे कभी अपने सामने लज्जित होना नहीं पडा॰।

यदि मैं योद्धा था ,तो पूरी तरह शस्त्र-सज्जित था; यदि साधक था तो मेरे भीतर ओंकार का निनाद गूंज रहा था।

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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 74

याद आता है गुजरा जमाना 74

मदनमोहन तरुण

यात्रा वैद्यनाथधाम की

माँ ने मन्नत माना था कि मेरे विवाह के पश्चात बहू को लेकर परिवार के लोग वैद्यनाथधाम जाकर बाबा के दर्शन करेंगे। इस मन्नत को पूर्ण करने में जरा भी देरी नहीं की गयी ।माँ ने अगले ही दिन वैद्यनाथधाम जाने का कर्यक्रम निश्चित कर दिया। समाचार सुनते ही परिवार के सभी सदस्यों में उत्साह की लहर फैल गयी। इस समाचार को सुनते ही मेरी पत्नी इतनी उत्साहित हुई की वे माँ में लिपट गयीं। माँ को इससे बहुत राहत मिली। अपनी बहू को इस प्रकार खुश देख कर माँ के उत्साह का पारावार नहीं रहा। मेरी स्थति भी ऐसी ही थी।

हिन्दू देवी - देताओं में मुझे दुर्गा और भगवान शंकर का चरित्र बहुत ही रोचक और प्रभावशाली लगता है। देवी - देवताओं के बीच ये क्रांतिकारी विभूतियाँ हैं जिन्होंने अनावश्यक मर्यादाएँ तोड॰कर नई परम्पराएँ बनाईं। दुर्गा ने स्त्री का सर्वथा नया स्वरूप प्रकट किया। युद्धभूमि में प्रचण्ड रूप धारणकर उन्होंने उन आततायिओं का भ्रम सदा के लिए दूर कर दिया जो उन्हें मात्र स्त्री समझ कर अपने वश में करना चाह रहे थे। वे स्त्री - शक्ति और सत्ता का प्रचण्डतम निनाद है। वे सुन्दरी हैं ,वे महा विकटरूप वाली हैं।वे समस्त वस्त्रों - आभूषणों से मंडित हैं ,वे नंग - धडं॰ग हैं।

दूसरी ओर शिव का चरित्र भी पूर्णतः असाधारण है। शिव का चरित्र समस्त वर्जनाओं से परे है। जो भी लोकमान्य नहीं है , अथवा लोकबहिष्कृत है ,वह शिव के यहाँ स्वीकृत है या यों कहें कि वही शिव की पहचान है। शिव श्मशान की राख से अपना श्रृंगार करते हैं, भूत , पिशाच, नाग, वृश्चिक आदि उनके सबसे निकट हैं। उनके उपासकों में दानवों की विशाल संख्या है। वे भाँग ,धतूरे का सेवन करते हैं तथा महानाशक कालकूट विष को भी संसार की रक्षा के लिए स्वयं में समाहित करने में समर्थ हैं। वे महान नर्तक हैं। वे सृजन और विध्वंस दोनों में समर्थ हैं। योनि में स्थापित शिव के लिंग की पूजा होती है।

वैद्यनाथधाम से दो पौराणिक कहानियाँ जुडी॰ हैं।

लंकाधिपति रावण शिव का महान भक्त था। उसकी प्रबल इच्छा थी कि भगवान शंकर लंका में रहें। उसने अपनी इस इच्छाकी पूर्ति के लिए शिव जी की घोर तपस्या की किन्तु भगवान शंकर इसके लिए तैयार नहीं हुए। तब रावण ने कैलास पर्वत को ही शिव समेत उखाड॰कर श्रीलंका लेजाने की चेष्टा की। इससे विक्षुब्ध होकर भगवान शंकर ने रावण का अँगूठा दबा दिया जिससे उसे बहुत पीडा॰ हुई। अंततः भगवान शंकर ने उसे क्षमा कर दिया। फिर भी रावण अपनी इस इच्छा पर कायम रहा कि वे श्री लंका में चलें। अंततः भगवान शंकर ने अपने द्वादश ज्योतिर्लिंगों मे से एक रावण को इस शर्त के साथ दिया कि वह इस लिंग को बिना कहीं रुके या पृथ्वी पर रखे लंका लेजाकर स्थापित कर दे। उन्होंने इसके साथ यह शर्त भी लगा दी कि यदि उसने इस लिंग को कहीं पृथ्वी पर रखा तो वह वहीं स्थापित हो जाएगा और वहाँ से कभी ले जाया नहीं जा सकेगा। रावण संकल्पपूर्वक शिवलिंग को लेकर लंका के लिए चल पडा॰। यह देख कर देवताओं को बहुत चिंता हुई। उन्हें लगा कि रावण यदि शिवलिंग को लंका तक ले जाने में सफल हो गया तो वह अविजेय हो जाएगा। देवताओं ने जलाधिपति वरुण देव से प्रार्थना की कि वे कोई उपाय करें। वरुण देव ने रावण के पेट में प्रवेश कर लिया जिससे रावण को बहुत जोरों से पेशाब लगी। वह उसे रोक पाने में असमर्थ हो गया ।वह चारों ओर किसी ऐसे आदमी की खोज करने लगा जो इस कार्य में उसकी मदद कर सके। तभी उसने पास खडे॰ एक तेजस्वी व्यक्ति को देखा जो उसकी मदद के लिए तैयार हो गया। रावण उस व्यक्ति को उचित निर्देश देकर पेशाब करने चला गया। वह व्यक्ति और कोई नहीं, स्वयं भगवान विष्णु थे। वे रावण के आँखों से ओझल होते ही शिवलिंग को भूमि पर स्थापित कर वहाँ से चले गये। रावण वहाँ तीन दिनों तक लगातार पेशाब करता जिससे वहाँ एक खार का निर्माण हो गया जिसे लोग रवणाखार कहते हैं। रावण जब तीन दिनों के बाद उस स्थान पर आया, जहाँ वह युवक को शिवलिंग देकर चला गया था तो उसने पाया कि वह युवक नहीं है और वह शिवलिंग पृथ्वी पर रखा हुआ है। रावण ने शिवलिंग को उठाने की बहुत चेष्टा की परन्तु शिवलिंग वहाँ से टस - से - मस नहीं हुआ। क्रोधित रावण ने अपने अँगूठे से शिवलिंग को जोरों से दबा दिया जिससे वह एक ओर टेढा॰ होता हुआ जमीन से सट गया। वैद्यनाथधाम के शिव आज भी वहाँ इसी रूप में विद्यमान हैं। रावण शिव जी के इसी स्थल पर रह जाने से इतना निराश हुआ कि उसने अपने दस शिरों में से नौ काट कर भगवान शंकर पर चढा॰ दिये बाद में भगवान शंकर ने वैद्य की भाँति रावण के सारे शिर उसके धड॰ से फिर से जोड॰ दिये। इसीलिए इस स्थान का नाम वैद्यनाथधाम पडा॰।

इस स्थान को बैजनाथ धाम भी कहा जाता है। कहा जाता है कि इस स्थान की सबसे पहली खोज बैजनाथ नामक एक चरवाहे ने की थी इसीलिए यह स्थान बैजनाथ धाम के नाम से भी जाना जाता है।

पौराणिक सूत्रों के अनुसार इस स्थान से एक और कथा जुडीं॰ है। वैद्यनाथधाम देवी का 52वाँ शक्तिपीठ भी माना जाता है।

सती ने देखा कि उनके पिता दक्षप्रजापति द्वारा आयोजित यज्ञ में उनके पति शिव को जानबूझ कर उनके पिता ने नहीं बुलाया है तब वे अपने पति के इस अपमान से विक्षुब्ध हो उठीं और यज्ञ के धधकते कुंड में प्रविष्ट हो गयीं।जब शिव जी को इसकी सूचना मिली तो वे विक्षुब्ध हो उठे और उन्होंने दक्ष का यज्ञ पूर्णतः विध्वस्त कर डाला और अपनी पत्नी सती का मृत शरीर अपने कंधे पर लिये बेचैन सी लोकों में दौड॰ते रहे। वे सती को मृत मानने के लिए तैयार नहीं थे।सती का शरीर समय क्रम में गलने लगा तब विष्णु ने अपने चक्र से सती के शरीर को कई टुकडों॰ में काट डाला । वे टुकडे॰ जहाँ - जहाँ गिरे वहीं शक्ति पीठ बन गये। वैद्यनाथ धाम में सती के हृदय का एक टुकडा॰ गिरा और यह भी शक्तिपीठों में एक हो गया।

वैद्यनाथधाम का ज्योतिर्लिंग अपने देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। प्राचीनता में यह शिवलिंग शिवपुराण के अनुसार त्रेताकालीन है। यह देश के 52 तंत्रपीठों में से एक माना जाता है।सुप्रसिद्ध विद्वान एवं तांत्रिक पं गोपीनाथ कविराज भी वैद्यनाथधाम को तांत्रिक साधनापीठों में महत्वपूर्ण मानते हैं।यह भी मान्यता है कि जहाँ शिवलिंग स्थापित है वह पूर्वकाल में श्मशान था।तांत्रिक साधना की कई पद्धतियों का श्मशान से सम्बन्ध रहा है।भगवान शंकर स्वयं भैरव हैं।यहाँ शिव और शक्ति ,जग्जननी और कालभैरव दोनों की साधना होती है। यहाँ के एक कुंड में अनन्तकाल से यज्ञाग्नि प्रज्वलित है , जहाँ साधक साधना करते हैं।

पत्थर की दीवारों से घिरे इस विशाल परिसर में कुल मिलाकर बाईस मंदिर हैं। बाबा वैद्यनाथ के मंदिर का द्वार पूर्वाभिमुख है।

वैद्यनाथधाम

जब हमलोग वैद्यनाथधाम पहुँचे तब सवेरा हो चुका था। हमारे आने की सूचना हमारे पंडाजी को मिल चुकी थी। वे स्टेशन से हमें अपने निवासस्थान पर ले गये और हमलोगों के रुकने की उचित व्यवस्था की।पंडाजी के यहाँ रुकने का एक बहुत बडा॰ लाभ यह हुआ कि हमें उनकी पोथी में विस्तार से अपनी कई पीढि॰यों के पूर्व पुरुषों का नाम और विवरण देखने को मिला।यदि पंडा जी की यह पोथी नहीं होती तो मैं शायद ही उनके बारे में इतने विस्तार से सारी चीजें जान पाता।यह एक महान परम्परा रही है।

पंडा जी के यहाँ कुछ विश्राम कर करीब दस बजे हम उस विशाल - मंदिर - परिसर में पहुँचे। वहाँ भक्तों की बहुत भीड॰ थी। मंदिर के भीतर प्रवेश करना बहुत कठिन था । कई लोग बलपूर्वक अंदर जा रहे थे और कई बाहर से ही लोटे का पानी चढा॰ रहे थे।इस भीड॰ में मैने अपनी पत्नी का एक नया रूप देखा। वे लोटे में पानी लिए माँ के मना करते- करते भीड॰ में घुसती हुई मन्दिर के अन्दर चली गयीं। शिवलिंग के पास जाकर बैठ गयीं । पूजा करते समय उनके सिरपर मिट्टी के पानी से भरे बर्तन गिरते रहे। माँ बाहर घबरा रही थी । चिन्ता हम सबों को थी। परन्तु थोडी॰ देर बाद हमलोगों ने उन्हें दूसरे मार्ग से बाहर आते देखा। उनकी लुटिया में शिवपिंड के पास का पानी था और हाथ में धतूरा।वह पानी उन्होंने मेरे सिर पर छिड॰का और फिर सबके सिर पर। घरके बाहर यह श्रीमतीजी के साक्षात्कार का मेरा पहला अनुभव था। पंडाजी की मदद से परिवार के सभी सदस्यों ने मंदिर में बाबा भोलेनाथ का दर्शन किया और जल चढा॰या।

