Total Pageviews

Friday, September 30, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 72

याद आता है गुजरा जमाना 72

मदनमोहन तरुण

बेचैनीभरी पुकार

सबेरे जब मैं जगा तो काफी देर हो चुकी थी।श्रीमती जी न जाने कब स्नान -ध्यान से निवृत्त हो चुकी थीं। मेरे लिए स्वयं को पहचानना कठिन हो रहा था। मुझे स्पष्ट लग रहा था कि मेरे भीतर कुछ सर्वथा नवीन घटित हो चुका है। क्या ? मैं समझ नहीं पा रहा था। जब मैं कमरे से बाहर निकला तो भाभियों ने जिस तिर्यक दृष्टि से मुझे देखा , उसका सामना मैंने पहले कभी नहीं किया था। भाभी ने चुहल करते हुए पूछा- 'कैसी रही कल की रात? ' दूसरी भाभी ने एक और रहस्यमय सवाल जोड॰ दिआ - ' हार - जीत का फैसला हुआ या नहीं ? कौन जीता , कौन हारा?' मेरे लिए यह प्रश्न सचमुच अनबुझ था। यह जीत - हार क्या ? मैं किसी युद्ध पर तो गया नहीं था ? मुझे चुप देख कर भाभियों की किलकार और भी तेज हो गयी। तभी मेरी दादी ने उनलोगों को प्यार से झिड॰का - 'मेरे पोते को तंग मत करो तुम लोग।' कहकर दादी मेरे पास आयीं और बडे॰ प्यार से मेरे सिर पर अपना हाथ रखा। जब मैं बाहर गया तो मामा जी ने पूछा- 'कहो कैसी रही ?' इस प्रश्न पर मुझे चुप देखकर उन्होंने अपना प्रश्न बदल दिआ और पूछा - 'कहो , बहू पसन्द आई ?' मैने सकारात्मकभाव से सिर हिलाया।

मैं सब से बातें कर रहा था , सब तरफ घूम - फिर रहा था लेकिन मेरा मन नहीं लग रहा था। मेरे मन में एक ही प्रबल इच्छा थी -अपनी पत्नी को देखने की। मैं कोई - न - कोई बहाना बनाकर कई बार घर के भीतर जा चुका था , परन्तु पत्नी से मिल नहीं पाया। वे माँ के साथ - साथ थीं। मैं उन्हें बुलाकर मिलूँ, यह साहस जुटा नहीं पा रहा था। जिसे रात में लालटेन की पीली रोशनी में देखा था , उसे दिन के उजाले में देखने को मैं बेचैन हो रहा था। पत्नी को देखे बिना मुझसे रहा नहीं जा रहा था। जिस औरत से मैं केवल एकबार मिला था , उसके सामने मुझे पूरी दुनिया बेकार लग रही थी। मामा जी मेरी भावनाओं को समझ रहे थे। उन्होंने मुझसे कहा - 'मैं तुम्हारी बेचैनी समझ रहा हूँ। मैं भी इस दौर से गुजर चुका हूँ। ऐसा ही लगता है और अब से सदा ऐसा ही लगेगा। ईश्वर ने स्त्री - पुरुष का यह कैसा अद्भुत खेल रचाया है ? यह बहुत ही रहस्यमय है। अब तुम्हारी पत्नी केवल एक स्त्री नहीं है, वह अब तुम्हारी अर्धांगिनी है और अब तुम भी उसके बिना पूर्ण नहीं होसकते। तुम्हारी बेचैनी तुम्हारे आधे अंग से जुड॰ने की बेचैनी है।' मामा जी ने बडी॰ सरलता से वैवाहिक जीवन का एक बडा॰ सत्य मेरे सामने प्रकट कर दिया था।मुझे अपनी अनबुझ बेचैनी का करण मिल गया था। मैं शांत हो गया।फिर भी कितना विचित्र था यह सब ! दो सर्वथा अनजाने लोग एक ही रात में एक - दूसरे के लिए अपरिहार्य हो चुके थे। मैं सोच हा था - क्या सचमुच विवाह स्वर्ग में ही तय हो जाते हैं ? क्या हर जोडी॰ को ईश्वर अपने ही हाथों से बना कर इस संसार में भेज देता है और समय आने पर वे यहाँ अपनी जोडि॰याँ बना लेते हैं ?

पत्नी से मिलना अब रात में ही सम्भव था। दिन में नवविवाहित के मिलने का चलन उनदिनों नहीं था।

रात में जब मैं पत्नी से मिला तो मैंने उन्हें अपनी दिनभर की बेचैनी के बारे में बतलाया।थोडी॰देर चुप रहकर सलज्जभाव से उन्होंने भी मेरा समर्थन करते हुए कहा - 'मुझे भी ऐसा ही लग हा था।' निश्चित रूप से यह आकर्षण मात्र दैहिक ही नहीं हो सकता। यह बेचैनीभरी पुकार कहीं भीतर से आती है।

Copyright reserved by MadanMohan Tarun

No comments:

Post a Comment