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Friday, September 30, 2011

Yaad Aataa Hai Gujaraa Jamaanaa 71

याद आता है गुजरा जमाना 71

मदनमोहन तरुण

हमारी सुहागरात

घर पर हमलोगों के स्वागत की भव्य तैयारी थी।पूरा घर आमंत्रित सम्बन्धियों से भरा था।मेरी तीन फुफेरी भाभियों के आने से घर का कोना - कोना हँसी - मजाक की किलकारसे भर उठा था। माँ का उत्साह उसके चेहरे से ज्योति की तरह फूट रहा था। मेरी दादी गीत गारही थीं।दरवाजे पर आरती से हम पति - पत्नी का माँ ने स्वागत किया। उसके बाद हमदोनों को कुलदेवता के घर में ले जाया गया। कुलदेवता के स्थान पर हर किसी को जाने की अनुमति नहीं थी। जबतक घर में माँ नहीं आई थी, तबतक यह पूजा मेरी दादी करती थीं।उसके बाद माँ करने लगी। यह पूजा साल में एक बार की जाती थी ,अन्यथा ऐसे विशिष्ट अवसरों पर।

कुलदेवता की पूजा के बाद हमने दादी , दादाजी , माँ और बाबूजी के पाँव छूकर आशीर्वाद लिये। उसके बाद घर में हमारे जितने भी कुल - कुटुम्ब के लोग आए हुए थे उनके पाँव छुए।

हमें उस दिन सत्यनारायण पूजा के सम्पन्न होने तक उपवास करना था।इस बीच केवल फल खाने की अनुमति थी। भूख के नाम पर मैंने पूजा के पहले तक इतना फल खाया कि साधारण दिनों में मैं उतना भोजन भी नहीं कर पाता था।

इस बीच भाभियों ने मेरी पत्नी से परिचय कर लिया था। वे उनकी देखभाल में लगी थीं। घर और मुहल्ले के लोगों में नई बहू को देखने का कौतूहल था । इस बीच दादी , माँ और भाभियों ने उनका मुँह देख लिया था जिससे सब को राहत मिली थी। सभी को बहू बहुत पसन्द आई। सब ने मुझे बधाइयाँ दी। गोतिया लोगों के मुँह देखने का समय सत्यनारायण पूजा के बाद रखा गया। पता नहीं किसकी कैसी नजर हो !

पत्नी के ट्रेन में खो जाने की कहानी को मेरे मामा जी ने परिवार के सामने खूब नमक- मिर्च लगाकर परोसा। जिसने भी इस प्रसंग के बारे में सुना उसी ने खूब चुटकी ली। इस प्रसंग की चर्चा ने वातावरण को और भी जीवंत कर दिया। भाभियों ने मेरी पत्नी को चुहल भरे शब्दों में सावधान करते हुए कहा - 'देखो बहू ! अपने दूल्हे को सम्हाल कर रखना। कहीं बबुआजी किसी और को चाकलेट खिलाने न लग जाएँ!'

सम्मोहन और किलकार से भरे इस वातावरण में किसी को समय का पता नहीं चला सबकुछ स्वाभाविक गति से होता चला गया। इसी बीच सत्यनारायण पूजा भी सम्पन्न हो गयी।

उसके बाद कुछ देर तक मुँह-दिखाई की रस्म चलती रही।

उसके बाद भोजनादि की तैयारी चलती रही। परम्परा के अनुसार ऐसे अवसरों पर भोजन पुरुष ही बनाते थे। उस दिन गोतिया - भाइयों के साथ भात , दाल, तरकारी खाना जरूरी था । जमीनको खोद कर बडा॰ - सा चूल्हा बनादिया जाता था । भोजन नई मिट्टी के बर्तन में बनता था। वह कुम्हार का भी दिन होता था । कुम्हार उस दिन बर्तन खूब नेग-जोग लेकर देते थे। परिवार इस अवसर पर कोई कोताही नहीं करता था। एक - दूसरे के लिए पूरे गाँव की अपरिहार्यता का बोध ऐसे ही समय पर होता था।भोजन के लिए पूडी॰ - मिठाई हलवाई बनाते थे। घर की सबसे बुजुर्ग स्त्री भोजन बनना शुरू होने के पहले खूब नेग - जोग देकर चूल्हे की पूजा करती थी ,तब भोजन बनना शुरू होता था। जब ब्राह्मण भोजन करना शुरू कर देते थे तब दूसरी पंक्ति में गाँव के और अन्य गाँवों से आने वाले लोगों को भोजन कराया जाता था। इस अवसर पर एक हजार से अधिक लोगों ने भोजन किया था। भोजन का यह सिलसिला रात के बारह बजे के बाद तक चलता रहा। बाबूजी और बाबा के परिचितों और निकटस्थ लोगों की संख्या बहुत बडी॰ थी।भोजन पत्तल पर परोसा जाता था और मिट्टी के गिलास में पानी दिया जाता था।एक पंक्ति के भोजन करते ही सफाई कर दी जाती और दूसरी पंक्ति के बैठने की व्यवस्था हो जाती। परिवार के कई सदस्य घूम - घूम कर देखते रहते कि कहीं किसी को भोजन परोसने में कमी न रह जाए। लोगों को पूरे आग्रह के साथ भोजन कराया जाता था।भोजन का समापन दही और चीनी परोस कर किया जाता था। उसके बाद पान की व्यवस्था थी। समारोह की सफलता लोगों के सहयोग पर निर्भर थी । ऐसे अवसों पर कुछ दुष्टलोग भी आजाते थे जिनका उद्देश्य होता कि कहीं कुछ शरारत की जाए। ऐसे लोग भोजन से ज्यादा खाना ले लेते थे और पूडी॰ और मिठाई पत्तल के नीचे डालते चले जाते थे ताकि कमी हो जाए। भोजन कराने की कला में कुशल लोग इस चेष्टा पर भी ध्यान रखते थे।