वह भविष्यवाणी

जब हमलोग पंडाजी के घर से जहानाबाद के लिए लौटने लगे तब सामने खडी॰ एक दिव्य - सी महिला ने मेरी श्रीमती को गौर से देखते हुए कहा - 'बेटा , तुम आज से नौ महीने के बाद एक संतान की माँ बनोगी।' तत्काल मुझे उसकी बातों पर भरोसा नहीं हुआ न किसी ने उस समय उस पर ध्यान ही दिया ,हाँ माँ ने उसे कुछ पैसे दिए और हमलोग वहाँ से चल पडे॰।

आप इसे संयोग कहें या चमत्कार ,उस महिला की भविष्यवाणी के अनुसार ठीक नौ महीने बाद मेरी बेटी सोमा का जन्म हुआ।अवश्य ही यह वैद्यनाथधाम के बाबा सोमसोमेश्वर महादेव का पुनीत आशीर्वाद ही था जो उस महिला की वाणी में प्रतिफलित हुआ।

मेरे जीवन में ऐसे दैवी चमत्कार कई बार हुए हैं जिन पर मैं बाद मे लिखूँगा।

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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 73

याद आता है गुजरा जमाना 73

मदनमोहन तरुण

'ब्रह्मचर्य ही जीवन है'

अगले दिन सवेरे भी मेरी नींद देर से खुली। बात यह है कि हमदोनों रातभर एक पल के लिए भी सो नहीं पाते थे।हम एक अकथनीय सम्मोहन में बँधे थे।बातें करते तो करते ही चले जाते, किस विषय पर , कहना असम्भव है। बातों के क्रम में ही शरीर संगीत का तरल प्रवाह बनकर बह निकलता। दो शरीरों के घुल कर एकाकार होने का यह अनुभव अकथनीय है। आनन्द की ऐसी चरम अनुभूति की तो कभी कल्पना भी नहीं की थी। इसी स्थिति में जागृति कब सपने में ढल जाती और सपना कब नींद बन जाता कहना कठिन था।

जब मैं जागता तबतक मेरी श्रीमती जी बाहर जा चुकी होतीं। मैं सोचकर दंग रह जाता कि यह कैसे सम्भव है । आखिर वे भी तो मेरे साथ ही जागती रहती हैं ? इतना ही नहीं मेरे जागने तक वे स्नानादि से निवृत्त हो जातीं , वह भी ठंढे पानी से। मेरे लिए तो यह सोच पाना भी कठिन था। मेरी जिन्दगी बदल चुकी थी। मैं एक रहस्यलोक का प्राणी बन चुका था जिसे दिन की रोशनी बुरी लगने लगी थी। दिन होते ही मैं यह सोचने लगता कि रात कब होगी। मेरा मन कहीं नहीं लगता था।

जागने के बाद जब मैं बाहर निकला तो देखा पिताजी सामने खडे॰ हैं। उन्होंने तनिक व्यंग्य से मेरी ओर देखते हुए कहा - 'तो आप जग गये ?' मैं चुप रहा । तनिक रुक कर उन्होंने कहा- 'आपको आज ही राँची जाना होगा। पढा॰ई में बहुत बाधा हो रही है।' उनकी बात सुनकर मैं स्तंभित रह गया। मैं अबतक यह भूल चुका था कि राँची भी कोई जगह है जहाँ मुझे जाना होगा और यह भी कि मैं अभी विद्यार्थी हूँ।' उनकी बातों के झटके से मैं सिर से पाँव तक काँप गया।

बाबूजी अपना आदेश सुना कर चले गये। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ? खास कर मैं पत्नी के लिए चिन्तित था कि वे अकेले कैसे रहेंगी। मेरे राँची जाने का तात्पर्य था करीब छह महीने तक घर से बाहर , एक - दूसरे से दूर रहना। मैं स्वयं को सम्हाल नहीं पा रहा था। मैं तुरत माँ के पास चला गया और कहा -' मेरे राँची जाने की तैयारी करो। बाबूजी ने कहा है मुझे वहाँ आज ही जाना होगा।' मेरी बात सुनकर माँ चकित रह गयी। उसने तुरत बाबूजी को घर के भीतर बुलवाया और कहा - ' अभी इसके विवाह के कुल दो दिन गुजरे हैं और आप इसे राँची जाने को कह रहे हैं? आपने यह क्यों नहीं सोचा कि इन दोनों के मन पर इसका कैसा प्रभाव पडे॰गा ?' माँ ने घोषणा की कि ' आगामी पन्द्रह दिनों तक यह कहीं भी नहीं जाएगा।' बाबूजी पन्द्रह दिनों के लिए नहीं माने ।उन्होंने अपना आदेश दस दिनों के लिए स्थगित कर दिया। इससे मुझे राहत मिली।

बाबूजी जहानाबाद चले गये। रात में वहाँ से लौटने के बाद उन्होंने मुझे बुलाया। मैं डरता - डरता उनके पास गया। मैं यही सोच रहा था कि पता नहीं इस समय वे कौन - सा नया आदेश देते हैं। उन्होंने मुझे एक पीले कवर की पुस्तक दी और कहा इसे आज पढ॰ जाना और इस पर अमल करना। उस समय हमारे आसपास कई लोग आचुके थे। जब मैं वहाँ से चलने लगा तब बाबूजी ने मुझे रोक कर कहा - 'सद्यः बल हरा नारी।' फिर उसका हिन्दी में अनुवाद करते हुए कहा - 'स्त्री तुरत ही पुरुष के बल का हरण कर लेती है।' इसे सुनते ही आसपास खडे॰लोग ठहाका मारकर हँस पडे॰। मुझे बहुत बुरा लगा। मैं वहाँ से तुरत ही चला आया। मैं जनता था कि बाबूजी मेरे अपमान का कोई भी अवसर कभी चूकते नहीं थे।

कमरे में जाकर मैंने उस पुस्तक का शीर्षक पढा॰ - 'ब्रह्मचर्य ही जीवन है और वीर्यनाश ही मृत्यु है'। पुस्तक का शीर्षक पढ॰ते ही मैं चिढ॰ गया। मेरे भीर एक तीखी प्रतिक्रिया हुई और सवाल उठा - अगर ब्रह्मचर्य ही जीवन है तो मेरा जन्म कैसे हुआ ? स्वयं लेखक की पैदाइस कैसे हुई? और यदि वीर्यनाश ही मृत्यु है तो दुनिया भर के विवाहित लोग जीवित कैसे हैं ?

पुस्तक के करीब हर पृष्ठ में स्त्री को दुर्गुणों के भंडार के रूप मे बताया गया था। लेखक का कहना था कि औरत आगर किसी पुरुष को देख भी ले तो उसका ईमान- धर्म सब चला जाता है। पुरुष पशु की तरह उसके पीछे लग जाता है। जैसे स्त्री सेक्स की मशीन हो और इसके अलावा उसकी और कोई सत्ता नहीं हो। वीर्यनाश के बारे में भी लेखक के विचार आत्यंतिक थे। उसकी मान्यता थी की वीर्य की एक बूंद का भी नष्ट होना आयु क्षीणता का और अनेक रोगों का कारण बन सकता है।

वह पुस्तक मुझे डरा नहीं सकी। पुस्तकों के मामले में मुझमें पूरी परिपक्वता थी। अच्छी और घटिया पुस्तक का अंतर करना मेरे लिए कठिन नहीं था। मुझे लगा यह किसी नपुंसक लेखक की रचना है जो अपनी पत्नी से अपना भेद छुपाता भागता फिर रहा है। मैंने उस पुस्तक को बिछावन के नीचे छुपा कर रख दिया और उसकी ओर दोबारा कभी देखा नहीं।

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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 72

याद आता है गुजरा जमाना 72

मदनमोहन तरुण

बेचैनीभरी पुकार

सबेरे जब मैं जगा तो काफी देर हो चुकी थी।श्रीमती जी न जाने कब स्नान -ध्यान से निवृत्त हो चुकी थीं। मेरे लिए स्वयं को पहचानना कठिन हो रहा था। मुझे स्पष्ट लग रहा था कि मेरे भीतर कुछ सर्वथा नवीन घटित हो चुका है। क्या ? मैं समझ नहीं पा रहा था। जब मैं कमरे से बाहर निकला तो भाभियों ने जिस तिर्यक दृष्टि से मुझे देखा , उसका सामना मैंने पहले कभी नहीं किया था। भाभी ने चुहल करते हुए पूछा- 'कैसी रही कल की रात? ' दूसरी भाभी ने एक और रहस्यमय सवाल जोड॰ दिआ - ' हार - जीत का फैसला हुआ या नहीं ? कौन जीता , कौन हारा?' मेरे लिए यह प्रश्न सचमुच अनबुझ था। यह जीत - हार क्या ? मैं किसी युद्ध पर तो गया नहीं था ? मुझे चुप देख कर भाभियों की किलकार और भी तेज हो गयी। तभी मेरी दादी ने उनलोगों को प्यार से झिड॰का - 'मेरे पोते को तंग मत करो तुम लोग।' कहकर दादी मेरे पास आयीं और बडे॰ प्यार से मेरे सिर पर अपना हाथ रखा। जब मैं बाहर गया तो मामा जी ने पूछा- 'कहो कैसी रही ?' इस प्रश्न पर मुझे चुप देखकर उन्होंने अपना प्रश्न बदल दिआ और पूछा - 'कहो , बहू पसन्द आई ?' मैने सकारात्मकभाव से सिर हिलाया।

मैं सब से बातें कर रहा था , सब तरफ घूम - फिर रहा था लेकिन मेरा मन नहीं लग रहा था। मेरे मन में एक ही प्रबल इच्छा थी -अपनी पत्नी को देखने की। मैं कोई - न - कोई बहाना बनाकर कई बार घर के भीतर जा चुका था , परन्तु पत्नी से मिल नहीं पाया। वे माँ के साथ - साथ थीं। मैं उन्हें बुलाकर मिलूँ, यह साहस जुटा नहीं पा रहा था। जिसे रात में लालटेन की पीली रोशनी में देखा था , उसे दिन के उजाले में देखने को मैं बेचैन हो रहा था। पत्नी को देखे बिना मुझसे रहा नहीं जा रहा था। जिस औरत से मैं केवल एकबार मिला था , उसके सामने मुझे पूरी दुनिया बेकार लग रही थी। मामा जी मेरी भावनाओं को समझ रहे थे। उन्होंने मुझसे कहा - 'मैं तुम्हारी बेचैनी समझ रहा हूँ। मैं भी इस दौर से गुजर चुका हूँ। ऐसा ही लगता है और अब से सदा ऐसा ही लगेगा। ईश्वर ने स्त्री - पुरुष का यह कैसा अद्भुत खेल रचाया है ? यह बहुत ही रहस्यमय है। अब तुम्हारी पत्नी केवल एक स्त्री नहीं है, वह अब तुम्हारी अर्धांगिनी है और अब तुम भी उसके बिना पूर्ण नहीं होसकते। तुम्हारी बेचैनी तुम्हारे आधे अंग से जुड॰ने की बेचैनी है।' मामा जी ने बडी॰ सरलता से वैवाहिक जीवन का एक बडा॰ सत्य मेरे सामने प्रकट कर दिया था।मुझे अपनी अनबुझ बेचैनी का करण मिल गया था। मैं शांत हो गया।फिर भी कितना विचित्र था यह सब ! दो सर्वथा अनजाने लोग एक ही रात में एक - दूसरे के लिए अपरिहार्य हो चुके थे। मैं सोच हा था - क्या सचमुच विवाह स्वर्ग में ही तय हो जाते हैं ? क्या हर जोडी॰ को ईश्वर अपने ही हाथों से बना कर इस संसार में भेज देता है और समय आने पर वे यहाँ अपनी जोडि॰याँ बना लेते हैं ?

पत्नी से मिलना अब रात में ही सम्भव था। दिन में नवविवाहित के मिलने का चलन उनदिनों नहीं था।

रात में जब मैं पत्नी से मिला तो मैंने उन्हें अपनी दिनभर की बेचैनी के बारे में बतलाया।थोडी॰देर चुप रहकर सलज्जभाव से उन्होंने भी मेरा समर्थन करते हुए कहा - 'मुझे भी ऐसा ही लग हा था।' निश्चित रूप से यह आकर्षण मात्र दैहिक ही नहीं हो सकता। यह बेचैनीभरी पुकार कहीं भीतर से आती है।

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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 71

याद आता है गुजरा जमाना 71

मदनमोहन तरुण

हमारी सुहागरात

घर पर हमलोगों के स्वागत की भव्य तैयारी थी।पूरा घर आमंत्रित सम्बन्धियों से भरा था।मेरी तीन फुफेरी भाभियों के आने से घर का कोना - कोना हँसी - मजाक की किलकारसे भर उठा था। माँ का उत्साह उसके चेहरे से ज्योति की तरह फूट रहा था। मेरी दादी गीत गारही थीं।दरवाजे पर आरती से हम पति - पत्नी का माँ ने स्वागत किया। उसके बाद हमदोनों को कुलदेवता के घर में ले जाया गया। कुलदेवता के स्थान पर हर किसी को जाने की अनुमति नहीं थी। जबतक घर में माँ नहीं आई थी, तबतक यह पूजा मेरी दादी करती थीं।उसके बाद माँ करने लगी। यह पूजा साल में एक बार की जाती थी ,अन्यथा ऐसे विशिष्ट अवसरों पर।

कुलदेवता की पूजा के बाद हमने दादी , दादाजी , माँ और बाबूजी के पाँव छूकर आशीर्वाद लिये। उसके बाद घर में हमारे जितने भी कुल - कुटुम्ब के लोग आए हुए थे उनके पाँव छुए।

हमें उस दिन सत्यनारायण पूजा के सम्पन्न होने तक उपवास करना था।इस बीच केवल फल खाने की अनुमति थी। भूख के नाम पर मैंने पूजा के पहले तक इतना फल खाया कि साधारण दिनों में मैं उतना भोजन भी नहीं कर पाता था।

इस बीच भाभियों ने मेरी पत्नी से परिचय कर लिया था। वे उनकी देखभाल में लगी थीं। घर और मुहल्ले के लोगों में नई बहू को देखने का कौतूहल था । इस बीच दादी , माँ और भाभियों ने उनका मुँह देख लिया था जिससे सब को राहत मिली थी। सभी को बहू बहुत पसन्द आई। सब ने मुझे बधाइयाँ दी। गोतिया लोगों के मुँह देखने का समय सत्यनारायण पूजा के बाद रखा गया। पता नहीं किसकी कैसी नजर हो !

पत्नी के ट्रेन में खो जाने की कहानी को मेरे मामा जी ने परिवार के सामने खूब नमक- मिर्च लगाकर परोसा। जिसने भी इस प्रसंग के बारे में सुना उसी ने खूब चुटकी ली। इस प्रसंग की चर्चा ने वातावरण को और भी जीवंत कर दिया। भाभियों ने मेरी पत्नी को चुहल भरे शब्दों में सावधान करते हुए कहा - 'देखो बहू ! अपने दूल्हे को सम्हाल कर रखना। कहीं बबुआजी किसी और को चाकलेट खिलाने न लग जाएँ!'

सम्मोहन और किलकार से भरे इस वातावरण में किसी को समय का पता नहीं चला सबकुछ स्वाभाविक गति से होता चला गया। इसी बीच सत्यनारायण पूजा भी सम्पन्न हो गयी।

उसके बाद कुछ देर तक मुँह-दिखाई की रस्म चलती रही।

उसके बाद भोजनादि की तैयारी चलती रही। परम्परा के अनुसार ऐसे अवसरों पर भोजन पुरुष ही बनाते थे। उस दिन गोतिया - भाइयों के साथ भात , दाल, तरकारी खाना जरूरी था । जमीनको खोद कर बडा॰ - सा चूल्हा बनादिया जाता था । भोजन नई मिट्टी के बर्तन में बनता था। वह कुम्हार का भी दिन होता था । कुम्हार उस दिन बर्तन खूब नेग-जोग लेकर देते थे। परिवार इस अवसर पर कोई कोताही नहीं करता था। एक - दूसरे के लिए पूरे गाँव की अपरिहार्यता का बोध ऐसे ही समय पर होता था।भोजन के लिए पूडी॰ - मिठाई हलवाई बनाते थे। घर की सबसे बुजुर्ग स्त्री भोजन बनना शुरू होने के पहले खूब नेग - जोग देकर चूल्हे की पूजा करती थी ,तब भोजन बनना शुरू होता था। जब ब्राह्मण भोजन करना शुरू कर देते थे तब दूसरी पंक्ति में गाँव के और अन्य गाँवों से आने वाले लोगों को भोजन कराया जाता था। इस अवसर पर एक हजार से अधिक लोगों ने भोजन किया था। भोजन का यह सिलसिला रात के बारह बजे के बाद तक चलता रहा। बाबूजी और बाबा के परिचितों और निकटस्थ लोगों की संख्या बहुत बडी॰ थी।भोजन पत्तल पर परोसा जाता था और मिट्टी के गिलास में पानी दिया जाता था।एक पंक्ति के भोजन करते ही सफाई कर दी जाती और दूसरी पंक्ति के बैठने की व्यवस्था हो जाती। परिवार के कई सदस्य घूम - घूम कर देखते रहते कि कहीं किसी को भोजन परोसने में कमी न रह जाए। लोगों को पूरे आग्रह के साथ भोजन कराया जाता था।भोजन का समापन दही और चीनी परोस कर किया जाता था। उसके बाद पान की व्यवस्था थी। समारोह की सफलता लोगों के सहयोग पर निर्भर थी । ऐसे अवसों पर कुछ दुष्टलोग भी आजाते थे जिनका उद्देश्य होता कि कहीं कुछ शरारत की जाए। ऐसे लोग भोजन से ज्यादा खाना ले लेते थे और पूडी॰ और मिठाई पत्तल के नीचे डालते चले जाते थे ताकि कमी हो जाए। भोजन कराने की कला में कुशल लोग इस चेष्टा पर भी ध्यान रखते थे।

बारात से लौट कर आनेवाले सभीलोग बहुत थके हुए थे इसलिए भोजन कराकर उनके सोने की व्यवस्था भी कर दी गयी थी।

इस दिन का नवदम्पति के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान था।यह उनके मिलन की पहली रात थी , जिसे सुहाग रात कहा जाता था।यह दो व्यक्तियों के तनमन से एक होने का दिन था।यह सारा समारोह हमारे गाँव के घर में हो रहा था।जहाँ लालटेन और ढिबरी से काम चलाया जाता था। आज के विशेष अवसर के लिए कई पेट्रोमैक्स भी मँगा लिए गये थे, जिनका उपयोग बाहर - भीतर लोगों के खिलाने के लिए हो रहा था। हम पति - पत्नी के सुहागरात की व्यवस्था उत्तर दिशा वाले घर में की गयी थी जहाँ मेरी माँ शादी के बाद आई थी । नवदम्पति के लिए यह कमरा एक पूरी परम्परा का प्रतीक था। कमरे में एक लालटेन जल रहा था।खाट की तोसक पर नई रंगीन चादर बिछाई गयी थी। दो तकिए रखे हुए थे। घर की दीवारों पर चौरेठा और हल्दी से कई चित्र बनाये गये थे। इसे कोहबर लिखना कहा जाता था। भाभियों ने हमदोनों को कमरे के भीतर पहुँचाकर दरवाजा बाहर से बन्द कर दिया। बहुत देर तक उकी खिलखिलाहट की आवाजें आती रहीं। किसी अकेली स्त्री के साथ किसी बन्द कमरे में अकेले होने का मेरा यह पहला अनुभव था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ। श्रीमती जी साडी॰ में सिमटी घूँघट डाले खाट के एक सिरे पर सिमटी - सिकुडी॰ बैठी थी।मैं भी एक सिरे पर देर तक चुपचाप बैठा रहा। अब मैंने साहसपूर्वक श्रीमती से पूछा - 'आपका नाम क्या है ?'

हालाँकि मैं उनका नाम जानता था ।परन्तु मेरे सामने चुनौती यह थी कि पूछूँ तो क्या पूछूँ। थोडी॰देर में सलज्ज स्वर में जबाब आया ' माधुरी।' किसी स्त्री की ऐसी आवाज मैंने इसके पहले कभी नहीं सुनी थी। इस आवाज ने मेरे भीतर झुरझुरी पैदा कर दी। मैं थोडा॰ आगे बढा॰ और घूँघट हटाया। लालटेन की पीली मद्धिम रोशनी में एक चेहरा खिल कर सामने आगया। गोलाई लिए एक गोरा चेहरा। लम्बी नाक। पतले आकर्षक होंठ। बडी॰ नशीली आँखें।उस चेहरे को मैं देखता रह गया।मन जैसे सम्मोहन के जादू में बँध गया।ऐसी पत्नी देने के लिए मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया। फिर मैंने फूछा - 'मैं आपको अच्छा लगा?' श्रीमती ने सिर हिलाते हुए कहा - 'जी।' और पूछा -"और मैं?' मेरे पास शब्द नहीं थे। मैं आभिभूत उस चेहरे को एकटक निहारता रहा। सहसा विश्वास नहीं हो रहा था कि जिन सुन्दरी स्त्रियों की परिकल्पना मैं अपनी कविताओं में करता था आज वही मेरे सामने है।इस अवसर पर पति , पत्नी को कुछ देता है। मेरे पास कुछ भी नहीं था। मैंने इसी अवसर के लिए एक रुमाल खरीदा था। वही मैंने चुपचाप श्रीमती के हाथों मैं दे दिया।आज पचास वर्षों के बाद भी वह रूमाल ठीक उसी प्रकार तह करके सुरक्षित रखा हुआ है।

बहुत - सी चीजें हम नहीं जानते और वे सहज भाव से सम्पन्न हो जाती हैं।

इस बीच न जाने कब क्या हुआ कि मैंने श्रीमती को अपनी बाहों मे लेलिया।मेरा पूरा शरीर जैसे सितार की तरह बज उठा। एक ऐसी झंकार मेरे रोम -रोम में फैल गयी जिसकी किसी वादक ने इसके पहले कल्पना भी नहीं की होगी। खुछ देर बाद जैसे हमदोनों के शरीर तरल इकायों में बदल गये।हम जैसे एक - दूसरे में घुल कर एकाकार होगये और आनन्द का एक ऐसा निर्झर झरने लगा कि हमें अपनी सत्ता का कोई बोध नहीं रहा।

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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 70

याद आता है गुजरा जमाना 70

-मदनमोहन तरुण

मेरी पत्नी बदल गयी होती !