बारात से लौट कर आनेवाले सभीलोग बहुत थके हुए थे इसलिए भोजन कराकर उनके सोने की व्यवस्था भी कर दी गयी थी।

इस दिन का नवदम्पति के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान था।यह उनके मिलन की पहली रात थी , जिसे सुहाग रात कहा जाता था।यह दो व्यक्तियों के तनमन से एक होने का दिन था।यह सारा समारोह हमारे गाँव के घर में हो रहा था।जहाँ लालटेन और ढिबरी से काम चलाया जाता था। आज के विशेष अवसर के लिए कई पेट्रोमैक्स भी मँगा लिए गये थे, जिनका उपयोग बाहर - भीतर लोगों के खिलाने के लिए हो रहा था। हम पति - पत्नी के सुहागरात की व्यवस्था उत्तर दिशा वाले घर में की गयी थी जहाँ मेरी माँ शादी के बाद आई थी । नवदम्पति के लिए यह कमरा एक पूरी परम्परा का प्रतीक था। कमरे में एक लालटेन जल रहा था।खाट की तोसक पर नई रंगीन चादर बिछाई गयी थी। दो तकिए रखे हुए थे। घर की दीवारों पर चौरेठा और हल्दी से कई चित्र बनाये गये थे। इसे कोहबर लिखना कहा जाता था। भाभियों ने हमदोनों को कमरे के भीतर पहुँचाकर दरवाजा बाहर से बन्द कर दिया। बहुत देर तक उकी खिलखिलाहट की आवाजें आती रहीं। किसी अकेली स्त्री के साथ किसी बन्द कमरे में अकेले होने का मेरा यह पहला अनुभव था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ। श्रीमती जी साडी॰ में सिमटी घूँघट डाले खाट के एक सिरे पर सिमटी - सिकुडी॰ बैठी थी।मैं भी एक सिरे पर देर तक चुपचाप बैठा रहा। अब मैंने साहसपूर्वक श्रीमती से पूछा - 'आपका नाम क्या है ?'

हालाँकि मैं उनका नाम जानता था ।परन्तु मेरे सामने चुनौती यह थी कि पूछूँ तो क्या पूछूँ। थोडी॰देर में सलज्ज स्वर में जबाब आया ' माधुरी।' किसी स्त्री की ऐसी आवाज मैंने इसके पहले कभी नहीं सुनी थी। इस आवाज ने मेरे भीतर झुरझुरी पैदा कर दी। मैं थोडा॰ आगे बढा॰ और घूँघट हटाया। लालटेन की पीली मद्धिम रोशनी में एक चेहरा खिल कर सामने आगया। गोलाई लिए एक गोरा चेहरा। लम्बी नाक। पतले आकर्षक होंठ। बडी॰ नशीली आँखें।उस चेहरे को मैं देखता रह गया।मन जैसे सम्मोहन के जादू में बँध गया।ऐसी पत्नी देने के लिए मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया। फिर मैंने फूछा - 'मैं आपको अच्छा लगा?' श्रीमती ने सिर हिलाते हुए कहा - 'जी।' और पूछा -"और मैं?' मेरे पास शब्द नहीं थे। मैं आभिभूत उस चेहरे को एकटक निहारता रहा। सहसा विश्वास नहीं हो रहा था कि जिन सुन्दरी स्त्रियों की परिकल्पना मैं अपनी कविताओं में करता था आज वही मेरे सामने है।इस अवसर पर पति , पत्नी को कुछ देता है। मेरे पास कुछ भी नहीं था। मैंने इसी अवसर के लिए एक रुमाल खरीदा था। वही मैंने चुपचाप श्रीमती के हाथों मैं दे दिया।आज पचास वर्षों के बाद भी वह रूमाल ठीक उसी प्रकार तह करके सुरक्षित रखा हुआ है।

बहुत - सी चीजें हम नहीं जानते और वे सहज भाव से सम्पन्न हो जाती हैं।

इस बीच न जाने कब क्या हुआ कि मैंने श्रीमती को अपनी बाहों मे लेलिया।मेरा पूरा शरीर जैसे सितार की तरह बज उठा। एक ऐसी झंकार मेरे रोम -रोम में फैल गयी जिसकी किसी वादक ने इसके पहले कल्पना भी नहीं की होगी। खुछ देर बाद जैसे हमदोनों के शरीर तरल इकायों में बदल गये।हम जैसे एक - दूसरे में घुल कर एकाकार होगये और आनन्द का एक ऐसा निर्झर झरने लगा कि हमें अपनी सत्ता का कोई बोध नहीं रहा।

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