विवाह के बाद भी मैंने अपनी पत्नी की एक झलक नहीं देखी थी, इस बात को जिसने भी सुना, उसीने आश्चर्य प्रकट किया और इसकी आलोचना की।विवाह के बाद उनकी विदाई तीन वर्षों के बाद होगी , इस बात से घर में बहुत आक्रोश था। विशेषकर माँ को निराशा हुई।माँ ने कहा यदि उन्होंने विवाह के पहले ही इस प्रथा के बारे में बताया होता तो मैं कभी यह शादी उनके घर नहीं करती।इस बात को लेकर माँ की पिताजी से कई बार कहा - सुनी होगयी। अन्ततः पिताजी ने मेरे श्वसुर जी से बात की और उन्हें पूरे परिवार की भावनाओं से अवगत कराया। इसका परिणाम यह हुआ कि तीन वर्षों की विदाई की अवधि एक वर्ष में परिणत हो गयी।

आखिर वह समय भी आ ही गया। हम परिवार के करीब पचीस लोग विदाई के लिए श्वसुराल पहुँचे।वहाँ हमलोगों का भव्य स्वागत हुआ और दूसरे दिन विदाई हुई। शादी और विदाई का यह सबसे व्यस्त महीना था और जिसदिन हमलोगों को लौटना था वह शायद सबसे अधिक लग्न का समय था। यही सोचकर हमलोग अपने कुटुम्बियों में दो पहलवान किस्म के लोगों को लेकर आए थे, ताकि वे हमें किसी तरह ट्रेन में चढा॰ सकें। हमलोगों का अन्दाज सही निकला। विदाई के बाद जब हमलोग स्टेशन पहुँचे तो वहाँ असाधारण भीड॰ थी।प्लेटफाँर्म कहीं पाँव टिकाने जगह नहीं ती। स्थान - स्थान पर बारातियों की भीड॰ थी । नये - नये जोडे॰ रंगीन कपडों में ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे। हमलोगों के साथ हमारे मामा जी थे जो बडी॰ मुस्तैदी के साथ सबको हिदायतें दे रहे थे कि ट्रेन पर कैसे सवार होना है। हमलोगों के साथ काफी सामान भी था। हम प्रतीक्षा कर ही रहे थे कि ट्रेन के आने की आवाज सुनाई पडी॰ । इसबात से चारो ओर अफरा - तफरी मच गयी।ट्रेन जब प्लेटफार्म पर पहुँची तो वह नजारा दहला देनेवाला था।पूरे ट्रेन में जैसे पाँव रखने की भी जगह नहीं थी। अनेकों लोग डब्बों के हैंडल से लटके हुए थे ,सैंकडों लोग ट्रेन के छज्जे पर सवार थे।कुछ भी सोचने का समय नहीं था। हमारे पहलवान से सम्बन्धी आगे बढे॰ और उन्होंने बहुत जोरों से 'जय बजरंगबली' का नारा लगाया और लोगों को रपटते - झपटते ट्रेन पर सवार होगये और उनके पीछे - पीछे हम सभी लोग । अब हमसब ट्रेन के कम्पार्टमेंट में थे।थोडी॰ ही देर में ट्रेन चलपडी॰।अब मैं अपनी पत्नी को ढूँढ॰ने लगा।सामने की सीट पर देखा कि एक नवविवाहिता युवती ठीक वैसे ही कपडे॰ में ,जैसा मेरी पत्नी पहने थीं, सामने की सीट पर बैठी है। मैंने समझ लिया कि यह मेरी ही पत्नी है जो मेरे साथ - साथ ट्रेन पर सवार हुऐ और सामने जगह बना कर बैठ गयी। मैंने भी उन्हीं के पास थोडी॰ जगह बनाई और बैठ गया।मेरी जेब में काफी चाकलेट थे। मैने एक चाकलेट उनकी ओर बढा॰या।उन्होंने तुरत चाकलेट लेलिआ।इसी बीच मैंने उनके घूँघट के भीतर झाँक कर देखा।यह मेरी गहरी निराशा का पल था। उस युवती का चेहरा पतला - सा अस्थिप्रधान था। वह गोरी जरूर थी ,परन्तु भावविहीन और सपाट चेहरेवाली औरत थी जो निर्विकार भाव से मेरे द्वारा दिआ गया चाकलेट खा रही थी। उसे जैसे मेरी उपस्थिति से कुछ भी लेना -देना नहीं था।

मुझे लगा मेरे साथ धोखा हुआ है। क्या अब मुझे इस औरत के साथ अपना पूरा जीवन बिताना होगा?मै समझ नहीं पा रहा था कि मै खुद पर हँसूँ या रोऊँ। मुझे अब अपने पिताजी पर क्रोध आ रहा था कि उन्होंने बिना देखै समझे इस बन्धन में बाँध दिआ।मैंने गहरी निराशा से सामने देखा। देखा कि मेरे ठीक सामने एक युवक नये कपडे॰ पहने और हाथ में मोटी - सी लाठी लिए खडा॰ है और मेरी ओर करीब - करीब जलती निगाहों से घूर - घूर कर देख रहा है। वह कुछ बोला नहीं। मैंने समझा इस भीड॰ में उसकी पत्नी कहीं और बैठ गयी है ,इसीलिए वह हमदोनों को साथ बैठे देख कर ईर्ष्या से इस तरह घूर - घूर कर देख रहा है। मैंने उसकी ओर ध्यान नहीं दे सका।अब मैं अपने मामाजी को ढूँढ॰ने लगा जिनसे मैं सबसे अधिक निकट था । मैं इतना निराश था कि तुरत उन्हें अपनी भावनाओं से परिचित कराना चाहता था। परन्तु वे आस -पास में कहीं भी नही दिखे। तभी मुझे मेरी दासियाँ दिखाई दीं जो साथ आ रही थीं। वे शायद मुझे ही ढूँढ॰ रही थीं। उनलोगों ने मेरे मामा जी को बताया। जानकर मेरे मामा जी मेरे पास किसी तरह भीड॰ को चीरते हुए मेरे पास आए। मुझे इस नवविवाहिता के पास बैठे देख कर बोले - ' यह तुम किसके साथ बैठे हो! तुम्हारी पत्नी तो उस तरफ है।'मैंने उनकी ओर सुखद आश्चर्य से देखा। मेरे चेहरे का तनाव मिट गया। मुझे राहत मिली। बिना देरी किए मैं उस स्थान से जैसे ही उठा , वैसे ही सामने लाठी लेकर खडा॰ युवक तुरत उस युवती के पास बैठ गया। जरूर वह उसका पति होगा जो इतनी देर तक अपने को सम्हाले हुए था।मेरे पास कुछ और सोचने का समय नहीं था।

मैं लपकता हुआ मामाजी के साथ आगे बढ॰ गया।मामाजी ने मेरी पीठ पर हाथ रखते हुए सामने बैठी सुन्दरी युवती से कहा - 'लो बहू !सम्हालो इसे। यह है तुम्हारा पति।यह उस ओर किसी और नवविवाहिता के साथ बैठा था।' सुनकर उस गोरी ,सुन्दरी युवती की मुस्कान उसके पूरे चेहरे पर फैल गयी और उसका चेहरा आरक्त हो गया।उसे देखकर मेरा ह्रदय हिल्लोलें लेने लगा। मैं सचमुच इतना प्रसन्न इसके पहले कभी नहीं हुआ था। मैंने ईश्वर को शतशः धन्यवाद दिआ। यह मेरी मनोकामना के अनुकूल पत्नी थी। मेरी कविताओं की तरह मोहक।

मैंने अपनी जेब को टटोला तो पाया कि उसमें अब एक भी चाकलेट शेष नहीं बचा था।वह युवती सारे चाकलेट खा चुकी थी।परन्तु मुझे इस बात की अब कोई चिन्ता नहीं थी।चाकलेट भले खत्म होगया हो , परन्तु मुझे इसपल जिस मिठास का अनुभव होरहा था वह भला और कहाँ मिल सकता था ! मैं इस पल संसार का सबसे सुखी इंसान था।

तब से अबतक इक्यावन वर्ष बीत चुके हैं और हम पति -पत्नी , ईश्वर की दया से अपने बाल - बच्चों के साथ सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

परन्तु, उस ट्रेन की घटना को मैं अबतक भुला नहीं पाया हूँ। सोचता हूँ अगर मामाजी नहीं होते और मैं उस दूसरी औरत को लेकर घर आगया होता तो !

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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 69

याद आता है गुजरा जमाना 69

मदनमोहन तरुण

वह कौन थी ?

बाबूजी ने मुझे राँची से जहानाबाद बुला भेजा। कारण कुछ भी नहीं बताया गया था।मैं इस तात्कालिकता का मतलब समझ नहीं पया। अब तक मैं कभी इस तरह पढा॰ई के बीच में घर नहीं गया था। वहाँ मैं केवल छुट्टियों में ही जाता था। मुझे चिन्ता हुई। न जाने घर में क्या हुआ ! मैं सूचना मिलते ही घर के लिए चल पडा॰। घर पहुँचा तो यहाँ का तो नजारा ही बदला हुआ था। कुल-कुटुम्ब के लोग आचुके थे। फुफेरे भइयों की पत्नियाँ , जो सब मेरी बडी॰ भाभियाँ थीं ,आ चुकी थीं। वे मुझसे बहुत छेड॰-छाड॰ करती थी। मैं उनसे भागा फिरता था।परन्तु इस बार तो अवसर ही नया था। आते ही सबने मुझे घेर लिआ। हँसी - मजाक शुरू हो गया।

मैं कुछ समझने की चेष्टा ही कर रहा था कि माँ ने कहा कि तुम्हारी शादी होनेवाली है। मुझे आश्चर्य हुआ। 'शादी? और मुझसे जरा पूछा भी नहीं कि मुझे शादी करनी है या नहीं? और अगर करनी है तो लड॰की कैसी चाहिए।' माँ ने मेरी चिन्ता भाँपते हुए कहा - ' तुम चिन्ता मत करो। मैंने पता लगा लिआ है ।लड॰की अच्छी है।' मैं क्या कहता? मेरे पास कहने के लिए कुछ रह ही क्या गया था।

दूसरे दिन से मुझे सरसों के तेल मे ढेर सारा हल्दी घोल कर अवटन लगाया जाने लगा।यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा । तरह - तरह के विधि -व्यवहार होने लगे। इसके साथ ही मेरी जिज्ञासा बढ॰ने लगी। मैं सोचने लगा कैसी होगी मेरी पत्नी! अब रात - दिन भिन्न - भिन्न रूपों में मुझे वही दिखाई देने लगी। पूरे शरीर में एक अजीब सी सुरसुराहट फैलती।

मैं अब वह नहीं रहा , जो था। मैं खुद ही समझ नहीं पा रहा था कि यह मुझमें क्या होरहा था। बस एक ही इच्छा शेष रह गयी थी कि मेरा विवाह अब शीघ्र हो जाए।

आखिर वह दिन भी आ ही गया।बारात की तैयारी होगयी जिसमें हमारे परिवार के एवं पिताजी के मित्र - परिचित मिला कर करीब पचास लोग ट्रेन से अगले दिन मेरे होनेवाले श्वसुराल में पहुँचे। वहाँ हमलोगों का भव्य स्वागत हुआ।साथ ही विवाह की तैयारी होने लगी।

मुझे उनके घर के आँगन में ले जाया गया, जहाँ मंडप सजा था। चारों ओर उनके परिवार के लोग बैठे थे। मंडप के बीच में दो आसन लगे थे और सामने पंडित जी विवाह कराने की तैयारी में थे। एक आसन पर मुझे बिठाया गया , मंत्रोच्चार से विवाह की शुरूआत हुई। थोडी॰ देर के बाद एक लाल कपडे॰ में पूरी तरह लपेटी किसी चीज को परिवार के दो लोग उठाए लिए आए और उन्होंने उसे मेरे बगलवाले आसन पर लाकर रख दिआ। पहले मैं समझ नहीं पाया , यह क्या है , परन्तु थोडी॰देर बाद उसमें होनेवाली हरकत से लगा कि यह मानव शरीर ही है। मैंने अन्दाज लगा लिआ कि यही मेरी होनेवाली पत्नी है। उसने अपने हाथ तक कपडे॰ से लपेट रखे थे।पंडित जी के आदेशों का पालन भी उसने पूरीतरह ढँके हाथों से किआ। कुछ देर बाद मेरा आसन बदल दिया गया। दाहिनी ओर मुझे बिठाया और बाई ओर मेरी पत्नीनुमा चीज को। इससे मैंने अन्दाज लगा लिआ कि मेरा विवाह हो चुकाहै। बाद मे मैंने उस पूरी तरह ढँकी काया के साथ गाँठ बाँध कर सात फेरे लिए। पंडित जी ने घोषणा करते हुए कहा कि अब आपलोग पति - पत्नी हुए। इस घोषणा के साथ ही मेरे परिवार के सारे लोगों को भीतर बुला लिआ गया।अब मुँह दिखाई कि रस्म शुरू हुई। सबने मुँह देखा , परन्तु ,मैंने नहीं।

रस्मों की समाप्ति के बाद रात हुई।यह सुहाग रात थी।इसके बारे में मेरी भाभिओं ने मुझे बहुतकुछ बता रखा था। मैं इस पल की प्रतीक्षा कर रहा था। कम- से -कम मुझे अपनी पत्नी को देखने का अवसर तो मिलेगा।किसी स्त्री को अबतक अकेले में मैंने न तो देखा था , न किसी को छुआ ही थी। मेरे लिए आज सबकुछ नया होने वाला था। मेरे भीतर कहीं बहुत घबराहट भी थी। कमरे की खाट पर पडा॰ मैं किसी नयी आहट की प्रतीक्षा करने लगा, परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वहाँ कोई नहीं आया। कौए बोलने लगे। इससे लगा सबेरा होगया। मुझे बहुत निराशा हुई , साथ ही मन में शंका भी हुई कि लड॰की के हाथ- पाँव मे कोई दाग तो नहीं !मंडप में भी वह पूरा शरीर ढाँके रही।रात में मिलने के लिए भी उसे भेजा नहीं गया!खैर , अब हो क्या सकता था। अब आशा थी कि आज उसकी विदाई होगी। वह हमोगों के साथ हमारे घर चलेगी। यहाँ नहीं देखा तो कम -से - कम उसे अपने घर तो देख सकूँगा! परन्तु यह भी नहीं हुआ। सबेरे उसके पिताजी ने बताया कि विवाह के बाद तीन वर्षो तक लड॰की की विदाई का उनके यहाँ रिवाज नहीं है। मुझे गहरी निराशा हुई। हमसब लोग लौट कर वापस आगये। मुझे यह अनुभव ही नहीं हुआ कि मेरा विवाह भी हुआ है। मेरी माँ इससे बहुत नाराज हुई। वह अपनी पहली बहू के स्वागत की पूरी तैयारी कर चुकी थी। खैर , मैं वहाँ से पुनः राँची लौट गया। मुझे यह अनुभव ही नहीं हुआ कि मेरा विवाह भी हुआ है।मेरे मित्रों को भी बहुत निराशा हुई।मैंने बडी॰ मुश्किल से स्वयं को सम्हाला और अपनी पढा॰ई में लग गया।

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Wednesday, September 28, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 68

याद आता है गुजरा जमाना 68

मदनमोहन तरुण

मेरा विवाह

एक बार पिताजी एक सेमिनार में भाग लेने गये। वही एक अन्य डाँक्टर ने इनसे अपनी बेटी की बात चलाई और पूछा कि उन्हें यदि किसी योग्य लड॰के की जानकारी हो तो बताएँ। पिताजी ने कहा कि विवाह तो मुझे अपने लड॰के का भी करना है , जो अभी कालेज में पढ॰ता है। इतना सुनते ही दूसरे डाँक्टर बन्धु ने उनसे कहा कि ,भला इससे अच्छी और क्या बात होसकती है।और उन्होंने पूछा - 'यदि आप चाहें तो रिश्ता यहीं तय हो जाए।' मेरे पिताजी ने हामी भर दी और विवाह तय होगया। जब वे लौटकर आए तो उन्होने मेरी माँ को बताया। माँ ने आश्चर्य व्यक्त किया कि उन्होंने इतना बडा॰ निर्णय इतनी जल्दवाजी में कैसे ले लिया! माँ ने पूछा 'आपने लड॰की देखी नहीं तो यह कैसे पता चलेगा कि वह देखने में कैसी है ? सुन्दर या असुन्दर , गोरी या काली!' पिताजी ने कहा लडकी जरूर गोरी और सुन्दर होगी क्योंकि उसके पिताजी सुन्दर थे।' माँ नहीं रुकी। उसने पूछा - अगर वह अपनी माँ जैसी हुई तो! आपने उसकी माँ को तो नहीं देखा!। पिताजी चुप रहे। माँ ने मेरे होनेवाले श्वसुर जी का पूरा पता लेकर दूसरे दिन अपनी दो विश्वसनीय दासियों को लड॰की को देखने और मेरी होनेवाली पत्नी के बारे में पता लगाने को भेजा।दोनों दासियाँ दो दिनों के बाद सब पता लगाकर लौटीं और बताया कि लड॰की गोरी और सुन्दर है तथा कहीं से उसके बारे में कोई गलत -सलत जानकारी नहीं मिली है। सुनकर माँ को संतोष हुआ और उसने शादी पक्की करने के पक्ष में ऊपनी राय देदी। शादी की बात पक्की हो गयी और विवाह का दिन भी निश्चित कर दिया गया।

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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 67

याद आता है गुजरा जमाना 67

मदनमोहन तरुण

घेरे के बाहर

हिन्दी के विवादास्पद उपन्यास ‘घेरे के बाहर’ के लेखक द्वारका प्रसाद जी रॉची में ही रहते थे।उन दिनों वे ‘नर – नारी’ और ‘हमारा मन’ नाम की दो अनूठी पत्रिकाओं का सम्पादन - प्रकाशन कर रहे थे। यह हिन्दी में सेक्स और मनोविज्ञान की प्रत्रकारिता के क्षेत्र में पहला गंभीर प्रयास था जिसे पाठकों ने पढ़ा और सराहा।द्वारका प्रसाद जी को अन्य लेखकों ने विजातीय बना रखा था क्योंकि उनके उपन्यास का विषय था भाई - बहन के बीच सेक्स – सम्बन्ध।’घेरे के बाहर’ में इस विषय के पक्ष में दुनिया भर के ऐसे सम्बन्धों का उदाहरण देकर इसकी वकालत की गयी थी।द्वारका प्रसाद जी इन चीजों से बेपरवाह अपने परवर्ती साहित्य में भी अपनी बातें निर्भीकतापूर्वक रखते रहे। कहा जाता है कि यह द्वारिका प्रसाद जी के निजी जीवन से सम्बद्ध उपन्यास है। इस उपन्यास में कथा के विकास पर ज्यादा जोर न देकर इस सम्बन्ध को जायज ठहराने की कोशिश अधिक की गयी है।

इस उपन्यास के चर्चित होने का मुख्य कारण इसका विषय था। उपन्यास कला की दृष्टि से यह बहुत महत्वपूर्ण उपन्यास नहीं कहा जा सकता किन्तु हिन्दी में यह एक अनूठा और साहसपूर्ण उपन्यास है।

साहित्य हर विषय पर विचार करने के लिए खुला मैदान है।

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Tuesday, September 27, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 66

याद आता है गुजरा जमाना 66

मदनमोहन तरुण

इस हाथ से किसी को प्रणाम नहीं करूँगा

वह हिन्दी साहित्य का हर दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण समय था। ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में बॉकेबिहारी भटनागर जी की सम्पादकीय टिप्पणियॉ पठनीय होती थी । उसके मुखपृष्ठ पर निराला जी के गीत प्रकाशित होते थे।हम निराला जी के दीवानों में थे और उनको देवतुल्य मानते थे।मेरे मित्र शिवशंकर जी जब से निराला जी से मिल कर आए थे तब से वे लोगों को केवल अपने बाएँ हाथ से ही प्रणाम करते थे ।उनका कहना था कि दाहिने हाथ से मैं निराला जी के चरण स्पर्श कर चुका हूँ ,अब मैं इस हाथ से किसी अन्य को सम्मान नहीं दे सकता।

भाई शिवशंकर जी दफ्तर से लौट कर सीधे मेरे यहाँ पहुँचते थे।तब हमारी साहित्यिक बहस शुरु होती। कभी - कभी यह बहस इतनी उत्तेजनापूर्ण हो जाती कि हम ताड॰ के पंखे से एक - दूसरे पर आक्रमण कर डालते। मगर दूसरे दिन एक - दूसरे से क्षमा माँगकर हम फिर बहस में लग जाते।यह सिलसिला कभी - कभी आधी रात के बाद तक भी चलता रहता। मेरे मित्र बहुत चिन्तित थे।उन्हें लगा कि मैं पढा॰ई में ध्यान न देकर अपने केरियर से खिलवाड॰ कर रहा हूँ। उन्होंने शिवशंकर जी को आने से कई बार मना किया , परन्तु वे नहीं रुके। बाद में उनका उस लड॰की से प्रेम होगया जिसे वे पढा॰या करते थे। तब मिलने का सिलसिल कुछ कम हो गया और विषय भी बदल गया। इन चर्चाओं में कभी - कभी विद्याभूषण जी भी भाग लिया करते थे , परन्तु वे ठीक समय पर लौट जाते थे। उनदिनों वे प्रतिमान प्रकाशन आरम्भ करने की बात सोच रहे थे।युवा लेखकों में अशोक प्रियदर्शी की कहानी ‘बौड़म’ उन्हीं दिनों 'धर्मयुग' में छपी थी। राय कमल राय एक भिन्न प्रकार के छन्द पर काम कर रहे थे।

किसी नगर का निर्माण जानी – अनजानी हर डगर पर होता चलता है। कभी खुलकर , कभी चुपचाप !

हम कल्पना , ज्ञानोदय आलोचना और लहर और धर्मयुग के अंकों की बेसब्री से प्रतीक्षा करते रहते।उन्हीं दिनों अज्ञेय के सम्पादन में ‘दिनमान’ का प्रकाशन शुरू हुआ था जो हिन्दी पाठकों के लिए नया अनुभव था । ‘माध्यम’ का 'विवेचना' स्तंभ हिन्दी की श्रेण्य पुस्तकों पर सुगंभीर परिचर्चा का अपरिहार्य अंग था जिसे हम कभी चूकते नहीं थे।।उन्हीं दिनों 'कल्पना' में मेरी कुछ तीखी टिप्पणियॉ छपी थी जिसे कुछ लोगों ने सराहा था और कुछ बहुत नाराज हुए थे।डॉ इन्द्रनाथ मदान के एक लेख में यशपाल के साहित्य का विवेचन अजीबोगरीब भाषा में किया गया था ।उस पर मेरी तीखी टिप्पणी का प्रत्युत्तर मदान जी ने बड़े गुस्से में दिया था।मै आज भी कभी – कभी उसका आनन्द उठाता हूँ।

उन दिनों शशिकर जी चक्रधरपुर से एक छोटी पत्रिका 'शबरी' का प्रकाशन कर रहे थे। वे समय - समय पर मुझसे मिलने मेरे होस्टल में आया करते थे। उनकी प्रबल इच्छा थी कि मैं 'शबरी' का सम्पादन करूँ। मैं इसके लिए पढा॰ई छोड॰ने के लिए भी तैयार होगया था, परन्तु मेरी श्रीमती जी ने इसका घोर विरोध किया। उनका कहना था कि मैं पहले अपनी पढा॰ई पूरी करूँ उसके बाद चाहे जो करूँ , उन्हें कोई शिकायत नहीं होगी। मुझे अपना निर्णय बदलना पडा॰। इससे मेरे मित्रों को भी राहत मिली।परन्तु मैं चक्रधर जी का बहुत प्रशंसक हूँ। वे वर्षों 'शबरी' का प्रकाशन पूरी निष्ठा के साथ करते रहे और कई कविताओं एवं कहानी संग्रहों का भी प्रकाशन किया।

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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 65

याद आता है गुजरा जमाना 65

मदनमोहन तरुण

एई खाने एकटा बाड़ी कोरबो

अभिज्ञान प्रकाशन से योगेन्द्रनाथ सिनहा की पुस्तक ‘पथेर पॉंचाली के विभूति बाबू’ का प्रकाशन हुआ था जो विभूति भूषण वांद्योपाध्याय के अंतरंग जीवन का निकटस्थ साक्षात्कार है। अफसोस है कि इस पुस्तक का व्यापक प्रचार – प्रसार नहीं हो सका अन्यथा सरल भाषा और सहज संस्मरणात्मक शैली में लिखित यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है जो विभूति बाबू के सरल समर्पित एवं अकृत्रिम जीवन का परिचय देती है।विभूति बाबू को रॉची का परिवेश बहुत पसन्द था और वे भावुकतावश कहा करते थे ‘की सुन्दर जायगाय ! एई खाने एकटा बाड़ी कोरबो।’ इस पुस्तक से मैं दो उध्दरण देना चाहूँगा जो विभूति बाबू के व्यक्तित्व के दो ऐसे पक्षों को उद्घाटित करने में समर्थ है जिससे ‘आरण्यक’ और ‘पथेर पांचाली’ के सर्जक के अंतरंग का साक्षत्कार होता है।विभूति बाबू की दृष्टि सामान्य से सामान्य स्थलों और चेहरों में भी उसके सौन्दर्य का उत्कर्ष देख लेती थी।इन प्रसंगों को पढ़ते हुए लगता है हमने अपने जीवन को कैसे – कैसे उपकरणों की साज – सज्जा से बोझिल बना लिया है। ‘आरण्यक’ के लेखक के चित्त की बनावट के साक्षात्कार के लिए यह प्रसंग देखिए –

‘ जितने दिन विभूति बाबू घाटशिला रहते वे अधिक समय आसपास के जंगलों में बिताया करते।अगर कोई साथी मिल गया तो उसके साथ बरना अकेले।एक दिन वे सुबह – सुबह निकल गये कि खाने के समय तक लौट आएँगे।लेकिन खाने का समय पार हो गया ,संध्या बीती,रात भी काफी चढ़ गयी ,और विभूति बाबू का पता नहीं।घर – पड़ोस के लोग बड़े चिन्तित हुए , खोज – पड़ताल सुरू हुई।अन्त में वे करीब ग्यारह बजे रात सम्पूर्ण शांत भाव से घर में दाखिल हुए , धोती में जंगली हाथी की लीद का विशाल गोला बॉथे हुए।गोले को बहुत कष्ट – अर्जित सम्पत्ति की तरह जमीन पर रख कर उसे चकित समुदाय को दिखाते हुए बोले – ‘की अद्भूत !'

‘पथेर पॉचाली’ की दुर्गा एक अमर चरित्र - रचना है।वह विभूति बाबू के पथेर पॉंचाली के संसार में किस प्रकार प्रविष्ट हुई वह उन्हीं के शब्दों में द्रष्टव्य है – ‘ पथेर पॉंचाली तैयार हो चुकी थी।छपवाने के पहले पाण्डुलिपि लेकर रवि ठाकुर से इस पर आशीर्वाद लेने जा रहा था।रास्ते में भागलपुर में एक दिन रुकना पड़ा।शाम को मैं एक दिन एक जन – विरल सड़क पर अकेले टहल रहा था ।देखा उस सुनसान रास्ते पर एक किनारे आठ – दस वर्ष की एक लड़की चुपचाप खड़ी है।उसके बाल बिखरे हुए थे , सूरत पर कुछ उदासी थी , कुछ शरारत भी।लगता था जैसे स्कूल से भागी हो या घर से पिट कर भगायी गयी हो और नये षडयंत्र की सोच रही हो।उसकी ऑखों में एक अवर्णनीय सन्देश था ,एक अजीब पुकार थी , मीठे – मीठे दर्द की एक अनदेखी दुनिया थी।मैं देखता रह गया।मन में आया , जबतक यह लड़की मेरी किताब में नहीं आती तबतक मेरी रचना व्यर्थ है , निर्जीव है।मैं रवि ठाकुर के यहॉं न जाकर अपने जंगल के डेरे पर लौट आया।लौट कर पाण्डुलिपि पूरी की पूरी फाड़ डाली और उसी लड़की को आधार बनाकर फिर से लिखने लगा।यही लड़की ‘पथेर पॉंचाली’ की दुर्गा है।’92

इस पुस्तक के लेखक योगेन्द्रनाथ सिनहा वन सेवा के वरिष्ठ सेवा निवृत्त अधिकारी थे। उन्हें इस बात की गहरी व्यथा थी कि 'पथेर पॉचाली' पर बनी फिल्म को सत्यजित रे की 'पथेर पॉचाली' के रूप में विज्ञापित किया जा रहा है।उन्होंने इस सम्बन्ध में अपने घर पर एक गोष्ठी भी आयोजित की थी।किन्तु वह गोष्ठी गर्मागर्म बहस तक ही सीमित रह गयी।

रॉची के तत्कालीन प्रकाशनों में ‘अभिज्ञान प्रकाशन’ का नाम उल्लेखनीय है।काशीनाथ पाण्डे इसके प्रबन्धक थे ।उत्साह ,व्यावहारिक कुशलता और अच्छे साहित्य की समझ उनकी विशेषता थी।चुक्कड़ में चाय के सोंधेपन के साथ साहित्य चर्चा में वहॉं सुख मिलता था।

उन दिनों की एक घटना उल्लेखनीय है।आचार्य शिवपूजन सहाय जी ने अपना एक लेख ‘धर्मयुग’ में प्रकाशनार्थ भेजा।उस समय कन्हैयालाल नन्दन ‘धर्मयुग’ के सहायक सम्पादक थे। उन्होंने उस लेख को स्थान – स्थान से बुरी तरह एडिट करके छापा था।इतने वरिष्ठ लेखक के लेख पर एक युवा सम्पादक का कलम चलाना उनके अपमान से कम न था।लोग विक्षुब्ध थे।श्री शिवचन्द्र शर्मा ने अपने व्दारा सम्पादित ‘दृष्टिकोण’ पत्रिका में उन संशोधनों का ब्लॉक बनवा कर हू – ब – हू छापा था जिससे लोगों को तनिक राहत मिली थी। खेद है कि मेरे पिछले दो – चार स्थानान्तरणों में ‘दृष्टिकोण’ की वह प्रति कहीं दब गयी है, अन्यथा मैं उसकी कुछ टिप्पणियॉ यहॉ उद्धृत करना आवश्यक समझता था।'दृष्टिकोण' का वह अंक 'अभिज्ञान प्रकाशन' से ही प्रकाशित हुआ था।

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Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 64

याद आता है गुजरा जमाना 64

मदनमोहन तरुण

नलिनविलोचन शर्मा और त्रिलोचन शास्त्री

राधाकृष्ण जी ने निराला जयंती का आयोजन किया था। उसी के साथ केसरी कुमार जी की विदाई का कार्यक्रम भी जोड॰ दिया गया था। उस अवसर पर पटना विशवविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष एवं सुप्रसिद्ध विद्वान नलिनविलोचन शर्मा जी भी आए हुए थे। नलिन जी नई कविता की 'प्रयोग के लिए प्रयोग' की धारा 'नकेन' (नलिन,केसरी,नरेश की त्रयी)

के तीन कवियों में से एक थे। केसरी कुमार की विदाई के समय इस कारण भी उनका बुलाना महत्वपूर्ण था।नलिन जी विराटकाय थे।पाण्डित्य की प्रगाढ॰ता के समान ही उनका व्यक्तित्व अतिशय धीर - गंभीर था। नलिन जी के साथ ही बनारस से हिन्दी के कवि एवं विद्वान त्रिलोचन शास्त्री भी आए हुए थे। वे भवभूति जी के यहाँ रुके थे।

गोष्ठी की समाप्ति के दूसरे दिन हजारी बाग की एक साहित्यिक गोष्ठी के लिए जाना था। नलिनविलोचन शर्मा टैक्सी के आगे की सीट पर बैठे थे तथा नलिन जी के ठीक पीछे बैठे थे त्रिलोचन जी ।उनके बगल में भवभूति जी और मैं। टैक्सी तेजी से भागी जा रही थी ।कोई किसी से कुछ बोल नहीं रहा था। नलिन जी गंभीरता से कोई पुस्तक पढ़ रहे थे। कुछ देर बाद नलिन जी ने त्रिलोचन जी से अनुरोध किया कि वे निराला जी की कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ की व्याख्या करें। त्रिलोचन जी को पूरी कविता याद थी।उसे पढ़ते हुए उन्होंने अपनी पाण्डित्यपूर्ण व्याख्या आरंभ की ,परन्तु नलिन जी को कोई अन्य पुस्तक पढ़ने में व्यस्त देख वे बीच में ही रुक गये।कुछ क्षणों बाद नलिन जी ने पीछे मुड़ कर देखा और उनके अचानक चुप हो जाने का कारण पूछा।शास्त्री जी ने बताया कि आपका ध्यान व्याख्या पर न होकर किसी अन्य पुस्तक पर था इसलिए मैंने इस विषय पर समय बर्बाद करना उचित नहीं समझा।नलिन जी ने स्थिति की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए उन्हें बताया कि वे उनकी व्याख्या पूरी तल्लीनता से सुन रहे हैं और प्रमाणतः उन्होंने उनकी व्याख्या यथावत प्रस्तुत कर दी। पुस्तक के बारे में उन्होंने बताया कि वे फ्रेंच की एक दुर्लभ पुस्तक पढ़ रहे हैं जो उन्हें कल ही वापिस करनी है।फिर उन्होंने शास्त्री जी से अनुरोध किया कि वे व्याख्या जारी रखें । उन्होंन कहा कि वे पुस्तक पढ़ते हुए भी उनकी व्याख्या तल्लीनता से सुनते रहेंगे। अबतक शास्त्री जी उनकी इस असाधारण योग्यता से अवगत हो चुके थे ।उन्होंने अपनी व्याख्या पूर्ववत उत्साह से आरंभ कर दी।यह यात्रा मेरे दुर्लभ अनुभवों में से एक है।

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Tuesday, September 20, 2011

Sab Sat: YAAD AATAA HAI GUJARAA JAMAANAA 63

याद आता है गुजरा जमाना 63

मदनमोहन तरुण

सब सत

राँची के जिन लोगों को भूलना असम्भव है उनमें भवभूति जी का महत्वपूर्ण स्थान है। उनसे मेरी मुलाकात एक कविसम्मेलन में हई थी। बाद में उनसे मेरा सम्बन्ध प्रगाढ॰ होगया। वे संस्कृत के अच्छे विद्वान थे और मेरी कविताओं के प्रशंसक। उस समय उनकी अवस्था साठ के करीब होगी।

पंडित भवभूति मिश्र भिन्न प्रकार के विद्वान थे। वे साधक थे तथा अपने उन्हीं अनुभवों को वाणी देते थे ।उनके गले में एक बडा॰ - सा मासा था। वे उसकी ओर इंगित कर यह बताना नहीं भूलते कि 'मैं नीलकंठ हूँ।' वे अत्यंत सहृदय और उदारचेता व्यक्ति थे । उनकी हँसी सामान्य से बहुत भिन्न थी। मैंने वैसी हँसी और किसी की नही सुनी। उनकी हँसी गले तक आती और किसी फटे बाँसकी बाँसुरी की आवाज की तरह बाहर निकलकर वायुमंडल में खो जाती। वे घंटों ध्यान करते थे जिसकी गहराई उनकी आँखों में दिखाई पड॰ती थी। वे आनवाले को एक कप चाय जरूर पिलाते थे। स्वयं चाय प्लेट में उलटकर सुड॰ से पी जाते। फिर एक संतुष्ट हँसी हँसते।

यहीं मेरी मुलाकात मेरे प्रिय मित्र उमानाथइन्द्र गुरु जी से हुई थी।वे भी भवभूति जी के गाँव के पास के थे और उनके सम्बन्धी थे। गुरुजी यद्यपि हमारी ही कक्षा में थे , पन्तु हमसे बहुत सीनियर थे। उन्होंने विषय के चुनाव में एक गलती की थी। उन्होंने हिन्दी साहित्य मुख्य विषय के साथ गणित रख लिया था। वे गणित में कई साल विफल होते रहे। हर किसी ने उन्हें सलाह दी कि वे गणित छोड॰कर कोई अन्य विषय लेलें ।परन्तु , उन्होंने सबको यह कहकर शांत कर दिया कि गणित ने मुझे फेल किया है, मैं इसे पछाडे॰ बिना आगे नहीं जाऊँगा। बाद में उन्होंने गणित को पछाड॰ ही दिया। गुरु जी मेरी जानकारी में अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिनकी प्रतिष्ठा पर इन विफलताओं का कोई प्रभाव नहीं पडा॰। अपने विषय का उन्हें गहरा ज्ञान था।उनकेअक्षर मोतिओं जैसे सुडौल होते थे।व्याकरण पर उनका गहरा अधिकार था।वे खादी का सफेद कुर्ता , धोती, बंडी और चप्पल पहनते थे, जो उनके गोरे चेहरे पर खूब फबता था। वे एक सिद्धान्तनिष्ठ व्यक्ति थे।उनकी महत्वाकांक्षा प्राइमरी स्कूल का शिक्षक बन कर बच्चों के जीवन में नयी निष्ठा भरकर देश को सदाचार सम्पन्न नागरिक सौंपने की थी ।गुरुजी बाद में एक हाई स्कूल के शिक्षक हुए। अवश्य ही उनके छात्र सामान्य से बहुत अलग होंगे।गुरू जी अपने गाँव के संत, बाबा परमहंस के भक्त थे।

पंडित भवभूति जी की सारी रचनाएँ इन्हीं बाबा परमहंस जी पर आधारित थीं।बाबा के बारे में वे बताते थे कि वे कहीं से आकर गाँव में जो जम गये सो फिर कहीं नहीं गये।वे कौन हैं , कहाँ के हैं ,कोई नहीं जानता था।वे पूजा - पाठ कुछ नहीं करते थे।जो भी उन्हें प्रणाम करता वे जबाब देते हुऐ गहरी आवाज में कहते -'सब सत्' । उनकी वाणी मे गहरा प्रभाव था।

बाबा की दृष्टि में सत्य – असत्य और अच्छा – बुरा जैसी कोई चीज नहीं होती। जो भी हो रहा है वह सत है। ‘सब सत’ ही उनका दर्शन था।

एक बार एक चोर उनका आशीर्वाद लेने आया। उसने कहा - 'बाबा ! हमारी आज की रात सफलता की रात हो ।' बाबा ने कहा – ‘सब सत’ । चोर उसदिन बाबा की कुटिया की सारी सामग्री उड़ा ले गया।लोगों ने बाबा से पूछा – ‘यह क्या ?’ तो बाबा ने कहा – ‘सब सत।’

बाबा की शास्त्रों में कोई आस्था नहीं थी । जब उनसे कोई शास्त्र की बात करता तो वे पूछते – ‘के लिखले रे , कह।’ अर्थात यह किसने लिखा, यानी यह सब लिखने का अधिकार उसे किसने दिया ? और जो शास्त्रों में लिखा है , वही एकमात्र सत्य हो , इसका क्या प्रमाण है ?

' भवभूति जी की अंतिम पुस्तक ‘बची - खुची सम्पत्ति’ की भूमिका नलिन विलोचन शर्मा जी ने लिखी थी।

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Chalo Markar :YAAD AATAA HAI GUJARA JAMAANAA 62

याद आता है गुजरा जमाना 62

मदनमोहन तरुण

चलो मरकर देखें

मृत्यु जीवन का सबसे रहस्यमय पक्ष है।आखिर उसके बाद होता क्या है!हिन्दू दर्शन जीवन को अविरल यात्रा मानता है। यहाँ एक दरवाजे से जानेवाला इस जन्म के कर्मों - कुकर्मों का फल भोग कर वापिस चला आता है। परन्तु मौत के बाद की वह दुनिया है कैसी ? पुराणादि वहुत - सी बाते कहते हैं , परन्तु हर किसी का निजी अनुभव तो अलग होता है न !

एक बार मैं अपने भूगोल विभाग के मित्रों के साथ विशेष अध्ययन दल के भाग के रूप में तिलकसुत्ती के गहन जंगलों में गया था। हम एक निकटवर्ती गाँव में रुके थे। यह घनघोर जंगल का इलाका था। यहाँ बाघों का देखा जाना आम बात थी। यहाँ के लोगों के दैनिक जीवन में बाघों से भिडं॰त होती रहती थी।दोनों ने साथ - साथ जीना सीख लिया था। यहाँ के बच्चे अपने अनुभव की कहानियाँ सुनाते हुए बताते कि किस प्रकार उन्होंने कई बार अपनी बकरी को बाघ के मुँह से खींच कर बचा लिआ था। बकरी उनके लिए केवल बकरी नहीं थी , वह उनकी जीविका का अभिन्न हिस्सा थी।

रात में हम कई बार नदी किनारे गये। ऊपर गोल चमकता चन्द्रमा, नीचे कलकल निनाद के साथ बहती नदी और चारों ओर सघन वृक्षों का अद्भुत वितान ! मन भागता हुआ न जाने किन रहस्यमय लोकों की सैर कर आता।

एकदिन ऐसे ही पलों में हम मित्रों के बीच मृत्यु की चर्चा होने लगी।यह चर्चा इतनी गहन हो गई कि हमलोगों ने अंततः तय किया कि केवल चर्चा से काम नहीं चलेगा , आज मर कर देखें कि वह जगह है कैसी !

हम चार मित्र थे।हमने तय किया कि हम चार अलग - अलग दिशाओं में तबतक चलते चले जाएँगे जबतक मर न जाएँ।चारों ओर असूझ अंधकार और गहन सन्नाटा था। भला मृत्यु की खोज के लिए इससे अच्छा समय और क्या होसकता था ! हम एक - दूसरे से गले मिलकर और यह वादा कर कि उस लोक में मिलेंगे, चल पडे॰।

मैं चलता चला जारहा था। मुझे पता नहीं था कहाँ जा रहा हूँ। रात इतनी अँधेरी थी कि कुछ भी सूझ नहीं रहा था।चलते - चलते थककर कहीं गिर पडा॰। बेहोश होगया या गहरी नींद आगयी।कुछ पता नहीं। जब आँखे खुलीं तो देखा रोशनी है । सवेरा हो चुका था। मैं उठा। चलने लगा। किसी गाँव में पहुँच गया।पूछते - पूछते मैं कैंप पहुँच गया।देर - सबेर अन्य मित्र भी पहुँच गये। हमने किसी को इस बारे में बताया नहीं , लेकिन हमें लगा कि मौत तक पहुँचने के लिए मौत की इजाजत जरूरी है।

यह मेरी जिन्दगी के हनूठे अनुभवों में एक है।

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Yah Marne :Yaad AATAA HAI GUJARA JAMANA 61

याद आता है गुजरा जमाना 61

मदनमोहन तरुण

यह मरने के लिए शानदार जगह नहीं

अपने राँची के मित्रों में कुछ की याद बरबस ही आती है।आदमी का स्मृति पटल अद्भुत है।

वह व्यक्तियों ,छवियों का अंकन उसके व्यक्तित्व की एक - एक विशेषता के साथ करता है। उनका , चलना, बोलना,रुकना,सोने की प्रक्रिया सबकुछ इतनी जीवंतता के साथ होता है कि समय का अंतराल शायद ही उसमें कुछ अंतर ला पाता है। सच तो यह है कि समय के साथ उनकी विशेषताएँ , कमियाँ अधिक विश्वसनीयता के साथ खुलती चली जाती हैं।पहले देखी वृक्षों -वनस्पतियों की पत्तियों का हवा के हल्के झकोरों में मृदुल थरथराहट के साथ हिलना, उसका पूरा परिवेश , पक्षियों का पंख फैला कर उडा॰न भरना , अतीत का सारा देखा हुआ पल जैसे जीवन भर के लिए अपना बन जाता है।

राँची हिल की याद के साथ मेरे एक मित्र की याद जुडी॰ हुई है। सत्यदेव राजहंस उनदिनों राँची रेडियो के साहित्यिक कार्यक्रमों के प्रोग्राम एक्जीक्युटिव थे। मुझसे उनकी काफी घनिष्ठता हो गयी थी।उनदिनों राँची रेडियो स्टेशन के निदेशक थे पंजाबी और हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक कर्तार सिंह दुग्गल। राजहंस जी का जीवन उन्होंने दुष्कर बना दिया था। राजहंस अपना कार्यक्रम अपनी रुचि से चलाना चहते थे , परन्तु दुग्गल जी समय - समय पर उन्हें अपने सुझाव के अनुसार लोगों को बुलाने को कहते। राजहंस जी के मतानुसार उनमें से कई लेखक तो क्या, उन्हें कलम तक पक॰ने का सऊर नहीं था।

राजहंस बहुत भावुक तबीयत के आदमी थे।इन बातों से उका प्रेशर बढ॰ जाता था।वहाँ उनकी सुननेवाला और कोई भी नहीं था, इसलिए वे मुझसे मिलने मेरे होस्टल में आजाते थे। मैं बातें करके उन्हें शांत करने की कोशिश करता था।

एकबार वे ऐसी ही मनःस्थिति में मुझसे मिलने आए और कहा 'चलो, हिल पर चलते हैं।' हिल पर जाने के बाद वे उसकी चोटी पर चढ॰ गये और कहा - 'आज मैं आत्महत्या करने जारहा हूँ। तुम्हें साथ इसलिए लेकर आया हूँ कि मेरे मरने के बाद तुम दुनिया को मेरी कहानी सुना सको कि मैं मनुष्य की निर्दयता का किस प्रकार शिकार बनाया गया ।' सुनकर मैं घबरा गया। मेरे लिए यह एक नया अनुभव था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि ऐसे में क्या करूँ। मैंने खुद को सम्हाला और शांतभाव से कहा - 'मैं आपके आत्महत्या करने के इरादे से सहमत हूँ। परन्तु यह जगह आप जैसे साहित्यकार के मरने के लिए उपयुक्त नहीं है। हमें इसके लिए कोई और शानदार जगह चुननी चाहिए, ताकि जब कोई सुने तो उसे लगे कि 'बाह ! क्या शानदार मौत थी।'

मेरी बात उन्हें पसन्द आगई। उन्होंने कहा -'तुम बिल्कुल ठीक कहते हो। मूझे तुमसे ज्यादा कोई नहीं समझ पाया।,तनिक रुके फिर बोले - ' इस जगह के बारे में मुझे कम जानकारी है। मेरी आत्महत्या के लिए उपयुक्त जगह तुम्हें ही ढूँढ॰नी होगी।' मैने उन्हें आश्वस्त किया कि ऐसी शानदार जगह मैं जल्दी ही ढूँढ॰ लूँगा।

सुनकर वे खुश होगए और कहा चलो कहीं चाय पीते हैं।

राजहंस के जीवन में आत्महत्या के ऐसे दारुण पल कई बार आए ,परन्तु मैंने किसी -न - किसी बहाने उन्हें बचा लिया।

बाद में उनके सम्पादन में एक कविता संकलन का प्रकाशन हुआ जिससे उनका फ्रस्ट्रेशन कुछ कम हुआ।

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Saturday, September 17, 2011

Ramkhelavan pandey :YAAD AATAA HAI GUJARAA JAMAANAA 60

याद आता है गुजरा जमाना 60

मदनमोहन तरुण

डॉ रामखेलावन पाण्डे और हिन्दी विभाग

हमारे विभागाध्यक्ष हिन्दी के प्रसिध्द विद्वान डॉ रामखेलावन पाण्डे थे।उनकी जीवन – पध्दति बड़ी नफासताना थी।वे हमेशा बहुत कीमती शू और टाई में रहते थे। उनका जूता चमकता रहता था।वे हिन्दी साहित्य का इतिहास पढ़ाते थे , वह भी पान खाकर।वे अपना मुँह ऊँचा कर बड़ी कुशलता से पान की लजीज गिलोरी की रक्षा करते हुए अपना भाषण जारी रखते थे। ।नेहरू जी की नीतियॉ उन्हें रास नहीं आती थीं। पढ़ाते – पढ़ाते जैसे ही उन्हें मौका मिलता वे रामचन्द्र शुक्ल को छोड़ कर नेहरू जी से भिड़ जाते । उनकी कक्षा में समय की कोई सीमा नहीं होती थी। वे कभी - कभी तीन - तीन घंटे तक पढा॰ते रहते थे,परन्तु कक्षा के पश्चात यह समझना कठिन होता कि उन्होंने क्या पढा॰या। रामचन्द्र शुक्ल और पंडित नेहरू उनके भाषण में इतने गड्डमड्ड हो जाते कि कि उनमें एक - दूसरे को अलग करना कठिन हो जाता था।किन्तु उनके अध्यापन में रोचकता और विद्वत्ता का मिश्रण रहता था।

डाँ पाण्डे को विद्यार्थियों द्वारा प्रश्न पूछा जाना नापसन्द था। मैं इसका कुपरिणाम भोगते - भोगते बच गया। मेरे शिक्षकों ने मुझे इस बात के लिए सावधान किया था कि मैं उनसे प्रश्न न पूछूँ, परन्तु जिस विषय पर मेरा मतभेद हो उस विषय पर चुप रहना मुझे बौद्धिक ईमानदारी के खिलाफ लगता था।

इतिहास के पेपर में डाँ पाण्डे ने मुझे बहुत ही कम अंक दिए , जबकि इतिहास का मेरा पर्चा अच्छा गया था और इस विषय में मेरी गहरी दिलचस्पी थी। किन्तु , जब परीक्षाफल प्रकाशित हुआ तो मुझे सबके बावजूद फर्स्ट क्लास मिला। शायद इससे सबसे अधिक राहत डाँ॰ पाण्डे को ही मिली होगी।

डॉ पाण्डे ने बहुत कम लिखा।यदि वे इसके लिए अपना थोड़ा और समय दे पाते तो हिन्दी समालोचना की श्रीवृध्दि में उनका महत्वपूर्ण योगदान होता।

डाँ पाण्डे के अलावा बी हिन्दी - विभाग में कई शिक्षक थे जिनकी अपनी - अपनी विशेषता थी। प्रोफेसर चौधरी हमें संस्कृत साहित्य पढा॰ते थे। वे एक सहृदय अध्यापक थे। कालिदास का 'मेघदूत' पढा८ते - पढा॰ते वे भावुक हो जाते ।जयनारायण मंडल जी समालोचना पढा॰ते थे।

विभाग के अध्यापकों में नागेश्वर बाबू अपने प्रखर विश्लेषण के लिए चर्चित थे ।उनदिनों पत्र - पत्रिकाऔं में उनकी उल्लेखनीय टिप्पणियॉ छपी थीं। उनकी अध्यापन शैली चामत्कारिक और भाषा जडा॰ऊ थी।

रेडियो नाटक के विशेषज्ञ डॉ सिध्दनाथ कुमार अपनी एक कविता में ‘ बिजली का बल्ब रात में ही नहीं , दिन में भी जलता है’ की चर्चा कर कारपोरेशन वालों के सरदर्द में वृध्दि करते रहते थे।वे ख्यातिप्राप्त समीक्षक थे , परन्तु उनकी अध्यापन शैली प्रभावहीन थी ,ठीक उसी प्रकार जैसी उनकी नपी- तुली समीक्षाएँ ।

डाँ रणधीर सिन्हा भी बाद में हिन्दी विभाग में सम्मिलित हो गये थे। साहित्यिक गति - विधियों में उनकी रुचि ज्यादा थी। वे किसी भी दृष्टि से अच्छे शिक्षक नहीं थे। उनसे मेरा अच्छा सम्बन्ध था। वे एक भावुक और नेक इंसान थे ,परन्तु किसी गहरे फ्रशट्रेशन के शिकार थे।'कल्पना' में उनकी एक लम्बी और अच्छी कहानी छपी थी।वे नई कविता की एक पत्रिका का सम्पादन भी कर रहे थे।

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Friday, September 16, 2011

Dineshwar Babu :YAAD AATAA HAI GUJARAA JAMAANAA 59

याद आता है गुजरा जमाना 59

मदनमोहन तरुण

दिनेशवर बाबू

रॉची हिल की गली में ही हमारे गुरुदेव दिनेश्वर बाबू रहते थे।सज्जनता और पाण्डित्य के अद्भुत संयोजन थे -दिनेश्वर बाबू।हम क्लास में विषय की अद्यतन सामग्री से सज्जित होकर जाते और चेष्टा करते कि हम इस विषय पर हपनी नवीनतम जानकारी से उन्हें चकित कर देंगे, परन्तु ऐसा अवसर कभी नहीं आया। प्रश्न पूछते ही वे अविलम्ब उस स्रोत पुस्तक या पत्रिका की स्वयं ही चर्चा करने लगते जिससे हमने वह नवीनतम सामग्री ली होती।वे प्रचीन और अद्यतन दोनों साहित्य समान अधिकार से पढ़ाते थे। चुस्त भाषा और संतुलित अभिव्यक्ति उनकी विशेषता थी।वे हमारे विभाग के सर्व समादृत विद्वान थे।वे सुगंभीर , सरल तथा जीवन और व्यवहार में सर्वथा निश्छल थे। वे पुस्तकों साहित्यिक विषयों के अलावा किसी अन्य विषय पर बातें करना नापसन्द करते थे। उनका मुझ पर आसीम स्नेह था।अपनी समस्त सरलताओं के बावजूद इस विषय में वे 'No nonsense' टाइप के व्यक्ति थे।डाँ कामिल बुल्के ने अपने सुप्रसिद्ध हिन्दी - अँग्रेजी कोश के निर्माण में सहयोग के लिए उनकी प्रशंसा की है। उनका मुझपर अपार स्नेह था। दिनेश्वर बाबू से मेरा अभी तक बना हुआ है। अभी हाल ही में उन्होंने मेरी कविता पुस्तक 'मैं जगत की नवल गीता - दृष्टि' की राँची आकाशवाणी से समीक्षा की है।

दिनेश्वर बाबू अपने अधययन - मनन और अध्यापन में इतने रत रहे कि वे कोई स्वतंत्र पुस्तक नहीं लिख पाए।हिन्दी साहित्य अवश्य ही उनके अवदान से वंचित रह गया ,परन्तु वे एक महान शिक्षक रहे। उनके विद्यार्थी जहाँ भी हैं ,वे उन्हें सम्मानपूर्वक याद करते हैं।

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Thursday, September 15, 2011

Yah to Dharati Maa Hai : YAAD AATAA HAA GUJARAA JAMAANAA 58

याद आता है गुजरा जमाना 58

मदनमोहन तरुण

यह तो धरती माँ है !

मेरे मनोविज्ञान की कक्षा में कई आदिवासी छात्र - छात्राएँ थीं। जिन्दगी की अभिव्यक्ति के नये आयामों से निकटता प्राप्त करने की ललक ने मुझे स्वाभाविक तौर पर उनकी ओर आकर्षित किया।मैने गौर किया कि वे अच्छे - खासे कपडे॰ पहने हुए थे। उससे कहीं भी उनकी आर्थिक तंगी व्यक्त नहीं हो रही थी।परन्तु मैने देखा कि उनमें से किसी के पाँव में जूता या चप्पल नहीं है। उनसे सीधे - सीधे पूछने का साहस नहीं जुटा पाया। जब उनसे मेरी अच्छी मित्रता हो गयी तो मैने एक लड॰की से पूछा- 'यह बताओ तुम्हारे पैरों में चप्पल क्यों नहीं है ?' उसने तत्काल उत्तर दिया -' चप्पल कैसे पहने। धरती माँ है न ! उस पर चप्पल या जूता पहनकर कैसे चल सकते हैं?' जबाब सुनकर मैं स्तंभित रह गया। इस उत्तर की हमने कभी उम्मीद नहीं की थी।

मैं छुट्टी के दिनों में कई बार उनके सुदूर गाँवों के घरों में रुका और प्रयास किया कि जबतक रहूँ ,उन्हीं की वेशभूषा में उनके साथ रहूं। नृत्य ,गायन और हडि॰या ( घर में बनी शराब)उनकी जिन्दगी का अभिन्न अंग है। किसी त्योहार के अवसर पर वे सूखी लकडी॰ का एक विशाल कुंदा जला लेते और उसी की गर्मी और रोशनी में हडि॰या पीते हुए पूरी - पूरी रात नाचते - गाते रहते। वे रातें मेरी जिन्दगी की यादगारों की सबसे कीमती पूँजी है। जीवन का वह सहज - स्वाभाविक, उत्साह से भरा उच्छल प्रवाह आज भी मेरी ऊर्जा का एक अंग है।

लम्बे -लम्बे बाल बढा॰ए आदिवासी नौजवान ,कच्छा पहने , उघाडे॰ बदन बाँसुरी की तान छेड॰ते हुए अपनी प्रेयसी का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं। लड॰कियाँ फूल और पत्तियों से अपना साज - सिंगार करती हैं।

ईसाई मिसनरियों का यहाँ के सुदूरवर्ती गाँवों तक प्रवेश है। कुछ लोग यह शिकायत करते हैं कि ये मिसनरियां हिन्दुओं को ईसाई बना रही हैं। परन्तु , सच तो यह है कि यह इन आदिवासियों का सौभाग्य है कि वे बडी॰ संख्या में ईसाई धर्म में दीक्षित हुए।इसके कारण उन्हें अच्छा भविष्य मिला, बच्चों को स्कूल जाने और जिन्दगी को सजाने - सँवारने का मौका मिला। इससे भी अच्छी बात यह हुई कि उन्हें समाज में सम्मानित स्थान मिला। ऐसा हिन्दुत्व किस काम का जो धर्म और व्यवस्था के नाम पर समाज के एक बहुत बडे॰ भाग को अछूत और निकृष्ट बना कर रखता है। जिन्दगी केवल रामजी का भजन नहीं है। आदमी को सम्मान चाहिए, शिक्षा चाहिए, भोजन चाहिए। जो धर्म समाज के एक हिस्से को दूसरों की सुविधा के लिए छोटा बना कर रखता है , उसे ततक बडे॰ - बडे॰ दावे करने का कोई अधिकार नहीं है ,जबतक कि वह सबों को सम्मानपूर्ण स्थान नहीं देता।

ईसाई मिसनरियों ने चाहे जिन करणों से उनतक अपनी पहुँच बनाई हो , वह उनके जिन्दगी के लिए उत्थानकारी सिद्ध हुआ है।

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